Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 17 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Ethical Discernment

Sanskrit Shloka (Original)

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः | अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ||४-१७||

Transliteration

karmaṇo hyapi boddhavyaṃ boddhavyaṃ ca vikarmaṇaḥ . akarmaṇaśca boddhavyaṃ gahanā karmaṇo gatiḥ ||4-17||

Word-by-Word Meaning

कर्मणःof action
हिfor
अपिalso
बोद्धव्यम्should be known
बोद्धव्यम्should be known
and
विकर्मणःof the forbidden action
अकर्मणःof inaction
and
बोद्धव्यम्should be known
गहनाdeep
कर्मणःof action
गतिःthe path.No Commentary.

📖 Translation

English

4.17 For verily (the true nature) of action (enjoined by the scriptures) should be known, also (that) of forbidden (or unlawful) action, and of inaction; hard to understand is the nature (path) of action.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.17।। कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

To excel professionally, one must understand their core responsibilities and ethical duties (karma), avoid unethical practices, shortcuts, or negligence (vikarma), and know when to strategically delegate, pause, or refrain from interference (akarma). This holistic understanding leads to responsible decision-making, effective leadership, and sustainable success in a complex work environment.

🧘 For Stress & Anxiety

By clearly distinguishing between beneficial actions, harmful ones, and the wisdom of conscious inaction, individuals can significantly reduce mental clutter, indecision, and burnout. This clarity fosters a sense of control and inner peace, preventing unnecessary stress and anxiety caused by misguided effort, fear of making wrong choices, or guilt from past actions.

❤️ In Relationships

Navigating relationships requires profound discernment: actively fulfilling one's duties, expressing care, and contributing positively (karma); refraining from gossip, manipulation, or harmful behaviors that break trust (vikarma); and knowing when to give space, listen silently, or gracefully withdraw from conflict (akarma). This mindful approach builds healthier, more respectful, and enduring connections.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True wisdom lies in deeply understanding the intricate nature of all actions – right, wrong, and inaction – for this discernment is the master key to a purposeful and balanced life.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.17 कर्मणः of action? हि for? अपि also? बोद्धव्यम् should be known? बोद्धव्यम् should be known? च and? विकर्मणः of the forbidden action? अकर्मणः of inaction? च and? बोद्धव्यम् should be known? गहना deep? कर्मणः of action? गतिः the path.No Commentary.

Shri Purohit Swami

4.17 It is necessary to consider what is right action, what is wrong action, and what is inaction, for mysterious is the law of action.

Dr. S. Sankaranarayan

4.17. Something has got to be understand of [good] action also; and something is to be understood of the wrong action; and something is to be understood of non-action. Difficult is to comprehend the way of action.

Swami Adidevananda

4.17 For, there is what ought to be known in action. Likewise there is what ought to be known in multi-form action. And there is what ought to be understood in non-action. Thus mysterious is the way of action.

Swami Gambirananda

4.17 For there is something to be known even about action, and something to be known about prohibited action; and something has to be known about inaction. The true nature of action is inscrutable.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.17।। जीवन क्रियाशील है। क्रिया की समाप्ति ही मृत्यु का आगमन है। क्रियाशील जीवन में ही हम उत्थान और पतन को प्राप्त हो सकते हैं। एक स्थान पर स्थिर जल सड़ता और दुर्गन्ध फैलाता है जबकि सरिता का प्रवाहित जल सदा स्वच्छ और शुद्ध बना रहता है। जीवन शक्ति की उपस्थिति में कर्मो का आत्यन्तिक अभाव नहीं हो सकता।चूँकि मनुष्य को जीवनपर्यन्त क्रियाशील रहना आवश्यक है इसलिये प्राचीन मनीषियों ने जीवन के सभी सम्भाव्य कर्मों का अध्ययन किया क्योंकि वे जीवन का मूल्यांकन उसके पूर्णरूप में करना चाहते थे। निम्नांकित तालिका में उनके द्वारा किये गये कर्मों का वर्गीकरण दिया हुआ है।क्रिया ही जीवन है। निष्क्रियता से उन्नति और अधोगति दोनों ही सम्भव नहीं। गहन निद्रा अथवा मृत्यु की कर्म शून्य अवस्था मनुष्य के विकास में न साधक है न बाधक।कर्म के क्षण मनुष्य का निर्माण करते हैं। यह निर्माण इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन से कर्मों को अपने हाथों में लेकर करते हैं। प्राचीन ऋषियों के अनुसार कर्म दो प्रकार के होते हैं निर्माणकारी (कर्तव्य) और विनाशकारी (निषिद्ध)। इस श्लोक के कर्म शब्द में मनुष्य के विकास में साधक के निर्माणकारी कर्तव्य कर्मों का ही समावेश है। जिन कर्मों से मनुष्य अपने मनुष्यत्व से नीचे गिर जाता है उन कर्मों को यहाँ विकर्म कहा है जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कर्म का नाम दिया है।कर्तव्य कर्मों का फिर तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और वे हैं नित्य नैमित्तिक और काम्य। जिन कर्मों को प्रतिदिन करना आवश्यक है वे नित्य कर्म तथा किसी कारण विशेष से करणीय कर्मों को नैमित्तिक कर्म कहा जाता है। इन दो प्रकार के कर्मों को करना अनिवार्य है। किसी फल विशेष को पाने के लिए उचित साधन का उपयोग कर जो कर्म किया जाता है उसे काम्य कर्म कहते हैं जैसे पुत्र या स्वर्ग पाने के लिये किया गया कर्म। यह सबके लिये अनिवार्य नहीं होता।आत्मविकास के लिये विकर्म का सर्वथा त्याग और कर्तव्य का सभी परिस्थितियों में पालन करना चाहिये। वैज्ञानिक पद्धति से किये हुए इस विश्लेषण में श्रीकृष्ण अकर्म की पूरी तरह उपेक्षा करते हैं।यह आवश्यक है कि अपने भौतिक अभ्युदय तथा आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक साधक कर्मों के इस वर्गीकरण को भली प्रकार समझें।भगवान् श्रीकृष्ण इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्मों के इस विश्लेषण के बाद भी सामान्य मनुष्य को कर्मअकर्म का विवेक करना सहज नहीं होता क्योंकि कर्म की गति गहन है।उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि कर्म का मूल्यांकन केवल उसके वाह्य स्वरूप को देखकर नहीं बल्कि उसके उद्देश्य को भी ध्यान में रखते हुये करना चाहिये। उद्देश्य की श्रेष्ठता एवं शुचिता से उस व्यक्ति विशेष के कर्म श्रेष्ठ एवं पवित्र होंगे। इस प्रकार कर्म के स्वरूप का निश्चय करने में जब व्यक्ति का इतना प्राधान्य है तो भगवान् का यह कथन है कि कर्म की गति गहन है अत्यन्त उचित है।कर्म और अकर्म के विषय में और विशेष क्या जानना है इस पर कहते हैं

