Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 6 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Sovereignty

Sanskrit Shloka (Original)

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ||४-६||

Transliteration

ajo.api sannavyayātmā bhūtānāmīśvaro.api san . prakṛtiṃ svāmadhiṣṭhāya sambhavāmyātmamāyayā ||4-6||

Word-by-Word Meaning

अजःunborn
अपिalso
सन्being
अव्ययात्माof imperishable nature
भूतानाम्of beings
ईश्वरःthe Lord
अपिalso
सन्being
प्रकृतिम्Nature
स्वाम्My own
अधिष्ठायgoverning
संभवामिcome into being

📖 Translation

English

4.6 Though I am unborn, of imperishable nature, and though I am the Lord of all beings, yet, governing My own Nature, I am born by My own Maya.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.6।। यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, cultivate a sense of inner mastery and purpose. Like the Lord who governs His own Nature, strive to be the conscious director of your career path, not merely a product of market forces or external demands. Take ownership of your skills, decisions, and impact, leading with intention rather than being swept away by office politics or industry trends. Even amidst change, maintain an 'imperishable nature' of your core values and professional integrity.

🧘 For Stress & Anxiety

To manage stress and maintain mental well-being, adopt the principle of governing your 'own Nature' – your mind, emotions, and reactions – rather than being controlled by external stressors. Recognize that while external circumstances may arise, your internal response is within your dominion. Cultivate an 'unborn' sense of inner calm and an 'imperishable' core identity that isn't swayed by temporary anxieties or setbacks. Practice mindfulness to observe and consciously choose your reactions, embodying an inner sovereignty over your mental landscape.

❤️ In Relationships

Approach relationships with a foundation of self-mastery and integrity. Just as the Lord is 'unborn' and 'imperishable' yet engages purposefully, maintain your core identity and values within relationships. Avoid being overly dependent on external validation or allowing others' dramas to define your inner state. Lead by example, communicate with clarity and intention, and consciously choose how you engage, ensuring your interactions are purposeful and aligned with your authentic self, rather than being a reactive participant.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

You possess an inherent capacity for self-mastery; consciously govern your inner nature and act with purpose, transcending external circumstances and perceived limitations.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.6 अजः unborn? अपि also? सन् being? अव्ययात्मा of imperishable nature? भूतानाम् of beings? ईश्वरः the Lord? अपि also? सन् being? प्रकृतिम् Nature? स्वाम् My own? अधिष्ठाय governing? संभवामि come into being? आत्ममायया by My own Maya.Commentary Man is bound by Karma. So he takes birth. He is under the clutches of Nature. He,is deluded by the three alities of Nature whereas the Lord has Maya under His perfect control. He rules over Nature? and so He is not under the thraldom of the alities o Nature. He appears to be born and embodied through His own Maya or illusory power? but is not so in reality. His embodiment is ? as a matter of fact? apparent? It cannot affect in the least His true divine nature. (Cf.IX.8).

Shri Purohit Swami

4.6 have no beginning. Though I am imperishable, as well as Lord of all that exists, yet by My own will and power do I manifest Myself.

Dr. S. Sankaranarayan

4.6. Though [I am] unborn and the changeless Self; though I am the the Lord of [all] beings; yet presiding over My own nature I take birth by My own Trick-of-illusion.

Swami Adidevananda

4.6 Though I am birthless and of immutable nature, though I am the Lord of all beings, yet by employing My own Nature (Prakrti) I am born out of My own free will.

Swami Gambirananda

4.6 Though I am birthless, undecaying by nature, and the Lord of beings, (still) by subjugating My Prakriti, I take birth by means of My own Maya.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.6।। परमेश्वर अपनी निर्बाध स्वतन्त्रता और पूर्ण स्वेच्छा से एक विशिष्ट देह को धारण करके जगत् में उस काल की मोहित पीढी का मार्गदर्शन करने आते हैं। अज्ञानी के समान देहादि के बन्धन में रहना उनके लिये वास्तविकता न होकर एक नाटक की भूमिका के समान है। र्मत्य जीव अविद्या का शिकार बनता है जबकि ईश्वर स्वमाया के स्वामी बने रहते हैं। कार का चालक कार से बंधा रहता है और उसका स्वामी स्वतन्त्र। वाहन का स्वामी अपने प्रयोजन के लिये वाहन का उपयोग करता है और गन्तव्य स्थान पर पहुँचने पर उसे छोड़कर अपने कार्य में व्यस्त हो जाता है। परन्तु बेचारा चालक चोर आदि लोगों से उसको सुरक्षित रखने के लिये एक सेवक के समान उस कार से बंधा रहता है। सृष्टि की रक्षा के खेल में भगवान् इन उपाधियों तथा तज्जनित परिच्छिन्नताओं को साधन रूप में स्वीकारते हैं किन्तु स्वयं उनके दास अथवा शिकार नहीं बन जाते।इस प्रकार स्वस्वरूप में अज और अविनाशी तथा प्राणिमात्र के ईश्वर होते हुये भी भगवान् अपनी माया को पूर्णत अपने वश में रखकर स्वेच्छा से जन्म लेते हैं जीव के समान पूर्व कर्मों के अवश्यंभावी फलों को भोगने के लिये नहीं। उन्हें न स्वस्वरूप का विस्मरण है और न माया का बन्धन है।आप अपने सेवक से स्कूटर में पेट्रोल भरवाकर लाने के लिये कहकर फिर उसे काम करते देखिये तो इस श्लोक में कथित अर्थ को आप समझ सकते हैं। स्कूटर के विषय में अनजान उस बेचारे के लिये वह भारी मशीन एक बोझ और दुख का कारण ही बन जाती है। स्कूटर के भार के कारण उसे खींचकर ले जाना कठिन होता है। इसके विपरीत यदि आप स्कूटर पर बैठकर उसे चला रहे हों अथवा उसे धक्का भी देना पड़े तो भी आप उसे सहर्ष और सरलता से ले जा सकते हैं। स्कूटर तो वही है परन्तु आपके हाथों में वह आपका दास है और अनुचर को तो वह स्वयं इधरउधर खींचकर ले जाने वाला भार है।इसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य अपनी उपाधियों के कार्यों के विषय में कुछ नहीं जानता और इसलिये उनकी दास बना रहता है। ईश्वर के लिये जगत् कोई समस्या नहीं क्योंकि वे प्रकृति को सर्वथा अपने वश में रखते हैं। ईश्वर के पूर्ण स्वातन्त्र्य को इन दो पंक्तियों में अत्यन्त सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है।ईश्वर का यह जन्म कब और किसलिये होता है इस पर कहते हैं

