Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 17 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Moderation & Balance

Sanskrit Shloka (Original)

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु | युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||६-१७||

Transliteration

yuktāhāravihārasya yuktaceṣṭasya karmasu . yuktasvapnāvabodhasya yogo bhavati duḥkhahā ||6-17||

Word-by-Word Meaning

युक्ताहारविहारस्यof one who is moderate in eating and recreation (such as walking
युक्तचेष्टस्यकर्मसु of one who is moderate in exertion in actions
युक्तस्वप्नावबोधस्यof one who is moderate in sleep and wakefulness
योगःYoga
भवतिbecomes
दुःखहाthe destroyer of pain.Commentary In this verse the Lord prescribes for the student of Yoga

📖 Translation

English

6.17 Yoga becomes the destroyer of pain for him who is moderate in eating and recreation (such as walking, etc.), who is moderate in exertion in actions, who is moderate in sleep and wakefulness.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.17।। उस पुरुष के लिए योग दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Embrace consistent, moderate effort rather than cycles of intense work followed by burnout. Ensure adequate rest, nutrition, and measured breaks to sustain long-term productivity and prevent professional exhaustion, fostering a sustainable career path.

🧘 For Stress & Anxiety

Establish regulated routines for eating, sleeping, and physical activity to stabilize mood and energy. Avoid extremes in indulgence or deprivation, fostering a stable inner environment resilient to stress, anxiety, and mental fatigue.

❤️ In Relationships

Maintain personal balance in energy and time, ensuring you are not drained by overwork or lack of self-care. This allows for genuine presence, emotional stability, and healthy engagement with loved ones, preventing the strains caused by personal imbalance.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Through consistent moderation in all aspects of life – from nourishment and rest to work and recreation – one establishes a foundation for enduring peace and freedom from suffering.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.17 युक्ताहारविहारस्य of one who is moderate in eating and recreation (such as walking? etc.)? युक्तचेष्टस्य कर्मसु of one who is moderate in exertion in actions? युक्तस्वप्नावबोधस्य of one who is moderate in sleep and wakefulness? योगः Yoga? भवति becomes? दुःखहा the destroyer of pain.Commentary In this verse the Lord prescribes for the student of Yoga? diet? recreation and th like. The student of Yoga should always adopt the happy medium or the middle course. Lord Buddha went to the extremes in the beginning in matters of food? drink? etc. He was very abstemious and became extremely weak. He tortured his body very much. Therefore he was not able to attain to success in Yoga. Too much of austerity is not necessary for Selfrealisation. This is condemned by the Lord in chapter XVII? verses 5 and 6. Austerity should not mean selftorture. Then it becomes diabolical. The Buddi Yoga of Krishna is a wise approach to austerity. Some aspirants take asceticism as the goal it is only the means but not the end. The nervous system is extremely,sensitive. It responds even to very slight changes and causes distraction of the mind. It is? therefore? very necessary that you should lead a very regulated and disciplined life and should be moderate in food? sleep and recreation. Take measured food. Sleep and wake up at the prescribed time. Sleeo at 9 or 10 p.m. and get up at 3 or 4 a.m. Only then will you attain to success in Yoga which will kill all sorts or pains and sorrows of this life.

Shri Purohit Swami

6.17 But for him who regulates his food and recreation, who is balanced in action, in sleep and in waking, it shall dispel all unhappiness.

Dr. S. Sankaranarayan

6.17. The Yoga becomes a misery-killer for him whose effort for food is appropriate, exertion in activities is proper, and sleep and waking are proportionate.

Swami Adidevananda

6.17 Yoga becomes the destroyer of sorrows to him who is temperate in food and recreation, who is temperate in actions, who is temperate in sleep and wakefulness.

