Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 20 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया | यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ||६-२०||
Transliteration
yatroparamate cittaṃ niruddhaṃ yogasevayā . yatra caivātmanātmānaṃ paśyannātmani tuṣyati ||6-20||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.20 When the mind, restrained by the practice of Yoga attains to quietude and when seeing the Self by the self, he is satisfied in his own Self.
।।6.20।। योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुध्द चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In a professional setting, a mind restrained by focused practice leads to enhanced concentration and clarity, enabling better decision-making and problem-solving. Cultivating inner satisfaction means finding contentment in one's work and efforts, reducing reliance on external rewards for fulfillment and preventing burnout.
🧘 For Stress & Anxiety
By diligently practicing mindfulness or meditation, one can achieve mental quietude, significantly reducing stress and anxiety. This internal calm provides a stable foundation, allowing an individual to observe thoughts and emotions without being overwhelmed, leading to improved mental health and resilience.
❤️ In Relationships
A tranquil and self-satisfied mind fosters healthier relationships. When one finds contentment within, they approach interactions with less dependency and reactivity. This inner stability allows for greater empathy, clearer communication, and the ability to respond thoughtfully rather than emotionally, building stronger connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Through disciplined control of the mind, one attains profound inner quietude, enabling true self-awareness and lasting, unconditional contentment within.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.20 यत्र where? उपरमते attains ietude? चित्तम् mind? निरुद्धम् restrained? योगसेवया by the practice of Yoga? यत्र where? च and? एव only? आत्मना by the Self? आत्मानम् the Self? पश्यन् seeing? आत्मनि in the Self? तुष्यति is satisfied.Commentary The verses 20? 21? 22 and 23 must be taken together.When the mind is completely withdrawn from the objects of the senses? supreme peace reigns within the heart. When the mind becomes ite steady by constant and protracted practice of concentration the Yogi beholds the Supreme Self by the mind which is rendered pure and onepointed and attains to supreme satisfaction in the Self within.
Shri Purohit Swami
6.20 There, where the whole nature is seen in the light of the Self, where the man abides within his Self and is satisfied there, its functions restrained by its union with the Divine, the mind finds rest.
Dr. S. Sankaranarayan
6.20. Where the mind, well-restrained through Yoga-practice, remains iet; again where, observing, by the self, nothing but the Self, he (Yogi) is satisfied in the Self;
Swami Adidevananda
6.20 Where the mind, controlled by the practice of Yoga, rests and where seeing the self by the self one is delighted by the self only;
Swami Gambirananda
6.20 At the time when the mind restrained through the practice of Yoga gets withdrawn, and just when by seeing the Self by the self one remains contented in the Self alone [A.G. construes the word eva (certainly) with tusyati (remains contented).-Tr.];
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.20।। No commentary.
Swami Ramsukhdas
।।6.20।। व्याख्या--'यत्रोपरमते चित्तं ৷৷. पश्यन्नात्मनि तुष्यति'--ध्यानयोगमें पहले 'मनको केवल स्वरूपमें ही लगाना है' यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होनेके बाद स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा करके उसे हटा देने और चित्तको केवल स्वरूपमें ही लगानेसे जब मनका प्रवाह केवल स्वरूपमें ही लग जाता है, तब उसको ध्यान कहते हैं। ध्यानके समय ध्याता, ध्यान और ध्येय--यह त्रिपुटी रहती है अर्थात् साधक ध्यानके समय अपनेको ध्याता (ध्यान करनेवाला) मानता है, स्वरूपमें तद्रूप होनेवाली वृत्तिको ध्यान मानता है और साध्यरूप स्वरूपको ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जबतक इन तीनोंका अलग-अलग ज्ञान रहता है, तबतक वह 'ध्यान' कहलाता है। ध्यानमें ध्येयकी मुख्यता होनेके कारण साधक पहले अपनेमें ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यानकी वृत्ति भी भूल जाता है। अन्तमें केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इसको 'समाधि' कहते हैं। यह 'संप्रज्ञातसमाधि' है जो चित्तकी एकाग्र अवस्थामें होती है। इस समाधिके दीर्घकालके अभ्याससे फिर 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इन दोनों समाधियोंमें भेद यह है कि जबतक ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका सम्बन्ध--ये तीनों चीजें रहती हैं, तबतक वह 'संप्रज्ञात-समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'एकाग्र' अवस्था कहते हैं। परन्तु जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब वह 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'निरुद्ध' अवस्था कहते हैं।