Swami Ramsukhdas

4.6।। व्याख्या--[यह छठा श्लोक है और इसमें छः बातोंका ही वर्णन हुआ है। अज, अव्यय और ईश्वर--ये तीन बातें भगवान्की हैं, (टिप्पणी प0 217) प्रकृति और योगमाया--ये दो बातें भगवान्की शक्तिकी हैं और एक बात भगवान्के प्रकट होनेकी है।] 'अजोऽपि सन्नव्ययात्मा'-- इन पदोंसे भगवान् यह बताते हैं कि साधारण मनुष्योंकी तरह न तो मेरा जन्म है और न मेरा मरण ही है। मनुष्य जन्म लेते हैं और मर जाते हैं; परन्तु मैं 'अजन्मा' होते हुए भी प्रकट हो जाता हूँ और 'अविनाशी' होते हुए भी अन्तर्धान हो जाता हूँ। प्रकट होना और अन्तर्धान होना--दोनों ही मेरी अलौकिक लीलाएँ हैं। सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट (अव्यक्त) थे और मरनेके बाद भी अप्रकट (अव्यक्त) हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट (व्यक्त) हैं (गीता 2। 28)। प��न्तु भगवान् सूर्यकी तरह सदा ही प्रकट रहते हैं। तात्पर्य है कि जैसे सूर्य उदय होनेसे पहले भी ज्यों-का-त्यों रहता है और अस्त होनेके बाद भी ज्यों-का-त्यों रहता है अर्थात् सूर्य तो सदा ही रहता है; किन्तु स्थानविशेषके लोगोंकी दृष्टिमें उसका उदय और अस्त होना दीखता है। ऐसे ही भगवान्का प्रकट होना और अन्तर्धान होना लोगोंकी दृष्टिमें है, वास्तवमें भगवान् सदा ही प्रकट रहते हैं। दूसरे प्राणी जैसे कर्मोंके परतन्त्र होकर जन्म लेते हैं, भगवान्का जन्म वैसे नहीं होता। कर्मोंकी परतन्त्रतासे जन्म होनेपर दो बातें होती हैं--आयु और सुख-दुःखका भोग। भगवान्में ये दोनों ही नहीं होते।दूसरे लोग जन्मते हैं तो शरीर पहले बालक होता है, फिर बड़ा होकर युवा हो जाता है फिर वृद्ध हो जाता है, और फिर मर जाता है। परन्तु भगवान्में ये परिवर्तन नहीं होते। वे अवतार लेकर बाललीला करते हैं और किशोर-अवस्था (पंद्रह वर्षकी अवस्था) तक बढ़नेकी लीला करते हैं। किशोर-अवस्थातक पहुँचनेके बाद फिर वे नित्य किशोर ही रहते हैं। सैकड़ों वर्ष बीतनेपर भी भगवान् वैसे ही सुन्दर-स्वरूप रहते हैं। इसीलिये भगवान्के जितने चित्र बनाये जाते हैं, उसमें उनकी दाढ़ी-मूछें नहीं होतीं। (अब कोई बना दे तो अलग बात है!) इस प्रकार दूसरे प्राणियोंकी तरह न तो भगवान्का जन्म होता है, न परिवर्तन होता है और न मृत्यु ही होती है।'भूतानामीश्वरोऽपि सन्'-- प्राणिमात्रके एकमात्र ईश्वर (महान् शासक) रहते हुए ही भगवान् अवतारके समय छोटे-से बालक बन जाते हैं; परन्तु बालक बन जानेपर भी उनके ईश्वरभाव (शासकत्व) में कोई कमी नहीं आती; जैसे--भगवान् श्रीकृष्णने छठीके दिन ही पूतना राक्षसीको मार दिया। पूतनाका शरीर ढाई योजनका और महान् भयंकर था। यदि उनमें ईश्वरभाव न होता तो छठीके दिन पूतनाको कैसे मार देते? भगवान्ने तीन महीनेकी अवस्थामें शकटासुरको, एक वर्षकी अवस्थामें तृणावर्तको और पाँच वर्षकी अवस्थामें अघासुरको मार दिया। इस तरह भगवान्ने बाल्यावस्थामें ही अनेक राक्षसोंको मार दिया। सात वर्षकी अवस्थामें ही उन्होंने गोवर्धन पर्वतको एक अँगुलीपर उठा लिया !सम्पूर्ण प्राणियोंके ईश्वर होते हुए भी भगवान् अवतारके समय छोटे-से-छोटे बन जाते हैं और छोटा-सा-छोटा काम भी कर देते हैं। वास्तवमें यही भगवान्की भगवत्ता है। भगवान् अर्जुनके घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञाका पालन करते हैं, फिर भी भगवान्का अर्जुनपर और दूसरे प्राणियोंपर ईश्वरभाव वैसा-का-वैसा ही है। सारथि होनेपर भी वे अर्जुनको गीताका महान् उपदेश देते हैं। भगवान् श्रीराम पिता दशरथकी आज्ञाको टालते नहीं और चौदह वर्षके लिये वनमें चले जाते हैं, फिर भी भगवान्का दशरथपर और दूसरे प्राणियोंपर ईश्वरभाव वैसा-का-वैसा ही है। 'प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय'-- जो सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंसे अलग है,वह भगवान्की शुद्ध प्रकृति है। यह शुद्ध प्रकृति भगवान्का स्वकीय सच्चिदानन्दघनस्वरूप है। इसीको संधिनी-शक्ति, संवित्-शक्ति और आह्लादिनी-शक्ति कहते हैं (टिप्पणी प0 218.1)। इसीको चिन्मयशक्ति, कृपाशक्ति आदि नामोंसे कहते हैं। श्रीराधाजी, (टिप्पणी प0 218.2) श्रीसीताजी आदि भी यही हैं। भगवान्को प्राप्त करानेवाली 'भक्ति' और 'ब्रह्मविद्या' भी यही है।