Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 24 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः | परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ||७-२४||

Transliteration

avyaktaṃ vyaktimāpannaṃ manyante māmabuddhayaḥ . paraṃ bhāvamajānanto mamāvyayamanuttamam ||7-24||

Word-by-Word Meaning

अव्यक्तम्the unmanifested
व्यक्तिम्to manifestation
आपन्नम्come to
मन्यन्तेthink
माम्Me
अबुद्धयःthe foolish
परम्the highest
भावम्nature
अजानन्तःnot knowing
ममMy
अव्ययम्immutable

📖 Translation

English

7.24 The foolish think of Me, the Unmanifest, as having manifestation, knowing not My higher, immutable and most excellent nature.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।7.24।। बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम (सर्वोत्तम) अव्यय परम भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त को व्यक्त मानते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In professional life, avoid judging success, failure, or value solely based on immediate, manifest outcomes or superficial metrics. True, enduring impact often stems from deeper, unmanifest principles like ethical foundation, strategic vision, and consistent effort. Cultivate the ability to see beyond the transient 'manifestations' of projects or roles to understand their higher purpose and intrinsic worth.

🧘 For Stress & Anxiety

For mental well-being, recognize that many stressors are temporary 'manifestations' of situations that are not representative of a deeper, immutable reality. Instead of being overwhelmed by fleeting external appearances, cultivate an inner perspective that acknowledges an unchanging core within yourself and the universe, fostering resilience and detachment from transient troubles.

❤️ In Relationships

In relationships, refrain from forming judgments based purely on outward behaviors, temporary moods, or societal roles. People often 'manifest' actions that do not fully capture their deeper, immutable character, intentions, or struggles. Seek to understand the underlying nature and true self of others to build deeper empathy, connection, and avoid superficial misunderstandings.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Do not mistake the temporary and manifest for the ultimate truth; true wisdom lies in discerning the immutable, unmanifest essence behind all forms.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

7.24 अव्यक्तम् the unmanifested? व्यक्तिम् to manifestation? आपन्नम् come to? मन्यन्ते think? माम् Me? अबुद्धयः the foolish? परम् the highest? भावम् nature? अजानन्तः not knowing? मम My? अव्ययम् immutable? अनुत्तमम् most excellent.Commentary The ignorant take Lord Krishna as a common mortal. They think that He has taken a body like ordinary human beings from the unmanifested state on account of the force of Karma of the previous birth. They have no knowledge of His higher? imperishable and selfluminous nature as the Highest Self. They think that He has just now come into manifestation? though He is selfexistent? eternal? beginningless? endless? birthless? deathless? changeless? infinite and unmanifest.

Shri Purohit Swami

7.24 The ignorant think of Me, who am the Unmanifested Spirit, as if I were really in human form. They do not understand that My Superior Nature is changeless and most excellent.

Dr. S. Sankaranarayan

7.24. The men of poor intellect, are not conscious of the higher, changeless and supreme nature of Mine; and hence, they regard Me, the Unmanifest, to be a manifest one.

Swami Adidevananda

7.24 Not knowing My higher nature, immutable and unsurpassed, the ignorant think of Me as an unmanifest entity who has now become manifest.

