Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 18 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् | आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ||७-१८||
Transliteration
udārāḥ sarva evaite jñānī tvātmaiva me matam . āsthitaḥ sa hi yuktātmā māmevānuttamāṃ gatim ||7-18||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
7.18 Noble indeed are all these; but I deem the wise man as My very Self; for, steadfast in mind he is established in Me alone as the supreme goal.
।।7.18।। (यद्यपि) ये सब उत्कृष्ट हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें अच्छी प्रकार स्थित है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your work, align your efforts with a higher purpose beyond immediate gains or recognition. Cultivate a steadfast commitment to your long-term vision, core values, or the greater good of your organization/clients, rather than being swayed by transient successes, failures, or distractions. See your role as an expression of a deeper identity or collective mission.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress, cultivate inner peace by identifying with your deeper, unchanging Self rather than being consumed by fleeting thoughts, emotions, or external circumstances. Develop a 'yuktatma' – a steadfast mind – that isn't easily perturbed, by remembering your ultimate purpose, core values, or an overarching spiritual truth that grounds you.
❤️ In Relationships
Approach your relationships with a profound sense of connection, seeing the inherent worth and 'Self' in every individual. Foster steadfast love, commitment, and understanding, striving for a higher, unconditional bond that transcends ego-driven desires or superficial interactions. Recognize the divine essence in others to build more meaningful connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True wisdom and ultimate fulfillment come from single-mindedly realizing your inherent oneness with the Divine, making it your supreme and unwavering goal.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
7.18 उदाराः noble? सर्वे all? एव surely? एते these? ज्ञानी the wise? तु but? आत्मा Self? एव very? मे My? मतम् opinion? आस्थितः is established? सः he? हि verily? युक्तात्मा steadfastminded? माम् Me? एव verily? अनुत्तमाम्,the supreme? गतिम् goal.Commentary Are not the other three kinds of devotees dear to the Lord They are. They are all noble souls. But the wise man is exceedingly dear because he has a steady mind he has fixed his mind on Brahman. He does not want any worldly object? but only the Supreme Being. He seeks Brahman alone as the supreme goal. He practises Ahamgraha Upasana (meditation on the Self as the all). He tries to realise that he is identical with the Supreme Self. Therefore I regard a wise man as My very Self. (Cf.II.49)
Shri Purohit Swami
7.18 Noble-minded are they all, but the wise man I hold as my own Self; for he, remaining always at peace with Me, makes me his final goal.
Dr. S. Sankaranarayan
7.18. All these are noble persons, indeed. But the man of wisdom is considered as the very Soul of [Mine]. For, with his self (mind) that has mastered the Yoga, he has resorted to nothing but Me as his most supreme goal.
Swami Adidevananda
7.18 All these are indeed generous (udarah), but I deem the man of knowledge to be My very self; for he, integrated, is devoted to Me alone as the highest end.
Swami Gambirananda
