Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 1 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ||६-१||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . anāśritaḥ karmaphalaṃ kāryaṃ karma karoti yaḥ . sa saṃnyāsī ca yogī ca na niragnirna cākriyaḥ ||6-1||

Word-by-Word Meaning

अनाश्रितःnot depending (on)
कर्मफलम्fruit of action
कार्यम्bounden
कर्मduty
करोतिperforms
यःwho
सःhe
संन्यासीSannyasi (ascetic)
and
योगीYogi
and
not
निरग्निःwithout fire
not
and
अक्रियःwithout action.Commentary Actions such as Agnihotra

📖 Translation

English

6.1 The Blessed Lord said He who performs his bounden duty without depending on the fruits of his actions he is a Sannyasi and a Yogi; not he who is without fire and without action.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Focus on performing your job duties with excellence and integrity, regardless of immediate promotions, recognition, or financial rewards. Let the quality of your work be its own reward, cultivating a sense of purpose beyond just outcomes. This fosters intrinsic motivation and resilience against career setbacks.

🧘 For Stress & Anxiety

Reduce anxiety and mental pressure by detaching from the anticipated results of your actions. Concentrate fully on the task at hand, knowing you have done your best, and letting go of the need to control or predict the outcome. This cultivates equanimity, allowing you to remain steady in success and failure.

❤️ In Relationships

Fulfill your roles and responsibilities within relationships (as a friend, partner, parent, child) out of genuine care and duty, without constantly expecting specific returns, validation, or attempting to control the other person's actions or feelings. This fosters healthier, less co-dependent interactions and reduces relational strain.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True renunciation is not the abandonment of action, but the performance of one's duty with complete detachment from its fruits, leading to inner peace and unwavering purpose.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.1 अनाश्रितः not depending (on)? कर्मफलम् fruit of action? कार्यम् bounden? कर्म duty? करोति performs? यः who? सः he? संन्यासी Sannyasi (ascetic)? च and? योगी Yogi? च and? न not? निरग्निः without fire? न not? च and? अक्रियः without action.Commentary Actions such as Agnihotra? etc.? performed without the expectation of their fruits purify the mind and become the means to Dhyana Yoga or the Yoga of Meditation.Karyam Karma bounden duty.Niragnih without fire. He who has renounced the daily rituals like Agnihotra? which are performed with the help of fire.Akriya without action. He who has renounced austerities and other meritorious acts like building resthouses? charitable dispensaries? digging wells? feeding the poor? etc.Sannyasi he who has renounced the fruits of his actions.Yogi he who has a steady mind. These two terms are applied to him in a secondary sense only. They are not used to denote that he is in reality a Sannyasi and a Yogi.The Sannyasi performs neither Agnihotra nor other ceremonies. But simply to omit these without genuine renunciation will not make one a real Sannyasi. (Cf.V.3)

Shri Purohit Swami

6.1 "Lord Shri Krishna said: He who acts because it is his duty, not thinking of the consequences, is really spiritual and a true ascetic; and not he who merely observes rituals or who shuns all action.

Dr. S. Sankaranarayan

6.1. The Bhagavat said He who performs his bounden action, not depending on its fruit, in the man of renunciation and also the man of Yoga ! and not he, who remains [simply] without his fires and actions [is a Samnyasin or a Yogin]

Swami Adidevananda

6.1 The Lord said He who performs works that ought to be done without seeking their fruits - he is a Sannyasin and Yogin, and not he who maintains no sacred fires and performs no actions.

Swami Gambirananda

6.1 The Blessed Lord said He who performs an action which is his duty, without depending on the result of action, he is a monk and a yogi; (but) not (so in) he who does not keep a fire and is actionless.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.1।। प्रथम अध्याय में अर्जुन का विचार युद्धभूमि से पलायन करके संन्यास जीवन व्यतीत करने का था। उसे यह नहीं ज्ञात था कि निस्वार्थ भाव से कर्म करने वाला कर्मयोगी पुरुष ही सबसे बड़ा संन्यासी है। स्वार्थ का त्याग किये बिना कर्म का आचरण अथवा उससे पलायन करने का अर्थ है विश्व के सामंजस्य में अनर्थकारी हस्तक्षेप करना।मन की अपरिपक्व स्थिति में जीवन संघर्ष से पलायन करके गंगा के किनारे शान्त वातावरण में ध्यानाभ्यास के लिए जाने से सामान्य स्तर के अच्छे मनुष्य का भी गंगा में पड़े पाषाण के स्तर तक पतन होगा इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के इस त्रुटिपूर्ण विचार की मानो हंसी उड़ाते हैं। परन्तु भगवान् के व्यंग्य में किसी प्रकार की कटुता नहीं है। हम आगे देखेंगे कि अर्जुन को स्वयं भी अपनी गलत धारणा पर हंसी आती है।निदिध्यासन की सफलता के लिए आन्तरिक शक्तियों का विकास तथा उनका सही दिशा में उचित उपयोग करना भी अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् ने इस अध्याय में हमारे मन के उद्देश्यों तथा भावनाओं मंे परिवर्तन लाने के लिए विशेष बल दिया है। इसके द्वारा हम आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश कर सकते हैं।