Swami Gambirananda

7.24 The unintelligent, unaware of My supreme state which is immutable and unsurpassable, think of Me as the unmanifest that has become manifest.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।7.24।। समस्त नामरूपों की वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि में प्रकाशित हो रहे परम सत्य को ग्रहण करने की विवेकसार्मथ्य जिनमें नहीं है वे लोग अव्यय अविनाशी आत्मतत्त्व का सााक्षात् नहीं कर पाते। अनित्य दृश्यमान जगत् में अत्यन्त आसक्ति के कारण वे यह नहीं जान पाते कि यह सम्पूर्ण नामरूपमय जगत् सूत्र में मणियों के समान परमात्मा में पिरोया हुआ है।जिस चैतन्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित हो रहा है उस परम सत्य को ही यहाँ अव्यक्त शब्द से इंगित किया गया है। इस शब्द का लक्ष्यार्थ समझना आवश्यक है। जो वस्तु इन्द्रियगोचर है या मन और बुद्धि के द्वारा जानी जा सकती है जैसे भावना या विचार वह व्यक्त कहलाती है। अत इन तीनों उपाधियों के द्वारा जिसे जाना नहीं जा सकता वह वस्तु अव्यक्त है।आत्मतत्त्व ही अव्यक्त हो सकता है क्योंकि वही एकमात्र चेतन तत्त्व है जिसके कारण इन्द्रियां मन और बुद्धि स्वविषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा इन सबका द्रष्टा है और इसलिए कभी दृश्यरूप में नहीं जाना जा सकता। वह अव्यक्त है।बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग केवल स्थूल भौतिक रूप को ही देख पाते हैं। अविवेक के कारण वे गुरु अथवा अवतार के शरीर को और सार्मथ्य को देखकर उतने मात्र को ही सनातन सत्य समझ लेते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चित्त की एकाग्रता के लिए अथवा उपासना के लिए किसी उपास्य की प्रतीक या प्रतिमा के रूप में आवश्यकता होती है किन्तु वह प्रतिमा स्वयं परमार्थ सत्य नहीं हो सकती। यदि वही सत्य वस्तु होती तो पाषाण से मूर्ति बनाने के पश्चात् या गुरु के पास पहुँचने मात्र से साधक को सत्य की प्राप्ति हो जाने से उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती मूर्ति पूजा का प्रयोजन चित्त की शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त करना है जिसके द्वारा ध्यान का अभ्यास करके आत्मा का साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।यह श्लोक स्पष्ट रूप से हमें बताता है कि बोतल को औषधि सममझना शरीर को ही गुरु और मूर्ति को ही भगवान् समझ लेना व्यर्थ है सभी श्वेत काष्ठ चन्दन नहीं और आकाश में प्रत्येक चमकीली वस्तु तारा नहीं होती। हो सकता है कि किसी ऊँचे स्तम्भ से आ रहे प्रकाश को देखकर अतिमूढ़ पुरुष उसे सूर्य समझ ले परन्तु कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उसकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेगा। अवतार का सिद्धांत हिन्दू धर्म में स्वीकार किया जाता है। किसीनकिसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति ही अवतार कहा जा सकता है। एक ही सत्य सर्वत्र सबमें व्याप्त है। मन और बुद्धि की उपाधियों में वह व्यक्त होता है। जितना ही अधिक शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा उतना ही अधिक चैतन्य का प्रकाश उसमें व्यक्त होगा।जिस पुरुष का अन्तकरण अत्यन्त शुद्ध एवं स्थिर होता है और जिसने अपरा प्रकृति पर पूर्ण विजय पा ली होती है वह ऋषि मुनि या पैगम्बर कहलाता है। ये पुरुष आत्मस्वरूप को पहचानकर कि वही भूतमात्र की आत्मा है उसमें स्थित होकर दिव्य जीवन जीते हैं। उनके शरीर मन और बुद्धि को ही परम सत्य समझना ऐसी ही त्रुटि है जैसे कि तरंगों को ही समुद्र समझ लेना है यही कारण है कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे अविवेकी लोगों के लिए अबुद्धय जैसे कठोर शब्द का प्रयोग करते हैं।यह अज्ञान किस निमित्त से है इस पर कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।7.24।। व्याख्या--अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं ৷৷. ममाव्ययमनुत्तमम्--जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरेमें श्रद्धा-भक्ति नहीं है, वे अल्पमेधाके कारण अर्थात् समझकी कमीके कारण मेरेको साधारण मनुष्यकी तरह अव्यक्तसे व्यक्त होनेवाला अर्थात् जन्मने-मरनेवाला मानते हैं। मेरा जो अविनाशी अव्ययभाव है अर्थात् जिससे बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता और जो देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत, सदा एकरूप रहनेवाला, निर्मल और असम्बद्ध है--ऐसे मेरे अविनाशी भावको वे नहीं जानते और मेरा अवतार लेनेका जो तत्त्व है, उसको नहीं जानते। इसलिये वे मेरेको साधरण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नहीं करते, प्रत्युत देवताओंकी उपासना करते हैं।'