Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 17 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः | गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ||५-१७||
Transliteration
tadbuddhayastadātmānastanniṣṭhāstatparāyaṇāḥ . gacchantyapunarāvṛttiṃ jñānanirdhūtakalmaṣāḥ ||5-17||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.17 Their intellect absorbed in That, their self being That, established in That, with That for their supreme goal, they go whence there is no return, their sins dispelled by knowledge.
।।5.17।। जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है, जिनका मन तद्रूप हुआ है, उसमें ही जिनकी निष्ठा है, वह (ब्रह्म) ही जिनका परम लक्ष्य है, ज्ञान के द्वारा पापरहित पुरुष अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your work, cultivate a deep, focused absorption (तत्बुद्धयः) in your mission or the higher purpose behind your tasks. Identify with the excellence and impact you aim to create (तदात्मानः), establishing yourself (तन्निष्ठाः) in a commitment to quality and ethical contribution. Let a sense of service or a significant long-term goal be your ultimate motivator (तत्परायणाः), transcending mere transactional outcomes. This intense dedication, coupled with self-awareness of your role, dispels professional 'sins' like mediocrity or burnout, leading to profound satisfaction and 'no return' to unfulfilling work.
🧘 For Stress & Anxiety
To alleviate stress, consciously absorb your intellect in a higher truth, an inner calm, or a spiritual anchor (तत्बुद्धयः). Realize that your true self is not the transient mind caught in worries, but something deeper and unshakeable (तदात्मानः). Establish yourself firmly in this inner peace (तन्निष्ठाः) through practices like meditation or mindfulness. Make this inner stability your supreme goal (तत्परायणाः). This 'knowledge' (ज्ञान) of your intrinsic resilience and connection to a greater whole will dispel anxieties and 'sins' of negativity, leading to a state of sustained mental equilibrium.
❤️ In Relationships
Approach relationships by focusing your intellect on understanding and empathy for the other (तत्बुद्धयः), recognizing the shared humanity or divine spark within each person (तदात्मानः). Establish yourself (तन्निष्ठाः) in unconditional regard and compassion. Let the goal of mutual growth, love, and spiritual connection be your supreme aim (तत्परायणाः). This 'knowledge' of interconnectedness and the practice of selfless love dispels 'sins' like ego clashes, judgment, and misunderstandings, fostering deeper bonds and freeing relationships from recurring negative patterns.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“By single-pointed absorption in your ultimate truth, identifying with your highest self, and establishing yourself firmly in that divine goal, transformative knowledge purifies all impurities and leads to irreversible liberation and fulfillment.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.17 तद्बुद्धयः intellect absorbed in That? तदात्मानः their self being That? तन्निष्ठाः established in That? तत्परायणाः with That for their supreme goal? गच्छन्ति go? अपुनरावृत्तिम् not again returning? ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः,those whose sins have been dispelled by knowledge.Commentary They fix their intellects on Brahman or the Supreme Self. They feel and realise that Brahman is their self. By constant and protracted meditation? they get established in Brahman. The whole world of names and forms vanishes for them. They live in Brahman alone. They have Brahman alone as their supreme goal or sole refuge. They rejoice in the Self alone. They are satisfied in the Self alone. They are contented in the Self alone. Such men never come back to this Samsara? as their sins are dispelled by knowledge (BrahmaJnana). (Cf.IX.34)
Shri Purohit Swami
5.17 Meditating on the Divine, having faith in the Divine, concentrating on the Divine and losing themselves in the Divine, their sins dissolved in wisdom, they go whence there is no return.
Dr. S. Sankaranarayan
5.17. Those, who have their intellect and self (mind) gone to This; who have established themselves in This and have This [alone] as their supreme goal; and who have washed off their sins by means of [perfect] knowledge-they reach a state from which there is no more return.
Swami Adidevananda
5.17 Those whose intellects pursue It (the self), whose minds think about It, who undergo discipline for It, and who hold It as their highest object, have their impurities cleansed by knowledge and go whence there is no return.