Swami Gambirananda

6.17 Yoga becomes a destroyer of sorrow of one whose eating and movements are regulated, whose effort in works is moderate, and whose sleep and wakefulness are temperate.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.17।। इस श्लोक में वर्णित नियमों का जीवन में पालन करने से ध्यान का अभ्यास सहज सुलभ हो जाता है। आहारविहारादि में संयम रखने पर भगवान् विशेष बल देते हैं।आत्मसंयम के श्रेष्ठ जीवन का वर्णन करने में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनका भाव गम्भीर है और अर्थ व्यापक। साधारणत साधक निस्वार्थ कर्म को यह समझ कर अपनाते हैं कि यह कर्मपालन ही उन्हें आध्यात्मिक जीवन की योग्यता प्रदान करेगा। मुझे ऐसे अनेक साधक मिले हैं जो अपने ही प्रारम्भ किये गये कर्मों में इतना अधिक उलझ गये हैं कि वे उनसे बाहर निकल ही नहीं पाते। इस प्रकार स्वनिर्मित जाल से बचने का उपाय इस श्लोक में दर्शाया गया है।अपना कार्यक्षेत्र चुनने में विवेक का उपयोग करना ही चाहिए परन्तु तत्पश्चात् यह भी आवश्यक है कि हमारे प्रयत्न यथायोग्य हों। किसी श्रेष्ठ कर्म का चयन करने के पश्चात् यदि हम उसी मे उलझ जायँ तो वासनाक्षय के स्थान पर नवीन वासनाओं की निर्मिति की संभावना ही अधिक रहेगी। और तब हो सकता है कि कर्मों की थकान एवं विक्षेपों के कारण हम नीचे पशुत्व की श्रेणी में गिर सकते हैं।स्वप्न और अवबोध का सामान्य अर्थ क्रमश निद्रावस्था और जाग्रतअवस्था है। परन्तु इनमें एक अन्य गम्भीर अर्थ भी निहित है।उपनिषदों में पारमार्थिक सत्य के अज्ञान की अवस्था को निद्रा कहा गया है तथा उस अज्ञान के कारण प्रतीति और अनुभव में आनेवाली अवस्था को स्वप्न कहा गया है जिसमें हमारी जाग्रत अवस्था और स्वप्नावस्था दोनों ही सम्मिलित हैं। इस दृष्टि से वास्तविक अवबोध की स्थिति तो तत्त्व के यथार्थ ज्ञान की ही कही जा सकती है। अत इस श्लोक में कथित स्वप्न और अवबोध का अर्थ है जीव की जाग्रत अवस्था तथा ध्यानाभ्यास की अवस्था। इन दोनों में युक्त रहने का अर्थ यह होगा कि दैनिक कार्यकलापों में तो साधक को संयमित होना ही चाहिये तथा उसी प्रकार प्रारम्भ में ध्यानाभ्यास में भी मन को बलपूर्वक शान्त करके दीर्घ काल तक उस स्थिति में रहने का प्रयत्न्ा नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से थकान के कारण ध्यान में मन की रुचि कम हो सकती है।समस्त दुखों का नाश करने की सार्मथ्य ध्यान योग में होने के कारण इसका नित्य अभ्यास करना चाहिए।कब यह साधक युक्त बन जाता है उत्तर है