Swami Ramsukhdas

।।6.1।। व्याख्या--अनाश्रितः कर्मफलम् इन पदोंका आशय यह प्रतीत होता है कि मनुष्यको किसी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदिका आश्रय नहीं रखना चाहिये। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य-निरन्तर रहनेवाला है और यह जिन वस्तु, व्यक्ति आदिका आश्रय लेता है, वे उत्पत्ति-विनाशशील तथा प्रतिक्षण परिवर्तित होनेवाले हैं। वे तो परिवर्तनशील होनेके कारण नष्ट हो जाते हैं और यह (जीव) रीता-का-रीता रह जाता है। केवल रीता ही नहीं रहता, प्रत्युत उनके रागको पकड़े रहता है। जबतक यह उनके रागको पकड़े रहता है, तबतक इसका कल्याण नहीं होता अर्थात् वह राग उसके ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बन जाता है (गीता 13। 21)। अगर यह उस रागका त्याग कर दे तो यह स्वतः मुक्त हो जायगा। वास्तवमें यह स्वतः मुक्त है ही, केवल रागके कारण उस मुक्तिका अनुभव नहीं होता। अतः भगवान् कहते हैं कि मनुष्य कर्मफलका आश्रय न रखकर कर्तव्य-कर्म करे। कर्मफलके आश्रयका त्याग करनेवाला तो नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है, पर कर्मफलका आश्रय रखनेवाला बँध जाता है (गीता 5। 12)।स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीनों शरीर 'कर्मफल' हैं। इन तीनोंमेंसे किसीका भी आश्रय न लेकर इनको सबके हितमें लगाना चाहिये। जैसे, स्थूलशरीरसे क्रियाओँ और पदार्थोंको संसारका ही मानकर उनका उपयोग संसारकी सेवा-(हित-) में करे, सूक्ष्मशरीरसे दूसरोंका हित कैसे हो, सब सुखी कैसे हों, सबका उद्धार कैसे हो--ऐसा चिन्तन करे; और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता-(समाधि-) का भी फल संसारके हितके लिये अर्पण करे। कारण कि ये तीनों शरीर अपने (व्यक्तिगत) नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही हैं। इन तीनोंकी संसारके साथ अभिन्नता और अपने स्वरूपके साथ भिन्नता है। इस तरह इन तीनोंका आश्रय न लेना ही 'कर्मफलका' आश्रय न लेना' है और इन तीनोंसे केवल संसारके हितके लिये कर्म करना ही 'कर्तव्य-कर्म करना' है।आश्रय न लेनेका तात्पर्य हुआ कि साधनरूपसे तो शरीरादिको दूसरोंके हितके लिये काममें लेना है, पर स्वयं उनका आश्रय नहीं लेना है अर्थात् उनको अपना और अपने लिये नहीं मानना है। कारण कि मनुष्य-जन्ममें शरीर आदिका महत्त्व नहीं है ,प्रत्युत शरीर आदिके द्वारा किये जानेवाले साधनका महत्त्व है। अतः संसारसे मिली हुई चीज संसारको दे दें, संसारकी सेवामें लगा दें तो हम 'संन्यासी' हो गये और मिली हुई चीजमें अपनापन छोड़ दें तो हम 'त्यागी' हो गये।कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करनेसे क्या होगा? अपने लिये कर्म न करनेसे नयी आसक्ति तो बनेगी नहीं और केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुरानी आसक्ति मिट जायगी तथा कर्म करनेका वेग भी मिट जायगा। इस प्रकार आसक्तिके सर्वथा मिटनेसे ���ुक्ति स्वतःसिद्ध है। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओँको पकड़नेका नाम बन्धन है और उनसे छूटनेका नाम मुक्ति है। उन उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे छूटनेका उपाय है--उनका आश्रय न लेना अर्थात् उनके साथ ममता न करना और अपने जीवनको उनके आश्रित न मानना।'कार्यं कर्म करोति यः'--कर्तव्यमात्रका नाम कार्य है। कार्य और कर्तव्य--ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। कर्तव्य-कर्म उसे कहते हैं, जिसको हम सुखपूर्वक कर सकते हैं, जिसको जरूर करना चाहिये और जिसका त्याग कभी नहीं करना चाहिये।'कार्यं कर्म'--अर्थात् कर्तव्य-कर्म असम्भव तो होता ही नहीं, कठिन भी नहीं होता। जिसको करना नहीं चाहिये, वह कर्तव्य-कर्म होता ही नहीं। वह तो अकर्तव्य (अकार्य) होता है। वह अकर्तव्य भी दो तरहका होता है--(1) जिसको हम कर नहीं सकते अर्थात् जो हमारी सामर्थ्यके बाहरका है, और (2) जिसको करना नहीं चाहिये अर्थात् जो शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध है। ऐसे अकर्तव्यको कभी भी करना नहीं चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मफलका आश्रय न लेकर शास्त्रविहित और लोक-मर्यादाके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्मको निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये ही करना चाहिये।कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं--कर्मफलकी प्राप्तिके लिये और कर्म तथा उसके फलकी आसक्ति मिटानेके लिये। यहाँ कर्म और उसके फलकी आसक्ति मिटानेके लिये ही प्रेरणा की गयी है।'स संन्यासी च योगी च'--इस प्रकार कर्म करनेवाला ही संन्यासी और योगी है। वह कर्तव्य-कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है, इसलिये वह 'संन्यासी' है और उन कर्तव्य-कर्मोंको करते हुए वह सुखी-दुःखी नहीं होता अर्थात् कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है, इसलिये वह 'योगी' है।तात्पर्य यह हुआ कि कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्म करनेसे उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्वका नाश हो जाता है अर्थात् उसका न तो कर्मके साथ सम्बन्ध रहता है और न फलके साथ ही सम्बन्ध रहता है, इसलिये वह 'संन्यासी' है। वह कर्म करनेमें और कर्मफलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहता है, इसलिये वह 'योगी' है। यहाँ पहले संन्यासी पद कहनेमें यह भाव मालूम देता है कि अर्जुन स्वरूपसे कर्मोंके त्यागको श्रेष्ठ मानते थे। इसीसे अर्जुनने (2। 5 में) कहा था कि युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करना श्रेष्ठ है। इसलिये यहाँ भगवान् पहले 'संन्यासी' पद देकर अर्जुनसे कह रहे हैं कि हे अर्जुन! तू जिसको संन्यास मानता है वह वास्तवमें संन्यास नहीं है, प्रत्युत जो कर्मफलका आश्रय छोड़कर अपने कर्तव्यरूप कर्मको केवल दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-बुद्धिसे करता है, वही वास्तवमें सच्चा संन्यासी है।'न निरग्निः'-- केवल अग्निरहित होनेसे संन्यासी नहीं होता अर्थात् जिसने ऊपरसे तो यज्ञ, हवन आदिका त्याग कर दिया है पदार्थोंका त्याग कर दिया है, पर भीतरमें क्रियाओँ और पदार्थोंका राग है, महत्त्व है, प्रियता है, वह कभी सच्चा संन्यासी नहीं हो सकता।'न अक्रियः'--लोगोंकी प्रायः यह धारणा रहती है कि जो मनुष्य कोई भी क्रिया नहीं करता, स्वरूपसे क्रियाओँ और पदार्थोंका त्याग करके वनमें चला जाता है अथवा निष्क्रिय होकर समाधिमें बैठा रहता है, वही योगी होता है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि जबतक मनुष्य उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओँके आश्रयका त्याग नहीं करता और मनसे उनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़े रखता है, तबतक वह कितना ही अक्रिय हो जाय, चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा निरोध कर ले, पर वह योगी नहीं हो सकता। हाँ ,चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा निरोध होनेसे उसको तरह-तरहकी सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं; पर कल्याण नहीं हो सकता। तात्पर्य यह हुआ कि केवल बाहरसे अक्रिय होनेमात्रसे कोई योगी नहीं होता। योगी वह होता है, जो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओँ-(कर्मफल-) का आश्रय न रखकर कर्तव्य-कर्म करता है।मनुष्योंमें कर्म करनेका एक वेग रहता है, जिसको कर्मयोगकी विधिसे कर्म करके ही मिटाया जा सकता है, अन्यथा वह शान्त नहीं होता। प्रायः यह देखा गया है कि जो साधक सम्पूर्ण क्रियाओंसे उपरत होकर एकान्तमें रहकर जप-ध्यान आदि साधन करते हैं, ऐसे एकान्तप्रिय अच्छे-अच्छे साधकोंमें भी लोगोंका उद्धार करनेकी प्रवृत्ति बड़े जोरसे पैदा हो जाती है और वे एकान्तमें रहकर साधन करना छोड़कर लोगोंके उद्धारकी क्रियाओँमें लग जाते हैं।सकामभावसे अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे कर्म करनेका वेग बढ़ता है। यह वेग तभी शान्त होता है, जब साधक अपने लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म केवल लोकहितार्थ हीकरता है। इस तरह केवल निष्कामभावसे दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्म करनेका वेग शान्त हो जाता है और समताकी प्राप्ति हो जाती है। समताकी प्राप्ति होनेपर समरूप परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।