Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 10 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Spiritual Discipline & Yoga

Sanskrit Shloka (Original)

प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव | भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८-१०||

Transliteration

prayāṇakāle manasā.acalena bhaktyā yukto yogabalena caiva . bhruvormadhye prāṇamāveśya samyak sa taṃ paraṃ puruṣamupaiti divyam ||8-10||

Word-by-Word Meaning

प्रयाणकालेat the time of death
मनसाwith mind
अचलेनunshaken
भक्त्याwith devotion
युक्तःjoined
योगबलेनby the power of Yoga
and
एवonly
भ्रुवोःof the two eyrows
मध्येin the middle
प्राणम्Prana (breath)
आवेश्यhaving placed
सम्यक्thoroughly
सःhe
तम्that
परम्Supreme
पुरुषम्Purusha
उपैतिreaches

📖 Translation

English

8.10 At the time of death, with unshaken mind, endowed with devotio, by the power of Yoga, fixing the whole life-breath in the middle of the two eyrows, he reaches that resplendent Supreme Person.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।8.10।। वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate an unwavering focus on your professional goals and tasks. Through consistent, dedicated practice ('yoga-balena'), strive for mastery in your field. Maintain mental composure and a steady mind ('manasa'chalena') even amidst high-pressure situations or setbacks, ensuring sustained effort and peak performance.

🧘 For Stress & Anxiety

Practice mindfulness, meditation, and breath control ('pranamaveshya') to develop an 'unshaken mind' ('achalena'). This disciplined approach helps in managing stress, reducing mental agitation, and cultivating inner peace and resilience, allowing you to approach challenges with clarity and calm.

❤️ In Relationships

Approach relationships with a 'steady mind' and 'devotion' ('bhaktya yukto'), offering focused attention and presence to others. Practice patience and understanding, not letting external disturbances or internal fluctuations derail your interactions. Be dedicated to nurturing the relationship, much like a Yogi is dedicated to their ultimate goal.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivating an unwavering mind through disciplined practice and devotion allows one to navigate life's greatest transitions with purpose and attain the ultimate goal.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

8.10 प्रयाणकाले at the time of death? मनसा with mind? अचलेन unshaken? भक्त्या with devotion? युक्तः joined? योगबलेन by the power of Yoga? च and? एव only? भ्रुवोः of the two eyrows? मध्ये in the middle? प्राणम् Prana (breath)? आवेश्य having placed? सम्यक् thoroughly? सः he? तम् that? परम् Supreme? पुरुषम् Purusha? उपैति reaches? दिव्यम् resplendent.Commentary The Yogi gets immense inner strength and power of concentration. His mind becomes ite steady through constant practice of concentration and meditation. He practises concentration first on the lower Chakras? viz.? Muladhara? Svadhishthana and Manipura. He then concentrates on the lotus of the heart (Anahata Chakra). Then he takes the lifreath (Prana) through the Sushumna and fixes it in the middle of the two eyrows. He eventually attains the resplendent Supreme Purusha (Person) by the above Yogic practice.This is possible for one who has devoted his whole life to the practice of Yoga.

Shri Purohit Swami

8.10 He who leaves the body with mind unmoved and filled with devotion, by the power of his meditation gathering between his eyebrows his whole vital energy, attains the Supreme.

Dr. S. Sankaranarayan

8.10. That person endowed with a steady mind, with devotion and also with the Yoga-power, reaches at the time of journey that Supreme Divine Soul, by fixing properly the life-breath in between his eye brows.

Swami Adidevananda

8.10 At the time of death, having fully fixed the Prana (vita force) between the enrows with an unswering mind, and being imbued with devotion as also the strength of concentration, he reaches that resplendent supreme person. 8.10 At the time of death, with unshaken mind, endowed with devotio, by the power of Yoga, fixing the whole life-breath in the middle of the two eyrows, he reaches that resplendent Supreme Person. 8.10 Prayana-kale, at the time of death; after first brining the mind under control in the lotus of the heart, and then lifting up the vital force-through the nerve going upward-by gradually gaining control over (the rudiments of nature such as) earth etc. [Space, air, fire, water and earth.] and after that, samyak, avesya, having fully fixed; pranam, the Prana (vital force); madhye, between; the bhruvoh, eye-brows, without losing attention; acalena manasa, with an unwavering mind; he, the yogi possessed of such wisdom, yuktah, imbued; bhaktya, with devotion, deep love; ca eva, as also; yoga-balena, [Yoga means spiritual absorption, the fixing of the mind on Reality alone, to the exclusion of any other object.] with the strength of concentration-i.e; imbued with that (strength) also, consisting in steadfastness of the mind arising from accumulation of impressions resulting from spiritual absorption; upaiti, reaches; tam, that; div yam, resplendent; param, supreme; purusam, Person, described as 'the Omniscient, the Ancient,' etc. The Lord again speaks of Brahman which is sought to be attained by the process going to be stated, and which is described through such characteristics as, 'What is declared by the knowers of the Vedas,'etc.:

Swami Gambirananda

8.10 At the time of death, having fully fixed the Prana (vita force) between the enrows with an unswering mind, and being imbued with devotion as also the strength of concentration, he reaches that resplendent supreme person.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।8.10।। इस श्लोक का केवल वाच्यार्थ लेकर प्रायः इसे विपरीत रूप से समझा जाता हैं जो कि वास्तव में इसका तात्पर्य नहीं है।गीता में प्रस्तुत प्रकरण का विषय है एकाग्र चित्त से परम पुरुष का ध्यान। अतः प्रयाणकाल से अभिप्राय अहंकार की मृत्यु के क्षण से समझना चाहिए। ध्यान साधना के द्वारा जब सजग रहकर शरीर मन और बुद्धि से हुए तादात्म्य को पूर्णतया निवृत्त किया जाता है तब साधक आन्तरिक शान्ति के स्थिर क्षण का अनुभव करता है। उस समय निश्चल मन से इस श्लोक में उपदिष्ट साधना का उसे पालन करना चाहिए।यहाँ भक्ति शब्द से सामान्य संसारी जनों की व्यापारिक पद्धति की भक्ति नहीं समझनी चाहिए। ईश्वर के लिए वह परम प्रेम जिसमें न किसी प्रकार की कामना है और न अपेक्षा जो प्रेम केवल प्रेम के लिए ही है भक्ति कहलाता है। प्रेम का अर्थ है अपने प्रियतम से वह तादात्म्य जिसमें प्रियतम के सुख और दुःख अपने स्वयं के ही सुखदुःख अनुभव होते हैं। संक्षेप में प्रेमी और प्रेमिका भक्त और ईश्वर परस्पर एकरूप हो जाते हैं। इसलिए श्री शंकराचार्य भक्ति का लक्षण बताते हैं स्वस्वरूपानुसन्धान भक्ति कहलाती है अर्थात् जीव का अपने सत्यस्वरूप के साथ एकत्व भक्ति है।प्रस्तुत श्लोक के सन्दर्भ में साधक को दी गई सबसे महत्व की सूचना यह है कि उसका ध्यानाभ्यास आत्मा के साथ एकरूप होने की तत्परता से युक्त हो। आत्मा का स्वरूप पूर्व श्लोक में विस्तार से बताया जा चुका है। आन्तरिक शान्ति के समय जब अहंकार की मृत्यु होती है तब साधक को आत्मस्वरूप में स्थित होकर रहना चाहिए।योगबलेन इस शब्द से किसी गुप्त रहस्यमयी कुण्डलिनी शक्ति के विषय में हम नहीं कह रहे हैं जिसके विषय में गुप्तता रखी जाती है और ईश्वर के भक्तों को भी सामान्यतः उसका रहस्य प्रकट नहीं किया जाता। योगबल से तात्पर्य साधक के उस बल से है जो उसे दीर्घकाल तक नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करने के फलस्वरूप प्राप्त होता है। यह वह आन्तरिक शक्ति है जो मन के विषयों से तथा तज्जनित विक्षेपों से निवृत्त होने पर और बुद्धि के परम सत्य में स्थिर होने से प्राप्त होती है और निरन्तर समृद्ध होती जाती है।अल्पकाल में ही साधक अपने में ही मानसिक सन्तुलन रूपी सम्पत्ति और एक अवर्णनीय कार्यकुशलता को पाता है जिनकी सहायता से पूर्ण तत्परता के साथ ध्यान में वह एक चित्त हो जाता है। ध्यानाभ्यास में रत योगी के सम्पूर्ण प्राण उसके ध्यानबिन्दु में केन्द्रित हो जाते हैं जैसे यहाँ कहा गया है कि भ्रकुटी के मध्य में। यह भाग स्थिर विचार का स्थान माना जाता है।वेदान्त में प्राण से तात्पर्य केवल वायु से न होकर शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न रूप से व्यक्त हो रही जीवनशक्ति से है। इस जीवनशक्ति (प्राण) का पाँच कार्यों के अनुसार पाँच विभागों में वर्गीकरण किया गया है जैसे प्राण विषय ग्रहण की क्रिया अपान मल विसर्जन व्यान सम्पूर्ण शरीर में रक्त आदि प्रवाहित करना समान पाचन क्रिया और उदान जिसके कारण हममें वह क्षमता होती है कि वर्तमान से परे भी ज्ञान को हम समझ सकें। इनके द्वारा हमारी बहुत सी शक्ति बिखर जाती है जो ध्यानाभ्यास के समय एक स्थान पर कुछ समय के लिए केन्द्रित हो जाती है। ध्यानमार्ग पर चलने वाले साधक के लिए तीव्र गति से की जाने वाली किसी शारीरिक साधना की आवश्यकता नहीं होती।ऐसे गहन ध्यान के क्षण में जिस साधक का मन पूर्णतया शान्त और निश्चल हो जाता है योगबल से प्राण भ्रकुटी के मध्य स्थित हो जाते हैं और जो परम श्रद्धा एवं उत्साह के साथ ध्येय आत्मतत्त्व के साथ एक रूप हो जाता है वह साधक उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।ओंकार पर किये जाने वाले ध्यान की प्रस्तावना के रूप में अगला श्लोक है --