Swami Ramsukhdas

।।6.17।। व्याख्या-- युक्ताहारविहारस्य--भोजन सत्य और न्यायपूर्वक कमाये हुए धनका हो, सात्त्विक हो, अपवित्र न हो। भोजन स्वादबुद्धि और पुष्टिबुद्धिसे न किया जाय, प्रत्युत साधनबुद्धिसे किया जाय। भोजन धर्मशास्त्र और आयुर्वेदकी दृष्टिसे किया जाय तथा उतना ही किया जाय, जितना सुगमतासे पच सके। भोजन शरीरके अनुकूल हो तथा वह हलका और थोड़ी मात्रामें (खुराकसे थोड़ा कम) हो--ऐसा भोजन करनेवाला ही युक्त (यथोचित) आहार करनेवाला है।विहार भी यथायोग्य हो अर्थात् ज्यादा घूमनाफिरना न हो प्रत्युत स्वास्थ्यके लिये जैसा हितकर हो, वैसा ही घूमना-फिरना हो। व्यायाम, योगासन आदि भी न तो अधिक मात्रामें किये जायँ और न उनका अभाव ही हो। ये सभी यथायोग्य हों। ऐसा करनेवालोंको यहाँ युक्त-विहार करनेवाला बताया गया है।युक्तचेष्टस्य कर्मसु अपने वर्ण-आश्रमके अनुकूल जैसा देश, काल, परिस्थिति आदि प्राप्त हो जाय, उसके अनुसार शरीर-निर्वाहके लिये कर्म किये जायँ और अपनी शक्तिके अनुसार कुटुम्बियोंकी एवं समाजकी हितबुद्धिसे सेवा की जाय तथा परिस्थितिके अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय; उसको बड़ी प्रसन्नतापूर्वक किया जाय--इस प्रकार जिसकी कर्मोंमें यथोचित चेष्टा है, उसका नाम यहाँ 'युक्तचेष्ट' है।युक्तस्वप्नावबोधस्य--सोना इतनी मात्रामें हो, जिससे जगनेके समय निद्रा-आलस्य न सताये। दिनमें जागता रहे और रात्रिके समय भी आरम्भमें तथा रातके अन्तिम भागमें जागता रहे। रातके मध्यभागमें सोये। इसमें भी रातमें ज्यादा देरतक जागनेसे सबेरे जल्दी नींद नहीं खुलेगी। अतः जल्दी सोये और जल्दी जागे। तात्पर्य है कि जिस सोने और जागनेसे स्वास्थ्यमें बाधा न पड़े, योगमें विघ्न न आये, ऐसे यथोचित सोना और जागना चाहिये।यहाँ युक्तस्वप्नस्य कहकर निद्रावस्थाको ही यथोचित कह देते, तो योगकी सिद्धिमें बाधा नहीं लगती थी और पूर्वश्लोकमें कहे हुए 'अधिक सोना और बिलकुल न सोना'--इनका निषेध यहाँ 'यथोचित सोना' कहनेसे ही हो जाता, तो फिर यहाँ 'अवबोध' शब्द देनेमें क्या तात्पर्य है? यहाँ 'अवबोध' शब्द देनेका तात्पर्य है--जिसके लिये मानवजन्म मिला है, उस काममें लग जाना, भगवान्में लग जाना अर्थात् सांसारिक सम्बन्धसे ऊँचा उठकर साधनामें यथायोग्य समय लगाना। इसीका नाम जागना है।यहाँ ध्यानयोगीके आहार, विहार, चेष्टा, सोना और जगना--इन पाँचोंको 'युक्त' (यथायोग्य) कहनेका तात्पर्य है कि वर���ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति, जीविका आदिको लेकर सबके नियम एक समान नहीं चल सकते; अतः जिसके लिये जैसा उचित हो, वैसा करनेसे दुःखोंका नाश करनेवाला योग सिद्ध हो जाता है।योगो भवति दुःखहा इस प्रकार यथोचित आहार, विहार आदि करनेवाले ध्यानयोगीका दुःखोंका अत्यन्त अभाव करनेवाला योग सिद्ध हो जाता है। योग और भोगमें विलक्षण अन्तर है। योगमें तो भोगका अत्यन्त अभाव है, पर भोगमें योगका अत्यन्त अभाव नहीं है। कारण कि भोगमें जो सुख होता है, वह सुखानुभूति भी असत्के संयोगका वियोग होनेसे होती है। परन्तु मनुष्यकी उस वियोगपर दृष्टि न रहकर असत्के संयोगपर ही दृष्टि रहती है। अतः मनुष्य भोगके सुखको संयोगजन्य ही मान लेता है और ऐसा माननेसे ही भोगासक्ति पैदा होती है। इसलिये उसको दुःखोंका नाश करनेवाले योगका अनुभव नहीं होता। दुःखोंका नाश करनेवाला योग वही होता है, जिसमें भोगका अत्यन्त अभाव होता है।विशेष बात यद्यपि यह श्लोक ध्यानयोगीके लिये कहा गया है, तथापि इस श्लोकको सभी साधक अपने काममें ले सकते हैं और इसके अनुसार अपना जीवन बनाकर अपना उद्धार कर सकते हैं। इस श्लोकमें मुख्यरूपसे चार बातें बतायी गयी हैं--युक्त आहार-विहार, युक्त कर्म, युक्त सोना और युक्त जागना। इन चार बातोंको साधक काममें कैसे लाये? इसपर विचार करना है। हमारे पास चौबीस घंटे हैं और हमारे सामने चार काम हैं। चौबीस घंटोंको चारका भाग देनेसे प्रत्येक कामके लिये छः-छः घंटे मिल जाते हैं; जैसे--(1) आहार-विहार अर्थात् भोजन करना और घूमना-फिरना इन शारीरिक आवश्यक कार्योंके लिये छः घंटे। (2) कर्म अर्थात् खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका-सम्बन्धी कार्योंके लिये छः घंटे। (3) सोनेके लिये छः घंटे और (4) जागने अर्थात् भगवत्प्राप्तिके लिये जप, ध्यान, साधन-भजन, कथा-कीर्तन आदिके लिये छः घंटे। इन चार बातोंके भी दो-दो बातोंके दो विभाग हैं--एक विभाग 'उपार्जन' अर्थात् कमानेका है और दूसरा विभाग 'व्यय' अर्थात् खर्चेका है। युक्त कर्म और युक्त जगना--ये दो बातें उपार्जनकी हैं। युक्त आहार-विहार और युक्त सोना--ये दो बातें व्ययकी हैं। उपार्जन और व्यय--इन दो विभागोंके लिये हमारे पास दो प्रकारकी पूँजी है--(1) सांसारिक धन-धान्य और (2) आयु।                                                                                       