Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 21 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् | यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||८-२१||
Transliteration
avyakto.akṣara ityuktastamāhuḥ paramāṃ gatim . yaṃ prāpya na nivartante taddhāma paramaṃ mama ||8-21||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
8.21 What is called the Unmanifested and the Imperishable, That they say is the highest goal. They who reach It do not return (to this Samsara). That is My highest abode (place or state).
।।8.21।। जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति (लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, this verse encourages seeking a purpose beyond transient successes and material gains. Strive to align your work with an 'imperishable' value or contribution, fostering mastery and inner fulfillment that transcends job titles or immediate rewards. Cultivate a mindset that views your career as a path to personal growth and lasting impact, connecting it to a larger, more meaningful vision rather than just a means to an end.
🧘 For Stress & Anxiety
For managing stress and enhancing mental health, this verse offers a powerful anchor. By recognizing an 'imperishable' inner core (the Self) that remains untouched by external circumstances, you can cultivate profound resilience. Shift your focus from temporary stressors and anxieties to this ultimate, unchanging truth within, fostering a sense of deep peace and liberation from the constant cycles of worry and desire for fleeting outcomes. Practice mindfulness to connect with this 'unmanifested' inner stillness.
❤️ In Relationships
In relationships, the verse inspires us to seek profound and 'imperishable' connections, moving beyond superficial interactions. Recognize the intrinsic worth and 'unmanifested' divine spark within others, fostering unconditional love and empathy. Strive to build relationships that contribute to mutual spiritual growth and a lasting sense of belonging, understanding that true connection transcends temporary emotional states or external circumstances, leading to a state where one 'does not return' to cycles of relational conflict or dissatisfaction.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Beyond all transient experiences, align with the unmanifested, imperishable Self – your highest goal – to attain ultimate liberation and eternal peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
8.21 अव्यक्तः unmanifested? अक्षरः imperishable? इति thus? उक्तः called? तम् That? आहुः (they) say? परमाम् the highest? गतिम् goal (path)? यम् which? प्राप्य having reached? न not? निवर्तन्ते return? तत् that? धाम abode (place or state)? परमम् highest? मम My.Commentary Para Brahman is called the Unmanifested because It cannot be perceived by the senses. It is called the Imperishable also. It is allpervading? allpermeating and interpenetrating. Para Brahman is the highest Goal. There is nothing higher than It. This is the true nondual state free from all sorts of limiting adjuncts. The attainment of Brahmaloka (the region of the Creator) etc.? is inferior to this. Only by realising the Self is one liberated from Samsara. (Cf.XII.3?XV.6)
Shri Purohit Swami
8.21 The wise say that the Unmanifest and Indestructible is the highest goal of all; when once That is reached, there is no return. That is My Blessed Home.
Dr. S. Sankaranarayan
8.21. [The scriptures] speak of This as Unmanifest and Changeless and declare This is to be the highest Goal. Having attained which people do not return, this is My highest abode.
Swami Adidevananda
8.21 He who has been mentioned as the Unmanifested, the Immutable, they call Him the supreme Goal. That is the supreme abode of Mine, reaching which they do not return. 8.21 What is called the Unmanifested and the Imperishable, That they say is the highest goal. They who reach It do not return (to this Samsara). That is My highest abode (place or state). 8.21 He Himself who has been uktah, meantioned; as avyaktah, Unmanifest; the aksarah, Immutable; ahuh, they call; tam, Him-that very unmanifest Reality which is termed as the Immutable; the paramam, supreme; gatim, Goal. Tat, That; is the paramam, supreme; dhama, abode, i.e. the supreme State; mama, of Mine, of Visnu; yam prapya, reaching which Reality; na nivartante, they do not return to the worldly state. The means for gaining That is being stated:
