Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 6 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Self Mastery

Sanskrit Shloka (Original)

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः | अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||६-६||

Transliteration

bandhurātmātmanastasya yenātmaivātmanā jitaḥ . anātmanastu śatrutve vartetātmaiva śatruvat ||6-6||

Word-by-Word Meaning

बन्धुःfriend
आत्माthe Self
आत्मनःof the self
तस्यhis
येनby whom
आत्माthe self
एवeven
आत्मनाby the Self
जितःis conered
अनात्मनःof unconered self
तुbut
शत्रुत्वेin the place of an enemy
वर्तेतwould remain
आत्माthe Self
एवeven

📖 Translation

English

6.6 The Self is the friend of the self of him by whom the self has been conered by the Self, but to the unconered self, this Self stands in the position of an enemy, like an (external) foe.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.6।। जिसने आत्मा (इंद्रियों,आदि) को आत्मा के द्वारा जीत लिया है, उस पुरुष का आत्मा उसका मित्र होता है, परन्तु अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In professional life, self-mastery translates to disciplined focus, overcoming procrastination, ethical decision-making, and managing stress rather than being controlled by it. By aligning your actions with your 'higher mind' (long-term goals, integrity, strategic thinking) rather than 'lower mind' impulses (short-term gains, emotional reactions, laziness), you become an effective and respected leader of your own career path, transforming internal challenges into opportunities for growth.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse directly addresses stress and mental health by advocating for 'mind management.' Recognizing the 'lower mind' as a potential enemy (anxiety, fear, negative self-talk, impulsive reactions) allows you to consciously engage your 'higher mind' (reason, calm, resilience, positive outlook) to conquer these internal foes. Cultivating self-restraint helps prevent emotional spirals, fostering a sense of inner peace and control even amidst external pressures.

❤️ In Relationships

Self-mastery is crucial for healthy relationships. By conquering your lower self (ego, anger, jealousy, reactive impulses), you prevent self-sabotage and cultivate empathy, patience, and understanding. When your inner 'self' is a 'friend' through self-control, you are better equipped to be a true friend, partner, or family member to others, fostering trust and connection rather than creating conflict through uncontrolled emotions or behaviors.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

You are your own greatest friend or enemy; self-mastery transforms inner conflict into inner strength and liberation.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.6 बन्धुः friend? आत्मा the Self? आत्मनः of the self? तस्य his? येन by whom? आत्मा the self? एव even? आत्मना by the Self? जितः is conered? अनात्मनः of unconered self? तु but? शत्रुत्वे in the place of an enemy? वर्तेत would remain? आत्मा the Self? एव even? शत्रुवत् like an enemy.Commentary Coner the lower mind through the higher mind. The lower mind is your enemy. The higher mind is your friend. If you make friendship with the higher mind you can subdue the lower mind ite easily. The lower mind is filled with Rajas and Tamas (passion and darkness). The higher mind is filled with Sattva or purity.The Self is the friend of one who is selfcontrolled? and who has subjugated the lower mind and the senses. But the Self is an enemy of one who has no selfrestraint? and who has not subdued the lower mind and the senses. Just as an external enemy does harm to him? so also his own (lower) self (mind) does harm to him. The lower mind injures him severely. The highest Self or Atman is the primary Self. Mind also is self. This is the secondary self.

Shri Purohit Swami

6.6 To him who has conquered his lower nature by Its help, the Self is a friend, but to him who has not done so, It is an enemy.

Dr. S. Sankaranarayan

6.6. The self is the friend of that Self by Which the self has been verily subdued; but [in the case of] a person with an unsubdued self, the self alone would abide in enmity like an enemy.

Swami Adidevananda

6.6 The mind is the friend of him by whom the mind has been conered. But for him whose mind is not conered, the mind, like an enemy, remains hostile.

Swami Gambirananda

6.6 Of him, by whom has been conered his very self by the self, his self is the friend of his self. But, for one who has not conered his self, his self itself acts inimically like an enemy.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.6।। जिस मात्रा में जीव शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य को त्यागता है उस मात्रा में वह आत्मा के दिव्य प्रभाव से प्रभावित होता है। तब आत्मा उसका मित्र कहलाता है। वही मन जब बहिर्मुखी होकर विषयों मे आसक्त होता है तब मानों आत्मा उसका शत्रु होता है।निष्कर्ष यह निकला कि चैतन्य आत्मा समान रूप से विद्यमान रहता है परन्तु मन की अन्तर्मुखी अथवा बहिर्मुखी प्रवृत्तियों की दृष्टि से वह मनुष्य का मित्र अथवा शत्रु कहलाता है। और यदि आत्मा शब्द का अर्थ मन करें तो अर्थ होगा कि संयमित मन मनुष्य का मित्र है और स्वेच्छाचारी उसका शत्रु । यह श्लोक पूर्व श्लोक के अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है।योगरूढ़ मनुष्य के पूर्णत्व की स्थिति को अगले श्लोक में बताया गया है