7.18 All of these, indeed, are noble, but the man of Knowledge is the very Self. (This is) My opinion. For, with a steadfast mind, he is set on the path leading to Me alone who am the super-excellent Goal.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।7.18।। विशाल हृदय के भक्तानुग्रहकारक भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो कोई भी भक्त मेरी भक्ति करता है वह अन्य जनों की अपेक्षा उत्कृष्ट ही है फिर चाहे वह अपने कष्ट निवारणार्थ मेरा भक्त हो अथवा वह अर्थार्थी हो। किसानकिसी प्रकार से वह मुझ अनन्तस्वरूप की ओर ही अग्रसर हो रहा होता है। अत वह उत्कृष्ट है। तथापि इन चतुर्विध भक्तों में ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है।हम सब जानते हैं कि किसी मन्त्री का मित्र होना और स्वयं ही मन्त्री बनना इन दोनों में बहुत अन्तर है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन्त्री की मित्रता प्राप्त होने मात्र से भी मनुष्य को समाज में एक विशेष प्रभावपूर्ण स्थान प्राप्त होता है परन्तु मन्त्री पद की समस्त गरिमा एवं अधिकार तो स्वयं मन्त्री बनने पर ही प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार किसी फल विशेष के लिए ईश्वर की आराधना करना उसका आह्वान करना निश्चय ही एक दैवी गुण है किन्तु ज्ञानी पुरुष निष्काम होकर मन और बुद्धि के अतीत अपने परमात्मस्वरूप को पहचान कर परिच्छिन्न अहंकार को ही समाप्त कर देता है और परमात्मा के साथ वह एकत्वभाव को प्राप्त हो जाता है।तत्पश्चात् ऐसा ज्ञानी पुरुष सदा आत्मस्वरूप में ही स्थित होता है। इसलिए अन्य भक्तों की तुलना में ज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ है यह श्रीकृष्ण का मत है।
Swami Ramsukhdas
।।7.18।। व्याख्या--उदाराः सर्व एवैते ये सब-के-सब भक्त उदार हैं, श्रेष्ठ भाववाले हैं। भगवान्ने यहाँ जो 'उदाराः'शब्दका प्रयोग किया है, उसमें कई विचित्र भाव हैं; जैसे-- (1) चौथे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि 'भक्त जिस प्रकार मेरे शरण होते हैं, उसी प्रकार मैं उनका भजन करता हूँ।' भक्त भगवान्को चाहते हैं और भगवान् भक्तको चाहते हैं। परन्तु इन दोनोंमें पहले भक्तने ही सम्बन्ध जोड़ा है और जो पहले सम्बन्ध जोड़ता है, वह उदार होता है। तात्पर्य यह है कि भगवान् सम्बन्ध जोड़ें या न जोड़ें, इसकी भक्त परवाह नहीं करता। वह तो अपनी तरफसे पहले सम्बन्ध जोड़ता है और अपनेको समर्पित करता है। इसलिये वह उदार है। (2) देवताओंके भक्त सकामभावसे विधिपूर्वक यज्ञ दान, तप आदि कर्म करते हैं तो देवताओंको उनकी कामनाके अनुसार वह चीज देनी ही पड़ती है; क्योंकि देवतालोग उनका हित-अहित नहीं देखते। परन्तु भगवान्का भक्त अगर भगवान्से कोई चीज माँगता है तो भगवान् अगर उचित समझें तो वह चीज दे देते हैं अर्थात् देनेसे उसकी भक्ति बढ़ती हो, तो दे देते हैं और भक्ति न बढ़ती हो संसारमें फँसावट होती हो तो नहीं देते। कारण कि भगवान् परम पिता हैं और परम हितैषी हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपनी कामनाकी पूर्ति हो अथवा न हो, तो भी वे भगवान्का ही भजन करते हैं, भगवान्के भजनको नहीं छोड़ते--यह उनकी उदारता ही है। (3) संसारके भोग और रुपये-पैसे प्रत्यक्ष सुखदायी दीखते हैं और भगवान्के भजनमें प्रत्यक्ष जल्दी सुख नहीं दीखता, फिर भी संसारके प्रत्यक्ष सुखको छोड़कर अर्थात् भोग भोगने और संग्रह करनेकी लालसाको छोड़कर भगवान्का भजन करते हैं, यह उनकी उदारता ही है। (4) भगवान्के दरबारमें माँगनेवालोंको भी उदार कहा जाता है--यहि दरबार दीनको आदर रीति सदा चलि आई। (विनयपत्रिका 165। 5) अर्थात् कोई कुछ माँगता है, कोई धन चाहता है, कोई दुःख दूर करना चाहता है--ऐसे माँगनेवाले भक्तोंको भी भगवान् उदार कहते हैं, यह भगवान्की विशेष उदारता ही है। (5) भक्तोंका लौकिक-पारलौकिक कामनापूर्तिके लिये अन्यकी तरफ किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं जाता। वे केवल भगवान्से ही कामनापूर्ति चाहते हैं। भक्तोंका यह अनन्यभाव ही उनकी उदारता है।'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' यहाँ 'तु'पदसे ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी विलक्षणता बतायी है कि दूसरे भक्त तो उदार हैं ही, पर ज्ञानीको उदार क्या कहें, वह तो मेरा स्वरूप ही है। स्वरूपमें किसी निमित्तसे, किसी कारणविशेषसे प्रियता नहीं होती, प्रत्युत अपना स्वरूप होनेसे स्वतः-स्वाभाविक प्रियता होती है।प्रेममें प्रेमी अपने-आपको प्रेमास्पदपर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी सत्ता अलग नहीं मानता। ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमीपर न्योछावर हो जाते हैं। उनको इस प्रेमाद्वैतकी विलक्षण अनुभूति होती है। ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है। परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेम-तत्त्व अनिर्वचनीय है। शरीरके साथ सर्वथाअभिन्नता (एकता) मानते हुए भ�� निरन्तर भिन्नता बनी रहती है और भिन्नताका अनुभव होनेपर भी भिन्नता बनी रहती है। इसी तरह प्रेमतत्त्वमें भिन्नता रहते हुए भी अभिन्नता बनी रहती है और अभिन्नताका अनुभव होनेपर भी अभिन्नता बनी रहती है।