प्रकृति भगवान्की शक्ति है। जैसे, अग्निमें दो शक्तियाँ रहती हैं-- प्रकाशिका और दाहिका। प्रकाशिका-शक्ति अन्धकारको दूर करके प्रकाश कर देती है तथा भय भी मिटाती है। दाहिका-शक्ति जला देती है तथा वस्तुको पकाती एवं ठण्डक भी दूर करती है। ये दोनों शक्तियाँ अग्निसे भिन्न भी नहीं हैं और अभिन्न भी नहीं हैं। भिन्न इसलिये नहीं हैं कि वे अग्निरूप ही हैं अर्थात् उन्हें अग्निसे अलग नहीं किया जा सकता, और अभिन्न इसलिये नहीं हैं कि अग्निके रहते हुए भी मन्त्र, औषध आदिसे अग्निकी दाहिका-शक्ति कुण्ठित की जा सकती है। ऐसे ही भगवान्में जो शक्ति रहती है, उसे भगवान्से भिन्न और अभिन्न--दोनों ही नहीं कह सकते।जैसे दियासलाईमें अग्निकी सत्ता तो सदा रहती है, पर उसकी प्रकाशिका और दाहिका-शक्ति छिपी हुई रहती है; ऐसे ही भगवान् सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें सदा रहते हैं, पर उनकी शक्ति छिपी हुई रहती है। उस शक्तिको अधिष्ठित करके, अर्थात् अपने वशमें करके उसके द्वारा भगवान् प्रकट होते हैं। जैसे, जबतक अग्नि अपनी प्रकाशिका और दाहिका-शक्तिको लेकर प्रकट नहीं होती, तबतक सदा रहते हुए भी अग्नि नहीं दीखती, ऐसे ही जबतक भगवान् अपनी शक्तिको लेकर प्रकट नहीं होते, तबतक भगवान् हरदम रहते हुए भी नहीं दीखते।राधाजी, सीताजी, रुक्मिणीजी आदि सब भगवान्की निजी दिव्य शक्तियाँ हैं। भगवान् सामान्यरूपसे सब जगह रहते हुए भी कोई काम नहीं करते। जब करते हैं, तब अपनी दिव्य शक्तिको लेकर ही करते हैं। उस दिव्य शक्तिके द्वारा भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं। उनकी लीलाएँ इतनी विचित्र और अलौकिक होती हैं कि उनको सुनकर, गाकर और याद करके भी जीव पवित्र होकर अपना उद्धार कर लेते हैं। निर्गुण-उपासनामें वही शक्ति 'ब्रह्मविद्या' हो जाती है, और सगुण-उपासनामें वही शक्ति 'भक्ति' हो जाती है। जीव भगवान्का ही अंश है। जब वह दूसरोंमें मानी हुई ममता हटाकर एकमात्र भगवान्की स्वतःसिद्धवास्तविक आत्मीयताको जाग्रत् कर लेता है, तब भगवान्की शक्ति उसमें भक्तिरूपसे प्रकट हो जाती है। वह भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार भगवान्को भी साकाररूपसे प्रकट कर देती है, भगवान्को भी खींच लेती है। वह भक्ति भी भगवान् ही देते हैं।भगवान्की भक्तिरूप शक्तिके दो रूप हैं--विरह और मिलन। भगवान् विरह भी भेजते हैं (टिप्पणी प0 218.3) और मिलन भी। जब भगवान् विरह भेजते हैं, तब भक्त भगवान्के बिना व्याकुल हो जाता है। व्याकुलताकी अग्निमें संसारकी आसक्ति जल जाती है और भगवान् प्रकट हो जाते हैं।ज्ञानमार्गमें भगवान्की शक्ति पहले उत्कट जिज्ञासाके रूपमें आती है (जिससे तत्त्वको जाने बिना साधकसे रहा नहीं जाता) और फिर ब्रह्मविद्या-रूपसे जीवके अज्ञानका नाश करके उसके वास्तविक स्वरूपको प्रकाशित कर देती है। परन्तु भगवान्की वह दिव्य शक्ति, जिसे भगवान् विरहरूपसे भेजते हैं, उससे भी बहुत विलक्षण है। भगवान् कहाँ हैं? क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?--इस प्रकार भक्त व्याकुल हो जाता है, तो यह व्याकुलता सब पापोंका नाश करके भगवान्को साकाररूपसे प्रकट कर देती है। व्याकुलतासे जितना जल्दी काम बनता है, उतना विवेक-विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं।विशेष बातभगवान् अपनी प्रकृतिके द्वारा अवतार लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं। जैसे अग्नि स्वयं कुछ नहीं करती, उसकी प्रकाशिका-शक्ति प्रकाश कर देती है, दाहिका-शक्ति जला देती है; ऐसे ही भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते, उनकी दिव्य शक्ति ही सब काम कर देती है। शास्त्रोंमें आता है कि सीताजी कहती हैं-- 'रावणको मारना आदि सब काम मैंने किया है, रामजीने कुछ नहीं किया।' जैसे मनुष्य और उसकी शक्ति (ताकत) है, ऐसे ही भगवान् और उनकी शक्ति है। उस शक्तिको भगवान्से अलग भी नहीं कह सकते और एक भी नहीं कह सकते। मनुष्यमें जो शक्ति है, उसे वह अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकता, इसलिये वह उससे अलग नहीं है। मनुष्य रहता है, पर उसकी शक्ति घटती-बढ़ती रहती है, इसलिये वह मनुष्यसे एक भी नहीं है। यदि उसकी मनुष्यसे एकता होती तो वह उसके स्वरूपके साथ बराबर रहती, घटती-बढ़ती नहीं। अतः भगवान् और उनकी शक्तिको भिन्न अथवा