Swami Ramsukhdas

4.17।। व्याख्या--'कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यम्'-- कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना ही कर्मके तत्त्वको जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्लोकमें 'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्' पदोंसे किया गया है।कर्म स्वरूपसे एक दीखनेपर भी अन्तःकरणके भावके अनुसार उसके तीन भेद हो जाते हैं--कर्म, अकर्म और विकर्म। सकामभावसे की गयी शास्त्रविहित क्रिया 'कर्म' बन जाती है। फलेच्छा, ममता और आसक्तिसे रहित होकर केवल दूसरोंके हितके लिये किया गया कर्म 'अकर्म' बन जाता है। विहित कर्म भी यदि दूसरेका हित करने अथवा उसे दुःख पहुँचानेके भावसे किया गया हो तो वह भी 'विकर्म' बन जाता है। निषिद्ध कर्म तो 'विकर्म' है ही।'अकर्मणश्च बोद्धव्यम्'--निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्मके तत्त्वको जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्लोकमें 'अकर्मणि च कर्म यः' पदोंसे किया गया है।'बोद्धव्यम् च विकर्मणः'--कामनासे कर्म होते हैं। जब कामना अधिक बढ़ जाती है, तब विकर्म (पापकर्म) होते हैं।दूसरे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि अगर युद्ध-जैसा हिंसायुक्त घोर कर्म भी शास्त्रकी आज्ञासे और समतापूर्वक (जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर) किया जाय, तो उससे पाप नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि समतापूर्वक कर्म करनेसे दीखनेमें विकर्म होता हुआ भी वह 'अकर्म' हो जाता है। शास्त्रनिषिद्ध कर्मका नाम 'विकर्म' है। विकर्मके होनेमें कामना ही हेतु है (गीता 3। 36 37 (टिप्पणी प0 241)। अतः विकर्मका तत्त्व है--कामना; और विकर्मके तत्त्वको जानना है--विकर्मका स्वरूपसे त्याग करना तथा उसके कारण कामनाका त्याग करना।'गहना कर्मणो गतिः'--कौन-सा कर्म मुक्त करनेवाला और कौन-सा कर्म बाँधनेवाला है--इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है--इसका यथार्थ तत्त्व जाननेमें बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ विद्वान् भी अपने-आपको असमर्थ पाते हैं। अर्जुन भी इस तत्वको न जाननेके कारण अपने युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको घोर कर्म मान रहे हैं। अतः कर्मकी गति (ज्ञान या तत्त्व) बहुत गहन है।  शङ्का--इस (सत्रहवें) श्लोकमें भगवान्न�� 'बोद्धव्यं च विकर्मणः' पदोंसे यह कहा कि विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये। परन्तु उन्नीसवेंसे तेईसवें श्लोकतकके प्रकरणमें भगवान्ने 'विकर्म' के विषयमें कुछ कहा ही नहीं! फिर केवल इस श्लोकमें ही विकर्मकी बात क्यों कही?समाधान--उन्नीसवें श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोक-तकके प्रकरणमें भगवान्ने मुख्यरूपसे 'कर्ममें अकर्म की बात कही है, जिससे सब कर्म अकर्म हो जायँ अर्थात् कर्म करते हुए भी बन्धन न हो। विकर्म कर्मके बहुत पास पड़ता है; क्योंकि कर्मोंमें कामना ही विकर्मका मुख्य हेतु है। अतः कामनाका त्याग करनेके लिये तथा विकर्मको निकृष्ट बतानेके लिये भगवान्ने विकर्मका नाम लिया है। जिस कामनासे 'कर्म' होते हैं, उसी कामनाके अधिक बढ़नेपर 'विकर्म' होने लगते हैं। परन्तु कामना नष्ट होनेपर सब कर्म 'अकर्म' हो जाते हैं। इस प्रकरणका खास तात्पर्य 'अकर्म' को जाननेमें ही है, और 'अकर्म' होता है कामनाका नाश होनेपर। कामनाका नाश होनेपर विकर्म होता ही नहीं; अतः विकर्मके विवेचनकी जरूरत ही नहीं। इसलिये इस प्रकरणमें विकर्मकी बात नहीं आयी है। दूसरी बात पापजनक और नरकोंकी प्राप्ति करानेवाला होनेके कारण विकर्म सर्वथा त्याज्य है। इसलिये भी इसका विस्तार नहीं किया गया है। हाँ, विकर्मके मूल कारण 'कामना' का त्याग करनेका भाव इस प्रकरणमें मुख्यरूपसे आया है; जैसे-- 'कामसंकल्पवर्जिताः' (4। 19) 'त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्' (4। 20) 'निराशीः' (4। 21) 'समः सिद्धावसिद्धौ च' (4। 22) 'गतसङ्गस्य यज्ञायाचरतः' (4। 23)।इस प्रकार विकर्मके मूल 'कामना' के त्यागका वर्णन करनेके लिये ही इस श्लोकमें विकर्मको जाननेकी बात कही गयी है।  सम्बन्ध--अब भगवान् कर्मोंके तत्त्वको जाननेवाले मनुष्यकी प्रशंसा करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.17।। कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.17।।न केवलं तज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसे ज्ञात्वैवेत्याशयवानाह कर्मण इति। तच्चोक्तम् अज्ञात्वा भगवान्कस्य कर्माकर्मविकर्मकम्। दर्शनं याति हि मुने कुतो मुक्तिश्च तद्विना इति। अकर्म कर्माकरणम् कर्माकर्मान्यद्विकर्म निषिद्धं कर्म बन्धकत्वात्। ततो विविच्य कर्मादि बोद्धव्यमित्यादि। न च शापादिनाकवयोऽप्यत्र मोहिताः 4।16 अशक्यं चैतज्ज्ञातुमित्याह गहनेति।