विशेष बात शरीर-संसारमें अहंता-ममता करना कर्मका फल नहीं है। यह अहंता-ममता तो मनुष्यकी मानी हुई है; अतः यह बदलती रहती है। जैसे, मनुष्य कभी गृहस्थ होता है तो वह अपनेको मानता है कि 'मैं गृहस्थ हूँ' और वही जब साधु हो जाता है, तब अपनेको मानता है कि 'मैं साधु हूँ' अर्थात् उसकी 'मैं गृहस्थ हूँ' यह अहंता मिट जाती है। ऐसे ही 'यह वस्तु मेरी है' इस प्रकार मनुष्यकी उस वस्तुमें ममता रहती है और वही वस्तु दूसरेको दे देता है, तब उस वस्तुमें ममता नहीं रहती। इससे यह सिद्ध हुआ कि अहंता-ममता मानी हुई है, वास्तविक नहीं है। अगर वह वास्तविक होती, तो कभी मिटती नहीं--'नाभावो विद्यते सतः' और अगर मिटती है तो वह वास्तविक नहीं है--'नासतो विद्यते भावः' (गीता 2। 16)।अहंता-ममताका जो आधार है, आश्रय है, वह तो साक्षात् परमात्माका अंश है। उसका कभी अभाव नहीं होता। उसकी सब जगह व्यापक परमात्माके साथ एकता है। उसमें अहंता-ममताकी गन्ध भी नहीं है। अहंता-ममता तो प्राकृत पदार्थोंके साथ तादात्म्य करनेसे प्रतीत होती है। तादात्म्य करने और न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। जैसे--'मैं गृहस्थ हूँ', 'मैं साधु हूँ',--ऐसा माननेमें और 'वस्तु मेरी है', 'वस्तु मेरी नहीं है'--ऐसा माननेमें अर्थात् अहंता-ममताका सम्बन्ध जोड़नेमें और छोड़नेमें यह मनुष्य स्वतन्त्र और समर्थ है। इसमें यह पराधीन और असमर्थ नहीं है; क्योंकि शरीर आदिके साथ सम्बन्ध स्वयं चेतनने जोड़ा है, शरीर तथा संसारने नहीं। अतः जिसको जोड़ना आता है, उसको तोड़ना भी आता है।सम्बन्ध जोड़नेकी अपेक्षा तोड़ना सुगम है। जैसे, मनुष्य बाल्यावस्थामें 'मैं बालक हूँ' और युवावस्थामें 'मैं जवान हूँ'--ऐसा मानता है। इसी तरह वह बाल्यावस्थामें 'खिलौने मेरे हैं'--ऐसा मानता है और युवावस्थामें 'रुपयेपैसे मेरे हैं'--ऐसा मानता है। इस प्रकार मनुष्यको बाल्यावस्था आदिके साथ और खिलौने आदिके साथ खुद सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। परन्तु इनके साथ सम्बन्धको तोड़ना नहीं पड़ता, प्रत्युत सम्बन्ध स्वतः टूटता चला जाता है। तात्पर्य है कि बाल्यावस्था आदिकी अहंता शरीरके रहने अथवा न रहनेपर निर्भर नहीं है, प्रत्युत स्वयंकी मान्यतापर निर्भर है। ऐसे ही खिलौने आदिकी ममता वस्तुके रहने अथवा न रहनेपर निर्भर नहीं है, प्रत्युत मान्यतापर निर्भर है। इसलिये कर्मफल (शरीर, वस्तु आदि) के रहते हुए भी उसका आश्रय सुगमतापूर्वक छूट सकता है।स्वयं नित्य है और शरीर-संसार अनित्य है। नित्यके साथ अनित्यका सम्बन्ध कभी टिक नहीं सकता, रह नहीं सकता। परन्तु जब स्वयं अहंता-ममताको पकड़ लेता है, तब अहंता-ममता भी नित्य दीखने लग जाती है। फिर उसको छोड़ना कठिन मालूम देता है; क्योंकि उसने नित्य-स्वरूपमें अनित्य अहंता-ममता ('मैं' और 'मेरा'-पन) का आरोप कर लिया। वास्तवमें देखा जाय तो शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माना हुआ है, है नहीं। ���ारण कि शरीर प्रकाश्य है और स्वयं (स्वरूप) प्रकाशक है। शरीर एकदेशीय है और स्वरूप सर्वदेशीय अथवा देशातीत है। शरीर जड है और स्वरूप चेतन है। शरीर ज्ञेय है और स्वरूप ज्ञाता है। स्वरूपका वह ज्ञातापन भी शरीरकी दृष्टिसे ही है। अगर शरीरकी दृष्टि हटा दी जाय, तो स्वरूप ज्ञातृत्वरहित चिन्मात्र है अर्थात् केवल चितिरूपसे रहता है। उस चितिमात्र स्वरूपमें मैं और मेरा पन नहीं है। उसमें अहंताममताका अत्यन्त अभाव है। वह चितिमात्र ब्रह्मस्वरूप है और ब्रह्ममें 'मैं' और 'मेरा'-पन कभी हुआ नहीं है नहीं, और हो सकता भी नहीं।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें यह कहा गया कि जो संन्यासी है वही योगी है। पर इनका एकत्व किसमें है--इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.1।।ँ़ ज्ञानान्तरङ्गं समाधियोगमाद्वानेनाध्यायेन। विवक्षितं सन्न्यासमाह योगेन सह अनाश्रित इति। चतुर्थाश्रमिणोऽप्यग्निः क्रिया चोक्तादैवमेव 4।25 इत्यादौ।अग्निर्ब्रह्म च तत्पूजा क्रिया न्यासाश्रमे स्मृता इति च। तस्मान्निरग्निरक्रियः सन्न्यासी योगी च न भवत्येव।

