Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 45 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः | अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ||६-४५||
Transliteration
prayatnādyatamānastu yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ . anekajanmasaṃsiddhastato yāti parāṃ gatim ||6-45||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.45 But the Yogi who strives with assiduity, purified of sins and perfected gradually through many births, reaches the highest goal.
।।6.45।। परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को प्राप्त होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Consistent dedication and continuous learning are essential for achieving mastery and significant career milestones. Understand that true expertise, growth, and the highest achievements in your field are often the result of persistent effort over a long period, requiring patience through gradual refinement and learning from experience.
🧘 For Stress & Anxiety
Managing stress and fostering mental well-being is a continuous process of self-purification, letting go of negative thought patterns, and consistently practicing mindfulness or self-care. Recognize that profound inner peace and mental resilience are not instant results but are cultivated gradually through sustained effort in self-awareness and emotional regulation.
❤️ In Relationships
Building deep, meaningful relationships requires consistent effort, a willingness to forgive past grievances (purification), and patient investment in mutual growth. Understand that true connection, trust, and understanding evolve gradually, demanding persistent dedication to communication, empathy, and personal improvement to be a better partner or friend.
health_and_wellbeing
Achieving optimal physical and mental health is a journey of continuous, diligent effort. This involves consistently practicing healthy habits (diet, exercise, sleep), purifying oneself of detrimental habits, and patiently working towards long-term well-being goals, understanding that significant improvements accumulate over time and persistent discipline.
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Persistent, dedicated effort, applied consistently over time, leads to purification, gradual perfection, and the realization of one's highest potential.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.45 प्रयत्नात् with assiduity? यतमानः striving? तु but? योगी the Yogi? संशुद्धकिल्बिषः purified from sins? अनेकजन्मसंसिद्धः perfected through many births? ततः then? याति reaches? पराम् the highest? गतिम् path.Commentary He gains experiences little by little in the course of many births and eventually attains to perfection. Then he gets the knowledge of the Self and attains to the final beatitude of life.
Shri Purohit Swami
6.45 Then after many lives, the student of spirituality, who earnestly strives, and whose sins are absolved, attains perfection and reaches the Supreme.
Dr. S. Sankaranarayan
6.45. After that, the assiduously striving man of Yoga, having his sins completely cleansed and being perfected through many briths, reaches the Supreme Goal.
Swami Adidevananda
6.45 But the Yogin striving earnestly, cleansed of all his stains, and perfected through many births, reaches the supreme state.
Swami Gambirananda