अबुद्धयः' पदका यह अर्थ नहीं है कि उनमें बुद्धिका अभाव है प्रत्युत बुद्धिमें विवेक रहते हुए भी अर्थात् संसारको उत्पत्ति-विनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं--यही उनमें बुद्धिरहितपना है, मूढ़ता है।दूसरा भाव यह है कि कामनाको कोई रख नहीं सकता, कामना रह नहीं सकती; क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामनापूर्तिके बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तवमें कामनाकी सत्ता ही नहीं है, फिर भी उसका त्याग नहीं कर सकते --यही अबुद्धिपना है।मेरे स्वरूपको न जाननेसे वे अन्य देवताओंकी उपासनामें लग गये और उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामनामें लग जानेसे वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरेसे विमुख हो गये। यद्यपि वे मेरेसे अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता, तथापि कामनाके कारण ज्ञान ढक जानेसे वे देवताओंकी तरफ खिंच जाते हैं। अगर वे मेरेको जान जाते, तो फिर केवल मेरा ही भजन करते।(1) बुद्धिमान् मनुष्य वे होते हैं, जो भगवान्के शरण होते हैं। वे भगवान्को ही सर्वोपरि मानते हैं। (2) अल्पमेधावाले मनुष्य वे होते हैं, जो देवताओंके शरण होते हैं। वे देवताओंको अपनेसे बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता, सरलता रहती है। (3) अबुद्धिवाले मनुष्य वे होते हैं, जो भगवान्को देवता-जैसा भी नहीं मानते; किन्तु साधारण मनुष्य-जैसा ही मानते हैं। वे अपनेको ही सर्वोपरि, सबसे बड़ा मानते हैं ,(गीता 16। 14 15)। यही तीनोंमें अन्तर है।'परं भावमजानन्तः' का तात्पर्य है कि मैं अज रहता हुआ, अविनाशी होता हुआ और लोकोंका ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे प्रकट होता हूँ--इस मेरे परमभावको बुद्धिहीन मनुष्य नहीं जानते।'अनुत्तमम्'कहनेका तात्पर्य है कि पन्द्रहवें अध्यायमें जिसको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम बताया है अर्थात् जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नहीं, ऐसे मेरे अनुत्तम भावको वे नहीं जानते। विशेष बात इस (चौबीसवें) श्लोकका अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि '(ये) अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः' अर्थात् जो सदा निराकार रहनेवाले मेरेको केवल साकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरूपको नहीं जानते। दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि '(ये) व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः'अर्थात् मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हुआ हूँ--ऐसे मेरेको केवल निराकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भावको नहीं जानते।उपर्युक्त दोनों अर्थोंमेंसे कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ माननेपर केवल निराकारको माननेवाले साकाररूपकी और साकाररूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे और केवल साकार माननेवाले निराकाररूपकी और निराकार-रूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे। यह सब एकदेशीयपना ही है। पृथ्वी, जल, तेज आदि जो महाभूत हैं, जो कि विनाशी और विकारी हैं, वे भी दो-दो तरहके होते हैं--स्थूल और सूक्ष्म। जैसे, स्थूलरूपसे पृथ्वी साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है ;जल बर्फ, बूँदें, बादल और भापरूपसे साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है; तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाईमें रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होनेसे साकार है, इत्यादि। इस तरहसे भौतिक सृष्टिके भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तवमें वह दो नहीं होती। साकार होनेपर निराकारमें कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होनेपर साकारमें कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्माके साकार और निराकार दोनों होनेमें क्या बाधा है? अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं, और निराकार भी हैं सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं।गीता साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण--दोनोंको मानती है। नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको 'अव्यक्तमूर्ति' कहा है। चौथे अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ, अविनाशी होता हुआ भी अन्तर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होनेमें और साकार होते हुए निराकार होनेमें भगवान्में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आता। ऐसे भगवान्के स्वरूपको न जाननेके कारण लोग उनके विषयमें तरह-तरहकी कल्पनाएँ किया करते हैं।  सम्बन्ध--भगवान्को साधारण मनुष्य माननेमें क्या कारण है? इसपर आगेका श्लोक कहते हैं