Swami Ramsukhdas

।।8.10।। व्याख्या --प्रयाणकाले मनसाचलेन ৷৷. स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्--यहाँ भक्ति नाम प्रियताका है; क्योंकि उस तत्त्वमें प्रियता (आकर्षण) होनेसे ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात् प्रियता स्वयंसे होती है, मन-बुद्धि आदिसे नहीं। अन्तकालमें कवि, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणोंसे (पीछेके श्लोकमें) कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मामें भक्तियुक्त मनुष्यका मन स्थिर हो जाना अर्थात् सगुण-निराकार-स्वरूपमें आदरपूर्वक दृढ़ हो जाना ही मनका अचल होना है।पहले प्राणायामके द्वारा प्राणोंको रोकनेका जो अधिकार प्राप्त किया है, उसका नाम 'योगबल' है। उस योगबलके द्वारा दोनों भ्रुवोंके मध्यभागमें स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ीमें प्राणोंका,अच्छी तरहसे प्रवेश करके वह (शऱीर छोड़कर दसवें द्वारसे होकर) दिव्य परम पुरुषको प्राप्त हो जाता है।'तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्' पदोंका तात्पर्य है कि जिस परमात्मतत्त्वका पीछेके (नवें) श्लोकमें वर्णन हुआ है, उसी दिव्य परम सगुण-निराकार परमात्माको वह प्राप्त हो जाता है।आठवें श्लोकमें जो बात कही गयी थी, उसीको नवें और दसवें श्लोकमें विस्तारसे कहकर इन तीन श्लोकोंके प्रकरणका उपसंहार किया गया है।इस प्रकरणमें सगुण-निराकार परमात्माकी उपासनाका वर्णन है। इस उपासनामें अभ्यासकी आवश्यकता है। प्राणायामपूर्वक मनको उस परमात्मामें लगानेका नाम अभ्यास है। यह अभ्यास अणिमा, महिमा आदि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये नहीं है, प्रत्युत केवल परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेके लिये है। ऐसा अभ्यास करते हुए प्राणों और मनपर ऐसा अधिकार प्राप्त कर ले कि जब चाहे प्राणोंको रोक ले और मनको जब चाहे तभी तथा जहाँ चाहे वहीं लगा ले। जो ऐसा अधिकार प्राप्त कर लेता है, वही अन्तकालमें प्राणोंको सुषुम्णा नाड़ीमें प्रविष्ट कर सकता है। कारण कि जब अभ्यासकालमें भी मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेमें साधकको कठिनताका, असमर्थताका अनुभव होता है तब अन्तकाल-जैसे कठिन समयमें मनको लगाना साधारण आदमीका काम नहीं है। जिसके पास पहलेसे योगबल है, वही अन्तसमयमें मनको परमात्मामें लगा सकता है और प्राणोंका सुषुम्णा नाड़ीमें प्रवेश करा सकता है।साधक पहले यह निश्चय कर ले कि अज्ञानसे अत्यन्त परे, सबसे अतीत जो परमात्मतत्त्व है, वह सबका प्रकाशक, सबका आधार और सबको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला निर्विकार तत्त्व है। उस तत्त्वमें ही प्रियता होनी चाहिये, मनका आकर्षण होना चाहिये, फिर उसमें स्वाभाविक मन लगेगा।  सम्बन्ध--अब भगवान् आगेके श्लोकमें निर्गुणनिराकारकी प्राप्तिके उपायका उपक्रम करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।8.10।। वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।8.10।।वायुजयादियोगयुक्तानां मृतिकाले कर्तव्यमाह विशेषतः -- प्रयाणकाल इति। वायुजयादिरहितानामपि ज्ञानभक्तिवैराग्यादिसम्पूर्णानां भवत्येव मुक्तिः। तद्वतां त्वीषज्ज्ञानाद्यसम्पूर्णनामपि निपुणानां तद्बलात्कथञ्चिद्भवतीति विशेषः। उक्तं च भागवते [3।5।4546।]पानेन ते देव कथासुधायाः प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये। वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं यथाऽञ्जसा त्वापुरकुण्ठधिष्ण्यम्। तथाऽपरे त्वात्मसमाधियोगबलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम्। त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते इति।ये तु तद्भाविता लोका (केह्ये) एकान्तित्वं समाश्रिताः। एतदभ्यधिकं तेषां तत्तेजः प्रविशन्त्युत [मा.भा.12।334।44] इति च मोक्षधर्मे।सम्पूर्णानां भवेन्मोक्षो विरक्तिज्ञानभक्तिभिः। नियमेन तथापीरजयादियुतयोगिनाम्। वश्यत्वान्मनसस्त्वीषत्पूर्वमप्याप्यते ध्रुवम् इति च व्यासयोगे।