निरुद्ध अवस्थाकी समाधि दो तरहकी होती है--सबीज और निर्बीज। जिसमें संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, वह 'सबीज समाधि' कहलाती है। सूक्ष्म वासनाके कारण सबीज समाधिमें सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर पारमार्थिक दृष्टिसे (चेतन-तत्त्वकी प्राप्तिमें) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियोंको निस्तत्त्व समझकर इनसे उपराम हो जाता है, तब उसकी 'निर्बीज समाधि' होती है, जिसका यहाँ (इस श्लोकमें) 'निरुद्धम्' पदसे संकेत किया गया है।ध्यानमें संसारके सम्बन्धसे विमुख होनेपर एक शान्ति, एक सुख मिलता है, जो कि संसारका सम्बन्ध रहनेपर कभी नहीं मिलता। संप्रज्ञात-समाधिमें उससे भी विलक्षण सुखका अनुभव होता है। इस संप्रज्ञात-समाधिसे भी असंप्रज्ञात-समाधिमें विलक्षण सुख होता है। जब साधक निर्बीज समाधिमें पहुँचता है, तब उसमें बहुत ही विलक्षण सुख, आनन्द होता है। योगका अभ्यास करते-करते चित्त निरुद्ध-अवस्था--निर्बीज समाधिसे भी उपराम हो जाता है अर्थात् योगी उस निर्बीज समाधिका भी सुख नहीं लेता, उसके सुखका भोक्ता नहीं बनता। उस समय वह अपने स्वरूपमें अपने-आपका अनुभव करता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है।'उपरमते' पदका तात्पर्य है कि चित्तका संसारसे तो प्रयोजन रहा नहीं और स्वरूपको पकड़ सकता नहीं। कारण कि चित्त प्रकृतिका कार्य होनेसे जड है और स्वरूप चेतन है। जड चित्त स्वरूपको कैसे पकड़ सकता है? नहीं पकड़ सकता। इसलिये वह उपराम हो जाता है। चित्तके उपराम होनेपर योगीका चित्तसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।'तुष्यति' कहनेका तात्पर्य है कि उसके सन्तोषका दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं रहता। केवल अपना स्वरूप ही उसके सन्तोषका कारण रहता है।इस श्लोकका सार यह है कि अपने द्वारा अपनेमें ही अपने स्वरूपकी अनुभूति होती है। वह तत्त्व अपने भीतर ज्यों-का-त्यों है। केवल संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण चित्तकी वृत्तियाँ संसारमें लगती हैं, जिससे उस तत्त्वकी अनुभूति नहीं होती। जब ध्यानयोगके द्वारा चित्त संसारसे उपराम हो जाता है तब योगीका चित्तसे तथा संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही उसको अपने-आपमें ही अपने स्वरूपकी अनुभूति हो जाती है।विशेष बात जिस तत्त्वकी प्राप्ति ध्यानयोगसे होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयोगसे होती है। परन्तु इन दोनों साधनोंमें थोड़ा अन्तर है। ध्यानयोगमें जब साधकका चित्त समाधिके सुखसे भी उपराम हो जाता है, तब वह अपने-आपसे अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोगमें जब साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, तब वह अपने-आपसे अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है (गीता 2। 55)।ध्यानयोगमें अपने स्वरूपमें मन लगनेसे जब मन स्वरूपमें तदाकार हो जाता है, तब समाधि लगती है। उस समाधिसे भी जब मन उपराम हो जाता है, तब योगीका चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।कर्मयोगमें मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि पदार्थोंका और सम्पूर्ण क्रियाओँका प्रवाह केवल दूस���ोंके हितकी तरफ हो जाता है, तब मनोगत सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं। कामनाओंका त्याग होते ही मनसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें कहा गया कि ध्यानयोगी अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तोषका अनुभव करता है। अब उसके बाद क्या होता है--इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.20।। योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुध्द चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.20।।आत्मना मनसा आत्मनि देहे आत्मानं भगवन्तं पश्यन्।
Sri Anandgiri
।।6.20।।द्विविधः समाधिः संप्रज्ञातोऽसंप्रज्ञातश्च ध्येयैकाकारसत्त्ववृत्तिर्भेदेन कथंचिज्ज्ञायमाना संप्रज्ञातः समाधिः कथमपि पृथगज्ञायमाना सैव सत्त्ववृत्तिरसंप्रज्ञातः समाधिः तत्र सामान्येन समाधिलक्षणमभिधायासंप्रज्ञातस्य समाधेरधुना लक्षणं विवक्षन्नाह एवमिति। काले समाध्युपलक्षिते। एवकारस्तुष्यतीत्यनेन संबध्यते। चकारस्य संबन्धमाह यस्मिंश्चेति। कालस्तु पूर्ववत्। कर्मकारकत्वेन निर्दिष्टमात्मानं तत्पदार्थत्वेन व्याचष्टे परमिति। आत्मनीत्यस्य त्वंपदार्थविषयत्वमाह स्व एवेति। परमात्मानं प्रतीच्येव तद्भावेनापरोक्षीकुर्वन्नतुष्टिहेत्वभावात्तुष्यत्येवेत्यर्थः। तस्मिन्काले योगसिद्धिर्भवतीति शेषः।
Sri Vallabhacharya
।।6.20।।तमेव योगं स्वरूपतः फलतश्च लक्षयति यत्रेति सार्धैस्त्रिभिः। यत्र यस्मिन् काले योगतन्त्रसेवया निरुद्धं चित्तमुपरमते सर्वत इति स्वरूपलक्षणमुक्तम्। तथाच पातञ्जलसूत्रम् 1।2योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति।
Sridhara Swami
।।6.20।।यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डवेत्यादौ कर्मैव योगशब्देनोक्तं नात्यश्नतस्तु योगोस्तीत्यादौ तु समाधिर्योगशब्देनोक्तः। तत्र मुख्यो योगः क इत्यपेक्षायां समाधिमेव स्वरूपतः फलतश्च लक्षयन्स एव मुख्यो योग इत्याह यत्रेति सार्धैस्त्रिभिः। यत्र यस्मिन्नवस्थाविशेषे योगाभ्यासेन निरुद्धं चित्तमुपरतं भवतीति योगस्य स्वरूपलक्षणमुक्तम्। तथाच पातञ्जलं सूत्रम्योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति। इष्टप्राप्तिलक्षणेन फलेन तमेव लक्षयति। यत्र च यस्मिन्नवस्थाविशेषे आत्मना शुद्धेन मनसात्मानमेव पश्यति नतु देहादि पश्यंश्चात्मन्येव तुष्यति नतु विषयेषु। यत्रेत्यादीनां यच्छब्दानां तं योगसंज्ञितं विद्यादिति चतुर्थेनान्वयः।