Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 42 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः | छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ||४-४२||
Transliteration
tasmādajñānasambhūtaṃ hṛtsthaṃ jñānāsinātmanaḥ . chittvainaṃ saṃśayaṃ yogamātiṣṭhottiṣṭha bhārata ||4-42||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.42 Therefore with the sword of the knowledge (of the Self) cut asunder the doubt of the self born of ignorance, residing in thy heart, and take refuge in Yoga. Arise, O Arjuna.
।।4.42।। इसलिये अपने हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान खड्ग से काटकर, हे भारत ! योग का आश्रय लेकर खड़े हो जाओ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When faced with career uncertainty or a major professional decision (e.g., switching jobs, starting a venture), don't let self-doubt or a lack of information paralyze you. Seek clarity through self-assessment (understanding your strengths, values, and passions) and diligent research (gaining knowledge of the market, required skills, or potential challenges). Once informed, cut through hesitation and take decisive action to advance your path, rather than remaining stuck in analysis paralysis.
🧘 For Stress & Anxiety
Chronic stress and anxiety often stem from unresolved doubts about choices, capabilities, or the future, leading to mental torment. This verse advises addressing these internal conflicts by gaining self-awareness and thoroughly understanding the situation at hand. By replacing ignorance with clear knowledge and committing to a path or set of principles ('taking refuge in Yoga'), one can alleviate mental burden, gain peace of mind, and move forward constructively.
❤️ In Relationships
Doubts in relationships (e.g., regarding trust, compatibility, or the future of the partnership) can cause significant strain and misunderstanding. Instead of letting unfounded suspicions or insecurities fester, strive for 'knowledge of the Self' (understanding your own needs, fears, and communication style) and address doubts directly through open, honest communication with your partner. This cuts through assumptions born of ignorance, fostering deeper understanding and more stable, authentic connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Confront ignorance with self-knowledge, sever doubt with decisive action, and rise to your true potential.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.42 तस्मात् therefore? अज्ञानसंभूतम् born out of ignorance? हृत्स्थम् residing in the heart? ज्ञानासिना by the sword of knowledge? आत्मनः of the Self? छित्त्वा having cut? एनम् this? संशयम् doubt? योगम् Yoga? आत्तिष्ठ take refuge? उत्तिष्ठ arise? भारत O Bharata.Commentary Doubt causes a great deal of mental torment. It is most sinful. It is born of ignorance. Kill it ruthlessly with the knowledge of the Self. Now stand up and fight? O Arjuna.(This chapter is known by the names Jnana Yoga? Abhyasa Yoga and jnanakarmasannyasa Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fourth discourse entitledThe Yoga of the Division of Wisdom. ,
Shri Purohit Swami
4.42 Therefore, cleaving asunder with the sword of wisdom the doubts of the heart, which thine own ignorance has engendered, follow the Path of Wisdom and arise!"
Dr. S. Sankaranarayan
4.42. Therefore, thus cutting off, by means of knowledge-sword, the doubt that has sprung from ignornace and exists in [your] heart, practise the Yoga ! Stand up ! O descendant of Bharata !
Swami Adidevananda
4.42 Therefore, sunder, with the sword of knowledge, this doubt present in your heart resulting from ignorance concerning the self. Practise this Yoga, O Arjuna, and rise up.
Swami Gambirananda
