Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 38 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Commitment & Perseverance

Sanskrit Shloka (Original)

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति | अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ||६-३८||

Transliteration

kaccinnobhayavibhraṣṭaśchinnābhramiva naśyati . apratiṣṭho mahābāho vimūḍho brahmaṇaḥ pathi ||6-38||

Word-by-Word Meaning

📖 Translation

English

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🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.38।। हे महबाहो ! क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, avoid the pitfall of being 'fallen from both.' If you pursue multiple ventures, ensure sufficient commitment to each, or fully transition when changing paths. Half-hearted efforts or constant indecision between distinct career goals can leave you without a firm professional footing, like a scattered cloud with no clear destination or achievement.

🧘 For Stress & Anxiety

Mental stress often arises from feeling 'unrooted' or 'bewildered' about life's direction. This verse highlights the anxiety of lacking a stable purpose or commitment. To reduce stress, identify your core values and commitments, then dedicate yourself fully to them. A clear path, even if challenging, is less stressful than being adrift and unsure.

❤️ In Relationships

Just as one can be 'fallen from both' spiritual and worldly paths, in relationships, a lack of full commitment can lead to isolation. If you're constantly seeking alternatives or fail to invest deeply in existing bonds, you might find yourself without stable, supportive relationships. Cultivate genuine connection by giving your full attention and commitment to chosen relationships, rather than being half-present or perpetually searching.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Full commitment and unwavering focus are essential to avoid becoming lost and unrooted, ensuring progress and stability on any chosen path.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

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Shri Purohit Swami

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Dr. S. Sankaranarayan

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Swami Adidevananda

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Swami Gambirananda

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🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.38।। सम्भव है कि ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग पर चलता हुआ कोई श्रद्धावान् साधक मृत्यु का ग्रास बन जाए अथवा पर्याप्त संयम के अभाव में योग से पतित हो जाए। उसके पतन को दर्शाने के लिए जो अत्यन्त उपयुक्त और प्रभावोत्पादक दृष्टान्त अर्जुन के मुख से महर्षि व्यासजी ने दिया है उसे प्राय साहित्यिक क्षेत्र में उद्धृत किया जाता है।कभीकभी ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों के पार्श्व भाग से कोई छत्रवत् मेघमालिका ऊर्ध्वदिशा में उठती हुई दृष्टिगोचर होती है। परन्तु तीव्र वेग से प्रवाहित वायु के स्पर्श से वह मेघ खण्ड अनेक छोटेछोटे मेघखण्डों में विभक्त हो जाता है। ये मेघखण्ड पूर्णतया प्रबल वायु की दया पर आश्रित इतस्तत लक्ष्यहीन भ्रमण करते रहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के ये मेघ न कृषकों की अपेक्षाएं पूर्ण कर सकते हैं और न तृषितों की पिपासा को ही शान्त कर सकते हैं। किसी सुरक्षित स्थान को न प्राप्त कर अन्त में वे स्वयं भी नष्ट हो जाते है। अर्जुन का प्रश्न है कि क्या योगभ्रष्ट पुरुष की गति भी उस मेघ के समान ही नहीं होगीअर्जुन यह प्रश्न क्यों पूछता है वह स्वयं ही इसका कारण बताता है