Swami Ramsukhdas

।।6.6।। व्याख्या--'बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः'--अपनेमें अपने सिवाय दूसरेकी सत्ता है ही नहीं। अतः जिसने अपनेमें अपने सिवाय दूसरे-(शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि-) की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रखी है अर्थात् असत् पदार्थोंके आश्रयका सर्वथा त्याग करके जो अपने सम स्वरूपमें स्थित हो गया ,है उसने अपने-आपको जीत लिया है। वह अपने-आपमें स्थित हो गया--इसकी क्या पहचान है? उसका अन्तःकरण समतामें स्थित हो जायगा; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है। उस ब्रह्मकी निर्दोषता और समता उसके अन्तःकरणपर आ जाती है। इससे पता लग जाता है कि वह ब्रह्ममें स्थित है (गीता 5। 19)। तात्पर्य यह निकला कि ब्रह्ममें स्थित होनेसे ही उसने अपने द्वारा अपने-आपपर विजय प्राप्त कर ली है। वास्तवमें ब्रह्ममें स्थिति तो नित्य-निरन्तर थी ही, केवल मन, बुद्धि आदिको अपना माननेसे ही उस स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा था।संसारमें दूसरोंकी सहायताके बिना कोई भी किसीपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता और दूसरोंकी सहायता लेना ही स्वयंको पराजित करना है। इस दृष्टिसे स्वयं पहले पराजित होकर ही दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है। जैसे, कोई अस्त्र-शस्त्रोंसे दूसरेको पराजित करता है, तो वह दूसरोंको पराजित करनेमें अपने लिये अस्त्र-शस्त्रोंकी आवश्यकता मानता है; अतः स्वयं अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित ही हुआ। कोई शास्त्रके द्वारा, बुद्धिके द्वारा शास्त्रार्थ करके दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है, तो वह स्वयं पहले शास्त्र और बुद्धिसे पराजित होता ही है और होना ही पड़ेगा। तात्पर्य यह निकला कि जो किसी भी साधनसे जिस किसीपर भी विजय करता है, वह अपने-आपको ही पराजित करता है। स्वयं पराजित हुए बिना दूसरोंपर कभी कोई विजय कर ही नहीं सकता--यह नियम है। अतः जो अपने लिये दूसरोंकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं समझता, वही अपने-आपसे अपने-आपपर विजय प्राप्त करता है और वही स्वयं अपना बन्धु है।'अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्'--जो अपने सिवाय दूसरोंकी अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, वैभव, राज्य, जमीन, घर, पद, अधिकार आदिकी अपने लिये आवश्यकता मानता है, वही 'अनात्मा' है। तात्पर्य है कि जो अपना स्वरूप नहीं है, आत्मा नहीं है, उसको अपने लिये आवश्यक और सहायक समझता है तथा उसको अपना स्वरूप मान लेता है। ऐसा अनात्मा होकर जो किसी भी प्राकृत पदार्थको अपना समझता है, वह आप ही अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है। यद्यपि वह यही समझता है कि मन, बुद्धि आदिको अपना मानकर मैंने उनपर अपना आधिपत्य कर लिया है, उनपर विजय प्राप्त कर ली है, तथापि वास्तवमें (उनको अपना माननेसे) वह खुद ही पराजित हुआ है। तात्पर्य यह निकला कि दूसरोंसे पराजित होकर अपनी विजय समझना ही अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करना है।'शत्रुत्वे' कहनेमें भाव यह है कि जो अपना नहीं है, उससे 'मैं' और 'मेरा'-पनका सम्बन्ध मानना अपने साथ शत्रुपनेमें मुख्य हेतु है। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयं प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है--यहींसे शत्रुता शुरू हो जाती है। मनुष्य प्राकृत वस्तुओंपर जितना-जितना अधिकार जमाता चला जाता है, उतना-उतना वह अपने-आपको पराधीन बनाता चला जाता है। उसमें भी वह मान, बड़ाई, कीर्ति आदि चाहता है और अधिक-से-अधिक पतनकी तरफ जाता है। उसको दीखता तो यही है कि मैं अच्छा कर रहा हूँ, मेरी उन्नति हो रही है, पर बात बिलकुल उलटी है। वास्तवमें वह अपने साथ अपनीशत्रुताको ही बढ़ा रहा है।बड़े आश्चर्यकी बात है कि जो मानवशरीर जडताका सर्वथा त्याग करके केवल चिन्मयताकी प्राप्तिके लिये मिला है, उसको भूलकर वह वर्तमानमें तथा मरनेके बाद भी मूर्ति, चित्र आदिके रूपमें अपना नाम-रूप कायम रहे--इस तरह जडताको महत्त्व देकर उसको स्थिर रखना चाहता है। इस तरह चिन्मय होकर भी जडताकी दासतामें फँसकर वह अपने साथ महान् शत्रुताका ही बर्ताव करता है।'शत्रुवत्' कहनेमें भाव यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको अपनी समझकर वह अपनेको उनका अधिपति मानता है; परन्तु वास्तवमें हो जाता है उनका दास! यद्यपि उसका बर्ताव अपनी दृष्टिसे अपना अहित करनेका नहीं होता, तथापि परिणाममें तो उसका अपना अहित ही होता है। इसलिये भगवान्ने कहा है कि उसका बर्ताव अपने साथ शत्रुवत् अर्थात् शत्रुताकी तरह होता है।तात्पर्य यह हुआ कि कोई भी मनुष्य अपनी दृष्टिसे अपने साथ शत्रुताका बर्ताव नहीं करता। परन्तु असत् वस्तुका आश्रय लेकर मनुष्य अपने हितकी दृष्टिसे भी जो कुछ बर्ताव करता है, वह बर्ताव वास्तवमें अपने साथ शत्रुकी तरह ही होता है; क्योंकि असत् वस्तुका आश्रय परिणाममें जन्म-मृत्युरूप महान् दुःख देनेवाला है।  सम्बन्ध--अपने द्वारा अपनी विजय करनेका परिणाम क्या होता है? इसका उत्तर आगेके तीन श्लोकमें देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.6।। जिसने आत्मा (इंद्रियों,आदि) को आत्मा के द्वारा जीत लिया है, उस पुरुष का आत्मा उसका मित्र होता है, परन्तु अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.6।।कस्य बन्धुरात्मा इत्याह बन्धुरात्मेति। आत्मा मनः आत्मनो जीवस्य। आत्मना मनसा आत्मानं जीवम्। आत्मैव मनः आत्मना बुद्ध्या जीवेनैव वा।स हि बुद्ध्या विजयति। उक्तं च मनः परं कारणमामनन्तिमन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः मैत्रा.4।3।11।ब्र.बिं.2उद्धरेन्मनसा जीवं न जीवमवसादयेत्। जीवस्य बन्धुः शत्रुश्च मन एव न संशयः।जीवेन बुद्ध्या हि यदा मनो जितं तदा बन्धुः शत्रुरन्यत्र चास्य। ततो जयेद्बुद्धिबलो नरस्तद्देवे च भक्त्या मधुकैटभारौं। इत्यादि ब्रह्मवैवर्ते। अनात्मनोऽजितात्मनः पुरुषस्य अजितमनस्कस्य सदपि मनोऽनुपकारीत्यनात्मा। सन्नपि भृत्यो न यस्य भृत्यपदे वर्तते स ह्यभृत्यः तस्यात्मन एव शत्रुवच्छत्रुत्वे वर्तते।

