Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 32 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन | सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ||६-३२||
Transliteration
ātmaupamyena sarvatra samaṃ paśyati yo.arjuna . sukhaṃ vā yadi vā duḥkhaṃ sa yogī paramo mataḥ ||6-32||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.32 He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees eality everywhere, be it pleasure or pain, he is regarded as the highest Yogi.
।।6.32।। हे अर्जुन ! जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है, चाहे वह सुख हो या दु:ख, वह परम योगी माना गया है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Practice servant leadership and ethical decision-making, treating colleagues, clients, and competitors with the same respect and understanding you'd expect for yourself. Foster a collaborative environment by recognizing the shared humanity and goals of all team members, ensuring fair treatment and seeking win-win solutions rather than competitive exploitation. This leads to a more harmonious and productive work environment.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate a broader perspective, understanding that personal suffering and joy are shared human experiences. This reduces isolation and allows for greater resilience, preventing extreme reactions to setbacks or triumphs. By recognizing the transient nature of both pleasure and pain and their shared foundation in the Self, one can achieve a deeper sense of inner peace and equanimity, reducing anxiety, fear of failure, and emotional reactivity.
❤️ In Relationships
Deepen connections by truly understanding and empathizing with others' perspectives, joys, and sorrows as if they were your own. This fosters unconditional love, reduces judgment, and promotes harmonious interactions, as you naturally wish well for others and strive to avoid causing harm, seeing them as extensions of yourself. It transforms how you listen, communicate, and resolve conflicts, building stronger, more compassionate bonds.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The highest Yogi embodies universal empathy, seeing the singular Self in all beings and experiences, thereby transcending duality and living a life of profound compassion and equanimity.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.32 आत्मौपम्येन through the likeness of the Self? सर्वत्र everywhere? समम् eality? पश्यति sees? यः who? अर्जुन O Arjuna? सुखम् pleasure? वा and? यदि if? वा or? दुःखम् pain? सः he? योगी Yogi? परमः highest? मतः is regarded.Commentary He sees that whatever is pleasure or pain to himself is also pleasure or pain to all other beings. He does not harm anyone. He is ite harmless. He wishes good to all. He is compassionate to all creatures. He has a very soft and large heart. He sees thus eality everywhere as he is endowed with the right knowlede of the Self? as he beholds the Self only everywhere? and as he is established in the unity of the Self. Therefore he is considered as the highest among all Yogis. (Cf.VI.47)
Shri Purohit Swami
6.32 O Arjuna! He is the perfect saint who, taught by the likeness within himself, sees the same Self everywhere, whether the outer form be pleasurable or painful.
Dr. S. Sankaranarayan
6.32. Whosoever finds pleasure or pain eally in all as in the case of himself-that person is considered to be a great man of Yoga, O Arjuna !
Swami Adidevananda
6.32 He who, by reason of the similarity of selves everywhere, sees the pleasure or pain as the same everywhere - that Yogin, O Arjuna, is deemed as the nighest.
