Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 11 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Preparation & Foundation

Sanskrit Shloka (Original)

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः | नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ||६-११||

Transliteration

śucau deśe pratiṣṭhāpya sthiramāsanamātmanaḥ . nātyucchritaṃ nātinīcaṃ cailājinakuśottaram ||6-11||

Word-by-Word Meaning

शुचौin a clean
देशेspot
प्रतिष्ठाप्यhaving established
स्थिरम्firm
आसनम्seat
आत्मनःhis own
not
अत्युच्छ्रितम्very high
not
अतिनीचम्very low
चैलाजिनकुशोत्तरम्a cloth

📖 Translation

English

6.11 In a clean spot, having established a firm seat of his own, neither too high nor too low, made of a cloth, a skin and Kusa-grass, one over the other.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.11।। शुद्ध (स्वच्छ) भूमि में कुश, मृगशाला और उस पर वस्त्र रखा हो ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके....৷৷.।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivating an optimal work environment, free from clutter and distractions, is crucial for deep work and sustained focus. Just as a stable seat supports meditation, a well-organized, ergonomic, and dedicated workspace provides the foundation for peak productivity and professional effectiveness.

🧘 For Stress & Anxiety

Creating a dedicated, clean, and comfortable personal space—even a small corner—can serve as a sanctuary for mindfulness practices, journaling, or simply quiet reflection. This 'sacred spot' provides psychological grounding and a buffer against external chaos, fostering mental clarity and emotional stability.

❤️ In Relationships

Just as one prepares a stable seat for internal practice, cultivating internal stability and a 'clean slate' (freedom from preconceived notions or emotional clutter) before engaging in significant relationship discussions or interactions can lead to more grounded, productive, and harmonious outcomes. It's about establishing a firm internal foundation before engaging externally.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Intentional creation of a conducive external environment is foundational for internal stability and effective engagement.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.11 शुचौ in a clean? देशे spot? प्रतिष्ठाप्य having established? स्थिरम् firm? आसनम् seat? आत्मनः his own? न not? अत्युच्छ्रितम् very high? न not? अतिनीचम् very low? चैलाजिनकुशोत्तरम् a cloth? skin and Kusagrass? one over the other.Commentary In this verse the Lord has prescribed the external seat for practising meditation. Details of the pose are given in verse 13.Spread the Kusagrass on the ground first. Over this spread a tigerskin or deerskin over this spread a white cloth.Sit on a naturally clean spot? such as the bank of a river. Or? make the place clean? wherever you want to practise meditation.

Shri Purohit Swami

6.11 Having chosen a holy place, let him sit in a firm posture on a seat, neither too high nor too low, and covered with a grass mat, a deer skin and a cloth.

Dr. S. Sankaranarayan

6.11. Setting up in a clean place his own [suitable] firm seat which is predominantly of cloth, skin and kusa-grass, and which, is neither too high nor too low for him;

Swami Adidevananda

6.11 Having established for himself, in a clean spot, a firm seat, which is neither too hight nor too low, and covering it with cloth, deer-skin and Kusa grass in the reverse order -

Swami Gambirananda

6.11 Having firmly established in a clean place his seat, neither too high nor too low, and made of cloth, skin and kusa-grass, placed successively one below the other;

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.11।। परम शांति एवं समदृष्टि प्राप्त करने का साधन निदिध्यासन है और इसलिए आवश्यक है कि भगवान् यहाँ उस विधि का विस्तृत वर्णन करें। यहाँ कुछ श्लोकों में साधक के लिए आसन साधन एवं ध्यान के फल को बताया गया है।विचाराधीन श्लोक में स्थान एवं आसन का वर्णन है। शुद्ध भूमि में बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों का मनुष्य के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए ध्यानाभ्यास का स्थान स्वच्छ एवं शुद्ध होना चाहिए। मन की शुद्धि में भी वह उपयोगी होता है। व्याख्याकार बताते हैं कि वह स्थान मच्छर मक्खी चींटी खटमल आदि कृमि कीटों से रहित होना चाहिए जो प्रारम्भ में साधक की एकाग्रता में बाधक हो सकते हैं।आसन के विषय में कहते हैं कि वह स्थिर होना चाहिए। उसे न अति ऊँचा और न अति नीचा होना चाहिए। ऊँचे से तात्पर्य पर्वत की चोटी से है। ऐसे स्थान पर बैठने से साधक के मन में असुरक्षा का भय उत्पन्न हो सकता है और उस स्थिति में बाह्य जगत् से मन को हटाकर आत्मा में स्थिर करना अत्यन्त कठिन होगा। इसी प्रकार नीचे का अर्थ जमीन के अन्दर गुफा आदि। ऐसा स्थान गीला आदि होने से जोड़ो में पीड़ा होने की सम्भावना रहती है। ध्यानाभ्यास के समय हृदय की गति तथा रक्त प्रवाह का दबाव भी कुछ धीमा पड़ जाता है और तब नीचा स्थान और भी हानिकारक हो सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि ध्यान का स्थान न अति ऊँचा हो न अति नीचा।गीता में किसी भी विषय का वर्णन किया जाता है तो कोई भी बात अनकही नहीं रहती कि जिससे विद्यार्थी उसे स्वयं समझ न सके। ध्यानविधि का वर्णन इसका स्पष्ट उदाहरण है। कुश नामक घास के ऊपर मृगछाला बिछाकर उसके ऊपर स्वच्छ वस्त्र को बिछाने से उपयुक्त आसन बनता है। कुशा घास से भूमि के गीलेपन से सुरक्षा होती है। उसी प्रकार ग्रीष्मकाल में मृगछाला के भी गर्म होने से साधक के स्वेद आने से एकाग्रता में बाधा आ सकती है। उसे दूर करने के लिए मृगचर्म पर वस्त्र बिछाने को कहा गया है। ऐसे उपयुक्त आसन पर बैठने के पश्चात् साधक को मन और बुद्धि से क्या करना चाहिए इसका उपदेश अगले श्लोक में किया गया है।