Swami Ramsukhdas

।।6.38।। व्याख्या--[अर्जुनने पूर्वोक्त श्लोकमें कां गतिं कृष्ण गच्छति कहकर जो बात पूछी थी, उसीका इस श्लोकमें खुलासा पूछते हैं।]'अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि'--वह सांसारिक प्रतिष्ठा-(स्थिति-) से तो जानकर रहित हुआ है अर्थात् उसने संसारके सुख-आराम, आदर-सत्कार, यश-प्रतिष्ठा आदिकी कामना छोड़ दी है, इनको प्राप्त करनेका उसका उद्देश्य ही नहीं रहा है। इस तरह संसारका आश्रय छोड़कर वह परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चला; पर जीवित-अवस्थामें परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्त-समयमें साधनसे विचलित हो गया अर्थात् परमात्माकी स्मृति नहीं रही।'कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति'--ऐसा वह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ अर्थात् सांसारिक और पारमार्थिक--दोनों उन्नतियोंसे रहित हुआ साधक छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? तात्पर्य है कि जैसे किसी बादलके टुकड़ेने अपने बादलको तो छोड़ दिया और दूसरे बादलतक वह पहुँचा नहीं, वायुके कारण बीचमें ही छिन्न-भिन्न हो गया। ऐसे ही साधकने संसारके आश्रयको तो छोड़ दिया और अन्त-समयमें परमात्माकी स्मृति नहीं रही, फिर वह नष्ट तो नहीं हो जाता? उसका पतन तो नहीं हो जाता ?बादलका दृष्टान्त यहाँ पूरा नहीं बैठता। कारण कि वह बादलका टुकड़ा जिस बादलसे चला, वह बादल और जिसके पास जा रहा था, वह बादल तथा वह स्वयं (बादलका टुकड़ा)--ये तीनों एक ही जातिके हैं अर्थात् तीनों ही जड़ हैं। परन्तु जिस साधकने संसारको छोड़ा, वह संसार और जिसकी प्राप्तिके लिये चला वह परमात्मा तथा वह स्वयं (साधक)--ये तीनों एक जातिके नहीं हैं। इन तीनोंमें संसार जड़ है और परमात्मा तथा स्वयं चेतन हैं। इसलिये 'पहला आश्रय छोड़ दिया और दूसरा प्राप्त नहीं हुआ'--इस विषयमें ही उपर्युक्त दृष्टान्त ठीक बैठता है।इस श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका आशय यह है कि साक्षात् परमात्माका अंश होनेसे जीवका अभाव तो कभी हो ही नहीं सकता। अगर इसके भीतर संसारका उद्देश्य होता, संसारका आश्रय होता, तो यह स्वर्ग आदि लोकोंमें अथवा नरकोंमें तथा पशु-पक्षी आदि आसुरी योनियोंमें चला जाता, पर रहता तो संसारमें ही है। उसने संसारका आश्रय छोड़ दिया और उसका उद्देश्य केवल परमात्मप्राप्ति हो गया, पर प्राणोंके रहते-रहते परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई और अन्तकालमें किसी कारणसे उस उद्देश्यके अनुसार साधनमें स्थिति भी नहीं रही, परमात्मचिन्तन भी नहीं रहा, तो वह वहाँसे भी भ्रष्ट हो गया। ऐसा साधक किस गतिको जायगा? विशेष बात अगर इस श्लोकमें 'परमात्माकी प्राप्तिसे और साधनसे भ्रष्ट (च्युत) हुआ'--ऐसा अर्थ लिया जाय, तो ऐसा कहना यहाँ बन ही नहीं सकता। कारण कि आगे जो बादलका दृष्टान्त दिया है, वह उपर्युक्त अर्थके साथ ठीक नहीं बैठता। बादलका टुकड़ा एक बादलको छोड़कर दूसरे बादलकी तरफ चला, पर दूसरे बादलतक पहुँचनेसे पहले बीचमें ही वायुसे छिन्न-भिन्न हो गया। इस दृष्टान्तमें स्वयं बादलके टुकड़ेने ही पहले बादलको छोड़ा है अर्थात् अपनी पहली स्थितिको छोड़ा है और आगे दूसरे बादलतक पहुँचा नहीं, तभी वह उभयभ्रष्ट हुआ है। परन्तु साधकको तो अभी परमात्माकी प्राप्ति हुई ही नहीं, फिर उसको परमात्माकी प्राप्तिसे भ्रष्ट (च्युत) होना कैसे कहा जाय?दूसरी बात, साध्यकी प्राप्ति होनेपर साधक साध्यसे कभी च्युत हो ही नहीं सकता अर्थात् किसी भी परिस्थितिमें वह साध्यसे अलग नहीं हो सकता, उसको छोड़ नहीं सकता। अतः उसको साध्यसे च्युत कहना बनता ही नहीं। हाँ, अन्तसमयमें स्थिति न रहनेसे, परमात्माकी स्मृति न रहनेसे उसको 'साधनभ्रष्ट' तो कह सकते हैं, पर 'उभयभ्रष्ट' नहीं कह सकते। अतः यहाँ बादलके दृष्टान्तके अनुसार वही उभयभ्रष्ट लेना युक्तिसंगत बैठता है, जिसने संसारके आश्रयको जानकर ही अपनी ओरसे छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके लिये चला, पर अन्तसमयमें किसी कारणसे परमात्माकी याद नहीं रही, साधनसे विचलितमना हो गया। इस तरह संसार और साधन--दोनोंमें उसकी स्थिति न रहनसे ही वह उभयभ्रष्ट हुआ है। अर्जुनने भी सैंतीसवें श्लोकमें 'योगाच्चलितमानसः' कहा है और इस (अड़तीसवें) श्लोकमें 'अप्रतिष्ठः विमूढो ब्रह्मणः पथि' और 'छिन्नाभ्रमिव' कहा है। इसका तात्पर्य यही है कि उसने संसारको छोड़ दिया और परमात्माकी प्राप्तिके साधनसे विचलित हो गया, मोहित हो गया।  सम्बन्ध--पूर्वोक्त सन्देहको दूर करनेके लिये अर्जुन आगेके श्लोकमें भगवान्से प्रार्थना करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.38।। हे महबाहो ! क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.37 6.39।।अयतिरप्रयत्नः।

