Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 30 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Self Discipline & Moderation

Sanskrit Shloka (Original)

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति | सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ||४-३०||

Transliteration

apare niyatāhārāḥ prāṇānprāṇeṣu juhvati . sarve.apyete yajñavido yajñakṣapitakalmaṣāḥ ||4-30||

Word-by-Word Meaning

अपरेother persons
नियताहाराःof regulated food
प्राणान्lifreaths
प्राणेषुin the lifreaths
जुह्वतिsacrifice
सर्वेall
अपिalso
एतेthese
यज्ञविदःknowers of sacrifice

📖 Translation

English

4.30 Others who regulate their diet offer life-breaths in life-breaths. All these are knowers of sacrifice, whose sins are destroyed by sacrifice.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.30।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं, जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate disciplined work habits, manage energy through mindful eating and regular breaks, and avoid burnout by regulating your inputs (information, food) and outputs (effort, time). This fosters sustainable productivity and mental clarity, allowing for focused and effective contribution.

🧘 For Stress & Anxiety

Practice conscious regulation of your diet to avoid stress-eating or unhealthy cravings, and integrate breathwork (pranayama-like techniques) to calm the nervous system. By mastering these physiological controls, you build resilience against daily stressors, reduce anxiety, and gain greater command over your emotional responses.

❤️ In Relationships

Apply the principles of moderation and self-control to your emotional reactions and communication. Just as one regulates diet, regulate the 'consumption' of emotional energy and the 'output' of impulsive words or judgments. This fosters patience, empathy, and reduces conflict, leading to more harmonious and stable connections.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Mastering self-discipline, especially through conscious regulation of diet and breath, purifies the mind and empowers one to overcome internal struggles, leading to profound inner peace and mental clarity.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.30 अपरे other persons? नियताहाराः of regulated food? प्राणान् lifreaths? प्राणेषु in the lifreaths? जुह्वति sacrifice? सर्वे all? अपि also? एते these? यज्ञविदः knowers of sacrifice? यज्ञक्षपितकल्मषाः whose sins are destroyed by sacrifice.Commentary Niyataharah means persons of regulated or limited food. They take moderate food. By rigid dieting they control the passions and appetites by weakening the functions of the organs of action.Yogis pour the lifreaths as sacrifice in the controlled lifreath. The former becomes merged in the latter.Performance of the above sacrifice leads to the purification of the mind and destruction of sins.

Shri Purohit Swami

4.30 Others, controlling their diet, sacrifice their worldly life to the spiritual fire. All understand the principal of sacrifice, and by its means their sins are washed away.

Dr. S. Sankaranarayan

4.29. - 4.30. [Some sages] offer the prana into the apana; like-wise others offer the apana into the prana. Having controlled both the courses of the prana and apana, the same sages, with their desire fulfilled by the above activities, and with their food restricted, offer the pranas into pranas. All these persons know what sacrifices are and have their sins destroyed by sacrifices.

Swami Adidevananda

4.30 All these know the meaning of sacrifices and through sacrifices are their sins eradicated. Those who subsist on the ambrosial food, the remnants of sacrifices, go to eternal Brahman.