जैसे, नदी समुद्रमें प्रविष्ट होती है तो प्रविष्ट होते ही नदी और समद्रके जलकी एकता हो जाती है। एकता होनेपर भी दोनों तरफसे जलका एक प्रवाह चलता रहता है अर्थात् कभी नदीका समुद्रकी तरफ और कभी समुद्रका नदीकी तरफ एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। ऐसे ही प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है। उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है--इसका खयाल नहीं रहता। वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं। यही 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्'पदोंका तात्पर्य है।'आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्' क्योंकि जिससे उत्तम गति कोई हो ही नहीं सकती, ऐसे सर्वोपरि मेरेमें ही उसकी श्रद्धा, विश्वास और दृढ़ आस्था है। तात्पर्य है कि उसकी वृत्ति किसी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर मेरेसे हटती नहीं, प्रत्युत एक मेरेमें ही लगी रहती है।'केवल भगवान् ही मेरे हैं'--इस प्रकार मेरेमें उसका जो अपनापन है, उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलताको लेकर किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं पड़ता, प्रत्युत वह अपनापन दृढ़ होता और बढ़ता ही चला जाता है।वह युक्तात्मा है अर्थात् वह किसी भी अवस्थामें मेरेसे अलग नहीं होता, प्रत्युत सदा मेरेसे अभिन्न रहता है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें कहे हुए ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी वास्तविकता और उसके भजनका प्रकार आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।7.18।। (यद्यपि) ये सब उत्कृष्ट हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें अच्छी प्रकार स्थित है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।7.18।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।7.18।।ज्ञानी चेदत्यर्थमीश्वरस्य प्रियो भवति तर्हि विशेषणसामर्थ्यादितरेषामप्रियत्वं प्राप्तमिति शङ्कते न तर्हीति। तेषां भगवन्तं प्रति प्रियत्वमत्र विवक्षितमित्याह नेति। अत्यर्थमिति विशेषणस्य तर्हि किं प्रयोजनमिति पृच्छति किं तर्हीति। सर्वेषां भगवदभिमुखत्वादुत्कर्षेऽपि ज्ञानिनि तदतिरेकमङ्गीकृत्य विशेषणमित्याह उदारा इति। किं तत्र प्रमाणमित्याशङ्क्येश्वरज्ञानमित्याह मे मतमिति। ज्ञानी त्वात्मैवेत्यत्र हेतुमाह आस्थित इति। सर्वशब्दस्य ज्ञानिव्यतिरिक्तविषयत्वमाह त्रयोऽपीति। ज्ञानिव्यतिरिक्तानां भगवदभिमुखत्वेऽपि ज्ञानाभावापराधान्न भगवत्प्रीतिविषयतेत्याशङ्क्याह नहीति। कस्तर्हि ज्ञानवति विशेषस्तत्राह ज्ञानी त्विति। तमेव विशेषं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति तत्कस्मादित्यादिना। सर्वमात्मानं पश्यतोऽपि तस्य तव कथं यथोक्तो निश्चयः स्यादित्याशङ्क्यास्थित इत्येतद्व्याकरोति आरोढुमिति। आरोहे हेतुं सूचयति स ज्ञानीति। आरोढुं प्रवृत्तत्वमेव स्फुटयति मामेवेति।
Sri Vallabhacharya
।।7.18।।तर्हि किमितरे त्वद्भक्तास्त्रिविधाः संसृताः इति नहि नहीत्याह उदाराः सर्व इति। एते मद्भक्ताः सर्व एवोदारा देवान्तरोपासकेभ्यो महान्तो वदान्याश्च मत्तो यत्किञ्चित् गृह्णन्ति मम सर्वसमर्पकाः प्रथमं अन्यथा फलसिद्धिर्न स्यात्। परं व्यावहारिकरीत्या तद्भजनं प्राकृतमिति न तत्र प्रियत्वमुक्तम्। संसृतिरपि प्राकृतानामिव न भविष्यति यथा कथञ्चिद्भजनात्। उक्तं च भागवते 1।5।17त्यक्त्वा स्वधम चरणाम्बुजं इत्युपक्रम्ययत्र क्व वाऽभद्रमभूदमुष्य किं को वाऽर्थ आप्तो भजतां स्वधर्मतः इत्यादिनाकामं क्रोधं भयंस्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विदधते यान्ति तन्मयतां हि ते भाग.10।29।15 इति चान्ते तन्मयत्वफलमननादुदारास्ते। यथाकथञ्चित्कार्यापेक्षयापि भगवत्सम्बन्धिभावे प्रवृत्तिरुचिततरेति सङ्क्षेपः। मम महिमतत्त्वज्ञानी पुनरात्मैवेति मे मतम्। ब्रह्मवादानुरोधि भगवन्मतं वा आस्थितः आश्रितः मामेवानुत्तमां गतिं मुक्तिं फलभूतामास्थितश्च मे मतः। तत्रात्मत्वं मन्ये। तदधीन इत्यर्थसिद्धम्। तत उत्तमः।
Sridhara Swami
।।7.18।। तर्हि किमितरे त्रयस्त्वद्भक्ताः संसरन्ति नहि नहीत्याह उदारा इति। सर्वेऽप्येत उदारा महान्तः। मोक्षभाज एवेत्यर्थः। ज्ञानी पुरात्मैवेति मे मतं निश्चयः। हि यस्मात् स ज्ञानी युक्तात्मा मदेकचित्तः सन् न विद्यत उत्तमा यस्यास्तामनुत्तमां सर्वोत्तमां गतिं मामेवास्थित आश्रितवान्। मद्व्यतिरिक्तमन्यत्फलं न मन्यत इत्यर्थः।