Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 8 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः | युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ||६-८||
Transliteration
jñānavijñānatṛptātmā kūṭastho vijitendriyaḥ . yukta ityucyate yogī samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||6-8||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.8 The Yogi who is satisfied with the knowledge and the wisdom (of the Self), who has conered the senses, and to whom a clod of earth, a piece of stone and gold are the same, is said to be harmonied (i.e., is said to have attained Nirvikalpa Samadhi).
।।6.8।। जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In a professional setting, this verse encourages cultivating inner satisfaction from the mastery of one's skills and purposeful contribution, rather than solely chasing external rewards like promotions or salary (equanimity towards 'gold' vs. 'earth'). It promotes remaining 'unshaken' (Kutastha) by workplace politics, praise, criticism, or project failures, enabling a steady focus on tasks and ethical conduct. Mastering one's emotional reactions to job stress or deadlines leads to more effective decision-making and resilience.
🧘 For Stress & Anxiety
For mental well-being, the principle of being 'satisfied with knowledge and wisdom' means finding contentment within one's understanding of self, reducing reliance on external validation for happiness. 'Conquering the senses' helps manage cravings, overstimulation, and addictive behaviors, which are major sources of modern stress. By developing 'equanimity' towards material gains or losses, and remaining 'unshaken' by life's ups and downs, one can significantly reduce anxiety and cultivate a profound sense of inner peace.
❤️ In Relationships
In relationships, this verse promotes treating all individuals with inherent respect and equanimity, irrespective of their social status, wealth, or perceived value ('clod of earth, stone, or gold'). It encourages being 'unshaken' (Kutastha) by the emotional turbulence or temporary conflicts that arise, maintaining a calm and stable presence. Mastering one's own emotional reactions and desires prevents them from dictating interactions, leading to more harmonious, less reactive, and more genuinely connected relationships built on understanding rather than expectation.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True harmony and liberation stem from profound inner satisfaction, unshakeable equanimity towards all external phenomena, and complete mastery over one's senses.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.8 ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा one who is satisfied with knowledge and wisdom (Selfrealisation)? कूटस्थः unshaken? विजितेन्द्रियः who has conered the senses? युक्तः united or harmonised? इति thus? उच्यते is said? योगी Yogi? समलोष्टाश्मकाञ्चनः one to whom a lump of earth? a stone and gold are the same.Commentary Jnana is ParokshaJnana or theoretical knowledge from the study of the scriptures. Vijnana is Visesha Jnana or Aparoksha Jnana? i.e.? direct knowledge of the Self through Selfrealisation (spiritual experience or Anubhava).Kutastha means changeless like the anvil. Various kinds of iron pieces are hammered and shaped on the anvil? but the anvil remains unchanged. Even so the Yogi remains unshaken or unchanged or unaffected though he comes in contact with the senseobjects. So he is called Kutastha. Kutastha is another name of Brahman? the silent witness of the mind. (Cf.V.18VI.18)
Shri Purohit Swami
6.8 He who desires nothing but wisdom and spiritual insight, who has conquered his senses and who looks with the same eye upon a lump of earth, a stone or fine gold, is a real saint.
Dr. S. Sankaranarayan
6.8. He, whose self (mind) is satisfied with knowledge and with what consists of varied thoughts; who remains peak-like and has completely subdued his sense organs; and to whom a clod, a stone and a piece of gold are the same-that man of Yoga is called a master of Yoga.
Swami Adidevananda
6.8 The Yogin whose mind is content with knowledge of the self and also of knowledge of the difference of the self from Prakrti, who is established in the self, whose senses are subdued and to whom earth, stone and gold seem all alike, is called integrated.
