Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 15 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः | कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ||४-१५||
Transliteration
evaṃ jñātvā kṛtaṃ karma pūrvairapi mumukṣubhiḥ . kuru karmaiva tasmāttvaṃ pūrvaiḥ pūrvataraṃ kṛtam ||4-15||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.15 Having known this, the ancient seekers after freedom also performed action; therefore do thou also perform action, as did the ancients in days of yore.
।।4.15।। पूर्व के मुमुक्ष पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है; इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए कर्मों को ही करो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Focus on delivering high-quality work and fulfilling responsibilities without getting solely fixated on promotions, bonuses, or external recognition. View work as an opportunity to develop skills, contribute meaningfully, and serve a larger purpose, rather than just a means to personal gain.
🧘 For Stress & Anxiety
Reduce anxiety by concentrating on the effort and process of your actions, rather than being solely defined by or attached to their outcomes. Understand that your intrinsic worth is not dependent on external success or failure, fostering mental resilience and peace.
❤️ In Relationships
Engage in relationships by fulfilling your duties and expressing care without ego or demanding specific returns. Contribute to the well-being and growth of others, fostering healthier connections based on selfless giving rather than transactional expectations.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Perform your duties diligently and selflessly, learning from the wise, for both your inner purification and the greater good of the world.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.15 एवं thus? ज्ञात्वा having known? कृतम् (was) done? कर्म action? पूर्वैः by ancients? अपि also? मुमुक्षुभिः seekers after freedom? कुरु perform? कर्म action? एव even? तस्मात् therefore? त्वम् thou? पूर्वैः by ancients?,पूर्वतरम् in the olden time? कृतम् done.Commentary Knowing thus that the Self can have no desire for the fruits of actions and cannot be tainted by them? and knowing that no one can be tainted if he works without egoism? attachment and expectation of fruits? do thou perform your duty.If your heart is impure? perform actions for its purification. If you have attained AtmaJnana or the knowledge of the Self? work for the wellbeing of the world. The ancients such as Janaka and others performed actions in the days of yore. So do thou also perform action.
Shri Purohit Swami
4.15 In the light of wisdom, our ancestors, who sought deliverance, performed their acts. Act thou also, as did our fathers of old.
Dr. S. Sankaranarayan
4.15. Realizing in this fashion, action had been under-taken also by ancient seekers of salvation. Hence, you too should perform, by all means, the more ancient action that had been performed by the ancients.
Swami Adidevananda
4.15 Knowing thus, even ancient seekers for liberation and work. Therefore, do your wok only as the ancients did in olden times.
Swami Gambirananda
4.15 Having known thus, duties were performed even by the ancient seekers of Liberation. Thererfore you undertake action itself as was performed earlier by the ancient ones.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.15।। परमात्मा में कर्तृत्व तथा फलासक्ति का अभाव है और उस आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेने पर साधक में न इच्छा रहती है और न अहंकार जनित अन्य वृत्तियाँ। पूर्व अध्याय में वर्णित कर्मयोग का आचरण प्राचीन समय में अनेक बुद्धिमान मुमुक्ष पुरुषों ने किया था। अर्थ यह हुआ कि यह मार्ग कोई नवीन नहीं है।आपके उपदेशमात्र से मैं कर्मयोग का पालन करूँगा किन्तु इसमें पूर्व के मुमुक्षुओं का सन्दर्भ देने की क्या आवश्यकता है इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं क्योंकि कर्म क्या है इस विषय को समझने में कठिनाई है कैसे कहते हैं
Swami Ramsukhdas