Swami Gambirananda

4.30 Others, having their food regulated, offer the vital forces in the vital forces. All of them are knowers of the sacrifice and have their sins destroyed by sacrifice.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.30।। कुछ ऐसे साधक होते हैं जो आहार संयम के द्वारा कामक्रोधादि से उत्पन्न मन की उत्तेजनाओं को संयमित करने का अभ्यास करते हैं। भारत में आहार संयम की विधि अपरिचित और नई नहीं है। प्राचीन ऋषियों को अन्न के पोषक तत्त्वों के विषय में पूर्ण ज्ञान था। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने समाज के विभिन्न स्तर के व्यक्तियों के स्वभाव एवं कार्यों के लिए उपयुक्त शाकसब्जियों तथा धान्यों का भी वैज्ञानिक पद्धति से वर्गीकरण किया था। केवल विचार ही नहीं वरन् उन्होंने प्रयोग करके यह दर्शाया भी था कि आहार संयम के द्वारा किस प्रकार मनुष्य अपने गुणों तथा व्यवहार को परिष्कृत करके सांस्कृतिक उन्नति कर सकता है।यज्ञविद शब्द से तात्पर्य उन साधकों से है जो उपर्युक्त साधनों को समझ कर उनमें से सभी अथवा कुछ साधनों का ही अभ्यास निस्वार्थ भावना से करते हैं। ऐसे ही लोग इनसे लाभान्वित होंगे। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि यज्ञ के द्वारा मनुष्य पापमुक्त होगा और न कि इनसे सीधे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।देहादि अनात्म पदार्थों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंका देह तथा बाह्य विषयों में आसक्त हुआ अनेक प्रकार के संकल्प करता रहता है। इन संकल्पों के अनुरूप ही कर्म और फलोपभोग से वासनायें उत्पन्न होती हैं जो सदैव मनुष्य को विषयों में प्रवृत्त करती हैं। यही पाप है जो मनुष्य को पशु के स्तर तक गिरा देता है। उपर्युक्त यज्ञों के अनुष्ठान से न केवल विद्यमान वासनायें नष्ट होती हैं वरन् नवीन विनाशकारी वासनायें भी नहीं उत्पन्न होती।संक्षेप में निष्कर्ष निकलता है कि ये समस्त यज्ञ साध्य न होकर अन्तकरण की शुद्धि के साधनमात्र हैं। चित्त शुद्ध होने पर निदिध्यासन के अभ्यास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अनेक साधक लोग अज्ञानवश किसी एक विशेष साधना में ही इतना आसक्त हो जाते हैं कि उनकी आगे की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।इन सभी यज्ञों में पुरुषार्थ अर्थात् स्वयं का प्रयत्न अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

