Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 23 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः | प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ||८-२३||
Transliteration
yatra kāle tvanāvṛttimāvṛttiṃ caiva yoginaḥ . prayātā yānti taṃ kālaṃ vakṣyāmi bharatarṣabha ||8-23||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
8.23 Now I will tell thee, O chief of Bharatas, the times departing at which the Yogis will return or not return.
।।8.23।। हे भरतश्रेष्ठ ! जिस काल में (मार्ग में) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन अपुनरावृत्ति को, और (या) पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, वह काल (मार्ग) मैं तुम्हें बताऊँगा।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Just as a Yogi seeks to understand the 'times' and conditions for ultimate liberation, a professional should meticulously plan their career path. Understand which opportunities lead to 'return' (repetitive tasks, stagnation, temporary gains) versus 'non-return' (true growth, long-term fulfillment, achieving ultimate career purpose and impact). Strategic decision-making based on long-term vision is paramount.
🧘 For Stress & Anxiety
Understanding that certain 'times' or states of mind lead to different outcomes (return to stress cycles or liberation from them) can empower mental well-being. Focus on cultivating practices and mindsets that lead to 'non-return' from anxiety and negative thought patterns, such as mindfulness, detachment, and purposeful action. This perspective helps in finding serenity amidst life's inevitable cycles by aligning with a deeper, liberating purpose.
❤️ In Relationships
This verse encourages us to be discerning about the 'times' and nature of our interactions. Do our relationships lead to 'return' (repeated patterns of conflict, codependency, or unfulfilling dynamics) or do they support our 'non-return' (mutual growth, spiritual evolution, and genuine connection that transcends superficiality)? Seek to foster relationships that elevate you and others towards a higher purpose, rather than binding you to karmic cycles.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Ultimate liberation (non-return) or continued cycles (return) depend on understanding and aligning with specific spiritual principles. Seek this divine knowledge to consciously shape your destiny.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
8.23 यत्र where? काले in time? तु verily? अनावृत्तिम् nonreturn? आवृत्तिम् return? च and? एव even? योगिनः Yogis? प्रयाताः departing? यान्ति go to? तम् that? कालम् time? वक्ष्यामि (I) will tell? भरतर्षभ O chief of Bharatas.Commentary I shall declare to you? O Prince of the Bharatas? the time at which if the Yogis leave their body they will not be born again and also when if they die they will be born again.To return means to be born again.
Shri Purohit Swami
8.23 *Now I will tell thee, O Arjuna, of the times at which, if the mystics go forth, they do not return, and at which they go forth only to return.
Dr. S. Sankaranarayan
8.23. Departing at what times the Yogins attain the non-return or the return only-those times I shall declare to you, O chief of the Bharatas !
Swami Adidevananda
8.23 O best of the Bharata dynasty, I shall now speak of that time by departing at which the yogis attain the State of Non-return, and also (of the time by departing at which they attain) the State of Return. 8.23 Now I will tell thee, O chief of Bharatas, the times departing at which the Yogis will return or not return. 8.23 Bharatarsabha, O best of the Bharata dynasty; vaksyami, I shall speak; tu, now; tam, of that; kalam, time; prayatah, by departing, by dying; (-these words are to be which time; yoginah, the yogis; yanti, attain; anavrttim, the State of Non-return, of nonrirth; ca eva, and also; of the time by departing at which they attain its opposite, avrttim, the State of Return. By 'Yogis' are implied both the yogis (men of meditation) and the men of acitons (rites and duties). But the men of action are yogis by courtesy, in accordance with the description, 'through the Yoga of Action for the yogis' (3.3). The Lord speaks of that time: [This is Ast.'s reading.-Tr.]