Swami Gambirananda
6.8 One whose mind is satisfied with knowledge and realization, who is unmoved, who has his organs under control, is sadi to be Self-absorbed. The yogi treats eally a lump of earth, a stone and gold.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.8।। शास्त्रोपदेश से ज्ञात आत्मा का जो निरन्तर ध्यान करता है ऐसा आत्मसंयमी पुरुष शीघ्र ही दिव्य तृप्ति और आनन्द का अनुभव पाकर पूर्णयोगी बन जाता है। उसकी तृप्ति शास्त्रों के पाण्डित्य की नहीं वरन् दिव्य आत्मानुभूति की होती है जो शास्त्राध्ययन के सन्तोष से कहीं अधिक उत्कृष्ट होती है।श्री शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान का अर्थ है शास्त्रोक्त पदार्थों का परिज्ञान और विज्ञान शास्त्र से ज्ञात तत्त्व का स्वानुभवकरण है। ज्ञान और विज्ञान के प्राप्त होने पर पुरुष का हृदय अलौकिक तृप्ति का अनुभव करता है।अविचल (कूटस्थ) वेदान्त में आत्मा को कूटस्थ कहा गया है। कूट का अर्थ है निहाई। लुहार तप्त लौहखण्ड को निहाई पर रखकर हथौड़े से उस पर चोट करके लौहखण्ड को विभिन्न आकार देता है। हथौड़े की चोट का प्रभाव लौहखण्ड पर तो पड़ता है परन्तु निहाई पर नहीं। वह स्वयं अविचल रहते हुये लोहे को अनेक आकार देने के लिये आश्रय देती है। इस प्रकार कूटस्थ का अर्थ हुआ जो कूट के समान अविचल अविकारी रहता है।ज्ञानविज्ञान से सन्तुष्ट पुरुष कूटस्थ आत्मा को जानकर स्वयं भी सभी परिस्थितियों में कूटस्थ बनकर रहता है। वह समदर्शी बन जाता है। उसके लिए मिट्टी पाषाण और सुवर्ण सब समान होते हैं अर्थात् वह इन सबके प्रति समान भाव से रहता है। सामान्य जन इसमें रागद्वेषादि रखकर प्रियअप्रिय की प्राप्ति या हानि में सुखी या दुखी होते हैं। ज्ञान का मापदण्ड यही है कि इन वस्तुओं के प्राप्त होने पर पुरुष एक समान रहता है।स्वप्नावस्था में कोई पुरुष कितना ही धन अर्जित करे अथवा सम्पत्ति को खो दे परन्तु जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्न में देखे हुये धन के लाभ या हानि का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी प्रकार उपाधियाँ के द्वारा अनुभूत जगत के परे परमपूर्ण स्वरूप में स्थित पुरुष के लिए मिट्टी पाषाण और स्वर्ण का कोई अर्थ नहीं रह जाता वे उसके आनन्द में न वृद्धि कर सकते हैं न क्षय। वह परमानन्द का एकमात्र स्वामी बन जाता है। स्वर्ग के कोषाधिपति कुबेर के लिए पृथ्वी का राज्य कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कि वे हर्षोल्लास में झूम उठें।
Swami Ramsukhdas
।।6.8।। व्याख्या--'ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा'--यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है; अतः यहाँ कर्म करनेकी जानकारीका नाम 'ज्ञान' है और कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहनेका नाम 'विज्ञान' है।