Sri Anandgiri

।।6.6।।उक्तमनूद्य प्रश्नपूर्वकं श्लोकान्तरमवतारयति आत्मैवेत्यादिना। एकस्यैवात्मनो मिथो विरुद्धं बन्धुत्वं रिपुत्वं च लक्षणभेदमन्तरेणायुक्तमिति चोदिते वशीकृतसंघातस्यात्मानं प्रति बन्धुत्वमितरस्य शत्रुत्वमित्यविरोधं दर्शयति बन्धुरित्यादिना। वशीकृतसंघातस्य विक्षेपाभावादात्मनि समाधानसंभवादुपपन्नमात्मानं प्रति बन्धुत्वमिति साधयति तस्येति। अवशीकृतसंघातस्य पुनर्विक्षेपोपपत्तेरात्मनि समाधानायोगादात्मानं प्रति शत्रुभावे प्रसिद्धशत्रुवदात्मैव शत्रुत्वेन वर्तेतेत्युत्तरार्धं व्याकरोति अनात्मन इति। दृष्टान्तं व्याचष्टे यथेति।उक्तदृष्टान्तवशादवशीकृतसंघातः स्वस्य हितानाचरणादात्मानं प्रति शत्रुरेवेति दार्ष्टान्तिकमाह तथेति।

Sri Vallabhacharya

।।6.6।।किम्भूतस्यैवात्मा बन्धुरात्मा रिपुश्च इत्यपेक्षायामाह बन्धुरिति। आत्मा कार्यकरणसङ्घाताभिमानिरूपः। आत्मना विविक्तधिया।

Sridhara Swami

।।6.6।।कथंभूतस्यात्मैव बन्धुः कथंभूतस्य चात्मैव रिपुरित्यपेक्षायामाह बन्धुरिति। येनात्मनैवात्मा कार्यकारणसंघातरूपो जितो वशीकृतस्तस्य तथाभूतस्यात्मन आत्मैव बन्धुः। अनात्मनोऽजितात्मनस्त्वात्मैवात्मनः शत्रुत्वे शत्��ुवदपकारकारित्वे वर्तेत।

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