अभिन्न कुछ भी नहीं कह सकते। दार्शनिकोंने भिन्न भी नहीं कहा और अभिन्न भी नहीं कहा। वह शक्ति अनिर्वचनीय है। भगवान् श्रीकृष्णके उपासक उस शक्तिको श्रीजी-(राधाजी-) के नामसे कहते हैं। जैसे पुरुष और स्त्री दो होते हैं ,ऐसे श्रीकृष्ण और श्रीजी दो नहीं हैं। ज्ञानमें तो द्वैतका अद्वैत होता है अर्थात् दो होकर भी एक हो जाता है, और भक्तिमें अद्वैतका द्वैत होता है अर्थात् एक होकर भी दो हो जाता है। जीव और ब्रह्म एक हो जायँ तो 'ज्ञान' होता है और एक ही ब्रह्म दो रूप हो जाय तो 'भक्ति' होती है। एक ही अद्वैत-तत्त्व प्रेमकी लीला करनेके लिये, प्रेमका आस्वादन करनेके लिये, सम्पूर्ण जीवोंको प्रेमका आनन्द देनेके लिये श्रीकृष्ण और श्रीजी-- इन दो रूपोंसे प्रकट होता है (टिप्पणी प0 219)। दो रूप होनेपर भी दोनोंमें बड़ा कौन है और कौन छोटा, कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद? इसका पता ही नहीं चलता। दोनों ही एक-दूसरेसे बढ़कर विलक्षण दीखते हैं। दोनों एक-दूसरेके प्रति आकृष्ट होते हैं। श्रीजीको देखकर भगवान् प्रसन्न होते हैं और भगवान्को देखकर श्रीजी। दोनोंकी परस्पर प्रेम-लीलासे रसकी वृद्धि होती है। इसीको रास कहते हैं।भगवान्की शक्तियाँ अनन्त हैं, अपार हैं। उनकी दिव्य शक्तियोंमें ऐश्वर्य-शक्ति भी है और माधुर्य-शक्ति भी। ऐश्वर्य-शक्तिसे भगवान् ऐसे विचित्र और महान् कार्य करते हैं, जिनको दूसरा कोई कर ही नहीं सकता। ऐश्वर्य-शक्तिके कारण उनमें जो महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता दीखती है, वह उनके सिवाय और किसीमें देखने-सुननेमें नहीं आती। माधुर्य-शक्तिमें भगवान् अपने ऐश्वर्यको भूल जाते हैं। भगवान्को भी मोहित करनेवाली माधुर्य-शक्तिमें एक मधुरता, मिठास होती है, जिसके कारण भगवान् बड़े मधुर और प्रिय लगते हैं। जब भगवान् ग्वालबालोंके साथ खेलते हैं, तब माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है। अगर उस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट हो जाय तो सारा खेल बिगड़ जाय; ग्वालबाल डर जायँ और भगवान्के साथ खेल भी न सकें। ऐसे ही भगवान् कहीं मित्ररूपसे, कहीं पुत्ररूपसे और कहीं पतिरूपसे प्रकट हो जाते हैं, तो उस समय उनकी ऐश्वर्य-शक्ति छिपी रहती है और माधुर्यशक्ति प्रकट रहती है। तात्पर्य है कि भगवान् भक्तोंके भावोंके अनुसार उनको आनन्द देनेके लिये ही अपनी ऐश्वर्यशक्तिको छिपाकर माधुर्यशक्ति प्रकट कर देते हैं।जिस समय माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है उस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट नहीं होती और जिस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय माधुर्य-शक्ति प्रकट नहीं होती। ऐश्वर्य-शक्ति केवल तभी प्रकट होती है, जब माधुर्यभावमें कोई शङ्का पैदा हो जाय। जैसे, माधुर्य-शक्तिके प्रकट रहनेपर भगवान् श्रीकृष्ण बछड़ों को ढूँढ़ते हैं। परन्तु 'बछड़े कहाँ गये?' यह शङ्का पैदा होते ही ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट हो जाती है और भगवान् तत्काल जान जाते हैं कि बछड़ोंको ब्रह्माजी ले गये हैं।भगवान्में एक सौन्दर्य-शक्ति भी होती है, जिससे हरेक प्राणी उनमें आकृष्ट हो जाता है। भगवान् श्रीकृष्णके सौन्दर्यको देखकर मथुरापुरवासिनी स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं-- गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं     लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्। दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुराप     मेकान्तधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य।।(श्रीमद्भा0 10। 44। 14)'इन भगवान् श्रीकृष्णका रूप सम्पूर्ण सौन्दर्यका सार है, सृष्टिमात्रमें किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है। इनका रूप किसीके सँवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ोंसे नहीं, प्रत्युत स्वयंसिद्ध है। इस रूपको देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती; क्योंकि यह नित्य नवीन ही रहता है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इस रूपके आश्रित है। इस रूपके दर्शन बहुत ही दुर्लभ हैं। गोपियोंने पता नहीं कौन-सा तप किया था, जो अपने नेत्रोंके दोनोंसे सदा इनकी रूप-माधुरीका पान किया करती हैं शुकदेवजी कहते हैं!' निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना             मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप। प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः            पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम्।।   पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया। जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः।।  (श्रीमद्भा0 10। 43। 20 21)'परीक्षित् ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थे, वे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंद्वारा उनकी मुख-माधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे; मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वासे चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओँसे पकड़कर हृदयसे सटा रहे हों!' भगवान् श्रीरामके सौन्दर्यको देखकर विदेह राजा जनक भी विदेह अर्थात् देहकी सुध-बुधसे रहित हो जाते हैं--  मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।(मानस 1। 215। 4) और कहते हैंसहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।(मानस 1। 216। 2)वनमें रहनेवाले कोल-भील भी भगवान्के विग्रहको देखकर मुग्ध हो जाते हैं-- करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे।। चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।(मानस 2। 135। 3)प्रेमियोंकी तो बात ही क्या, वैरभाव रखनेवाले राक्षस खर-दूषण भी भगवान्के विग्रहकी सुन्दरताको देखकर चकित हो जाते हैं और कहते हैं-- नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते।। हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई।।(मानस 3। 19। 2) तात्पर्य है कि भगवान्के दिव्य सौन्दर्यकी ओर प्रेमी, विरक्त, ज्ञानी, मूर्ख, वैरी, असुर और राक्षसतक सबका मन आकृष्ट हो जाता है। 'सम्भवाम्यात्ममायया'--जो मनुष्य भगवान्से विमुख रहते हैं, उनके सामने भगवान् अपनी योगमायामें छिपे रहते हैं और साधारण मनुष्य-जैसे ही दीखते हैं। मनुष्य ज्यों-ज्यों भगवान्के सम्मुख होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके सामने प्रकट होते जाते हैं। इसी योगमायाका आश्रय लेकर भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं (टिप्पणी प0 220)। भगवद्विमुख मूढ़ पुरुषके आगे दो परदे रहते हैं--एक तो अपनी मूढ़ताका और दूसरा भगवान्की योग-मायाका (गीता 7। 25)। अपनी मूढ़ता रहनेके कारण भगवान्का प्रभाव साक्षात् सामने प्रकट होनेपर भी वह उसे समझ नहीं सकता; जैसे--द्रौपदीका चीर-हरण करनके लिये दुःशासन अपना पूरा बल लगाता है, उसकी भुजाएँ थक जाती हैं, पर साड़ीका अन्त नहीं आता-- द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन तजि आये निज धाम। दुस्सासन की भुजा थकित भई बसनरूप भए स्याम।। --इस प्रकार भगवान्ने सभाके भीतर अपना ऐश्वर्य साक्षात् प्रकट कर दिया। परन्तु अपनी मूढ़ताके कारण दुःशासन, दुर्योधन, कर्ण आदिपर इस बातका कोई असर ही नहीं पड़ा कि द्रौपदीके द्वारा भगवान्को पुकारनेमात्रसे कितनी विलक्षणता प्रकट हो गयी! एक स्त्रीका चीरहरण भी नहीं कर सके तो और क्या कर सकते हैं! इस तरफ उनकी दृष्टि ही नहीं गयी। भगवान्का प्रभाव सामने देखते हुए भी वे उसे जान नहीं सके।यदि जीव अपनी मूढ़ता (अज्ञान) दूर कर दे तो उसे अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका बोध तो हो जाता है, पर भगवान्के दर्शन नहीं होते (टिप्पणी प0 221.1)। भगवान्के दर्शन तभी होते है, जब भगवान् अपनी योगमायाका परदा हटा देते हैं। अपना अज्ञान मिटाना तो जीवके हाथकी बात है, पर योग-मायाको दूर करना उसके हाथकी बात नहीं है। वह सर्वथा भगवान्के शरण हो जाय तो भगवान् अपनी शक्तिसे उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं। भगवान् जितनी लीलाएँ करते हैं, सब योगमायाका आश्रय लेकर ही करते हैं। इसी कारण उनकी लीलाको देख सकते हैं, उसका अनुभव कर सकते हैं। यदि वे योग-मायाका आश्रय न लें तो उनकी लीलाको कोई देख ही नहीं सकता, उसका आस्वादन कोई कर ही नहीं सकता।