6.45 However, the yogi, applying himself assiduously, becoming purified from sin and attaining perfection through many births, thery acheives the highest Goal.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.45।। मनुष्य अपने पूर्व जन्म में संचित संस्कारों के अनुसार स्थूल शरीर के द्वारा जगत् में कर्म करता है। ये वासनाएं ही उसके विचारों को दिशा प्रदान करती हैं और उन्हीं के अनुसार वर्तमान में कर्मों की योग्यता निश्चित होती है। मन और बुद्धिरूप अन्तकरण में स्थित इन वासनाओं को पाप अथवा चित्त की अशुद्धि कहते हैं। इनके क्षय का उपाय हैं कर्मयोग।सर्वप्रथम पाप वासनाओं का त्याग करते हुए पुण्यमय रचनात्मक संस्कारों का संचय करना चाहिए। ध्यानाभ्यास में ये पुण्य संस्कार भी विघ्नकारक सिद्ध हो सकते हैं। तथापि अभ्यास को निरन्तर बनाये रखने से जब मन अलौकिक आन्तरिक शान्ति में स्थिर हो जाता है तब पुण्य वासनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। वासनाक्षय के साथ मन और अहंकार दोनों ही नष्ट हो जाते हैं और यही परम गति अथवा आत्म साक्षात्कार की स्थिति है।यद्यपि इस सिद्धांत का वर्णन पुस्तक के अर्ध पृष्ठ में ही किया जा सकता है परन्तु इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त करना अनेक जन्मों के सतत प्रयत्नों का फल है। यहाँ अनेकजन्मसंसिद्ध शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया गया है जो अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि मनुष्य का विकास कोई रंगमंच पर खेला गया संन्धयाकालीन नाटक नहीं वरन् अनेक युगों में की गई उन्नति का इतिहास है। तत्त्वदर्शी ऋषियों का यह सही विचार है।जिस पुरुष में जीवन को समझने की प्रवृत्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए व्याकुलता विषय सुख की व्यर्थता को जानने की क्षमता ऋषियों के पदचिन्हों पर चलने का साहस परम शान्ति की इच्छा नैतिक जीवन जीने की सार्मथ्य और परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने की तत्परता होती है वही वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य होता है। ऐसा ही श्रेष्ठ साधक पुरुष सत्य के मन्दिर में प्रवेश पाने का अधिकारी होता है।यदि ध्यानाभ्यास में हमारी रुचि है तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा है और दिव्य जीवन जीने का हममें साहस है तो इसी क्षण यही वर्तमान जन्म हमारा अन्तिम जन्म हो सकता है।गीता के अध्येता जानते हैं कि यह कोई नवीन मौलिक अर्थ नहीं बताया गया है। जो पवित्र शास्त्र ग्रन्थ पुन पुन सत्य की घोषणा करता हुआ मनुष्य में आशा और उत्साह का संचार करता चल आ रहा है जिसमें कहीं भी नरक में जाने का भय नहीं दिखाया गया है उसके सम्बन्ध में ऐसा नहीं माना जा सकता कि अकस्मात् उसने उपदेश में परिवर्तन करके मनुष्य को अनेक जन्मों के पश्चात् ही मुक्ति का आश्वासन दिया है। यद्यपि अनेक धर्म प्रवंचक इस प्रकार का विपरीत अर्थ करते हैं तथापि बुद्धिमान पुरुष को धोखा नहीं दिया जा सकता। यहाँ बताये हुए अनेक जन्म ज्ञान प्राप्ति के पूर्व के हैं और न कि भावी।इसलिए
Swami Ramsukhdas
।।6.45।। व्याख्या--[वैराग्यवान् योगभ्रष्ट तो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगियोंके कुलमें जन्म लेने और वहाँ विशेषतासे यत्न करनेके कारण सुगमतासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है। परन्तु श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट परमात्माको कैसे प्राप्त होता है? इसका वर्णन इस श्लोकमें करते हैं।]'तु'--इस पदका तात्पर्य है कि योगका जिज्ञासु भी जब वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रण कर जाता है, उनसे ऊँचा उठ जाता है, तब जो योगमें लगा हुआ है और तत्परतासे यत्न करता है, वह वेदोंसे ऊँचा उठ जाय और परमगतिको प्राप्त हो जाय, इसमें तो सन्देह ही क्या है!'योगी'--जो परमात्मतत्त्वको, समताको चाहता है और राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंमें नहीं फँसता, वह योगी है।'प्रयत्नाद्यतमनः'--प्रयत्नपूर्वक यत्न करनेका तात्पर्य है कि उसके भीतर परमात्माकी तरफ चलनेकी जो उत्कण्ठा है, लगन है, उत्साह है, तत्परता है, वह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है। साधनमें उसकी निरन्तर सजगता रहती है।श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यासके कारण परमात्माकी तरफ खिंचता है और वर्तमानमें भोगोंके सङ्गसे संसारकी तरफ खिंचता है। अगर वह प्रयत्नपूर्वक शूरवीरतासे भोगोंका त्याग कर दे, तो फिर वह परमात्माको प्राप्त कर लेगा। कारण कि जब योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है, तो फिर जो तत्परतासे साधनमें लग जाता है, उसका तो कहना ही क्या है! जैसे निषिद्ध आचरणमें लगा हुआ पुरुष एक बार चोट खानेपर फिर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है, ऐसे ही योगभ्रष्ट भी श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेपर विशेष जोरसे परमात्मामें लग जाता है।'