Swami Gambirananda
5.17 Those who have their intellect absorbed in That, whose Self is That, who are steadfast in That, who have That as their supreme Goal-they attain the state of non-returning, their dirt having been removed by Knowledge.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.17।। शास्त्रों के गहन अध्ययन के द्वारा साधक अपने व्यक्तित्व के सभी पक्षों के साथ आत्मयुक्त हो जाता है। बुद्धि आत्मस्वरूप का निश्चय करके उसमें ही स्थित हो जाती है और उसके मन की प्रत्येक भावना ईश्वर की ही स्तुति का गान करती है। अनन्त आनन्दस्वरूप को आत्मरूप से पहचान कर साधक की उसमें निष्ठा हो जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए अपरिच्छिन्न और अपरिच्छेद्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई परम लक्ष्य नहीं हो सकता।शास्त्राध्ययन के द्वारा जो व्यक्ति अपने सत्यात्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके लिए पुन राग या द्वेष के बन्धन में आने का अवसर या कारण ही नहीं रह जाता। यही शास्त्राध्ययन का फल है। अध्ययन के पश्चात् आवश्यकता होती है उस ज्ञान के अनुसार जीवन जीने की अर्थात् उस ज्ञान के आचरण की। अध्ययन और आचरण से ही स्वस्वरूप में अवस्थान सम्भव हो सकता है।स्वरूप में अवस्थान प्राप्त पुरुष का पुनर्जन्म नहीं होता। इसका कारण क्या है हम कैसेे कह सकते हैं कि ज्ञान के उपरान्त पुन अहंकार उत्पन्न नहीं होगा ज्ञानी पुरुषों के लिए प्रयुक्त ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इस विशेषण के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं। कल्मष अर्थात् पाप से तात्पर्य वासनाओं से है। वासनाओं से उत्पन्न होता है अहंकार। वेदान्त में वासना को ही आत्मअज्ञान कहते हैं। अज्ञान के विरोधी आत्मज्ञान का उदय होने पर दुखदायक अज्ञान अंधकार का विनाश हो जाता है और उसके साथ ही तज्जनित अहंकार भी नष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् अहंकार पुन जन्म नहीं ले सकता क्योंकि ज्ञान की उपस्थिति में अज्ञान लौटकर नहीं आ सकता। कारण के ही अभाव में कार्यरूप अहंकार कैसे उत्पन्न हो सकता है इस श्लोक में हमें विश्व के सबसे आशावादी तत्त्वज्ञान के दर्शन होते हैं जहाँ स्पष्ट घोषणा की गई है कि आत्मसाक्षात्कार जीव के विकास का चरम लक्ष्य है। परम तत्त्व की अनुभूति विकास के सोपान की अन्तिम सीढ़ी है जिसे प्राप्त करने के लिए ही जीव स्वनिर्मित विषयों के बन्धनों में यत्रतत्र भटकता रहता है।ज्ञान के द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो जाता है वे ज्ञानी पुरुष किस प्रकार तत्त्व को देखते हैं उत्तर है
Swami Ramsukhdas
5.17।। व्याख्या--[परमात्मतत्त्वका अनुभव करनेके लिये दो प्रकारके साधन हैं एक तो विवेकके द्वारा असत्का त्याग करनेपर सत्में स्वरूप-स्थिति स्वतः हो जाती है और दूसरा, सत्का चिन्तन करते-करते सत्की प्राप्ति हो जाती है। चिन्तनसे सत्की ही प्राप्ति होती है। असत्की प्राप्ति कर्मोंसे होती है, चिन्तनसे नहीं। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु कर्मसे मिलती है और नित्य परिपूर्ण तत्त्व चिन्तनसे मिलता है। चिन्तनसे परमात्मा कैसे प्राप्त होते हैं--इसकी विधि इस श्लोकमें बताते हैं।]'तद्बुद्धयः' निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम 'बुद्धि' है। साधक पहले बुद्धिसे यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। संसारके उत्पन्न होनेसे पहले भी परमात्मा थे और संसारके नष्ट होनेके बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीचमें भी संसारका जो प्रवाह चल रहा है, उसमें भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं। इस प्रकार परमात्माकी सत्ता-(होनेपन-) में अटल निश्चय होना ही 'तद्बुद्धयः' पदका तात्पर्य है।'तदात्मानः'--यहाँ 'आत्मा' शब्द मनका वाचक है। जब बुद्धिमें एक परमात्मतत्त्वका निश्चय हो जाता है, तब मनसे स्वतः--स्वाभाविक परमात्माका ही चिन्तन होने लगता है। सब क्रियाएँ करते समय यह चिन्तन अखण्ड रहता है कि सत्तारूपसे सब जगह एक परमात्मतत्त्व ���ी परिपूर्ण है। चिन्तनमें संसारकी सत्ता आती ही नहीं।'तन्निष्ठाः'--जब साधकके मन और बुद्धि परमात्मामें लग जाते हैं तब वह हर समय परमात्मामें अपनी (स्वंयकी) स्वतःस्वाभाविक स्थितिका अनुभव करता है। जबतक मन-बुद्धि परमात्मामें नहीं लगते अर्थात् मनसे परमात्माका चिन्तन और बुद्धिसे परमात्माका निश्चय नहीं होता, तबतक परमात्मामें अपनी स्वाभाविक स्थिति होते हुए भी उसका अनुभव नहीं होता।'