Sri Anandgiri

।।8.10।।इतश्च भगवदनुस्मरणं सफलत्वादनुष्ठेयमित्याह -- किञ्चेति। कदा तदनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थ्यते तत्राह -- प्रयाणकाल इति। कथं तदनुस्मरणमित्युपकरणकलापप्रेक्ष्यमाणं प्रत्याह -- मनसेति। योऽनुस्मरेत्स किमुपैति तत्राह -- स तमिति। मरणकाले क्लेशबाहुल्येऽपि प्राचीनाभ्यासप्रसादासादितबुद्धिवैभवो भगवन्तमनुस्मरन्यथास्मृतमेव देहाभिमानविगमानन्तरमुप���गच्छतीत्यर्थः। भगवदनुस्मरणस्य साधनं मनसैवानुद्रष्टव्यमिति श्रुत्युपदिष्टमाचष्टे -- मनसेति। तस्य चञ्चलत्वान्न स्थैर्यमीश्वरे सिध्यति तत्कथं तेन तदनुस्मरणमित्याशङ्क्याह -- अचलेनेति। ईश्वरानुस्मरणे प्रयत्नेन प्रवर्तितं विषयविमुखं तस्मिन्नेवानुस्मरणयोग्यपौनःपुन्येन प्रवृत्त्या निश्चलीकृतं ततश्चलनविकलं तेनेति व्याचष्टे -- अचलेनेति। संप्रत्यनुस्मरणाधिकारिणं विशिनष्टि -- भक्त्येति। परमेश्वरे परेण प्रेम्णा सहितो विषयान्तरविमुखोऽनुस्मर्तव्य इत्यर्थः। योगबलमेव स्फोरयति -- समाधिजेति। योगः समाधिश्चित्तस्य विषयान्तरवृत्तिनिरोधेन परस्मिन्नेव स्थापनं तस्य बलं संस्कारप्रचयो ध्येयैकाग्र्यकरणं तेन तत्रैव स्थैर्यमित्यर्थः। चकारसूचितमन्वयमन्वाचष्टे -- तेन चेति। यत्तु कया नाड्योत्क्रामन्यातीति। तत्राह -- पूर्वमिति। चित्तं हि स्वभावतो विषयेषु व्यापृतं तेभ्यो विमुखीकृत्य हृदये पुण्डरीकाकारे परमात्मस्थाने यत्नतः स्थापनीयम्।अथ यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे इत्यादिश्रुतेस्तत्र चित्तं वशीकृत्यादावनन्तरं कर्तव्यमुपदिशति -- तत इति। इडापिङ्गले दक्षिणोत्तरे नाड्यौ हृदयान्निःसृते निरुध्य तस्मादेव हृदयाग्रादूर्ध्वगमनशीलया सुषुम्नया नाड्या हार्दं प्राणमानीय कण्ठावलम्बितस्तनसदृशं मांसखण्डं प्रापय्य तेनाध्वना भ्रुवोर्मध्ये तमावेश्याप्रमादवान्ब्रह्मरन्ध्राद्विनिष्क्रम्य कविं पुराणमित्यादिविशेषणं परमपुरुषमुपगच्छतीत्यर्थः। भूमिजयक्रमेणेत्यत्र भूम्यादीनां पञ्चानां भूतानां जयो वशीकरणं तस्य तस्य भूतस्य स्वाधीनचेष्टावैशिष्ट्यं तद्द्वारेणेत्येतदुच्यते। स तमित्यादि व्याचष्टे -- स एवमिति।

Sri Vallabhacharya

।।8.10।।ध्यानप्रकारं कालं चाह -- प्रयाणकाल इति। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येति। स तं परं पुरुषमुपैति तत्समाकारः सामीप्यरूपमाप्नोति।

Sridhara Swami

।।8.10।।सप्रपञ्चप्रकृतिं भित्त्वा यस्तिष्ठति एवंभूतं पुरुषमन्तकाले भक्तियुक्तो निश्चलेन विक्षेपरहितेन मनसा योऽनुस्मरेत्। मनोनैश्चल्ये हेतुः योगबलेन सम्यक्सुषुम्नामार्गेण भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येति। स तं परं पुरुषं परात्मस्वरूपं दिव्यं द्योतनात्मकं प्राप्नोति।

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