संशुद्धकिल्बिषः'--उसके अन्तःकरणके सब दोष, सब पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ लगन होनेसे उसके भीतर भोग, संग्रह, मान, बड़ाई आदिकी इच्छा सर्वथा मिट गयी है।जो प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है, उसके प्रयत्नसे ही यह मालूम होता है कि उसके सब पाप नष्ट हो चुके हैं। 'अनेकजन्मसंसिद्धः--(टिप्पणी प0 383.1)' पहले मनुष्यजन्ममें योगके लिये यत्न करनेसे शुद्धि हुई, फिर अन्तसमयमें योगसे विचलित होकर स्वर्गादि लोकोंमें गया तथा वहाँ भोगोंसे अरुचि होनेसे शुद्धि हुई, और फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेकर परमात्मप्राप्तिके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करनेसे शुद्धि हुई। इस प्रकार तीन जन्मोंमें शुद्ध होना ही अनेकजन्मसंसिद्धि होना है (टिप���पणी प0 383.2)। 'ततो याति परां गतिम्'--इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जिसको प्राप्त होनेपर उससे बढ़कर कोई भी लाभ माननेमें नहीं आता और जिसमें स्थित होनपर भयंकर-से-भयंकर दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता 6। 22)--ऐसे आत्यन्तिक सुखको वह प्राप्त हो जाता है। मार्मिक बात वास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यमात्र अनेक-जन्म-संसिद्ध है। कारण कि इस मनुष्यशरीरके पहले अगर वह स्वर्गादि लोकोंमें गया है, तो वहाँ शुभ कर्मोंका फल भोगनेसे उसके स्वर्गप्रापक पुण्य समाप्त हो गये और वह पुण्योंसे शुद्ध हो गया। अगर वह नरकोंमें गया है, तो वहाँ नारकीय यातना भोगनेसे उसके नरकप्रापक पाप समाप्त हो गये और वह पापोंसे शुद्ध हो गया। अगर वह चौरासी लाख योनियोंमें गया है, तो वहाँ उस-उस योनिके रूपमें अशुभ कर्मोंका, पापोंका फल भोगनेसे उसके मनुष्येतर योनिप्रापक पाप कट गये और वह शुद्ध हो गया (टिप्पणी प0 383.3)। इस प्रकार यह जीव अनेक जन्मोंमें पुण्यों और पापोंसे शुद्ध हुआ है। यह शुद्ध होना ही इसका 'संसिद्ध' होना है।दूसरी बात, मनुष्यमात्र प्रयत्नपूर्वक यत्न करके परम-गतिको प्राप्त कर सकता है, अपना कल्याण कर सकता है। कारण कि भगवान्ने यह अन्तिम जन्म इस मनुष्यको केवल अपना कल्याण करनेके लिये ही दिया है। अगर यह मनुष्य अपना कल्याण करनेका अधिकारी नहीं होता, तो भगवान् इसको मनुष्यजन्म ही क्यों देते? अब जब मनुष्यशरीर दिया है, तो यह मुक्तिका पात्र है ही। अतः मनुष्यमात्रको अपने उद्धारके लिये तत्परतापूर्वक यत्न करना चाहिये। सम्बन्ध--योगभ्रष्टका इस लोक और परलोकमें पतन नहीं होता; योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है--यह जो भगवान्ने महिमा कही है, यह महिमा भ्रष्ट होनेकी नहीं है, प्रत्युत योगकी है। अतः अब आगेके श्लोकमें उसी योगकी महिमा कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.45।। परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को प्राप्त होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.45।।नैकजन्मनीत्याह प्रयत्नादिति। जिज्ञासुर्ज्ञात्वा प्रयत्न करोति। एवमनेकजन्मभिः संसिद्धोऽपरोक्षज्ञानी भूत्वा परां गतिं याति। आह च अतीव श्रद्धया युक्तो जिज्ञासुर्विष्णुतत्परः। ज्ञात्वा ध्यात्वा तथा दृष्ट्वा जन्मभिर्बहुभिः पुमान्। विशेन्नारायणं देवं नान्यथा तु कथञ्चन इति नारदीये।
Sri Anandgiri
।।6.45।।योगनिष्ठस्य श्रेष्ठत्वे हेत्वन्तरं वक्तुमुत्तरश्लोकमवतारयति कुतश्चेति। मृदुप्रयत्नोऽपि क्रमेण मोक्ष्यते चेदधिकप्रयत्नस्य क्लेशहेतोरकिञ्चित्करत्वमित्याशङ्क्य हेत्वन्तरमेव प्रकटयति प्रयत्नादिति। तत्र योगविषये प्रयत्नातिरेके सतीत्यर्थः। ततः संचितसंस्कारसमुदायादिति यावत्। समुत्पन्नसम्यग्दर्शनवशात्प्रकृष्टा गतिः संन्यासिना लभ्यते तेन शीघ्रं मुक्तिमिच्छन्नधिकप्रयत्नो भवेदल्पप्रयत्नस्तु चिरेणैव मुक्तिभागित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।6.45।।अयं चायतिरेव निर्दिष्टः। प्रयत्नान्मानसव्यापाराद्यतमानस्तु योगी भ्रंशाभावात् संशुद्धकिल्विषोऽनेकजन्मसंसिद्धः अनेकजन्मसु तत्त्वज्ञानवान् सन् ततोऽन्तिमजन्मनि सिद्धज्ञानतः परांगतिमक्षरं मत्स्वरूपं याति। यद्वाऽनेकजन्मविपाकेन भक्तिमान् भवति। ततो भक्तितः परां गतिं भगवद्धाम वैकुण्ठाख्यं याति। एवमेवोक्तं निबन्धेईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम् इति।
Sridhara Swami
।।6.45।।यदैवं मन्दप्रयत्नोऽपि योगी परां गतिं याति तदा यस्तु योगी प्रयत्नादुत्तरोत्तरमधिकं योगे यतमानो यत्नंकुर्वन्योगेनैव संशुद्धकिल्बिषो विधूतपापः सोऽनेकेषु जन्मसूपचितेन योगेन संसिद्धः सम्यग्ज्ञानी भूत्वा ततः श्रेष्ठां गतिं यातीति किं वक्तव्यमित्यर्थः।