मनुष्यके पास पूँजी।                                                                                                  |                   __________________________________________________________________________                                                                         |                                                                                                                                                    |           धन-धान्य                                                                                                                                            आयु  व्यय                        उपार्जन                                                                                              व्यय                                                     उपार्जन  आहार-विहार        जीविका-सम्बन्धी कर्म                                                                               सोना                                          जागना (साधन-भजन)      पहली--पूँजी धन-धान्यपर विचार किया जाय तो उपार्जन अधिक करना तो चला जायगा, पर उपार्जनकी अपेक्षा अधिक खर्चा करनेसे काम नहीं चलेगा। इसलिये आहार-विहारमें छः घंटे न लगाकर चार घंटेसे ही काम चला ले और खेती, व्यापार आदिमें आठ घंटे लगा दे। तात्पर्य है कि आहार-विहारका समय कम करके जीविका-सम्बन्धी कार्योंमें अधिक समय लगा दे।दूसरी पूँजी--आयुपर विचार किया जाय तो सोनेमें आयु व्यर्थ खर्च होती है। अतः सोनेमें छः घंटे न लगाकर चार घंटेसे ही काम चला ले और भजन-ध्यान आदिमें आठ घंटे लगा दे। तात्पर्य है कि जितना कम सोनेसे काम चल जाय, उतना चला ले और नींदका बचा हुआ समय भगवान्के भजन-ध्यान आदिमें लगा दे। इस उपार्जुन-(साधन-भजन-) की मात्रा तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहनी चाहिये; क्योंकि हम यहाँ सांसारिक धन-वैभव आदि कमानेके लिये नहीं आये हैं, प्रत्युत परमात्माकी प्राप्ति करनेके लिये ही आये हैं। इसलिये दूसरे समयमेंसे जितना समय निकाल सकें, उतना समय निकालकर अधिक-से-अधिक भजन-ध्यान करना चाहिये।दूसरी बात, जीविका-सम्बन्धी कर्म करते समय भी भगवान्को याद रखे और सोते समय भी भगवान्को याद रखे। सोते समय यह समझे कि अबतक चलते-फिरते, बैठकर भजन किया है, अब लेटकर भजन करना है। लेटकर भजन करते-करते नींद आ जाय तो आ जाय, पर नींदके लिये नींद नहीं लेनी है। इस प्रकार लेटकर भगवत्स्मरण करनेका समय पूरा हो गया, तो फिर उठकर भजन-ध्यान, सत्सङ्ग-स्वाध्याय करे और भगवत्स्मरण करते हुए ही काम-धंधेमें लग जाय, तो सब-का-सब काम-धंधा भजन हो जायगा।  सम्बन्ध  पीछेके दो श्लोकोंमें ध्यानयोगीके लिये अन्वय-व्यतिरेक-रीतिसे खास नियम बता दिये। अब ऐसे नियमोंका पालन करते हुए स्वरूपका ध्यान करनेवाले साधककी क्या स्थिति होती है, यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.17।। उस पुरुष के लिए योग दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.17।।युक्ताहारविहारस्य सोपायाहारादेः। यावता श्रमाद्यभावो भवति तावदाहारादेरित्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।6.17।।आहारनिद्रादिनियमविरहिणो योगव्यतिरेकमुक्त्वा तन्नियमवतो योगान्वयमन्वाचष्टे कथं पुनरित्यादिना। अन्नस्य नियतत्वमर्धमशनस्येत्यादि विहारस्य नियतत्वं योजनान्न परं गच्छेदित्यादि कर्मसु चेष्टाया नियतत्वं वाङ्नियमादि रात्रौ प्रथमतो दशघटिकापरिमिते काले जागरणं मध्यतः स्वपनं पुनरपि दशघटिकापरिमिते जागरणमिति स्वप्नावबोधयोर्नियतकालत्वम्। एवं प्रयतमानस्य योगिनो भवतो योगस्यफलमाह दुःखहेति। सर्वाणीत्याध्यात्मिकादिभेदभिन्नानीत्यर्थः। यथोक्तयोगमन्तरेणापि स्वप्नादौ दुःखनिवृत्तिरस्तीति विशिनष्टि सर्वेति। विशुद्धविज्ञानद्वारेति शेषः।

Sri Vallabhacharya

।।6.16 6.17।।तमेव परावृत्त्या द्रढयति नात्यश्नत इति स्पष्टम्। किन्तु युक्ताहारविहारस्य योगो दुःखहा भवति।

Sridhara Swami

।।6.17।।तर्हि कथंभूतस्य योगो भवतीत्यत आह युक्तेति। युक्तो नियत आहारो विहारश्च गतिर्यस्य कर्मसु कार्येषु युक्ता नियतैव चेष्टा यस्य युक्तौ नियतौ स्वप्नावबोधौ निद्राजागरौ यस्य तस्य दुःखनिवर्तको योगो भवति सिध्यति।

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