स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली समाधि--इन तीनोंको अपने लिये करना 'ज्ञान' नहीं है। कारण कि क्रिया, चिन्तन, समाधि आदि मात्र कर्मोंका आरम्भ और समाप्ति होती है तथा उन कर्मोंसे मिलनेवाले फलका भी आदि और अन्त होता है। परन्तु स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य रहता है। अतः अनित्य कर्म और फलसे इस नित्य रहनेवालेको क्या तृप्ति मिलेगी? जडके द्वारा चेतनको क्या तृप्ति मिलेगी? ऐसा ठीक अनुभव हो जाय कि कर्मोंके द्वारा मेरेको कुछ भी नहीं मिल सकता, तो यह कर्मोंको करनेका 'ज्ञान' है। ऐसा ज्ञान होनेपर वह कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें और पदार्थोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहेगा--यह 'विज्ञान' है। इस ज्ञान और विज्ञानसे वह स्वयं तृप्त हो जाता है। फिर उसके लिये करना, जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। 'कूटस्थः'(टिप्पणी प0 338)--कूट (अहरन) एक लौह-पिण्ड होता है, जिसपर लोहा, सोना, चाँदी आदि अनेक रूपोंमें गढ़े जाते हैं, पर वह एकरूप ही रहता है। ऐसे ही सिद्ध महापुरुषके सामने तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आती हैं, पर वह कूटकी तरह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है।'विजितेन्द्रियः'--कर्मयोगके साधकको इन्द्रियोंपर विशेष ध्यान देना पड़ता है; क्योंकि कर्म करनेमें प्रवृत्ति होनेके कारण उसके कहीं-न-कहीं रागद्वेष होनेकी पूरी सम्भावना रहती है। इसलिये गीताने कहा है--'सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्' (12। 11) अर्थात् कर्मफलके त्यागमें जितेन्द्रियता मुख्य है। इस तरह साधन-अवस्थामें इन्द्रियोंपर विशेष खयाल रखनेवाला साधक सिद्ध-अवस्थामें स्वतः 'विजितेन्द्रिय' होता है।'समलोष्टाश्मकाञ्चनः'--'लोष्ट' नाम मिट्टीके ढेलेका, 'अश्म' नाम पत्थरका और 'काञ्चन' नाम स्वर्णका है--इन सबमें सिद्ध कर्मयोगी सम रहता है। सम रहनेका अर्थ यह नहीं है कि उसको मिट्टीके ढेले, पत्थर और स्वर्णका ज्ञान नहीं होता। उसको यह ढेला है, यह पत्थर है, यह स्वर्ण है--ऐसा ज्ञान अच्छी तरहसे होता है और उसका व्यवहार भी उनके अनुरूप जैसा होना चाहिये, वैसा ही होता है अर्थात् वह स्वर्णको तिजोरीमें सुरक्षित रखता है और ढेले तथा पत्थरको बाहर ही पड़े रहने देता है। ऐसा होनेपर भी स्वर्ण चला जाय, धन चला जाय तो उसके मनपर कोई असर नहीं पड़ता और स्वर्ण मिल जाय, तो भी उसके मनपर कोई असर नहीं पड़ता अर्थात् उनके आने-जानेसे, बनने-बिगड़नेसे उसको हर्ष-शोक नहीं होते--यही उसका सम रहना है। उसके लिये जैसे पत्थर है, वैसे ही सोना है जैसे सोना है वैसे ही ढेला है और जैसे ढेला है वैसे ही सोना है। अतः इनमेंसे कोई चला गया तो क्या? कोई बिगड़ गया तो क्या? इन बातोंको लेकर उसके अन्तःकरणमें कोई विकार पैदा नहीं होता। इन स्वर्ण आदि प्राकृत पदार्थोंका मूल्य तो प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखते हुए ही प्रतीत होता है और तभीतक उनके बढ़िया-घटियापनेका अन्तःकरणमें असर होता है। पर वास्तविक बोध हो जानेपर जब प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब उसके अन्तःकरणमें इन प्राकृत (भौतिक) पदार्थोंका कुछ भी मूल्य नहीं रहता अर्थात् बढ़िया-घटिया सब पदार्थोंमें उसका समभाव हो जाता है।