4.15।। व्याख्या-- [नवें श्लोकमें भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यताका जो प्रसङ्ग आरम्भ किया था उसका यहाँ उपसंहार करते हैं।] 'एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः'--अर्जुन मुमुक्षु थे अर्थात् अपना कल्याण चाहते थे। परन्तु युद्धरूपसे प्राप्त अपने कर्तव्य-कर्मको करनेमें उन्हें अपना कल्याण नहीं दीखता, प्रत्युत वे उसको घोर-कर्म समझकर उसका त्याग करना चाहते हैं (गीता 3। 1)। इसलिये भगवान् अर्जुनको पूर्वकालके मुमुक्षु पुरुषोंका उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने-अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके कल्याणकी प्राप्ति की है, इसलिये तुम्हें भी उनकी तरह अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें जनकादिका उदाहरण देकर तथा इसी (चौथे) अध्यायके पहले-दूसरे श्लोकोंमें विवस्वान्, मनु, इक्ष्वाकु आदिका उदाहरण देकर भगवान्ने जो बातें कही थी, वही बात इस श्लोकमें भी कह रहे हैं। शास्त्रोंमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि मुमुक्षाके बाद मनुष्य कर्मका अधिकारी नहीं होता; प्रत्युत ज्ञानका अधिकारी हो जाता है (टिप्पणी प0 238)। परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओंने भी कर्मयोगका तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर भी अपने कर्तव्य-कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये।कर्मयोगका तत्त्व है--कर्म करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना। कर्म संसारके लिये और योग अपने लिये होता है। कर्मोंको करना और न करना--दोनों अवस्थाएँ हैं। अतः प्रवृत्ति (कर्म करना) और निवृत्ति (कर्म न करना) दोनों ही प्रवृत्ति (कर्म करना) है। प्रवृत्ति और निवृत्ति--दोनोंसे ऊँचा उठ जाना योग है, जो पूर्ण निवृत्ति है। पूर्ण निवृत्ति कोई अवस्था नहीं है। चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते। जो मनुष्य कर्म करनेकी इस विद्या-(कर्मयोग-) को जानकर फलेच्छाका त्याग करके कर्म करता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता; कारण कि फलेच्छासे ही मनुष्य बँधता है--फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। अगर मनुष्य अपने सुखभोगके लिये अथवा धन, मान, बड़ाई, स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँध देते हैं (गीता 3। 9)। परन्तु यदि उसका लक्ष्य उत्पत्ति-विनाशशील संसार नहीं है, प्रत्युत वह संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये निःस्वार्थ सेवा-भावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है, तो वे कर्म उसे बाँधते नहीं (गीता 4। 23)। कारण कि दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है, जिससे कर्मोंका सम्बन्ध (राग) मिट जाता है और फलेच्छा न रहनेसे नया सम्बन्ध पैदा नहीं होता।'कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्'-- इन पदोंसे भगवान् अर्जुनको आज्ञा दे रहे हैं कि तू मुमुक्षु है, इसलिये जैसे पहले अन्य मुमुक्षुओंने लोकहितार्थ कर्म किये हैं, ऐसे ही तू भी संसारके हितके लिये कर्म कर।शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्मकी सब सामग्री अपनेसे भिन्न तथा संसारसे अभिन्न है। वह संसारकी है और संसारकी सेवाके लिये ही मिली है। उसे अपनी मानकर अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंका सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है। जब सम्पूर्ण कर्म केवल दूसरोंके हितके लिये किये जाते हैं, तब कर्मोंका सम्बन्ध हमारे साथ नहीं रहता। कर्मोसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर 'योग' अर्थात् परमात्माके साथ हमारे नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव हो जाता है, जो कि पहलेसे ही है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें 'एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म' पदोंसे कर्मोंको जाननेकी बात कही गयी थी। अब भगवान् आगेके श्लोकसे कर्मोंको तत्त्व से जाननेके लिये प्रकरण आरम्भ करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.15।। पूर्व के मुमुक्ष पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है; इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए कर्मों को ही करो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.15।।एवं ज्ञात्वा कर्मकरणे आचारोऽप्यस्तीत्याह एवमिति। पूर्वतरं कर्म पूर्वभावीत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।4.15।।तव कर्मतत्फलसंबन्धाभावे तथा ज्ञानवतश्च तदसंबन्धे ममापि किं कर्मणेत्याशङ्क्य कर्मणि कर्तृत्वाभिमानं तत्फले स्पृहां चाकृत्वा मुमुक्षुवत्त्वया कर्म कर्तव्यमेवेत्याह नाहमित्यादिना। नाहं कर्तेत्येवमादि एवमा परामृश्यते तेन पूर्वैर्मुमुक्षुभिरनुष्ठितत्वेन हेतुनेत्यर्थः। कर्मैवेत्येवकारार्थमाह नेत्यादिना। त्वंशब्दस्य क्रियापदेन संबन्धः। तस्मादित्युक्तमेव स्फुटयति पूर्वैरिति। यदुक्तं किं मम कर्मणेति तत्र त्वमज्ञो वा तत्त्वविद्वा। यद्यज्ञस्तदा चित्तशुद्ध्यर्थं कुरु कर्मेत्याह यदीति। द्वितीयं प्रत्याह तत्त्वविदिति। कुरु कर्मेति संबन्धः। पूर्वैर्मूढैराचरितमित्येतावता किमिति विवेकवता मया तत्कर्तव्यमित्याशङ्क्याह जनकादिभिरिति। ते तावदेवं संपाद्य कर्म कृतवन्तो न तदिदानीमप्रामाणिकत्वादनुष्ठेयमित्याशङ्क्याह पूर्वतरमिति।
Sri Vallabhacharya
।।4.15।।एवं प्रासङ्गिकमुक्त्वा पूर्वोक्तयोगे कर्त्तव्यं कर्म प्रपञ्चयितुमनुस्मारयति एवं ज्ञात्वेति। पूर्वोक्तप्रकारेण योगिभावतो भगवता कृतं कर्म न बधन्कमिति ज्ञात्वा पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः कक्षीवन्नारदादिभिर्मन्वादिभिर्वा जनकादिभिर्वा कर्म स्वधर्माख्यं वक्ष्यमाणप्रकारेण कृतम् तस्मात्त्वमपि कर्मैव कुरु। न चेदमाधुनिकम् किन्तु पूर्वतरं पूर्वैश्च कृतम्। इति शिष्टाचारात्कर्त्तव्यता बोधिता।
Sridhara Swami
।।4.15।।ये यथा मां प्रपद्यन्ते इत्यादिचतुर्भिः श्लोकैः प्रासङ्गिकमीश्व रस्य वैषम्यं परिहृत्य पूर्वोक्तमेव कर्मयोगं प्रपञ्चयितुमनुस्मारयति एवमिति। अहंकारादिराहित्येन कृतं कर्म बन्धकं न भवतीत्येवं ज्ञात्वा पूर्वैर्जनकादिभिरपि मुमुक्षुभिः सत्त्वशुद्ध्यर्थं पूर्वतरं युगान्तरेष्वपि कृतम्। तस्मात्त्वमपि प्रथमं कर्मैव कुरु।