अवतार-सम्बन्धी विशेष बात अवतारका अर्थ है--नीचे उतरना। सब जगह परिपूर्ण रहनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा अपने अनन्य भक्तोंकी इच्छा पूरी करनेके लिये अत्यधिक कृपासे एक स्थान-विशेषमें अवतार लेते हैं और छोटे बन जाते हैं। दूसरे लोगोंका प्रभाव या महत्त्व तो बड़े हो जानेसे होता है, पर भगवान्का प्रभाव या महत्त्व छोटे हो जानेसे होता है। कारण कि अपार, असीम, अनन्त होकर भी भगवान् छोटे-से बन जाते हैं-- यह उनकी विलक्षणता ही है। जैसे, भगवान् अनन्त ब्रह्माण्डोंको धारण करते हैं; परन्तु एक पर्वतको धारण करनेसे भगवान् 'गिरिधारी' नामसे प्रसिद्ध हो गये! अनन्त ब्रह्माण्ड जिनके रोम-रोममें स्थित है, (टिप्पणी प0 221.2) ऐसे परमेश्वर एक पर्वतको उठा लें--यह कोई बड़ी बात नहीं, प्रत्युत छोटी बात है। परन्तु छोटी बातमें ही भगवान्की बड़ी बात होती है। इस प्रकार अवतार लेनेमें ही भगवान्की विशेषता है।साधारण आदमी जिस स्थितिपर है, उसी स्थितिपर आकर भगवान् वैसी लीला करते हैं। बिलकुल भोलेभाले साधारण बालककी तरह बनकर लीला करते हैं। ग्वाल-बालोंसे खेलते समय वे दूसरे ग्वालबालसे हार भी जाते हैं। जो ग्वालबाल जीत जाता है, वह सवार बन जाता है और भगवान् घोड़ा बन जाते हैं। यह उनकी विशेष महत्ता है। भगवान्के प्रभावको जाननेवाले ज्ञानी महात्मालोग तो उनके स्वरूपमें मस्त रहते हैं; पर भक्तोंको उनकी साधारण अज्ञ बालककी तरह भोलीभाली लीला बड़ी विचित्र और मीठी लगती है। वहाँ ज्ञानियोंका ज्ञान नहीं चलता। ज्ञानियोंके शिरोमणि ब्रह्माजी भी भगवान्की लीलाको देखकर चकरा गये! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, योगी-तपस्वी, संत-महात्मा भी उनकी लीलाओंके रहस्यको नहीं जान सकते और इस विषयमें मूक हो जाते हैं। भगवान् ही कृपा करके जिन प्यारे अन्तरङ्ग भक्तोंको जनाना चाहते हैं, वे ही उनकी लीलाके तत्त्वको जान पाते हैं--'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस 2। 127। 2)। गायें चराते समय, ग्वालबालोंसे खेलते समय भी भगवान् बड़े-बड़े प्रभावशाली कार्य कर देते हैं। बड़े-बड़े बलवान् राक्षसोंको भी चुटकियोंमें ही खत्म कर देते हैं। छोटे-से बालक बननेपर भी उनका प्रभाव वैसा-का-वैसा ही रहता है।जैसे कोई बहुत बड़ा विद्वान् किसी बालकको वर्णमाला सिखाता है, तो वह बालकका हाथ पकड़कर उससे 'क ख ग ৷৷'. लिखवाता है और मुँहसे भी वैसा बोलता है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह विद्वान् स्वयं वर्णमाला सीखता है। वह तो बालककी स्थितिमें आकर उसे सिखाता है, जिससे वह सुगमतापूर्वक सीख जाय। ऐसे ही अनन्तब्रह्माण्ड-नायक भगवान् हमलोगोंके बीच हमारे सामने आते हैं और हमारी तरह ही बनकर हमें शिक्षा देते हैं। उनकी बड़ी अलौकिक विचित्र-विचित्र लीलाएँ होती हैं, जिनका श्रवण, पठन और गायन करनेसे भी लोगोंका उद्धार हो जाता है।  सम्बन्ध-- अब भगवान् आगेके श्लोकमें अपने अवतारका अवसर बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.6।। यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.6।।न तर्ह्यनादिर्भवानित्यत आह अजोऽपीति। अव्यय आत्मा देहोऽपीत्यव्ययात्मा।अनन्तं विश्वतोमुखम् 11।11 इति रूपविशेषणमुत्तरत्रएतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् भागं.1।3।5 इति चजगृहे भाग.1।3।1 इति तु व्यक्तिः। युक्तयस्तूक्ताः मा.भा.2।24पृ139 आत्माऽनादित्वं तु सर्वसमम्। कथमनादिनित्यस्य जनिः प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय प्रकृत्या जातेषु वसुदेवादिषु तथैव तेषां जात इव प्रतीये इत्यर्थः। न तु स्वतन्त्रामधिष्ठायेत्याह स्वामिति।द्रव्यं कर्म च भाग.2।10।142 इति ह्युक्तम्। सा हि तत्रोक्ता। ततः सर्वसृष्टेः। आत्ममायया आत्मज्ञानेन प्रकृतेः पृथगभिधानात्।केतुः केतश्चितिश्चित्तं मतिः क्रतुर्मनीषा माया इति ह्यभिधानम्। सृष्टिकारणया तेषां शरीरादि सृष्ट्वा विमोहिकया। अजात एव जात इव प्रतीये वा। उक्तं च महदादेश्च माता या श्रीर्भूमिरिति कल्पिता। विमोहिका च दुर्गाख्या ताभिर्विष्णुरजोऽपि हि। जातवत्प्रथते ह्यात्मचिद्बलान्मूढचेतसाम् इति। ईश्वर ईशेभ्योऽपि वरः। तच्चोक्तम् ईशेभ्यो ब्रह्मरुद्रश्रीशेषादिभ्यो यतो भवान्। वरोऽत ईश्वराख्या ते मुख्या नान्यस्य कस्यचित् इति ब्रह्मवैवर्ते।समर्थ ईश इत्युक्तस्तद्वरत्वात्त्वमीश्वरः इति च।