तत्परायणाः'--परमात्मासे अलग अपनी सत्ता न रहना ही परमात्माके परायण होना है। परमात्मामें अपनी स्थितिका अनुभव करनेसे अपनी सत्ता परमात्माकी सत्तामें लीन हो जाती है और स्वयं परमात्मस्वरूप हो जाता है।जबतक साधक और साधनकी एकता नहीं होती, तबतक साधन छूटता रहता है, अखण्ड नहीं रहता। जब साधकपन अर्थात् अहंभाव मिट जाता है, तब साधन साध्यरूप ही हो जाता है; क्योंकि वास्तवमें साधन और साध्य--दोनोंमें नित्य एकता है।'ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः' ज्ञान अर्थात् सत्- असत् के विवेककी वास्तविक जागृति होनेपर असत्की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। असत्के सम्बन्धसे ही पाप-पुण्यरूप कल्मष होता है, जिनसे मनुष्य बँधता है। असत्से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर पाप-पुण्य मिट जाते हैं। 'गच्छन्त्यपुनरावृत्तिम्' असत्का सङ्ग ही पुनरावृत्ति-(पुनर्जन्म-) का कारण है--'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। असत्का सङ्ग सर्वथा मिटनेपर पुनरावृत्तिका प्रश्न ही पैदा नहीं होता।जो वस्तु एकदेशीय होती है, उसीका आना-जाना होता है। जो वस्तु सर्वत्र परिपूर्ण है, वह कहाँसे आये और कहाँ जाय? परमात्मा सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, परिस्थिति आदिमें एकरस परिपूर्ण रहते हैं। उनका कहीं आना-जाना नहीं होता। इसलिये जो महापुरुष परमात्मस्वरूप ही हो जाते हैं, उनका भी कहीं आना-जाना नहीं होता। श्रुति कहती है-- 'न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति'(बृहदारण्यक0 4। 4। 6)'उसके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता; वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है।' उसके कहलानेवाले शरीरको लेकर ही यह कहा जाता है कि उसका पुनर्जन्म नहीं होता। वास्तवमें यहाँ 'गच्छन्ति' पदका तात्पर्य है--वास्तविक बोध होना, जिसके होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें वर्णित साधनद्वारा सिद्ध हुए महापुरुषका ज्ञान व्यवहारकालमें कैसा रहता है--इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.17।। जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है, जिनका मन तद्रूप हुआ है, उसमें ही जिनकी निष्ठा है, वह (ब्रह्म) ही जिनका परम लक्ष्य है, ज्ञान के द्वारा पापरहित पुरुष अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.17।।अपरोक्षज्ञानाव्यवहितसाधनमाह तद्बुद्धय इति।
Sri Anandgiri
।।5.17।।विदुषां विविदिषूणां चान्तरङ्गाणि विद्यापरिपाकसाधनानीत्युपदिदिक्षुरुत्तरश्लोकस्यापेक्षितं पूरयति यत्परमिति। तस्मिन्परमार्थतत्त्वे परस्मिन्ब्रह्मणि बाह्यं विषयमपोह्य गता प्रवृत्ता श्रवणमनननिदिध्यासनैरसकृदनुष्ठितैर्बुद्धिः साक्षात्कारलक्षणा येषां ते तथेति प्रथमविशेषणं विभजते तस्मिन्निति। तर्हि बोद्धा जीवो बोद्धव्यं ब्रह्मेति जीवब्रह्मभेदाभ्युपगमो नेत्याह तदात्मान इति। कल्पितं बोद्धृबोद्धव्यत्वं वस्तुतस्तु न भेदोऽस्तीत्यङ्गीकृत्य व्याचष्टे तदेवेति। ननु देहादावात्माभिमानमपनीय ब्रह्मण्येवाहमस्मीत्यवस्थानं तत्तदनुष्ठीयमानकर्मप्रतिबन्धान्न सिध्यतीत्याशङ्क्य विशेषणान्तरमादत्ते तन्निष्ठा इति। तत्र निष्ठाशब्दार्थं दर्शयन्विवक्षितमर्थमाह निष्ठेत्यादिना। तथापि पुरुषार्थान्तरापेक्षाप्रतिबन्धात्कथंयथोक्ते ब्रह्मण्येवावस्थानं सेद्धुं पारयति तत्राह तत्परायणाश्चेति। यथोक्तानामधिकारिणां परमपुरुषार्थस्योक्तब्रह्मानतिरेकान्नान्यत्रासक्तिरिति तात्पर्यार्थमाह केवलेति। ननु यथोक्तविशेषणवतां वर्तमानदेहपातेऽपि देहान्तरपरिग्रहव्यग्रतया कुतो यथोक्ते ब्रह्मण्यवस्थानमास्थातुं शक्यते तत्राह ते गच्छन्तीति। सति संसारकारणे दुरितादौ संसारप्रसरस्य दुर्वारत्वान्नापुनरावृत्तिसिद्धिरित्याशङ्क्याह ज्ञानेति। उक्तविशेषसंपत्त्या दर्शितफलशालित्वमाश्रमान्तरेष्वसंभावितमिति मन्वानो विशिनष्टि यतय इति।
Sri Vallabhacharya
।।5.17।।य एतादृशज्ञानिनस्ते मुक्ता इत्याह तद्बुद्धय इति। तत्प्रसादलब्धेन ज्ञानेन ब्रह्मस्वरूपविषयकेण निरस्तकल्मषा मुक्तिं यान्तीत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।5.17।।एवंभूतेश्वरोपासनाफलमाह तद्बुद्धय इति। तस्मिन्नेव बुद्धिर्निश्चयात्मिका येषाम् तस्मिन्नेवात्मा मनो येषाम् तस्मिन्नेव निष्ठा तात्पर्यं येषाम् तदेव परमयनमाश्रयो येषाम् ततश्च तत्प्रसादलब्धेनात्मज्ञानेन निर्धूतं निरस्तं कल्मषं येषांतेऽपुनरावृत्तिं मुक्तिं यान्ति।