Swami Gambirananda
6.32 O Arjuna, that yogi is considered the best who judges what is happiness and sorrow in all beings by the same standard as he would apply to himself.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.32।। तत्त्वज्ञान और आत्मानुभव में स्थित योगीजन स्वभावत सर्वत्र व्याप्त आत्मा के दर्शन करते हैं। वे सभी कर्मों में आत्मा के वैभव को देखते हैं और जानते हैं कि उपाधियों के द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्म आत्मकृपा से ही होते हैं। बाह्य स्थूल और आन्तरिक सूक्ष्म जगत् आत्मा की ही अभिव्यक्ति है।गीता के अनुसार सर्वश्रेष्ठ योगी वह है जो अन्य के सुख एवं दुख को इस प्रकार समझता है जैसे वे उसके अपने ही हों। प्रसिद्ध नैतिक नियम है कि अन्य के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा कि उससे तुम अपेक्षा रखते हो। परन्तु यह नियम सामान्य मनुष्य को अप्रिय लगता है क्योंकि स्वार्थ के कारण वह सोचता है कि क्यों वह दूसरों को अपने ही समान समझे। अज्ञान तथा स्वार्थ के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति अनैतिकता की ओर झुक जाती है।पूर्व श्लोकों में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि क्यों हमें प्राणीमात्र से प्रेम करना चाहिए। योगी आत्मसाक्षात्कार के द्वारा समस्त सृष्टि को आत्मा की ही अभिव्यक्ति के रूप में पहचानता है अत सबसे प्रेम होना स्वाभाविक ही है। प्रत्येक मनुष्य को अपने शरीर से तादात्म्य होने के कारण शरीर के समस्त अंगों से उसे एक समान ही प्रेम होता है। यदि अकस्मात् दांतों से जिह्वा कट जाती है तो मनुष्य कभी भी दांतों को दण्ड देने का विचार नहीं करता क्योंकि दांतों में तथा जिह्वा में समान रूप से वह स्वयं व्याप्त है। इसी प्रकार आत्मा को पहचान लेने पर सम्पूर्ण नामरूप की सृष्टि आत्मस्वरूप ही बन जाती है और समस्त कालों में सर्वत्र केवल मैं (आत्मा) ही व्याप्त रहता हूँ।आत्मैकत्व दर्शन करने वाला सिद्ध व्यक्ति ही गीता में परम योगी माना गया है जो समाज को देता अधिक है और लेता कम है। प्रेम उसका श्वास है और करुणा उसकी जीविका।श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञानी पुरुष का जो उपर्युक्त वर्णन शब्दचित्र के माध्यम से किया गया है वह किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है किन्तु व्यावहारिक बुद्धि का अर्जुन उक्त लक्ष्य को पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है और वह प्रश्न के रूप में अपनी शंका को व्यक्त करता है।यथोक्त सम्यग्दर्शन रूप योग का संपादन दुष्कर जानकर उसकी प्राप्ति का निश्चयात्मक उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कहता है
Swami Ramsukhdas
।।6.32।। व्याख्या--[जिसको इसी अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें 'ब्रह्मभूत' कहा है और जिसको अट्ठाईसवें श्लोकमें 'अत्यन्त सुख' की प्राप्ति होनेकी बात कही है, उस सांख्ययोगीका प्राणियोंके साथ कैसा बर्ताव होता है--इसका इस श्लोकमें वर्णन किया गया है। कारण कि गीताके ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होती है--'सर्वभूतहिते रताः'(5। 25 12। 