4.30।। व्याख्या--'अपाने जुह्वति ৷৷. प्राणायामपरायणाः' (टिप्पणी प0 258.1)--प्राणका स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपानका स्थान गुदा (नीचे) है (टिप्पणी प0 258.2)। श्वासको बाहर निकालते समय वायुकी गति ऊपरकी ओर तथा श्वासको भीतर ले जाते समय वायुकी गति नीचेकी ओर होती है। इसलिये श्वासको बाहर निकालना 'प्राण' का कार्य और श्वासको भीतर ले जाना 'अपान' का कार्य है। योगीलोग पहले बाहरकी वायुको बायीं नासिका-(चन्द्रनाड़ी-) के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदयमें स्थित प्राणवायुको साथ लेकर नाभिसे होती हुई स्वाभाविक ही अपानमें लीन हो जाती है। इसको 'पूरक' कहते हैं। फिर वे प्राणवायु और अपानवायु-- दोनोंकी गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको 'कुम्भक' कहते हैं। इसके बाद वे भीतरकी वायुको दायीं नासिका-(सूर्यनाड़ी-) के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायुको तथा उसके पीछे-पीछे अपानवायुको साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करना है। इसको 'रेचक' कहते हैं। चार भगवन्नामसे पूरक, सोलह भगवन्नामसे कुम्भक और आठ भगवन्नामसे रेचक किया जाता है। इस प्रकार योगीलोग पहले चन्द्रनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ीसे रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ीसे रेचक करते हैं। इस तरह बार-बार पूरक-कुम्भक-रेचक करना प्राणायामरूप यज्ञ है। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक प्राणायामके परायण होनेसे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (टिप्पणी प0 258.3)। 'अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति'--नियमित आहार-विहार करनेवाले साधक ही प्राणोंका प्राणोंमें हवन कर सकते हैं। अधिक या बहुत कम भोजन करनेवाला अथवा बिलकुल भोजन न करनेवाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता (गीता 6। 16 17)।प्राणोंका प्राणोंमें हवन करनेका तात्पर्य है--प्राणका प्राणमें और अपानका अपानमें हवन करना अर्थात् प्राण और अपानको अपने-अपने स्थानोंपर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे 'स्तम्भवृत्ति प्राणायाम' भी कहते हैं। इस प्राणायामसे स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापोंका नाश हो जाता है। केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर प्राणायाम करनेसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है।'सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः'--चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके पूर्वार्धतक जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उनका अनुष्ठान करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ 'सर्वेऽप्येते' पद आया है। उन यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहनेसे उनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और अविनाशी परमात्माका प्राप्ति हो जाती है।वास्तवमें सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद क��नेके लिये ही हैं--ऐसा जाननेवाले ही यज्ञवित् अर्थात् यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले हैं। कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है। जो लोग अविनाशी परमात्माका अनुभव करनेके लिये यज्ञ नहीं करते, प्रत्युत इस लोक और परलोक (स्वर्गादि) के विनाशी भोगोंकी प्राप्तिके लिये ही यज्ञ करते हैं, वे यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले नहीं हैं। कारण कि विनाशी पदार्थोंकी कामना ही बन्धनका कारण है--'गतागतं कामकामा लभन्ते' (गीता 9। 21)। अतः मनमें कामना-वासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर भी जन्म-मरणका बन्धन बना रहता है-- मिटी न मनकी वासना नौ तत भये न नास। तुलसी केते पच मुये दे दे तन को त्रास।।विशेष बातयज्ञ करते समय अग्निमें आहुति दी जाती है। आहुति दी जानेवाली वस्तुओंके रूप पहले अलग-अलग होते हैं; परन्तु अग्निमें आहुति देनेके बाद उनके रूप अलग-अलग नहीं रहते, अपितु सभी वस्तुएँ अग्निरूप हो जाती हैं। इसी प्रकार परमात्मप्राप्तिके लिये जिन साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है, उनमें आहुति देनेका तात्पर्य यही है कि आहुति दी जानेवाली वस्तुओँकी अलग सत्ता रहे ही नहीं, सब स्वाहा हो जायँ। जबतक उनकी अलग सत्ता बनी हुई है, तबतक वास्तवमें उनकी आहुति दी ही नहीं गयी अर्थात् यज्ञका अनुष्ठान हुआ ही नहीं। इसी अध्यायके सोलहवें श्लोकसे भगवान् कर्मोंके तत्त्व (कर्ममें अकर्म) का वर्णन कर रहे हैं। कर्मोंका तत्त्व है--कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधना। कर्मोंसे न बँधनेका ही एक साधन है--यज्ञ। जैसे अग्निमें डालनेपर सब वस्तुएँ स्वाहा हो जाती हैं, ऐसे ही केवल लोकहितके लिये किये जानेवाले सब कर्म स्वाहा हो जाते हैं--यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते (गीता 4। 23)।निष्कामभावपूर्वक केवल लोकहितार्थ किये गये साधारण-से-साधारण कर्म भी परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले हो जाते हैं। परन्तु सकामभावपूर्वक किये गये बड़े-से-बड़े कर्मोंसे भी परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। कारण कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामना ही बाँधनेवाली है। पदार्थ और क्रियारूप संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्यमात्रमें पदार्थ पाने और कर्म करनेका राग रहता है कि मुझे कुछ-न-कुछ मिलता रहे और मैं कुछ-न-कुछ करता रहूँ। इसीको 'पानेकी कामना' तथा 'करनेका वेग' कहते हैं।मनुष्यमें जो पानेकी कामना रहती है, वह वास्तवमें अपने अंशी परमात्माको ही पानेकी भूख है; परन्तु परमात्मासे विमुख और संसारके सम्मुख होनेके कारण मनुष्य इस भूखको सांसारिक पदार्थोंसे ही मिटाना चाहता है। सांसारिक पदार्थ विनाशी हैं और जीव अविनाशी है। अविनाशीकी भूख विनाशी पदार्थोंसे मिट ही कैसे सकती है? परन्तु जबतक संसारकी सम्मुखता रहती है, तबतक पानेकी कामना बनी रहती है। जबतक मनुष्यमें पानेकी कामना रहती है, तबतक उसमें करनेका वेग बना रहता है। इस प्रकार जबतक पानेकी कामना और करनेका वेग बना हुआ है अर्थात् पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध बना हुआ है, तबतक जन्म-मरण नहीं छूटता। इससे छूटनेका उपाय है--कुछ भी पानेकी कामना न रखकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना। इसीको लोकसंग्रह, यज्ञार्थ कर्म, लोकहितार्थ कर्म आदि नामोंसे कहा गया है।केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे संसारसे सम्बन्ध छूट जाता है और असङ्गता आ जाती है। अगर केवल भगवान्के लिये कर्म किये जायँ, तो संसारसे सम्बन्ध छूटकर असङ्गता तो आ ही जाती है, इसके साथ एक और विलक्षण बात यह होती है कि भगवान्का 'प्रेम' प्राप्त हो जाता है!  सम्बन्ध--चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके पूर्वार्धतक भगवान्ने कुल बारह प्रकारके यज्ञोंका वर्णन किया और तीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें यज्ञ करनेवाले साधकोंकी प्रशंसा की। अब भगवान् आगेके श्लोकमें यज्ञ करनेसे होनेवाले लाभ और न करनेसे होनेवाली हानि बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.30।। दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले हैं, जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.30 4.31।।नियताहारत्वेनैव प्राणशोषात्प्राणान् प्राणेषु जुह्वति। यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञः कठ.3।13 इत्यादिश्रुत्युक्तप्रकारेण वा। अन्यदपि ग्रन्थान्तरे सिद्धम्।यदस्याल्पाशनं तेन प्राणाः प्राणेषु वै हुताः इति।