Swami Ramsukhdas

।।6.11।। व्याख्या--'शुचौ देशे'--भूमिकी शुद्धि दो तरहकी होती है--(1) स्वाभाविक शुद्ध स्थान; जैसे--गङ्गा आदिका किनारा; जंगल; तुलसी, आँवला, पीपल आदि पवित्र वृक्षोंके पासका स्थान आदि और (2) शुद्ध किया हुआ स्थान; जैसे--भूमिको गायके गोबरसे लीपकर अथवा जल छिड़ककर शुद्ध किया जाय; जहाँ मिट्टी हो, वहाँ ऊपरकी चार-पाँच अंगुली मिट्टी दूर करके भूमिको शुद्ध किया जाय। ऐसी स्वाभाविक अथवा शुद्ध की हुई समतल भूमिमें काठ या पत्थरकी चौकी आदिको लगा दे। 'चैलाजिनकुशोत्तरम्'--यद्यपि पाठके अनुसार क्रमशः वस्त्र, मृगछाला और कुश बिछानी चाहिये (टिप्पणी प0 343), तथापि बिछानेमें पहले कुश बिछा दे, उसके ऊपर बिना मारे हुए मृगका अर्थात् अपने-आप मरे हुए मृगका चर्म बिछा दे; क्योंकि मारे हुए मृगका चर्म अशुद्ध होता है। अगर ऐसी मृगछाला न मिले, तो कुशपर टाटका बोरा अथवा ऊनका कम्बल बिछा दे। फिर उसके ऊपर कोमल सूती कपड़ा बिछा दे।वाराहभगवान्के रोमसे उत्पन्न होनके कारण कुश बहुत पवित्र माना गया है; अतः उससे बना आसन काममें लाते हैं। ग्रहण आदिके समय सूतकसे बचनेके लिये अर्थात् शुद्धिके लिये कुशको पदार्थोंमें, कपड़ोंमें रखते हैं। पवित्री, प्रोक्षण आदिमें भी इसको काममें लेते हैं। अतः भगवान्ने कुश बिछानेके लिये कहा है।कुश शरीरमें गड़े नहीं और हमारे शरीरमें जो विद्युत्शक्ति है वह आसानमेंसे होकर जमीनमें न चली जाय, इसलिये (विद्युत्शक्तिको रोकनेके लिये) मृगछाला बिछानेका विधान आया है।मृगछालाके रोम (रोएँ) शरीरमें न लगें और आसन कोमल रहे, इसलिये मृगछालाके ऊपर सूती शुद्ध कपड़ा बिछानेके लिये कहा गया है। अगर मृगछालाकी जगह कम्बल या टाट हो, तो वह गरम न हो जाय, इसलिये उसपर सूती कपड़ा बिछाना चाहिये।'नात्युच्छ्रितं नातिनीचम्'--समतल शुद्ध भूमिमें जो तख्त या चौकी रखी जाय, वह न अत्यन्त ऊँची हो और न अत्यन्त नीची हो। कारण कि अत्यन्त ऊँची होनेसे ध्यान करते समय अचानक नींद आ जाय तो गिरनेकी और चोट लगनेकी सम्भावना रहेगी और अत्यन्त नीची होनेसे भूमिपर घूमनेवाले चींटी आदि जन्तुओंके शरीरपर चढ़ जानेसे और काटनेसे ध्यानमें विक्षेप होगा। इसलिये अति ऊँचे और अति नीचे आसनका निषेध किया गया है।'प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः'--ध्यानके लिये भूमिपर जो आसन--चौकी या तख्त रखा जाय, वह हिलनेवाला न हो। भूमि��र उसके चारों पाये ठीक तरहसे स्थिर रहें।जिस आसनपर बैठकर ध्यान आदि किया जाय, वह आसन अपना होना चाहिये, दूसरेका नहीं; क्योंकि दूसरेका आसन काममें लिया जाय तो उसमें वैसे ही परमाणु रहते हैं। अतः यहाँ'आत्मनः' पदसे अपना आसन अलग रखनेका विधान आया है। इसी तरहसे गोमुखी, माला, सन्ध्याके पञ्चपात्र, आचमनी आदि भी अपने अलग रखने चाहिये। शास्त्रोंमें तो यहाँतक विधान आया है कि दूसरोंके बैठनेका आसन, पहननेकी जूती, खड़ाऊँ, कुर्ता आदिको अपने काममें लेनेसे अपनेको दूसरोंके पाप-पुण्यका भागी होना पड़ता है! पुण्यात्मा सन्त-महात्माओंके आसनपर भी नहीं बैठना चाहिये; क्योंकि उनके आसन, कपड़े आदिको पैरसे छूना भी उनका निरादर करना है, अपराध करना है।