Swami Gambirananda
8.23 O best of the Bharata dynasty, I shall now speak of that time by departing at which the yogis attain the State of Non-return, and also (of the time by departing at which they attain) the State of Return.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।8.23।। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है।ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है।यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ भरतश्रेष्ठ अर्जुन को वचन देते हैं कि वे उन दो आवृत्ति और अनावृत्ति मार्गों का वर्णन करेंगे।यहाँ काल शब्द का द्वयर्थक प्रयोग किया गया है। काल का अर्थ है प्रयाण काल और उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ है मार्ग जिससे साधकगण देहत्याग के उपरान्त अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।प्रथम अपुनरावृत्ति का मार्ग बताते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।8.23।। व्याख्या --[जीवित अवस्थामें ही बन्धनसे छूटनेको 'सद्योमुक्ति' कहते हैं अर्थात् जिनको यहाँ ही भगवत्प्राप्ति हो गयी, भगवान्में अनन्यभक्ति हो गयी, अनन्यप्रेम हो गया, वे यहाँ ही परम संसिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे जो साधक किसी सूक्ष्म वासनाके कारण ब्रह्मलोकमें जाकर क्रमशः ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं, उनकी मुक्तिको 'क्रममुक्ति' कहते हैं। जो केवल सुख भोगनेके लिये ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें जाते हैं, वे फिर लौटकर आते हैं। इसको 'पुनरावृत्ति' कहते हैं। सद्योमुक्तिका वर्णन तो पंद्रहवें श्लोकमें हो गया, पर क्रममुक्ति और पुनरावृत्तिका वर्णन करना बाकी रह गया। अतः इन दोनोंका वर्णन करनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।] 'यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं ৷৷. वक्ष्यामि भरतर्षभ'--पीछे छूटे हुए विषयका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ 'तु' अव्ययका प्रयोग किया गया है।ऊर्ध्वगतिवालोंको कालाभिमानी देवता जिस मार्गसे ले जाता है, उस मार्गका वाचक यहाँ 'काल' शब्द लेना चाहिये; क्योंकि आगे छब्बीसवें और सत्ताईसवें श्लोकमें इसी 'काल' शब्दको मार्गके पर्यायवाची 'गति' और 'सृति' शब्दोंसे कहा गया है। 'अनावृत्तिमावृत्तिम्' कहनेका तात्पर्य है कि अनावृत ज्ञानवाले पुरुष ही अनावृत्तिमें जाते हैं और आवृत ज्ञानवाले पुरुष ही आवृत्तिमें जाते हैं। जो सांसारिक पदार्थों और भोगोंसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो गये हैं, वे अनावृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ नहीं है, प्रत्युत जाग्रत् है। इसलिये वे अनावृत्तिके मार्गमें जाते हैं, जहाँसे फिर लौटना नहीं पड़ता। निष्कामभाव होनेसे उनके मार्गमें प्रकाश अर्थात् विवेककी मुख्यता रहती है।सांसारिक पदार्थों और भोगोंमें आसक्ति, कामना और ममता रखनेवाले जो पुरुष अपने स्वरूपसे तथा परमात्मासे विमुख हो गये हैं, वे आवृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ है। इसलिये वे आवृत्तिके मार्गमें जाते हैं, जहाँसे फिर लौटकर जन्म-मरणके चक्रमें आना पड़ता है। सकामभाव होनेसे उनके मार्गमें अन्धकार अर्थात् अविवेककी मुख्यता रहती है। जिनका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य है, पर भीतरमें आंशिक वासना रहनेसे जो अन्तकालमें विचलितमना होकर पुण्यकारी लोकों-(भोग-भूमियों-) को प्राप्त करके फिर वहाँसे लौटकर आ��े हैं, ऐसे योगभ्रष्टोंको भी आवृत्तिवालोंके मार्गके अन्तर्गत लेनेके लिये यहाँ 'चैव' पद आया है। यहाँ 'योगिनः' पद निष्काम और सकाम -- दोनों पुरुषोंके लिये आया है। सम्बन्ध --अब उन दोनोंमेंसे पहले शुक्लमार्गका अर्थात् लौटकर न आनेवालोंके मार्गका वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।