Swami Gambirananda
8.21 He who has been mentioned as the Unmanifested, the Immutable, they call Him the supreme Goal. That is the supreme abode of Mine, reaching which they do not return.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।8.21।। पूर्व श्लोक में जिसे सनातन अव्यय भाव कहा गया है जो अविनाशी रहता हैं उसे ही यहाँ अक्षर शब्द से इंगित किया गया है। अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया था कि अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ँ़ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिस पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है।संसार में जो कोई भी स्थिति या लक्ष्य हम प्राप्त करते हैं उससे बारम्बार लौटना पड़ता है। संसार शब्द का अर्थ ही है वह जो निरन्तर बदलता रहता है। निद्रा कोई जीवन का अन्त नहीं वरन् दो कर्मप्रधान जाग्रत अवस्थाओं के मध्य का विश्राम काल है उसी प्रकार मृत्यु भी जीवन की समाप्ति नहीं है। प्रायः वह जीव के दो विभिन्न शरीर धारण करने के मध्य का अव्यक्त अवस्था में विश्राम का क्षण होता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि ब्रह्मलोक तक के सभी लोक पुनरावर्ती हैं जहाँ से जीवों को पुनः अपनी वासनाओं के क्षय के लिए शरीर धारण करने पड़ते हैं। पुनर्जन्म दुःखालय कहा गया है इसलिए परम आनन्द का लक्ष्य वही होगा जहाँ से संसार का पुनरावर्तन नहीं होता।प्रायः वेदान्त के जिज्ञासु विद्यार्थी प्रश्न पूछते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् पुनरावर्तन क्यों नहीं होगा यद्यपि ऐसा प्रश्न पूछना स्वाभाविक ही है तथापि वह क्षण भर के परीक्षण के समक्ष टिक नहीं सकता। सामान्यतः कारण की खोज उसी के सम्बन्ध में की जाती है जो वस्तु उत्पन्न होती है या जो घटना घटित होती हैं और न कि उसके सम्बन्ध में जो अनुत्पन्न या अघटित है कोई मुझे उत्सुकता से यह नहीं पूछता कि मैं अस्पताल में क्यों नहीं हूँ जबकि अस्पताल में जाने पर उसका कारण जानना उचित हो सकता है। हम यह पूछ सकते हैं कि अनन्त ब्रह्म परिच्छिन्न कैसे बन गया परन्तु इस प्रश्न का कोई औचित्य ही सिद्ध नहीं होता कि अनन्त वस्तु पुनः परिच्छिन्न क्यों नहीं बनेगी यह प्रश्न अत्युक्तिक इसलिए है कि यदि वस्तु अनन्तस्वरूप है तो वह न कभी परिच्छिन्न बनी थी और न कभी भविष्य में बन सकती है।एक छोटीसी बालिका को हम वैवाहिक जीवन के शारीरिक और भावुक पक्ष के सुखों का वर्णन करके नहीं बता सकते हैं और न समझा सकते हैं। उसमें उस विषय को समझने की शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती। बचपन में वह केवल यह चाहती है कि उसकी माँ उसका विवाह करे परन्तु वही बालिका युवावस्था में पदार्पण करने पर उस विषय को समझने योग्य बन जाती है। इसी कारण अन्तःकरण की अशुद्धि रूप गोबर के ढेर के अशुद्ध वातावरण में पड़ा हुआ व्यक्ति खुले आकाश में मन्दमन्द प्रवाहित समीर की सुगन्ध को कभी नहीं जान सकता। जब वह व्यक्ति उपदिष्ट ध्यानविधि के अभ्यास से उपाधियों के साथ हुए मिथ्या तादात्म्य को दूर कर देता है तब वह अपने शुद्ध अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। स्वप्न से जागने पर ही स्वप्न के मिथ्यात्व का बोध होता है अन्यथा नहीं और एक बार जाग्रत् अवस्था में आने के पश्चात् स्वप्न के सुख और दुःख के प्रभाव से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो जाता है।यहाँ शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को महर्षि व्यास जी ने काव्यात्मक शैली द्वारा श्रीकृष्ण के निवास स्थान के रूप में वर्णित किया है तद्धाम परमं मम। अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट किया गया है कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आत्मस्वरूप की दृष्टि से करते हैं। अतः यहाँ भी धाम शब्द से किसी स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं वरन् उनके स्वरूप से ही है। यह आत्मानुभूति ही साधक का लक्ष्य है जो उसके लिए सदैव उपलब्ध भी है। ध्यान द्वारा परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति के प्रकरण में इसका विस्तृत वर्णन किया जा चुका है।अब उस परम धाम की उपलब्धि का साक्षात् उपाय बताते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।