Sri Anandgiri

।।4.17।।तत्र हेत्वाकाङ्क्षापूर्वकमनन्तरं श्लोकमवतारयति कस्मादिति। त्रिष्वपि कर्माकर्मविकर्मसु बोद्धव्यमस्तीति यस्मादध्याहारस्तस्मान्मदीयं प्रवचनमर्थवदिति योजना। बोद्धव्यसद्भावे हेतुमाह यस्मादिति। त्रितयं प्रकृत्यान्यतमस्य गहनत्ववचनमयुक्तमित्याशङ्क्यान्यतमग्रहणस्योपलक्षणार्थत्वमुपेत्य विवक्षितमर्थमाह कर्मादीनामिति।

Sri Vallabhacharya

।।4.17।।कर्मणो ह्यपीति।यतश्च सुतरामेव कर्ममार्गो दुरत्ययः। अतोऽपि भजनं कार्यं भजनेन हि तादृशम्। अन्योन्यनाशकत्वं च कर्मणां भवति क्वचित्। कर्ममार्गे फलं तस्मान्न निरूप्यं हि सर्वथा। जायस्वेति म्रियस्वेति तृतीयो य उदाहृतः। प्रकीर्णकानां सर्वेषां तत्फलं परिकीर्तितम् इति। अतो विहितस्य कर्मणः स्वरूपमिति शेषः। अविहितस्य कर्मणोऽथ च निषिद्धक���्मणस्तत् बोद्धव्यम् तत्र कर्मण एव गतिर्गहना किं पुनरन्येषाम् इत्येकग्रहणं प्रकृतार्थम्।

Sridhara Swami

।।4.17।।ननु लोकप्रसिद्धमेव कर्म देहादिव्यापारात्मकम् अकर्म च तदव्यापारात्मकम् अतः कथमुच्यते कवयोऽप्यत्र मोहं प्राप्ता इति तत्राह कर्मण इति। कर्मणो विहितव्यापारस्यापि तत्त्वं बोद्धव्यमस्ति नतु लोकसिद्धमात्रमेव अकर्मणाऽविहितव्यापारस्यापि तत्त्वं बोद्धव्यमस्ति विकर्मणोऽपि निषिद्धस्यापि तत्त्वं बोद्धव्यमस्ति यतः कर्मणो गतिर्गहना। कर्मण इत्युपलक्षणार्थम्। कर्माकर्मविकर्मणां तत्त्वं बोद्धव्यमस्ति। यतो दुर्विज्ञेयमित्यर्थः।

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