Swami Tejomayananda

।।6.11।। शुद्ध (स्वच्छ) भूमि में कुश, मृगशाला और उस पर वस्त्र रखा हो ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके....৷৷.।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.10 6.11।।समाधियोगप्रकारमाह योगं युञ्जीतेत्यादिना इति। युञ्जीत समाधियोगयुक्तं कुर्यात्। आत्मानं मनः।

Sri Anandgiri

।।6.11।।योगं योगाङ्गानि चोपदिश्योत्तरसंदर्भस्य तात्पर्यमाह अथेति। योगस्वरूपकतिपयतदङ्गप्रदर्शनानन्तर्यमथशब्दार्थः। विहारादीनामित्यादिशब्देन यथोक्तासनादिगतावान्तरभेदग्रहणम्। तत्फलादि चेत्यादिशब्देन योगफलसम्यग्ज्ञानं च तत्फलं कैवल्यं ततो भ्रष्टस्यात्यन्तिकविनष्टत्वमित्यादि गृह्यते। एवं समुदायतात्पर्ये दर्शिते किमासीनः शयानस्तिष्ठन्गच्छन्कुर्वन्वा युञ्जीतेत्यपेक्षायामनन्तरश्लोकतात्पर्यमाह तत्रेति। निर्धारणे सप्तमी। प्रथमं योगानुष्ठानस्य प्रधानम्असीनः संभवात् इति न्यायादिति यावत्। विविक्तत्वं द्वेधा विभजते स्वभावत इति। आसनस्यास्थैर्ये तत्रोपविश्य योगमनुतिष्ठतः समाधानायोगाद्योगासिद्धिरित्यभिसंधाय विशिनष्टि अचलनमिति। आस्यतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्तिमनुसृत्याह आसनमिति। आत्मन इति परकीयासनव्युदासार्थं पतनभयपरिहारार्थं नात्युच्चमित्युक्तं नाप्यतिनीचमिति भूतलपाषाणादिसंश्लेषे वातक्षोभाग्निमान्द्यादिसंभावितदोषनिरासार्थं चैलं वस्त्रमजिनं चर्म पशूनां तच्च मृगस्य कुशा दर्भास्ते चोत्तरे यस्मिन्नुपरिष्टादारभ्य तत्तथोक्तम्। प्रथमं चैलं ततोऽजिनं ततश्च कुशा इति प्रतिपन्नपाठक्रममापातिकं क्रममतिक्रम्यादौ कुशास्ततोऽजिनं ततश्चैलमिति क्रमं विवक्षित्वाह विपरीतोऽवेति।

Sri Vallabhacharya

।।6.10 6.13।।एवं योगारूढस्य स्वरूपमुक्त्वाऽऽरुरुक्षोः साङ्गं योगं विदधतः सिद्धिमाह योगी इत्यादिनामत्संस्थामधिगच्छति 15 इत्यन्तेन। योगी युञ्जानो रहसि स्थितः आत्मानं सततं युञ्जीत।

Sridhara Swami

।।6.11।।आसननियमं दर्शयन्नाह शुचाविति द्वाभ्याम्। शुद्धे स्थाने आत्मनः स्वस्यासनं स्थापयित्वा। कीदृशम्। स्थिरमचलम्। नातिचोन्नतं न चातिनीचं च। चैलं वस्त्रमजिनं व्याघ्रादिचर्म चैलाजिने कुशेभ्य उत्तरे यस्मिन्। कुशानामुपरिचर्म तदुपरि वस्त्रमास्तीर्येत्यर्थः।

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