Sri Anandgiri

।।4.6।।ईश्वरस्य कारणाभावाज्जन्मैवायुक्तमतीतानेकजन्मवत्त्वं तु दूरोत्सारितमिति शङ्कते कथमिति। वस्तुतो जन्माभावे़ऽपि मायावशाज्जन्म संभवतीत्युत्तरमाह उच्यत इति। पारमार्थिकजन्मायोगे कारणं पूर्वार्धेनानूद्य प्रातिभासिकजन्मसंभवे कारणमाह प्रकृतिमिति। प्रकृतिशब्दस्य स्वरूपविषयत्वं प्रत्यादेष्टुमात्ममाययेत्युक्तम्। वस्तुतो जन्माभावे कारणानुवादभागं विवृणोति अजोऽपीत्यादिना। प्रातिभासिकजन्मसंभवे कारणकथनपरमुत्तरार्धं विभजते प्रकृतिमित्यादिना। प्रकृतिशब्दस्य स्वरूपशब्दपर्यायत्वं वारयति मायामिति। तस्याः स्वातन्त्र्यं निराकृत्य भगवदधीनत्वमाह ममेति। तस्याश्चाधिकरणद्वारेणावच्छिन्नत्वं सूचयति वैष्णवीमिति। मायाशब्दस्यापि प्रज्ञानामसु पाठाद्विज्ञानशक्तिविषयत्वमाशङ्क्याह त्रिगुणात्मिकामिति। तस्याः कार्यलिङ्गकमनुमानं सूचयति यस्या इति। जगतो मायावशवर्तित्वमेव स्फुटयति ययेति। यथा लोके कश्चिज्जातो देहवानालक्ष्यते एवमहमपि मायामाश्रित्य स्ववशया संभवामि जन्मव्यवहारमनुभवामि तेन मायामयमीश्वरस्य जन्मेत्याह तां प्रकृतिमित्यादिना। संभवामीत्युक्तमेव विभजते देहवानिति। अस्मदादेरिव तवापि परमार्थत्वाभिमानो जन्मादिविषये स्यादित्याशङ्क्य प्रागुक्तस्वरूपपरिज्ञानवत्त्वादीश्वरस्य मैवमित्याह न परमार्थत इति। आवृतज्ञानवतो लोकस्य जन्मादिविषये परमार्थत्वाभिमानः संभवतीत्याह लोकवदिति।