8.21।। व्याख्या--'अव्यक्तोऽक्षर ৷৷. तद्धाम परमं मम'--भगवान्ने सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें, उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें जिसको 'माम्', कहा है तथा आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'अक्षरं ब्रह्म', चौथे श्लोकमें 'अधियज्ञः', पाँचवें और सातवें श्लोकमें 'माम्', आठवें श्लोकमें 'परमं पुरुषं दिव्यम्', नवें श्लोकमें 'कविं पुराणमनुशासितारम्' आदि, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें श्लो���में 'माम्', बीसवें श्लोकमें,'अव्यक्तः' और 'सनातनः' कहा है, उन सबकी एकता करते हुए भगवान् कहते हैं कि उसीको अव्यक्त और अक्षर कहते हैं तथा उसीको परमगति अर्थात् सर्वश्रेष्ठ गति कहते हैं; और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते, वह मेरा परमधाम है अर्थात् मेरा सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। इस प्रकार जिस प्रापणीय वस्तुको अनेक रूपोंमें कहा गया है, उसकी यहाँ एकता की गयी है। ऐसे ही चौदहवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भी 'ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं हूँ' ऐसा कहकर भगवान्ने प्रापणीय वस्तुकी एकता की है।लोगोंकी ऐसी धारणा रहती है कि सगुण-उपासनाका फल दूसरा है और निर्गुण-उपासनाका फल दूसरा है।,इस धारणाको दूर करनेके लिये इस श्लोकमें सबकी एकताका वर्णन किया गया है। मनुष्योंकी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाके भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, पर उनके अन्तिम फलमें कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजनके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर तृप्तिकी एकता होनेपर भी भोजनके पदार्थोंमें भिन्नता रहती है, ऐसे ही परमात्माके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर पूर्णताकी एकता होनेपर भी उपासनाओंमें भिन्नता रहती है। तात्पर्य यह हुआ कि उस परमात्माको चाहे सगुण-निराकार मानकर उपासना करें, चाहे निर्गुण-निराकार मानकर उपासना करें और चाहे सगुण-साकार मानकर उपासना करें, अन्तमें सबको एक ही परमात्माकी प्राप्ति होती है। ब्रह्मलोक आदि जितने भी लोक हैं, वे सभी पुनरावर्ती हैं अर्थात् वहाँ गये हुए प्राणियोंको फिर लौटकर जन्म-मरणके चक्करमें आना पड़ता है; क्योंकि वे सभी लोक प्रकृतिके राज्यमें हैं और विनाशी हैं। परन्तु भगवद्धाम प्रकृतिसे परे और अविनाशी है। वहाँ गये हुए प्राणियोंको गुणोंके परवश होकर लौटना नहीं पड़ता, जन्म लेना नहीं पड़ता। हाँ, भगवान् जैसे स्वेच्छासे अवतार लेते हैं, ऐसे ही वे भगवान्की इच्छासे लोगोंके उद्धारके लिये कारक पुरुषोंके रूपमें इस भूमण्डलपर आ सकते हैं।
Swami Tejomayananda
।।8.21।। जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति (लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।8.20 -- 8.21।।अव्यक्तो भगवान्यं प्राप्य न निवर्तन्ते इतिमामुपेत्य [8।15] इत्यस्य परामर्शात्।अव्यक्तं परमं विष्णुं इति प्रयोगाच्च गारुडे। धाम स्वरूपं तेजस्स्वरूपंतेजस्स्वरूपं च गृहं प्राज्ञैर्धामेति गीयते इत्यभिधानात्।
Sri Anandgiri
।।8.21।।यथोक्तेऽव्यक्ते भावे श्रुतिसंमतिमाह -- अव्यक्त इति। तस्य परमगतित्वं साधयति -- यं प्राप्येति। योऽसावव्यक्तो भावोऽत्र दर्शितः सयेनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम् इत्यादिश्रुतावक्षर इत्युक्तस्तं वाक्षरं भावं परमां गतिंपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्याद्याः श्रुतयो वदन्तीत्याह -- योऽसाविति। परमपुरुषस्य परमगतित्वमुक्तं व्यनक्ति -- यं भावमिति।तद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतिमत्र संवादयति -- तद्धामेति।
Sri Vallabhacharya
।।8.21।।तथापि सोऽव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तः। न चाव्यक्तशब्देन जीवः प्रकृतिर्वाऽभिधेयायं प्राप्य न निवर्त्तन्ते इत्युक्तत्वात् जीवादौ तथात्वासम्भवात् तथा सति नित्यमुक्तत्वापत्त्या शास्त्रसाधनादिवैफल्यापत्तेश्च। अतएव ज्ञानमार्गीयाणां तत्प्राप्तिरेव मुक्तिरिति तदाह -- तमाहुः परमां गतिमिति। मम पुरुषोत्तमस्याधिष्ठानभूतं च तदित्याह -- परमं मम धामेति वैकुण्ठभुवनं तेजश्च प्रकाशात्मकम्सत्यं ज्ञानमनन्तं यद्ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्। ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्धृताः। ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं इत्यादिवाक्यात् ततो भूतप्रकृतिवियुक्तात्मा गुणातिगो द्युभ्वाद्यायतनोऽनन्तरूपोऽगणितानन्दः सर्वधर्माश्रयः पुरुषप्रकृतिको ब्रह्मपदवाच्योऽक्षरोऽध्यात्मरूपं पुरुषोत्तमस्य धामतदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्। विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः। इति वाक्यात्। सोऽयं ससाधनज्ञानलभ्यः अहं तु न तथाऽहैतुकभक्तिलभ्यत्वादित्याह।
Sridhara Swami
।।8.21।।अविनाशे प्रमाणं दर्शयन्नाह -- अव्यक्त इति। यो भावः अव्यक्तोऽतीन्द्रियोऽक्षरः प्रवेशनाशशून्य इतितथाऽक्षरात्संभवतीह विश्वम् इत्यादिश्रुतिष्वक्षर इत्युक्तः तं परमां गतिं गम्यं पुरुषार्थमाहुःपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्यादिश्रुतयः। परमगतित्वमेवाह -- यं प्राप्य न निवर्तन्त इति। तच्च ममैव धाम स्वरूपम्। ममैवेत्युपचारे षष्ठी राहोः शिर इतिवत्। अतोऽहमेव परमा गतिरित्यर्थः।