4)]'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन'--साधारण मनुष्य जैसे अपने शरीरमें अपनी स्थिति देखता है, तो उसके शरीरके किसी अङ्गमें किसी तरहकी पीड़ा हो-- ऐसा वह नहीं चाहता, प्रत्युत सभी अङ्गोंका समानरूपसे आराम चाहता है। ऐसे ही सब प्राणियोंमें अपनी समान स्थिति देखनेवाला महापुरुष सभी प्राणियोंका समानरूपसे आराम चाहता है। उसके सामने कोई दुःखी प्राणी आ जाय, तो अपने शरीरके किसी अङ्गका दुःख दूर करनेकी तरह ही उसका दुःख दूर करनेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है। तात्पर्य है कि जैसे साधारण प्राणीकी अपने शरीरके आरामके लिये चेष्टा होती है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषकी दूसरोंके शरीरोंके आरामके लिये स्वाभाविक चेष्टा होती है।'सर्वत्र' कहनेका तात्पर्य है कि उसके द्वारा वर्ण, आश्रम, देश, वेश, सम्प्रदाय आदिका भेद न रखकर सबको समान रीतिसे सुख पहुँचानेकी स्वाभाविक चेष्टा होती है। ऐसे ही पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि स्थावर-जङ्गम सभी प्राणियोंको भी समानरीतिसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा होती है और साथ-ही-साथ उनका दुःख दूर करनेका भी स्वाभाविक उद्योग होता है।अपने शरीरके अङ्गोंका दुःख दूर करनेकी समान चेष्टा होनेपर भी अङ्गोंमें भेद-दृष्टि तो रहती ही है और रहना आवश्यक भी है। जैसे, हाथका काम पैरसे नहीं किया जाता। अगर हाथको हाथ छू जाय तो हाथ धोनेकी जरूरत नहीं पड़ती; परन्तु पैरको हाथ छू जाय तो हाथ धोना पड़ता है। अगर मल-मूत्रके अङ्गोंको हाथसे साफ किया जाय, तो हाथको मिट्टी लगाकर विशेषतासे धोना, निर्मल करना पड़ता है। ऐसे ही शास्त्र और वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार सबके सुख-दुःखमें समान भाव रखते हुए भी स्पर्श-अस्पर्शका ख्यालरखकर व्यवहार होना चाहिये। किसीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी घृणाकी सम्भावना ही नहीं होनी चाहिये। जैसे अपने शरीरके पवित्र-अपवित्र अङ्गोंकी रक्षा करनेमें और उनको सुख पहुँचानेमें कोई कमी न रखते हुए भी शुद्धिकी दृष्टिसे उनमें स्पर्श-अस्पर्शका भेद रखते हैं। ऐसे ही शास्त्र-मर्यादाके अनुसार संसारके सभी प्राणियोंमें स्पर्श-अस्पर्शका भेद मानते हुए भी ज्ञानी महापुरुषके द्वारा उनका दुःख दूर करनेकी और उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टामें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। तात्पर्य है कि जैसे अपने शरीरका कोई अङ्ग अस्पृश्य होनेपर भी वह अप्रिय नहीं होता, ऐसे ही शास्त्रमर्यादाके अनुसार कोई प्राणी अस्पृश्य होनेपर भी उसमें प्रियता, हितैषिताकी कभी कमी नहीं होती।'सुखं वा यदि वा दुःखम्'-- अपने शरीरकी उपमासे दूसरोंके सुख-दुःखमें समान रहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि दूसरोंके शरीरके किसी अङ्गमें प���ड़ा हो जाय, तो वह पीड़ा अपने शरीरमें भी हो जाय, अपनेको भी उस पीड़ाका अनुभव हो जाय। अगर ऐसी समता ली जाय तो अपनेको दुःख ही ज्यादा होगा; क्योंकि संसारमें दुःखी प्राणी ही ज्यादा हैं।दूसरी बात, जैसे विरक्त त्यागी महात्मालोग अपने शरीरकी और अपने शरीरके अङ्गोंमें होनेवाली पीड़ाकी उपेक्षा कर देते हैं, ऐसे ही दूसरोंके शरीरोंकी और उनके शरीरोंके अङ्गोंमें होनेवाली पीड़ाकी उपेक्षा हो जाय अर्थात् जैसे उनको अपने शरीरके सुख-दुःखका भान नहीं होता, ऐसे ही दूसरोंके सुख-दुःखका भी अपनेको भान न हो--यह भी उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य नहीं है।उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है कि जैसे शरीरमें आसक्त अज्ञानी पुरुषके शरीरमें पीड़ा होनेपर उस पीड़ाको दूर करनेमें और सुख पहुँचानेमें उसकी जैसी चेष्टा होती है, तत्परता होती है, ऐसे ही दूसरोंका दुःख दूर करनेमें और सुख पहुँचानेमें ज्ञानी महात्माओंकी स्वाभाविक चेष्टा होती है, तत्परता होती है।जैसे, किसीके हाथमें चोट लग गयी और वह लोक-समुदायमें जाता है तो उस पीड़ित हाथको धक्का न लग जाय, इसलिये दूसरे हाथको सामने रखकर उस पीड़ित हाथकी रक्षा करता है और उसको धक्का न लगे, ऐसा उद्योग करता है। परन्तु उसके मनमें कभी यह अभिमान नहीं आता कि मैं इस हाथकी पीड़ा दूर करनेवाला हूँ, इसको सुख पहुँचानेवाला हूँ। वह उस हाथपर ऐसा एहसान भी नहीं करता कि देख हाथ! मैंने तेरी पीड़ा दूर करनेके लिये कितनी चेष्टा की! पीड़ाको शान्त करनेपर वह अपनेमें विशेषताका भी अनुभव नहीं करता। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषोंके द्वारा दुःखी प्राणियोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा स्वाभाविक होती है। उनके मनमें यह अभिमान नहीं आता कि मैं प्राणियोंका दुःख दूर कर रहा हूँ; दूसरोंको सुख पहुँचा रहा हूँ। उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा करनेपर वे अपनेमें कोई विशेषता भी नहीं देखते। उनका स्वभाव ही दूसरोंका दुःख दूर करनेका, उनको सुख पहुँचानेका होता है। ज्ञानी पुरुषके शरीरमें पीड़ा होती है, तो वह उसको सह सकता है और उसके द्वारा उस पीड़ाकी उपेक्षा भी हो सकती है; परन्तु दूसरेके शरीरमें पीड़ा हो तो उसको वह सह नहीं सकता। कारण कि जैसे दोनों हाथोंमें अपनी व्यापकता समान है, ऐसे ही सब शरीरोंमें अपनी स्थिति समान है। परन्तु जिस अन्तःकरणमें बोध हुआ है, उसमें पीड़ा सहनेकी शक्ति है और दूसरोंके अन्तःकरणमें पीड़ा सहनेकी वैसी सामर्थ्य नहीं है। अतः उनके द्वारा दूसरोंके शरीरोंकी पीड़ा दूर करनेमें विशेष तत्परता होती है। जैसे, इन्द्रने बिना किसी अपराधके दधीचि ऋषिका सिर काट दिया। पीछे अश्विनी-कुमारोंने उनको पुनः जिला दिया। परन्तु जब इन्द्रका काम पड़ा, तब दधीचिने अपना शरीर छोड़कर उनको (वज्र बनानेके लिये) अपनी हड्डियाँ दे दीं! यहाँ शङ्का हो सकती है कि अपने शरीरके दुःखकी तो उपेक्षा होती है और दूसरोंके दुःखकी उपेक्षा नहीं होती--यह तो विषमता हो गयी! यह समता कहाँ रही? इसका समाधान है कि वास्तवमें यह विषमता समताकी जनक है, समताको प्राप्त करानेवाली है। यह विषमता समतासे भी ऊँचे दर्जेकी चीज है। साधक साधन-अवस्थामें ऐसी विषमता करता है, तो सिद्ध-अवस्थामें भी उसकी ऐसी ही स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। परन्तु उसके अन्तःकरणमें किञ्चिन्मात्र भी विषमता नहीं आती।'स योगी परमो मतः'-- उसकी दृष्टिमें सिवाय परमात्माके कुछ नहीं रहा। वह नित्ययोग (परमात्माके नित्यसम्बन्ध) और नित्यसमतामें स्थित रहता है। कारण कि शरीर-संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे उसका परमात्मासे कभी वियोग होता ही नहीं और वह सभी अवस्थाओं तथा परिस्थितियोंमें एकरूप ही रहता है। अतः वह मुझे परमयोगी मान्य है। विशेष बात(1) यहाँ जैसे ध्यानयोगीके लिये 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति' कहा गया है, ऐसे ही कर्मयोगीके लिये 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (5। 