4.42 Therefore, O scion of the Bharata dyasty, take recourse to yoga and rise up, cutting asunder with the sword of Knowledge this doubt of your own in the heart, arising from ignorance.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.42।। इस अन्तिम श्लोक में श्रीकृष्ण द्वारा दी गया सम्मति संक्षिप्त होते हुये भी प्रेमाग्रहपूर्ण है। यह श्लोक अर्जुन के प्रति उनकी स्नेह भावना से झंकृत हो रहा है।हिमालय की गिरिकन्दराओं के शान्त और एकान्त वातावरण मे दिये गये ऋषियों के उपदेश को यहाँ श्रीकृष्ण अपने योद्धामित्र अर्जुन को युद्ध की भाषा में ही समझाते हैं। हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान की तलवार द्वारा छिन्नभिन्न करने के लिये वे अर्जुन को प्रोत्साहित करते हैं।यहाँ संशय को हृदय मे स्थित कहा गया है आज के शिक्षित पुरुष को यह कुछ विचित्र जान पड़ेगा क्योंकि संशय बुद्धि से उत्पन्न होता है हृदय से नहीं।वेदान्त की धारण के अनुसार बुद्धि का निवास स्थान हृदय है। परन्तु स्थूल शरीर का अंगरूप हृदय यहां अभिप्रेत नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय शब्द का मनोवैज्ञानिक अर्थ मे साहित्यिक प्रयोग किया जाता है। प्रेम सहानुभूति तथा इसी प्रकार की मनुष्य की श्रेष्ठ एवं आदर्श भावनाओं का स्रोत हृदय ही है। इस प्रेम से परिपूर्ण हृदय से जो बुद्धि कार्य करती है वही वास्तव में दर्शनशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य की बुद्धि मानी जा सकती है। इसलिये जब यहाँ संशय को हृदय में स्थित कहा गया तब उसका तात्पर्य कुछ साधकों की विकृत बुद्धि से है जिसके कारण वे आत्मदर्शन नहीं कर पाते। अनेक प्रकार के संशयों की आत्यन्तिक निवृत्ति तभी संभव होगी जब साधक पुरुष आत्मा का साक्षात् अनुभव कर लेगा।यह योग के अभ्यास द्वारा ही संभव है। परन्तु योग का अर्थ कोई रहस्यमयी साधना नहीं जिसे कोई विरले गुरु गुप्त रूप से बतायेंगे और न ही वह ऐसी साधना है जिसका अभ्यास हिमालय की निर्जन गुफाओं में बैठकर करना पड़ेगा। योग सम्बन्धित जो भी भय उत्पन्न करने वाली मिथ्या धारणाएं है गीता में उन्हें सदा के लिये दूर करके उस शब्द को सुपरिचित और व्यावहारिक बना दिया गया है। जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में योग उपयोगी है। भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा इस अध्याय में जो बारह प्रकार के यज्ञ बताये गये हैं वे ही योग शब्द से लक्षित हैं।इस अध्याय की समाप्ति अर्जुन को उठने के आह्वान के साथ होती है उत्तिष्ठ भारत। यद्यपि गीतोपदेश के सन्दर्भ में भारत शब्द अर्जुन को ही सम्बोधित करता है तथापि अर्जुन के माध्यम से समस्त साधकों का यहाँ आह्वान किया गया है। यज्ञ साधना का आचरण करके हमको अधिकाधिक अन्तकरण शुद्धि प्राप्त करनी चाहिये जिससे कि निदिध्यासन के द्वारा हम विकास के चरम लक्ष्य परम शान्ति को प्राप्त कर सकें।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्याय।।
Swami Ramsukhdas
।।4.42।। व्याख्या--'तस्मादज्ञानसम्भूतं ৷৷. छित्त्वैनं संशयम्'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समताके द्वारा समस्त कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञानके द्वारा समस्त संशयोंको नष्ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगीको कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है। अब भगवान् 'तस्मात्' पदसे अर्जुनको भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।अर्जुनके हृदयमें संशय था--युद्धरूप घोर कर्मसे मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याणके लिये मैं कर्मयोगका अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोगका? इस श्लोकमें भगवान् इस संशयको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं ;क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तर��से नहीं हो सकता।'अज्ञानसम्भूतम्' पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीक-ठीक न समझनेसे ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओँ और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जबतक रहता है, तबतक अन्तःकरणमें संशय रहते हैं; क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है। तीसरे अध्यायमें कर्मयोगका आचरण करनेकी और इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगको तत्त्वसे जाननेकी बात विशेषरूपसे आयी है। कारण कि कर्म करनेके साथ-साथ कर्मको जाननेकी भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीतिसे नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करनेसे जो कर्म बाँधने-वाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जाते हैं (गीता 4। 16 32)। इसलिये इसअध्यायमें भगवान्ने कर्मोंको तत्त्वसे जाननेपर विशेष जोर दिया है।पूर्वश्लोकमें भी 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्' पद इसी अर्थमें आया है। जो मनुष्य कर्म करनेकी विद्याको जान लेता है, उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है। कर्म करनेकी विद्या है--अपने लिये कुछ करना ही नहीं है। 'योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत'--अर्जुन अपने धनुष-बाणका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (1। 47)। उन्होंने भगवान्से साफ कह दिया था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा'--'न योत्स्ये' (गीता 2। 