सार यह निकला कि उसकी दृष्टि पदार्थोंके उत्पन्न और नष्ट होनेवाले स्वभावपर रहती है अर्थात् उसकी दृष्टिमें इन प्राकृत पदार्थोंके उत्पन्न और नष्ट होनेमें कोई फरक नहीं है। सोना उत्पन्न और नष्ट होता है, पत्थर उत्पन्न और नष्ट होता है तथा ढेला भी उत्पन्न और नष्ट होता है। उनकी इस अनित्यतापर दृष्टि रहनेसे उसको सोना, पत्थर और ढेलेमें तत्त्वसे कोई फरक नहीं दीखता। इन तीनोंके नाम इसलिये लिये हैं कि इनके साथ व्यवहार तो यथायोग्य ही होना चाहिये और यथायोग्य करना ही उचित है तथा वह यथायोग्य व्यवहार करता भी है, पर उसकी दृष्टि उनके विनाशीपनेपर ही रहती है। उनमें जो परमात्मतत्त्व एक समान परिपूर्ण है, उस परमात्मतत्त्वकी स्वतःसिद्ध समता उसमें रहती है।'युक्त इत्युच्यते योगी'--ऐसा ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त, निर्विकार, जितेन्द्रिय और समबुद्धिवाला सिद्ध कर्मयोगी युक्त अर्थात् योगारूढ़, समतामें स्थित कहा जाता है।
Swami Tejomayananda
।।6.8।। जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.7 6.8।।जितात्मनः फलमाह जितात्मन इति। जितात्मा हि प्रशान्तो भवति। न तस्य मनः प्रायो विषयेषु गच्छति। तदा च परमात्मा सम्यगाहितः हृदि सन्निहितो भवति अपरोक्षज्ञानी भवतीत्यर्थः। अपरोक्षज्ञानिनो लक्षणं स्पष्टयति शीतोष्णेत्यादिना। शीतोष्णादिषु कूटस्थः ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा विजितेन्द्रिय इति कूटस्थत्वे हेतुः। विज्ञानं विशेषज्ञानं अपरोक्षज्ञानं वा। तच्चोक्तं सामान्यैर्ये त्वविज्ञेया विशेषा मम गोचराः। देवादीनां तु तज्ज्ञानं विज्ञानमिति कीर्तितम्। इति।श्रवणान्मननाच्चैव यज्ज्ञानमुपजायते। तज्ज्ञानं दर्शनं विष्णोर्विज्ञानं शम्भुरब्रवीत्। विज्ञानं ज्ञानमङ्गादेर्विशिष्टं दर्शनं तथा इत्यादि। कूटस्थो निर्विकारः कूटवत्स्थित इति व्युत्पत्तेः। कूटमाकाशःकूटं खं विदलं व्योम सन्धिराकाशउच्यते। इत्यभिधानात्। योगी योगं कुर्वन्। युक्तो योगसम्पूर्णः। एवम्भूतो योगानुष्ठाता योगसम्पूर्ण उच्यत इत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।6.8।।चित्तसमाधानमेव विशिष्टफलं चेदिष्टं तर्हि कथंभूतः समाहितो व्यवह्रियते तत्राह ज्ञानेति। परोक्षापरोक्षाभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्यां संजातालंप्रत्ययो यस्मिन्नन्तःकरणे सोऽविक्रियो हर्षविषादकामक्रोधादिरहितो योगी युक्तः समाहित इति व्यवहारभागी भवतीति पादत्रयव्याख्यानेन दर्शयति ज्ञानमित्यादिना। स च योगी परमहंसपरिव्राजकः सर्वत्रोपेक्षाबुद्धिरनतिशयवैराग्यभागीति कथयति स योगीति।
Sri Vallabhacharya
।।6.8 6.9।।योगारूढस्य स्वरूपं श्रैष्ठ्यं चोपपादयति द्वाभ्यां ज्ञानविज्ञानेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवः ताभ्यां तृप्त आत्मा यस्य कूटे स्थितोऽपि युक्त इत्युच्यते स योगी सुहृदादिषु तद्विपरीतेषु च समबुद्धिरधिकतरो भवतीति विशिष्यते।
Sridhara Swami
।।6.8।।योगारूढस्य लक्षणं श्रैष्ठ्यं चोक्तमुपपाद्योपसंहरति ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवस्ताभ्यां तृप्तो निराकाङ्क्ष आत्मा चित्तं यस्य। अतः कूटस्थो निर्विकारः अतएव विजितानीन्द्रियाणि येन अतएव समानि लोष्टादीनि यस्य मृत्खण्डपाषाणसुवर्णेषु हेयोपादेयबुद्धिशून्यः स युक्तो योगारूढ इत्युच्यते।