Swami Tejomayananda

।।7.24।। बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम (सर्वोत्तम) अव्यय परम भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त को व्यक्त मानते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।7.24।।को विशेषस्तवान्येभ्यः इत्यत आह अव्यक्तमिति। कार्यदेहादिवर्जितम्। तद्वानिव प्रतीयस इत्यत आह व्यक्तिमापन्नमिति। कार्यदेहाद्यापन्नम्। तच्चोक्तम् सदसतः परम् न तस्य कार्यम् अपाणिपादः श्वे.उ.3।19आनन्ददेहं पुरुषं मन्यन्ते गौणदैहिकम् इत्यादौ। भावं याथार्थ्यम्। तथाऽब्रवीत् याथातथ्यमजानन्तः परं तस्य विमोहिताः इत्यादि।

Sri Anandgiri

।।7.24।।भगवद्भजनस्योत्तमफलत्वेऽपि प्राणिनां प्रायेण तन्निष्ठत्वाभावे प्रश्नपूर्वकं निमित्तं निवेदयति किंनिमित्तमित्यादिना। अप्रकाशं शरीरग्रहणात्पूर्वमिति शेषः। इदानीं लीलाविग्रहपरिग्रहावस्थायामित्यर्थः। प्रकाशस्य तर्हि कादाचित्कत्वं भगवति प्राप्तं नेत्याह नित्येति। कथं तर्हि भगवन्तमागन्तुकप्रकाशं मन्यन्ते तत्राबुद्धय इत्युत्तरम्। तद्विवृणोति परमिति। परमनुत्तममिति विशेषणद्वयं सोपाधिकनिरुपाधिकभावार्थम्।

Sri Vallabhacharya

।।7.24।।मद्भजने देवान्तरभजने च तैषां मत्स्वरूपमाहात्म्याज्ञानमेव हेतुरित्याह अव्यक्तमिति। यतोऽक्षरमैश्वर्यं अप्रकटं वा व्यक्तिरहितं वा मानुषलोके स्वेच्छया स्वगताशेषालौकिकसौन्दर्यं दुर्विभाव्यं व्यक्तिमापन्नं निराकारं मन्यन्ते वा मानयन्ति प्राकृतं व्यक्तिमापन्नं वा मन्यन्तेऽबुद्धयोऽतः तथा मानने हेतुः मम सदानन्दमात्रस्याचिन्त्यैश्वर्यस्य परं भावमंशांशिभावेनावस्थितिभावमानन्दमात्रत्वलक्षणं वाऽजानन्त इति।

Sridhara Swami

।।7.24।। ननु च समाने प्रयासे महति च फलविशेषे सति सर्वेऽपि किमिति देवान्तरं हित्वा त्वामेव न भजन्ति तत्राह अव्यक्तमिति। अव्यक्तं प्रपञ्चातीतं मां व्यक्तिं मनुष्यमत्स्यकूर्मादिभावं प्राप्तमल्पबुद्धयो मन्यन्ते। तत्र हेतुः। मम परं भावं स्वरूपमजानन्तः। कथंभूतम्। अव्ययं नित्यम्। न विद्यत उत्तमो यस्मात्तं भावं। अतो जगद्रक्षार्थं लीलयाविष्कृतनानाविशुद्धोर्जितसत्त्वमूर्तिं मां परमेश्वरं स्वकर्मनिर्मितभौतिकदेहं देवतान्तरसमं पश्यन्तो मन्दमतयो मां नातीवाद्रियन्ते प्रत्युत क्षिप्रफलं देवतान्तरमेव भजन्ति ते चोक्तप्रकारेणान्तवत्फलं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।

Explore More