7) और ज्ञानयोगीके लिये 'सर्वभूतहिते रताः' (5। 25 12। 4) कहा गया है। परन्तु भक्तियोगमें तो भक्त सम्पूर्ण शरीरोंमें अपने इष्टदेवको देखता है (6। 30) और अपने कर्मोंके द्वारा उनका पूजन करता है--'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18। 46) तात्पर्य यह है कि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी साधकोंको चाहिये कि वे सबमें अपने-आपको देखें तथा भक्तियोगी साधकोंको चाहिये कि वे सबमें ईश्वरको, अपने इष्टदेवको देखें। (2) सबको अपना भाई समझो--यह भ्रातृभाव बड़ा उत्तम है। परन्तु स्वार्थभावको लेकर जब भाई-भाई लड़ते हैं, तब भ्रातृभाव नहीं रहता, प्रत्युत वैरभाव पैदा हो जाता है। जैसे कौरवों और पाण्डवोंमें लड़ाई हो गयी। परन्तु 'आत्मौपम्येन सर्वत्र' अर्थात् शरीरभावमें कभी वैर नहीं हो सकता। जैसे अपने दाँतोंसे अपनी जीभ अथवा होठ कट जाय, तो दाँतोंको कोई नहीं तोड़ता अर्थत् दाँतोंके साथ कोई वैर नहीं करता। ऐसे ही अपने शरीरकी उपमासे जो सबमें सुख-दुःखको समान देखता है, उसमें कभी वैरभाव नहीं होता। इस शरीरभावसे भी ऊँचा है--भगवद्भाव। इस भावमें अपने इष्टदेवका भाव होता है। तात्पर्य है कि भगवद्भाव भ्रातृभाव और शरीरभावसे भी ऊँचा है। अतः भगवान्ने गीतामें जगह-जगह अपने भक्तोंकी बहुत महिमा गायी है; जैसे-- वह परम श्रेष्ठ है--'स मे युक्ततमो मतः' (6। 47) वे योगी मेरे मतमें अत्यन्त उत्कृष्ट हैं--'ते मे युक्ततमा मताः' (12। 2) वे भक्त मेरेको अत्यन्त प्यारे हैं--'भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः' (12। 20) आदिआदि। सम्बन्ध--जिस समताकी प्राप्ति सांख्ययोग और कर्मयोगके द्वारा होती है, उसी समताकी प्राप्ति ध्यानयोगके द्वारा भी होती है--इसको भगवान्ने दसवें श्लोकसे बत्तीसवें श्लोकतक बताया। अब अर्जुन ध्यानयोगसे प्राप्त समताको लेकर आगेके दो श्लोकोंमें अपनी मान्यता प्रकट करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.32।। हे अर्जुन ! जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है, चाहे वह सुख हो या दु:ख, वह परम योगी माना गया है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.32।।साम्यं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे आत्मौपम्येनेति।
Sri Anandgiri
।।6.32।।स्वैराचरणस्याप्रतिबन्धकत्वकथनात्परपीडनस्य योगिनः सम्यग्दर्शनं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वप्रसक्तावुक्तं किञ्चेति। अन्यदपि किञ्चिदुच्यते परमयोगिनो निर्देशद्वारा योगमाहात्म्यमित्यर्थः। उपमैवोपम्यमात्मा च तदौपम्यं च तेन सर्वभूतेषु यः समं पश्यतीत्युक्ते तदेव समदर्शनं प्रश्नपूर्वकं विवृणोति किमित्यादिना। विकल्पार्थत्वं वारयति वाशब्द इति। उपदर्शितसमदर्शनफलमभिलषति न कस्यचिदिति। किमपेक्षया तस्य परमत्वं तत्राह सर्वेति।
Sri Vallabhacharya
।।6.32।।अतः स एवंविधो योगी परमो मत इत्याह आत्मौपम्येनेति। स्वसादृश्येन सर्वत्र समं दुःखादिकं पश्यन् भवति स परमो योगी मतः।
Sridhara Swami
।।6.32।।एवंच मां भजतां योगिनां मध्ये सर्वभूतानुकम्पी श्रेष्ठ इत्याह आत्मौपम्येनेति। आत्मौपम्येन स्वसादृश्येन यथा मम सुखं प्रियं दुःखं चाप्रियं तथान्येषामपीति सर्वत्र समं पश्यन् सुखमेव सर्वेषां यो वाञ्छति नतु कस्यापि दुःखं स योगी श्रेष्ठो ममाभिमत इत्यर्थः।