9)। यहाँ भगवान् अर्जुनको योगमें स्थित होकर युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान्ने दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें योगस्थः कुरु कर्माणि (योगमें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म कर) पदोंसे भी कही थी। योगका अर्थ 'समता' है--'समत्वं योग उच्यते' (गीता 2। 48)। अर्जुन युद्धको पाप समझते थे (गीता 1। 36 45)। इसलिये भगवान् अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता (गीता 2। 38)। इसलिये समतामें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म करना ही कर्म-बन्धनसे छूटनेका उपाय है। संसारमें रात-दिन अनेक कर्म होते रहते हैं, पर उन कर्मोंमें राग-द्वेष न होनेसे हम संसारके उन कर्मोंसे बँधते नहीं, प्रत्युत निर्लिप्त रहते हैं। जिन कर्मोंमें हमारा राग या द्वेष हो जाता है, उन्हीं कर्मोंसे हम बँधते हैं। कारण कि राग या द्वेषसे कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध जुड़ जाता है। जब रागद्वेष नहीं रहते अर्थात् समता आ जाती है, तब कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता; अतः मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। अपने स्वरूपको देखें तो उसमें समता स्वतःसिद्ध है। विचार करें कि प्रत्येक कर्मका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। उन कर्मोंका फल भी आदि और अन्तवाला होता है। परन्तु स्वरूप निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। कर्म और फल अनेक होते हैं, पर स्वरूप एक ही रहता है। अतः कोई भी कर्म अपने लिये न करनेसे और किसी भी पदार्थको अपना और अपने लिये न माननेसे जब क्रिया-पदार्थरूप संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब स्वतःसिद्ध समताका अपने-आप अनुभव हो जाता है। तत्तवज्ञानकी प्राप्तिके लिये कर्मयोग और सांख्योगका वर्णन होनेसे इस चौथे अध्यायका नाम 'ज्ञानकर्म-संन्यासयोग' है
Swami Tejomayananda
।।4.42।। इसलिये अपने हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान खड्ग से काटकर, हे भारत ! योग का आश्रय लेकर खड़े हो जाओ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.42।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।4.42।।तस्मादित्यादिसमनन्तरश्लोकगततत्पदापेक्षितमर्थमाह यस्मादिति। सतां कर्मणामस्मदादिषु फलारम्भकत्वोपलम्भाद्विदुष्यपि तेषां तद्भाव्यमनपबाधमित्याशङ्क्याह ज्ञानाग्नीति। ननु संदिहानस्य तत्प्रतिबन्धान्न कर्मयोगानुष्ठानं नापि तद्धेतुकज्ञानं तत्रापि संशयावतारादित्याशङ्क्याह यस्माच्चेति। श्लोकाक्षराणि व्याचष्टे तस्मादित्यादिना। पापिष्ठमिति संशयस्य सर्वानर्थमूलत्वेन त्याज्यत्वं सूच्यते। विवेकाग्रहप्रसूतत्वादपि तस्यावहेयत्वमविवेकस्यानर्थकरत्वप्रसिद्धेरित्याह अविवेकादिति। नच तस्य चैतन्यवदात्मनिष्ठत्वादत्याज्यत्वं शङ्कितव्यमित्याह हृदीति। शोकमोहाभ्यामभिभूतस्य पुंसो मनसि प्रादुर्भवतः संशयस्य प्रबलप्रतिबन्धकाभावेनैव प्रध्वंसः सिध्येदित्याशङ्क्याह ज्ञानासिनेति। स्वाश्रयस्य संशयस्य स्वाश्रयेणैव ज्ञानेन समुच्छेदसंभवात्किमिति स्वस्येति विशेषणमित्याशङ्क्याह आत्मविषयत्वादिति। स्थाण्वादिविषयः संशयस्तद्विषयेण ज्ञानेन देवदत्तनिष्ठेन तन्निष्ठो व्यावर्त्यते प्रकृते त्वात्मविषयस्तदाश्रयश्च संशयस्तथाविधेन ज्ञानेनापनीयते तेन विशेषणमर्थवदित्यर्थः। तदेव प्रपञ्चयति नहीति। आत्माश्रयत्वस्य प्रकृते संशये सिद्धत्वेनाविवक्षितत्वात्तद्विषयस्य तद्विषयेणैव तस्य तेन निवृत्तिर्विवक्षितेत्युपसंहरति अत इति। संशयसमुच्छित्त्यनन्तरं कर्तव्यमुपदिशति छित्त्वैनमिति। अग्निहोत्रादिकं कर्म भगवदाज्ञया क्रमेण करिष्यामि युद्धात्पुनरुपरिरंसैवेत्याशङ्क्याह उत्तिष्ठेति। भरतान्वये महति क्षत्रियवंशे प्रसूतस्य समुपस्थितसमरविमुखत्वमनुचितमिति मन्वानः सन्नाह भारतेति। तदनेन योगस्य कृत्रिमत्वं भगवतोऽनीश्वरत्वं च निराकृत्य कर्मादावकर्मादिदर्शनादात्मनः सम्यग्ज्ञानात्प्रणिपातादेर्बहिरङ्गादन्तरङ्गाच्च श्रद्धादेरुद्भूतादशेषानर्थनिवृत्त्या ब्रह्मभावमभिदधता सर्वस्मादुत्कृष्टे तस्मिन्नसंशयानस्याधिकारादशेषदोषवन्तम्। संशयं हित्वोत्तमस्य ज्ञाननिष्ठापरस्य कर्मनिष्ठेति स्थापितम्।इत्यानन्दगिरिकृतगीताभाष्यटीकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
Sri Vallabhacharya
।।4.42।।तस्मात्त्वमपि साङख्यबुद्ध्याऽनात्मभूतं संशयं छित्त्वोक्तं योगमातिष्ठ युद्धाय च स्वकर्मणे उद्युक्तो भव तदापि निर्बन्धनतेति भावः।
Sridhara Swami
।।4.42।।तस्मादिति। यस्मादेवं तस्मादात्मनोऽज्ञानेन संभूतं हृदि स्थितमेनं संशयं शोकादिनिमित्तं देहात्मविवेकज्ञानखङ्गेन छित्त्वा परमात्मज्ञानोपायभूतं कर्मयोगमातिष्ठाश्रय। तत्र च प्रथमं प्रस्तुताय युद्धायोत्तिष्ठ। हे भारत इति क्षत्रियत्वेन युद्धस्य स्वधर्मत्वं दर्शितम्।