Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 9 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः | तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ||३-९||
Transliteration
yajñārthātkarmaṇo.anyatra loko.ayaṃ karmabandhanaḥ . tadarthaṃ karma kaunteya muktasaṅgaḥ samācara ||3-9||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.9 The world is bound by actions other than those performed for the sake of sacrifice; do thou, therefore, O son of Kunti (Arjuna), perform action for that sake (for sacrifice alone), free from attachment.
।।3.9।। यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach your work, whether it's a job or a project, as a form of selfless service or 'Yajna'. Focus on the excellence of your effort and the contribution it makes to the larger system (company, community, clients), rather than being solely driven by personal gain, promotions, or recognition. This fosters dedication, high quality output, and a deeper sense of purpose.
🧘 For Stress & Anxiety
Reduce stress and mental burden by practicing non-attachment (muktasanga) to the outcomes of your actions. Perform your duties to the best of your ability, but let go of anxiety over whether a specific result will manifest, or if it will meet your expectations. The act itself, performed with dedication and a pure motive, becomes the reward, liberating you from performance anxiety and the pressure of external validation.
❤️ In Relationships
Engage in your relationships (familial, friendships, partnerships) with an attitude of giving and selfless contribution, without constantly calculating what you will receive in return. Serve, support, and care for others unconditionally. By releasing attachment to how others should behave or what they should provide, you cultivate deeper, more authentic, and less demanding connections, reducing conflict and fostering genuine love.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Act selflessly, dedicating your efforts to a higher purpose without attachment to results, to experience true freedom and inner peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.9 यज्ञार्थात् for the sake of sacrifice? कर्मणः of action? अन्यत्र otherwise? लोकः the world? अयम् this? कर्मबन्धनः bound by action? तदर्थम् for that sake? कर्म action? कौन्तेय O Kaunteya? मुक्तसंगः free from attachment? समाचार perform.Commentary Yajna means sacrifice or religious rite or any unselfish action done with a pure motive. It means also Isvara. The Taittiriya Samhita (of the Veda) says Yajna verily is Vishnu (174). If anyone does actions for the sake of the Lord? he is not bound. His heart is purified by performing actions for the sake of the Lord. Where this spirit of unselfishness does not govern the action? it will bind one to Samsara however good or glorious it may be. (Cf.II.48).
Shri Purohit Swami
3.9 In this world people are fettered by action, unless it is performed as a sacrifice. Therefore, O Arjuna, let thy acts be done without attachment, as sacrifice only.
Dr. S. Sankaranarayan
3.9. The world is fettered by action which is other than the Yajnartha action; hence, O son of Kunti, being freed from attachment, you most properly perform Yajnartha action.
Swami Adidevananda
3.9 This world is held in the bondage of work only when work is not performed as sacrifice. O Arjuna, you must perform work to this end, free from attachment.
Swami Gambirananda