Sri Vallabhacharya

।।4.6।।नन्वनादेरविनाशिनस्तव जीववत्कथं जन्मोक्तं इत्यत आह अजोऽपीति। सत्यमेवं तथाप्यजोऽपि सन्नव्ययात्माऽपि सन् कर्मपारतन्त्र्यरहितोऽपि सन् स्वमायया सम्भवामि। स्वतन्त्रमायानिबन्धनं मम जन्मेति। मायाशब्दः क्वचिच्छास्त्रे हरिसामर्थ्यवाचकः।क्वाप्यविद्या मृषावाचिकृपाकपटवित्तवाक्। इति निरूपणादत्रात्मनां भक्तानामुपरि कृपयाऽऽत्मनो वा कृपयाऽऽविर्भवामि।मया सह वर्त्तमानमाया इति तृतीयस्कन्धसुबोधिनीव्याख्यातया वाऽप्रच्युतज्ञानबलैश्वर्यादिशक्त्यैव सर्वभवनसामर्थ्यरूपमायया सम्भवामि।विजातीयनिवारणायात्मपदम्। मायात्वोक्तिःशक्तिर्मे मोहिनी त्वतः एवेति वयमवोचाम्। ननु तथापि स्वरूपवैपरीत्यं जन्मभावेन जीवस्यैव तवायातमित्याशङ्क्याह प्रकृतिमिति। प्रकृतिं स्वामसाधारणस्वरूपं स्वभावं वा सच्चिदानन्दमात्रं नित्यसिद्धज्ञानक्रियाशक्त्याश्रयं षड्गुणाश्रयमधिष्ठाय अपरित्यज्य सन्नेव प्रादुर्भवामि न तु जीववत्स्वरूपादपि प्रच्युतः। जीवस्तु व्युच्चरणानन्तरं मायया पराभिध्यानात्तिरोहितानन्दषड्गुणः संसरतीति जन्ममरणपर्यावर्त्तमनुभवति अहं तु न तथा जन्मादिमान् अजत्वश्रुतेरव्ययत्वाच्च। एतेनैव षड्भावविकारा निराकृताः। यद्यपि जीवात्मनि न विकाराः षट् किन्तु प्रकृतिपरिणामभूते देहे एव तथापिआविर्भावतिरोभावजन्मनाशविकल्पवत् शरीरं जगज्जीवात्मनि प्रत्याययति विकारान् संसृतिं च करोति प्राकृतत्वात्। अत एवोक्तं सूत्रकारेण पराभिध्यानात्तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ ब्र.सू.3।2।5 इति। अत्र भाष्यकारः अस्य जीवस्यैश्वर्यादि तिरोहितं तत्र हेतुः पराभिध्यानात् परस्य भगवतोऽभिध्यानं स्वस्यैतस्य च सर्वतो भोगेच्छा तस्मादीश्वरेच्छया जीवस्य व्युच्चरितस्य भगवद्धर्मतिरोभावः। ऐश्वर्यतिरोभावाद्दीनत्वं पराधीनत्वं च। वीर्यतिरोभावात् सर्वदुःखसहनम्। यशस्तिरोभावात् सर्वहीनत्वम्। श्रीतिरोभावाज्जन्मादिसर्वापद्विषयत्वम्। ज्ञानतिरोभावाद्देहादिष्वहम्बुद्धिः। सर्वविपरीतज्ञानं च अपस्मारसहितस्येव। वैराग्यतिरोभावाद्विषयासक्तिः। बन्धश्चतुर्णां कार्यो विपर्ययो द्वयोस्तिरोभावादेव। नान्यथा हि युक्तोऽयमर्थः। एकस्यैकांशप्राकट्येऽपि तथाभावात् आनन्दांशस्तु पूर्वमेव तिरोहितः येन जीवभावः अत एव काममयः अकामरूपत्वादानन्दस्य। निद्रा च सुतरां तिरोभावकर्त्री भगवच्छक्तिः। अतोऽस्मिन् प्रस्तावे जीवस्य धर्मतिरोभाव उक्तः। अन्यथा भगवत ऐश्वर्यादिलीला निर्विषया स्यात्। तस्माज्जीवरूपपर्यालोचनया न किञ्चिदाशङ्कनीयम् इति। जीवस्य देहिनो जन्मनाशावुक्तौ ब्रह्मणो भगवत आविर्भावतिरोभावाविन्याशयेनैव नित्यापरिच्छिन्नतनौ प्राकट्यमिति सम्भव उक्तः। अनेन योऽहमिह दृश्यमानः पुरुषोत्तमोऽवतारी स एवान्यत्र प्रादुर्भवामि स्वत इत्युक्तं तथा चाजोऽपि जन्मवान् बालोऽपि किशोरः एकोऽप्यनेक इत्यादि विरुद्धधर्मा श्रयत्वान्नानुपपत्तिः। विशेषस्तु भाष्यादेरवगन्तव्यः।

Sridhara Swami

।।4.6।। नन्वनादेस्तव कुतो जन्म अविनाशिनश्च कथं पुनर्जन्म येन बहूनि मे व्यतीतानीत्युच्यते ईश्व रस्य तव पुण्यपापविहीनस्य कथं जीववज्जन्मेत्यत आह अजोऽपीति। सत्यमेवं तथाप्यजोऽपि सन्नहं तथाव्ययात्माप्यनश्व रस्वभावोऽपि सन् तथा ईश्व रोऽपि कर्मपारतन्त्र्यरहितोऽपि सन्स्वमायया संभवामि सम्यगप्रच्युतज्ञानबलवीर्यादिशक्त्यैव भवामि। ननु तथापि षोडशकलात्मकलिङ्गदेहशून्यस्य तव कुतो जन्मेत्यत उक्तम्। स्वां शुद्धसत्त्वात्मिकां प्रकृतिमधिष्ठायं स्वीकृत्य विशुद्धोर्जितसत्त्व मूर्त्या स्वेच्छयावतरामीत्यर्थः।

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