Sri Anandgiri

।।6.38।।प्रश्नमेव विवृणोति कच्चिदिति। प्रशस्तप्रश्नार्थत्वं कच्चिदित्यस्याङ्गीकृत्य व्याचष्टे किमिति। उभयविभ्रष्टत्वं स्पष्टयति कर्मेत्यादिना। वायुना छिन्नं विशकलितमभ्रं यथा नश्यति तद्वदित्याह छिन्नेति। नाशाशङ्कानिमित्तमाह निराश्रय इति। कर्ममार्गरूपावष्टम्भाभावेऽपि ज्ञानमार्गावष्टम्भस्तस्य भविष्यतीत्याशङ्क्याह विमूढः सन्निति। नहि कर्मिणं प्रतीयमाशङ्का युक्ताभिलाषं त्यक्त्वेश्वरे समर्प्या समर्प्य वा कर्मानुतिष्ठतो निरुपचारेण तद्भ्रंशवचनासंभवात्सर्वकर्मसंन्यासिनस्तु विहितानां त्यागाज्ज्ञानोपायाच्चविच्युतेरनर्थप्राप्तिशङ्का युक्तेति भावः।

Sri Vallabhacharya

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Sridhara Swami

।।6.38।।प्रश्नाभिप्रायं विवृणोति कच्चिदिति। कर्मणामीश्वरार्पितत्वादननुष्ठानाच्च न तावत्कर्मफलं स्वर्गादिकं प्राप्नोति योगानिष्पत्तेश्च न मोक्षं प्राप्नोति एवमुभयस्माद्भ्रष्टोऽप्रतिष्ठो निराश्रयः अतएव ब्रह्मणः प्राप्त्युपाये पथि मार्गे विमूढः सन्कच्चित्किं न नश्यति किंवा नश्यतीत्यर्थः। नाशे दृष्टान्तःयथा छिन्नमभ्रं पूर्वस्मादभ्राद्विश्लिष्टमभ्रान्तरं चाप्राप्तं सन्मध्य एव विलीयते तद्वदित्यर्थः।

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