8.23।। हे भरतश्रेष्ठ ! जिस काल में (मार्ग में) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन अपुनरावृत्ति को, और (या) पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, वह काल (मार्ग) मैं तुम्हें बताऊँगा।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।8.23।।यत्कालाद्यभिमानिदेवता गता आवृत्त्यनावृत्ती गच्छन्ति ता आह -- यत्रेत्यादिना। काल इत्युपलक्षणं अग्न्यादेरपि वक्ष्यमाणत्वात्।
Sri Anandgiri
।।8.23।।ननु ज्ञानायत्ता परमपुरुषप्राप्तिरुक्ता। न च ज्ञानं मार्गमपेक्ष्य फलाय कल्पते विदुषो गत्युत्क्रान्तिनिषेधश्रुतेस्तथाच मार्गोक्तिरयुक्तेत्याशङ्क्य सगुणशरणानां तदुपदेशोऽर्थवानित्यभिप्रेत्याह -- प्रकृतानामिति। वक्तव्य इति यत्र काल इत्याद्युच्यत इति संबन्धः। स चेद्वक्तव्यस्तर्हि किमित्यध्यात्मादिभावेन सविशेषं ब्रह्म ध्यायतां फलाप्तये मूर्धन्यनाडीसंबद्धे देवयाने पथ्युपास्यत्वाय वक्तव्ये कालो निर्दिश्यते तत्राह -- विवक्षितेति। सोऽर्थो मार्गस्तदुक्तिशेषत्वेन कालोक्तिरित्यर्थः। पितृयाणमार्गोपन्यासस्तर्हि किमिति क्रियते तत्राह -- आवृत्तीमिति। मार्गान्तरस्यावृत्तिफलत्वादस्य चानावृत्तिफलत्वात्तदपेक्षया महीयानयमिति स्तुतिर्विवक्षितेति भावः। योगिन इति ध्यायिनां कर्मिणां च तन्त्रेणाभिधानमित्याह -- योगिन इति। कथं कर्मिषु योगिशब्दो वर्ततामित्याशङ्क्यानुष्ठानगुणयोगादित्याह -- कर्मिणस्त्विति। गुणतो योगिन इति संबन्धः। तत्रैव वाक्योपक्रमस्यानुकूल्यमाह -- कर्मयोगेने(णे)ति। अवशिष्टान्यक्षराणि व्याचक्षाणो वाक्यार्थमाह -- यत्रेति। योगिनो ध्यायिनोऽत्र विवक्षिताः आवृत्तावधिकृता योगिनः कर्मिण इति विभागः। कालप्राधान्येन मार्गद्वयोपन्यासमुपक्रम्य तमेव प्रधानीकृत्य देवयानं पन्थानमवतारयति -- तं कालमिति।
Sri Vallabhacharya
।।8.23।।अथ कदा केन मार्गेण गता नावर्त्तन्ते केन वा गताश्चावर्त्तन्ते इत्यपेक्षायामाह -- यत्रेति। अत्र कालशब्दोऽपि चाहःप्रभृतिसंवत्सरान्तकालाभिमानिदेवताभिरातिवाहिकीभिर्द्वारा मार्गोपलक्षणार्थः। तथा चायमर्थः -- कालाभिमानिदेवोपलक्षिते यत्र काले मार्गे च प्रयाताः प्राणतो वियोगिनो वा सन्तो भगवन्महिमज्ञानिनः भक्ता अर्थार्थिनश्च यथाक्रममनावृत्तिमावृत्तिं च यान्ति तं वक्ष्यामि। यद्यप्यग्निज्योतिषोः कालाभिमानित्वं स्वतो न सम्भवति तथापि सायम्प्रातः कालाभिमानित्वेन तथोक्तिः सम्भवति। अतएव मंत्रे -- अग्निश्च मामन्युश्च,[म.ना.31।3] इति रात्रौ सूर्यश्च मामन्युश्च इति दिवा निरूप्यते।
Sridhara Swami
।।8.23।।तदेवं परमेश्वरोपासकाः तत्पदं प्राप्य न निवर्तन्ते अन्ये त्वावर्तन्त इत्युक्तम्। तत्र केन मार्गेण गता नावर्तन्ते केन वा गताश्चावर्तन्त इत्यपेक्षायामाह -- यत्रेति। यत्र यस्मिन्काले प्रयाता योगिनोऽनावृत्तिं यान्ति यस्मिंश्च काले प्रयाता आवृत्तिं यान्ति तं कालं वक्ष्यामीत्यन्वयः। अत्र च रश्म्यनुसारी अतश्चायनेऽपि दक्षिण इति सूचितन्यायेनोत्तरायणादिकालविशेषस्मरणस्य विवक्षितत्वात्कालशब्देन कालाभिमानिनीभिरातिवाहिकीभिर्देवताभिः प्राप्यो मार्ग उपलक्ष्यते अतोऽयमर्थः -- यस्मिन्कालाभिमानिदेवतोपलक्षिते मार्गे प्रयाता योगिन उपासकाः कर्मिणश्च यथाक्रममनावृत्तिमावृत्तिं च यान्ति तं कालाभिमानिदेवतोपलक्षितं मार्गं कथयिष्यामीति। अग्निज्योतिषोः कालाभिमानित्वाभावेऽपि भूयसामहरादिशब्दोक्तानां कालाभिमानित्वात्तत्साहचर्यादाम्रवनमित्यादिवत्कालशब्देनोपलक्षणमविरुद्धम्।