3.9 This man becomes bound by actions other than that action meant for God. Without being attached, O son of Kunti, you perform actions for Him.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.9।। प्रत्येक कर्म कर्त्ता के लिये बन्धन उत्पन्न नहीं करता। केवल अविवेकपूर्वक किये हुये कर्म ही मन में वासनाओं की वृद्धि करके परिच्छिन्न अहंकार और अपरिच्छिन्न आत्मस्वरूप के मध्य एक अभेद्य दीवार खड़ी कर देते हैं। वासनाओं से पूर्ण अन्तकरण वाले व्यक्ति में दिव्यत्व का कोई प्रकाश नहीं दिखाई देता। पारम्परिक अर्थानुसार यज्ञ के अतिरिक्त जो अन्य कर्म हैं वे वासनाओं को उत्पन्न कर व्यक्ति के विकास में अवरोधक बन जाते हैं।यहां यज्ञ शब्द का अर्थ है वे सब कर्म जिन्हें मनुष्य निस्वार्थ भाव एवं समर्पण की भावना से विश्व के कल्याण के लिये करता है। ऐसे कर्म व्यक्ति के पतन में नहीं वरन् उत्थान में ही सहायक होते हैं। यज्ञ शब्द का उपर्युक्त अर्थ समझ लेने पर आगे के श्लोक और अधिक स्पष्ट होंगे और उनमें उपदिष्ट ज्ञान सम्पूर्ण विश्व के उपयुक्त होगा।जब समाज के लोग आगे आकर परस्पर सहयोग एवं समर्पण की भावना से कर्म करेंगे केवल तभी वह समाज दारिद्रय और दुखों के बन्धनों से मुक्त हो सकता है यह एक ऐतिहासिक सत्य है। ऐसे कर्मों का सम्पादन अनासक्ति के होने से ही संभव होगा। अर्जुन में यह दोष आ गया था कि वह विरुद्ध पक्ष के व्यक्तियों के साथ अत्यन्त आसक्त हो गया और परिणामस्वरूप परिस्थिति को ठीक समझ नहीं पाया इसलिये समसामयिक कर्तव्य का त्याग कर कर्मक्षेत्र से पलायन करने की उसकी प्रवृत्ति हो गयी।कर्ममार्ग के अधिकारी व्यक्ति को निम्नलिखित कारणों से भी कर्म करना चाहिये
Swami Ramsukhdas
3.9।। व्याख्या--'यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र' गीताके अनुसार कर्तव्यमात्रका नाम 'यज्ञ' है। 'यज्ञ' शब्दके अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ-सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कर्तव्य मानकर किये जानेवाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मोंका नाम भी यज्ञ है। दूसरोंको सुख पहुँचाने तथा उनका हित करनेके लिये जो भी कर्म किये जाते हैं वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करनेसे आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (गीता 4। 23) अर्थात् वे कर्म स्वयं तो बन्धनकारक होते नहीं, प्रत्युत पूर्वसंचित कर्मसमूहको भी समाप्त कर देते हैं।वास्तवमें मनुष्यकी स्थिति उसके उद्दश्यके अनुसार होती है, क्रियाके अनुसार नहीं। जैसे व्यापारीका प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तवमें उसकी स्थिति धनमें ही रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धनकी तरफ चली जाती है। ऐसे ही यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगीकी स्थिति अपने उद्देश्य--परमात्मामें ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उसकी वृत्ति परमात्माकी तरफ चली जाती है। सभी वर्णोंके लिये अलग-अलग कर्म हैं। एक वर्णके लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्णोंके लिये (विहित न होनेसे) परधर्म अर्थात् अन्यत्र कर्म हो जाता है; जैसे --भिक्षासे जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मणके लिये तो स्वधर्म है, पर क्षत्रियके लिये परधर्म है। इसी प्रकार निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना मनुष्यका स्वधर्म है और सकामभावसे कर्म करना परधर्म है। जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब-के-सब 'अन्यत्र-कर्म' की श्रेणीमें ही हैं। अपने सुख मान बड़ाई आराम आदिके लिये जितने कर्म किये जायँ वे सबकेसब भी अन्यत्रकर्म हैं (टिप्पणी प0 126)। अतः छोटा-से-छोटा तथा बड़ा-से़-बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधकको सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थकी भावनासे तो कर्म नहीं हो रहा है ! साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है। इसलिये साधकको अपनी साधनाके प्रति सतर्क, जागरूक रहना ही चाहिये। 'अन्यत्र-कर्म' के विषयमें दो गुप्त भाव--(1) किसीके आनेपर यदि कोई मनुष्य उसके प्रति 'आइये ! बैठिये ! 'आदि आदरसूचक शब्दोंका प्रयोग करता है, पर भीतरसे अपनेमें सज्जनताका आरोप करता है अथवा 'ऐसा कहनेसे आनेवाले व्यक्तिपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा'--इस भावसे कहता है तो इसमें स्वार्थकी भावना छिपी रहनेसे यह 'अन्यत्र-कर्म' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं। (2) सत्सङ्ग, सभा आदिमें कोई व्यक्ति मनमें इस भावको रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकार समझेंगे तथा उनपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह 'अन्यत्र-कर्म' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदिका भाव नहीं रहना चाहिये। कर्मका निषेध नहीं है, प्रत्युत सकामभावका निषेध है।