Sri Anandgiri

।।6.1।।ध्यानयोगप्रस्तावानन्तरं तद्योग्यताहेतुकर्मणः स्तुतिं भगवानुक्तवानित्याह श्रीभगवानिति। पूर्वोत्तराध्याययोः सङ्गतिमभिदधानो वृत्तमनूद्याध्यायान्तरमवतारयति अ���ीतेति। सम्यग्दर्शनप्रकरणे ध्यानयोगस्य प्रसङ्गाभावं व्युदस्यति सम्यगिति। संग्रहविवरणयोरतीतानन्तराध्याययोर्युक्तं हेतुहेतुमत्त्वमिति भावः। अध्यायसंबन्धमभिधायानाश्रितः कर्मफलमित्यादिश्लोकद्वयस्य तात्पर्यमाह तत्रेति। कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादां दर्शयितुं साङ्गं च योगं विचारयितुमध्याये प्रवृत्ते सतीति सप्तम्यर्थः। संन्यासिना कर्तव्यं कर्मेत्येवं प्रतिभासं व्युदस्यति गृहस्थेनेति। कर्तव्यत्वं स्तुतियोग्यत्वमतःशब्दार्थः। समुच्चयवादी सीमाकरणमाक्षिपति नन्विति। यावज्जीवश्रुतिवशाद्ध्यानारोहणसामर्थ्ये सत्यपि कर्मानुष्ठानस्य दुर्वारत्वादिति हेतुमाह यावतेति। भार्यावियोगादिप्रतिबन्धाद्यावज्जीवश्रुतिचोदितकर्माननुष्ठानवद्वैराग्यप्रतिबन्धादपि तदननुष्ठानसंभवाद्भगवतो विशेषवचनाच्च न यावज्जीवं कर्मानुष्ठानप्रसक्तिरिति परिहरति नारुरुक्षोरिति। उक्तमेवार्थं व्यतिरेकद्वारेण विवृणोति आरुरुक्षोरित्यादिना। आरोढुमिच्छतीत्यारुरुक्षुरित्यत्रारोहणेच्छाविशेषणमारोहणं कृतवानित्यारूढ इत्यत्र पुनरिच्छाविषयभूतमारोहणं विशेषणमेवं शमकर्मविषययोर्भेदेन विशेषणं मर्यादाकरणानङ्गीकरणे विरुद्धमापद्येत तयोरेवं विभागकरणं च भागवतसीमानङ्गीकारे न युज्येतेत्यर्थः। विशेषणविभागकारणयोरन्यथोपपत्तिमाशङ्कते तत्रेति। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। षष्ठी निर्धारणे। भवत्वधिकारिणां त्रैविध्यं तथापि प्रकृते विशेषणादौ किमायातमित्याशङ्क्य तृतीयापेक्षया तदुपपत्तिरित्याह तानपेक्ष्येति। आरुरुक्षोरारूढस्य च भेदे तस्यैवेति प्रकृतपरामर्शानुपपत्तिरिति दूषयति न तस्येति। यद्यनारुरुक्षुं पुरुषमपेक्ष्यारुरुक्षोरिति विशेषणं तस्य च कर्मारोहणकारणमनारूढं च पुरुषमपेक्ष्यारूढस्येति विशेषणं तस्य च शमः संन्यासो योगफलप्राप्तौ कारणमिति विशेषणविभागकरणयोरुपपत्तिस्तदारुरुक्षोरारूढस्य च भिन्नत्वात्प्रकृतपरामर्शिनस्तच्छब्दस्यानुपपत्तेर्न युक्तमित्थं विशेषणाद्युपपादनमित्यर्थः। किञ्चयोगमारुरुक्षोस्तदारोहणे कारणं कर्मेत्युक्त्वा पुनर्योगारूढस्येति योगशब्दप्रयोगाद्यो योगं पूर्वमारुरुक्षुरासीत्तस्यैवापेक्षितं योगमारूढस्य तत्फलप्राप्तौ कर्मसंन्यासः शमशब्दवाच्यो हेतुत्वेन कर्तव्य इति वचनादारुरुक्षोरारूढस्य