Sri Anandgiri

।।4.30।।प्राणापानयोर्गती श्वासप्रश्वासौ निरुध्य किं कुर्वन्तीत्यपेक्षायामाह किञ्चेति। प्राणापानगतिनिरोधरूपं कुम्भकं कृत्वा पुनःपुनर्वायुजयं कुर्वन्तीत्यर्थः। आहारस्य परिमितत्वं हितत्वमेध्यत्वोपलक्षणार्थम्। प्राणानां प्राणेषु होममेव विभजते यस्येति। जितेषु वायुभेदेष्वजितानां तेषां होमप्रकारं प्रकटयति ते तत्रेति। प्रकृतान्यज्ञानुपसंहरति सर्वेऽपीति।

Sri Vallabhacharya

।।4.30 4.31।।अपरे तु आहारतर्पणप्राणानेव (वृत्तीः) प्राणेषु विलापयन्ति इति संयताहाराः। अन्यथौदरीयसर्वभागपूरणे रोधो योगश्च न स्यात्। तदर्थं प्रारीप्सूनामाहारो नियन्तव्य एव। एते सर्वे यज्ञविदस्तेन च निष्कलमषाः स्वाधिकारागतं यज्ञशिष्टममृतं च भुञ्जत इति तथा ते सर्वे सनातनं नित्यं ब्रह्म साक्षात् परम्परया च यान्ति। तदकरणे दोषदर्शनेन व्यतिरेचयति नायमिति। अयमल्पानन्दोऽपि लोको देहो वाऽयज्ञस्य न भवति ततोऽन्यो दिव्यस्तु कुतः इति कर्त्तव्यता बोधिता। अपरं च दर्शनप्रकारः प्रसङ्गादुक्तः। ब्रह्मज्ञानिनाऽपि सर्वसन्न्यासतो ब्रह्मयज्ञाभिधः क्रियते इतिन हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठति 3।5 इति समर्थितम्।

Sridhara Swami

।।4.30।। किंच अपर इति। अपरे त्वाहारसंकोचमभ्यस्यन्तः स्वयमेव जीर्यमाणेष्विन्द्रियेषु तत्तदिन्द्रियवृत्तिलयं होमं भावयन्तीत्यर्थः। यद्वा अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथा परे इत्यनेन पूरकरेचकयोरावर्त्यमानयोर्हंसः सोहमित्यनुलोमतः प्रतिलोमतश्चाभिव्यज्यमानेनाऽजपामन्त्रेण तत्त्वंपदार्थैक्यं व्यतिहारेण भावयन्तीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रेसकारेण बहिर्याति हकारेण विशेत्पुनः। प्राणस्तत्र स एवाहं हंस इत्यनुचिन्तयेत् इति। प्राणापानगती रुद्ध्वेत्यनेन तु श्लोकेन प्राणायामयज्ञा अपरैः कथ्यन्ते तत्रायमर्थःद्वौ भागौ पूरयेदन्नैस्तोयेनैकं प्रपूरयेत्। मारुतस्य प्रचारार्थं चतुर्थमवशेषयेत्।। इत्येवमादिवचनोक्तो नियत आहारो येषां ते। कुम्भकेन प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः सन्तः प्राणानिन्द्रियाणि प्राणेषु जुह्वति। कुम्भके हि सर्वे प्राणा एकीभवन्तीति तत्रैव लीयमानेष्विन्द्रियेषु होमं भावयन्तीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रेयथा यथा सदाभ्यासान्मनसः स्थिरता भवेत्। वायुवाक्कायदृष्टीनां स्थिरता च तथा तथा।। इति। तदेवमुक्तानां द्वादशानां यज्ञविदां फलमाह सर्व इति। यज्ञान्विदन्ति लभन्त इति यज्ञविदः। यज्ञज्ञा इति वा। यज्ञैः क्षपितं नाशितं कल्मषं यैस्ते।

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