चाभिन्नत्वप्रत्यभिज्ञानान्न तयोर्भिन्नत्वं शङ्कितुं शक्यमित्याह पुनरिति। यत्तु यावज्जीवश्रुतिविरोधाद्योगारोहणसीमाकरणं कर्मणोऽनुचितमिति तत्राह अत इति। पूर्वोक्तरीत्या कर्मतत्त्यागयोर्विभागोपपत्तौ श्रुतेरन्यविषयत्वाद्योगमारूढस्य मुमुक्षोर्जिज्ञासमानस्य नित्यनैमित्तिककर्मस्वपि परित्यागसिद्धिरित्यर्थः। इतश्च यावज्जीवं कर्म कर्तव्यं न भवतीत्याह योगेति। संन्यासिनो योगभ्रष्टस्य विनाशशङ्कावचनान्न यावज्जीवं कर्म कर्तव्यं प्रतिभातीत्यर्थः। ननु योगभ्रष्टशब्देन गृहस्थस्यैवाभिधानात्तस्यैवास्मिन्नध्याये योगविधानाद्योगारोहणयोग्यत्वे सत्यपि यावज्जीवं कर्म कर्तव्यमिति नेत्याह गृहस्थस्येति। तेनापि मुमुक्षुणा कृतस्य कर्मणो मोक्षातिरिक्तफलानारम्भकत्वाद्योगभ्रष्टोऽसौ छिन्नाभ्रमिव नश्यतीति शङ्का सावकाशेत्याशङ्क्याह अवश्यं हीति। अपौरुषेयान्निर्दोषाद्वेदात्��लदायिनी कर्मणः स्वाभाविकी शक्तिरवगता ब्रह्मभावस्य च स्वतःसिद्धत्वान्न कर्मफलवत्त्वमतो मोक्षातिरिक्तस्यैव फलस्य कर्मारम्भकमिति कर्मिणि योगभ्रष्टेऽपि कर्मगतिं गच्छतीति निरवकाशा शङ्केत्यर्थः। ननु मुमुक्षुणाकाम्यप्रतिषिद्धयोरकरणात्कृतयोश्च नित्यनैमित्तिकयोरफलत्वात्कथं तदीयस्य कर्मणो नियमेन फलारम्भकत्वं तत्राह नित्यस्य चेति। चकारेण नैमित्तिकं कर्मानुकृष्यते। वेदप्रमाणकत्वेऽपि नित्यनैमित्तिकयोरफलत्वे दोषमाह अन्यथेति। कर्मणोऽनुष्ठितस्य फलारम्भकत्वध्रौव्याद्गृहस्थो योगभ्रष्टोऽपि कर्मगतिं गच्छतीति न तस्य नाशाशङ्केति शेषः। इतोऽपि गृहस्थो योगभ्रष्टशब्दवाच्यो न भवतीत्याह नचेति। ज्ञानं कर्म चेत्युभयं ततो विभ्रष्टोऽयं नश्यतीति वचनं गृहस्थे कर्मणि सति नार्थवद्भवितुमलं तस्य कर्मनिष्ठस्य कर्मणो विभ्रंशे हेत्वभावात्तत्फलस्यावश्यकत्वादित्यर्थः। कृतस्य कर्मणो मुमुक्षुणा भगवति समर्पणात्कर्तरि फलानारम्भकत्वादस्ति विभ्रंशकारणमिति शङ्कते कर्मेति। राजाराधनबुद्ध्या धनधान्यादिसमर्पणस्याधिकफलहेतुत्वोपलम्भादीश्वरे समर्पणं न भ्रंशकारणमिति दूषयति नेत्यादिना। अधिकफलहेतुत्वेऽपि मोक्षहेतुत्वमिष्यतामिति शङ्कते मोक्षायेति। तदेव चोद्यं विवृणोति स्वकर्मणामिति। सहकारिसामर्थ्यात्तस्य फलान्तरं प्रत्युपायत्वासिद्धिरिति हेतुं सूचयति योगेति। ध्यानसहितस्य संन्यासस्य मोक्षौपयिकत्वे कुतो योगभ्रष्टमधिकृत्य नाशाशङ्केत्याशङ्क्याह योगाच्चेति। सहकार्यभावे सामग्र्यभावात्फलानुपपत्तेर्युक्ता नाशाशङ्केत्यर्थः। ध्यानसहितमीश्वरे कर्मसमर्पणं मोक्षायेत्यत्र प्रमाणाभावाद्गृहस्थो योगभ्रष्टशब्दवाच्यो न भवतीति दूषयति नेति। गृहस्थस्य योगभ्रष्टशब्दवाच्यत्वाभावे हेत्वन्तरमाह एकाकीति। न खल्वेतानि विशेषणानि गृहस्थसमवायीनि संभवन्ति तेन तस्य ध्यानयोगविध्यभावान्न तं प्रति योगभ्रष्टशब्दवचनमुचितमित्यर्थः। एकाकित्ववचनं गृहस्थस्यापि ध्यानकाले स्त्रीसहायत्वाभावाभिप्रायेण भविष्यतीत्याशङ्क्याग्निहोत्रादिवद्ध्यानस्य पत्नीसाध्यत्वाभावादप्राप्तप्रतिषेधान्मैवमित्याह नचात्रेति। विशेषणान्तरपर्यालोचनयापि नायमेकाकिशब्दो गृहस्थपरो भवितुमर्हतीत्याह नचेति। किञ्चगृहस्थस्यैवैकाकित्वादि विवक्षित्वा ध्यानयोगविधौ तं प्रत्युभयभ्रष्टप्रश्नो नोपपद्यत इत्याह उभयेति। नहि गृहस्थं प्रत्युभयस्माज्ज्ञानात्कर्मणश्च विभ्रष्टत्वमुपेत्य प्रष्टुं युज्यते तस्य ज्ञानाद्भ्रंशेऽपि कर्मणस्तदभावादनुष्ठीयमानकर्मभ्रंशेऽपि प्रागनुष्ठितकर्मवशात्फलप्रतिलम्भादतो यथोक्तप्रश्नालोचनया न गृहस्थं प्रति ध्यानविधानोपपत्तिरित्यर्थः। ननु भगवता संन्यासस्य प्रतिषिद्धत्वाद्गृहस्थस्यैव योगविधानात्तस्यैव योगभ्रष्टशब्दवाच्यत्वमिति शङ्कते अनाश्रित इत्यनेनेति। भगवद्वाक्यं न प्रतिषेधपरमिति परिहरति न। ध्यानेति। स्तुतिपरत्वमेव स्फोरयति न केवलमिति। सत्त्वशुद्ध्यर्थमनुतिष्ठन्निति संबन्धः। वाक्यस्योभयपरत्वमाशङ्क्य वाक्यभेदप्रसङ्गान्मैवमित्याह नचेति। इतोऽपि भगवतः संन्यासाश्रमप्रतिषेधोऽभिप्रेतो न भवतीत्याह नच प्रसिद्धमिति। तस्य प्रसिद्धं संन्यासित्वं योगित्वं चेति संबन्धः। प्रसिद्धत्वमेव व्याकरोति श्रुतीति। इतोऽपि संन्यासाश्रमं भगवान्न प्रतिषेधतीत्याह स्ववचनेति। विरोधमेव साधयति सर्वकर्माणीत्यादिना। अनाश्रित इत्यादिवाक्यस्य यथाश्रुतार्थत्वानुपपत्तेः स्तुतिपरत्वमुपपादितमुपसंहरति तस्मादिति। कर्मफलसंन्यासित्वमत्र मुनिशब्दार्थः। स्तुतिपरं वाक्यमक्षरयोजनार्थमुदाहरति अनाश्रित इति। कर्मफलेऽभिलाषो नास्तीत्येतावता कथं तदनाश्रितत्ववाचोयुक्तिरित्याशङ्क्य व्यतिरेकमुखेन विशदयति यो हीति। कार्यमित्यादि व्याकरोति एवंभूतः सन्निति। कथं कर्मिणः संन्यासित्वं योगित्वं च कर्मित्वविरोधादित्याशङ्क्याह ईदृश इति। स्तुतेरत्र विवक्षितत्वान्नानुपपत्तिश्चोदनीयेति मन्वानः सन्नाह इत्येवमिति। न निरग्निरित्यादेरर्थमाह न केवलमिति। अग्नयो गार्हपत्याहवनीयान्वाहार्यपचनप्रभृतयः। नन्वनग्नित्वे सिद्धमक्रियत्वमग्निसाध्यत्वात्क्रियाणां तथाच न निरग्निरित्येतावतैवापेक्षितसिद्धेर्न चाक्रिय इत्यनर्थकमर्थपुनरुक्तेरिति तत्राह अनग्नीति।

Sri Vallabhacharya

।।6.1।।उक्तौभयैकार्थसिद्धिरात्मसंयमधर्मतः। भवत्येवमिदं वक्तुं पार्थायाह हरिः पुनः।।1।।श्रीभगवानुवाच अनाश्रित इति। साङ्ख्ययोगयोरेकार्थतां तस्मै कर्मयोगे दर्शयति। यः कर्मफलमनाश्रितः कर्तव्यत्वात्कार्यं कर्म अग्निहोत्रादिकं करोति तदोभयोरेकार्थरूपसिद्धिः फलत्यागात्साङ्ख्यस्य कर्मकरणाच्च योगस्यैकार्थ्यमुपदिष्टं भवति। तदाह स सन्न्यासी स योगी चेति। नह्यग्निहोत्रादिसकलकर्मरहितः सन्न्यासी मे मतः। न चानग्निसाध्यपूर्त्तकर्मरहितोऽपि तथा। अनेनात्मसंयमयोगेन कर्मणां कर्त्ताऽभिमतो लक्षितः।

Sridhara Swami

।।6.1।।चित्ते शुद्धेऽपि न ध्यानं विना संन्यासमात्रतः। मुक्तिः स्यादिति षष्ठेऽस्मिन्ध्यानयोगो वितन्यते।।1।।पूर्वाध्यायान्ते संक्षेपेणोक्तं योगं प्रपञ्चयितुं षष्ठाध्यायारम्भः। तत्र तावत्सर्वकर्माणि मनसेत्यारभ्य संन्यासपूर्विकाया ज्ञाननिष्ठायास्तात्पर्येणाभिधानाद्दुःखस्वरूपत्वाच्च कर्मणः सहसा संन्यासातिप्रसङ्गं प्राप्तं वारयितुं संन्यासादपि श्रेष्ठत्वेन कर्मयोगं स्तौति। श्रीभगवानुवाच अनाश्रित इति द्वाभ्याम्। कर्मफलमनाश्रितोऽनपेक्षमाणः अवश्यं कर्तव्यतया विहितं कर्म यः करोति स एव संन्यासी योगी च नतु निरग्निः अग्निसाध्येष्टाख्यकर्मत्यागी न चाक्रियोऽनग्निसाध्यपूर्ताख्यकर्मत्यागी च।

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