साधकको भोग और ऐश्वर्य-बुद्धिसे कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसी बुद्धिमें भोगसक्ति और कामना रहती है, जिससे कर्मयोगका आचरण नहीं हो पाता। निर्वाह-बुद्धिसे कर्म करनेपर भी जीनेकी कामना बनी रहती है। अतः निर्वाह-बुद्धि भी त्याज्य है। साधकको केवल साधनबुद्धिसे ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म करनेसे होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं। दूसरोंके हितमें ही अपना हित है। दूसरोंके हितसे अपना हित अलग अलग मानना ही गलती है। इसलिये लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब केवल लोक-हितार्थ होने चाहिये। अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही, अपने व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है। इसलिये और तो क्या, जप, चिन्तन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहितके लिये ही करे। तात्पर्य यह कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण--तीनों शरीरोंसे होनेवाली मात्र क्रिया संसारके लिये ही हो, अपने लिये नहीं। 'कर्म' संसारके लिय है और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माके साथ 'योग' अपने लिये है। इसीका नाम है--कर्मयोग। 'लोकोऽयं कर्मबन्धनः'-- कर्तव्य-कर्म (यज्ञ) करनेका अधिकार मुख्यरूपसे मनुष्यको ही है। इसका वर्णन भगवान्ने आगे सृष्टिचक्रके प्रसङ्ग (3। 14 16) में भी किया है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रका हित करना, उनको सुख पहुँचाना होता है, उसीके द्वारा कर्तव्य-कर्म हुआ करते हैं। जब मनुष्य दूसरोंके हितके लिये कर्म न करके केवल अपने सुखके लिये कर्म करता है, तब वह बँध जाता है।आसक्ति और स्वार्थभावसे कर्म करना ही बन्धनका कारण है। आसक्ति और स्वार्थके न रहनेपर स्वतः सबके हितके लिये कर्म होते हैं। बन्धन भावसे होता है क्रियासे नहीं। मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बँधता है।'तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर'-- यहाँ 'मुक्तसङ्गः'पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि कर्मोंमें, पदार्थोंमें तथा जिनसे कर्म किये जाते हैं, उन शरीर, मन, बुद्धि आदि सामग्रीमें ममता-आसक्ति होनेसे ही बन्धन होता है। ममता, आसक्ति रहनेसे कर्तव्य-कर्म भी स्वाभाविक एवं भलीभाँति नहीं होते। ममता-आसक्ति न रहनेसे परहितके लिये कर्तव्य-कर्मका स्वतः आचरण होता है और यदि कर्तव्य-कर्म प्राप्त न हो तो स्वतः निर्विकल्पतामें, स्वरूपमें स्थिति होती है। परिणामस्वरूप साधन निरन्तर होता है ओर असाधन कभी होता ही नहीं। आलस्य और प्रमादके कारण नियत कर्मका त्याग करना 'तामस त्याग' कहलाता है (गीता 18। 7), जिसका फल मूढ़ता अर्थात् मूढ़योनियोंकी प्राप्ति है--'अज्ञानं तमसः फलम्'(गीता 14। 16)। कर्मोंको दुःखरूप समझकर उनका त्याग करना'[राजस त्याग' कहलाता है (गीता 18। 8) जिसका फल दुःखोंकी प्राप्ति है--'रजसस्तु फलं दुःखम्' (गीता 14। 16)। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको कर्मोंका त्याग करनेके लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदिसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार सुचारुरूपसे उत्साहपूर्वक कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी आज्ञा देते हैं, जो 'सात्त्विक त्याग' कहलाता है (गीता 18। 9)। स्वयं भगवान् भी आगे चलकर कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, फिर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (3। 2223)। कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करनेमें दो कारणोंसे शिथिलता आती है--(1) मनुष्यका स्वभाव है कि वह पहले फलकी कामना करके ही कर्ममें प्रवृत्त होता है। जब वह देखता है कि कर्मयोगके अनुसार फलकी कामना नहीं रखनी है तब वह विचार करता है कि कर्म ही क्यों करूँ (2) कर्म आरम्भ करनेके बाद जब अन्तमें उसे पता लग जाय कि इसका फल विपरीत होगा तब वह विचार करता है कि मैं कर्म तो अच्छासेअच्छा करूँ पर फल विपरीत मिले तो फिर कर्म करूँ ही क्योंकर्मयोगी न तो कोई कामना करता है और न कोई नाशवान् फल ही चाहता है वह तो मात्र संसारका हित सामने रखकर ही कर्तव्यकर्म करता है। अतः उपर्युक्त दोनों कारणोंसे उसके कर्तव्यकर्ममें शिथिलता नहीं आ सकती। मार्मिक बातमनुष्यका प्रायः ऐसा स्वभाव हो गया है कि जिसमें उसको अपना स्वार्थ दिखायी देता है, उसी कर्मको वह बड़ी तत्परतासे करता है। परन्तु वही कर्म उसके लिये बन्धन-कारक हो जाता है। अतः इस बन्धनसे छूटनेके लिये उसे कर्मयोगके अनुसार आचरण करनेकी बड़ी आवश्यकता है। कर्मयोगमें सभी कर्म केवल दूसरोंके लिये किये जाते हैं, अपने लिये कदापि नहीं। दूसरे कौन-कौन हैं? इसे समझना भी बहुत जरूरी है। अपने शरीरके सिवाय दूसरे प्राणी-पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलानेवाले स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारणशरीर (जिसमें माना हुआ अहम् ��ै) भी स्वयंसे दूसरे ही हैं (टिप्पणी प0 127)। कारण कि स्वयं (जीवात्मा) चेतन परमात्माका अंश है और ये शरीर आदि पदार्थ जड प्रकृतिके अंश है। समस्त क्रियाएँ जडमें और जडके लिये ही होती हैं। चेतनमें और चेतनके लिये कभी कोई क्रिया नहीं होती। अतः 'करना' अपने लिये है ही नहीं, कभी हुआ नहीं और हो सकता भी नहीं। हाँ, संसारसे मिले हुए इन शरीर आदि जड पदार्थोंको चेतन जितने अंशमें 'मैं', 'मेरा' और 'मेरे लिये' मान लेता है, उतने अंशमें उसका स्वभाव 'अपने लिये' करनेका हो जाता है। अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ममता-आसक्ति सुगमतासे मिट जाती है।शरीरकी अवस्थाएँ (बचपन, जवानी आदि) बदलनेपर भी 'मैं वही हूँ'--इस रूपमें अपनी एक निरन्तर रहनेवाली सत्ताका प्राणिमात्रको अनुभव होता है। इस अपरिवर्तनशील सत्ता (अपने होनेपन) की परमात्मतत्त्वके साथ स्वतः एकता है और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी संसारके साथ स्वतः एकता है। हमारे द्वारा जो भी क्रिया की जाती है, वह शरीर, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही की जाती है; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ है, स्वयं (अपने स्वरूप) के साथ नहीं। इसलिये शरीरके सम्बन्धके बिना हम कोई भी क्रिया नहीं कर सकते। इससे यह बात निश्चितरूपसे सिद्ध होती है कि हमें अपने लिये कुछ भी नहीं करना है; जो कुछ करना है, संसारके लिये ही करना है। कारण कि 'करना' उसीपर लागू होता है, जो स्वयं कर सकता है। जो स्वयं कुछ कर ही नहीं सकता, उसके लिये 'करने' का विधान है ही नहीं। जो कुछ किया जाता है, संसारकी सहायतासे ही किया जाता है। अतः 'करना' संसारके लिये ही है। अपने लिये करने से ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है--'यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।'विनाशी और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके साथ अपने अविनाशी और अपरिवर्तनशील स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये अपना और अपने लिये कुछ भी नहीं है। शरीरादिकी सहायताके बिना हम कुछ नहीं कर सकते, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। अपने सत्-स्वरुपमें कभी कोई कमी नहीं आती और कमी आये बिना कोई इच्छा नहीं होती, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये। इस प्रकार जब क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (जो वास्तवमें है) तब यदि ज्ञानके संस्कार हैं तो स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है, और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो भगवान्में प्रेम हो जाता है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि यज्ञ-(कर्तव्य-कर्म-) के अतिरिक्त कर्म बन्धनकारक होते हैं। अतः इस बन्धनसे मुक्त होनेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके कर्तव्यबुद्धिसे कर्म करना आवश्यक है। अब कर्मोंकी अवश्यकर्तव्यताको पुष्ट करनेके लिये और भी हेतु बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.9।। यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.9।।कर्मणा बध्यते जन्तुः म.भा.12।241।7 इति कर्म बन्धकं स्मृतमित्यत आह यज्ञार्थादिति। कर्म बन्धनं यस्य लोकस्य स कर्मबन्धनः। यज्ञो विष्णुः यज्ञार्थं सङ्गरहितं कर्म न बन्धकमित्यर्थः।मुक्तसङ्ग इति सङ्ग विशेषणात् कामान्यः कामयते मुं.उ.3।2।2 इति श्रुतेश्चअनिष्टमिष्टं 18।12 इति वक्ष्यमाणत्वाच्चएतान्यपि तु कर्माणि 18।6 इति च तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात् बृ.उ.1।5।2 इति च विशेषवचनत्वे समेऽपि विशेषणं परिशिष्यते।
Sri Anandgiri
।।3.9।।कर्मणा बध्यते जन्तुः इति स्मृतेर्बन्धार्थं कर्म तन्न श्रेयोऽर्थिना कर्तव्यमित्याशङ्कामनमूद्य दूषयति यच्चेत्यादिना। कर्माधिकृतस्य तदकरणमयुक्तमिति प्रतिज्ञातं प्रश्नपूर्वकं विवृणोति कथमित्यादिना। फलाभिसन्धिमन्तरेण यज्ञार्थं कर्म कुर्वाणस्य बन्धाभावात्तादर्थ्येन कर्म कर्तव्यमित्याह तदर्थमिति। यज्ञार्थं कर्मेत्ययुक्तं नहि कर्मार्थमेव कर्मेत्याशङ्क्य व्याचष्टे यज्ञो वै विष्णुरिति। कथं तर्हि कर्मणा बध्यते जन्तुरिति स्मृतिस्तत्राह तस्मादिति। ईश्वरार्पणबुद्ध्या कृतस्य कर्मणो बन्धार्थत्वाभावे फलितमाह अत इति।
Sri Vallabhacharya
।।3.9।।साङ्ख्यास्त्वात्मातिरिक्तस्य बन्धकत्वमालोच्य कर्म न कार्यमिति वदन्ति तत्तदधिकृतविषयमपि न श्रौतमिति निर्णयमाह यज्ञार्थादिति। इज्यतेऽनेन सावयवो भगवानिति यज्ञस्तदर्थात्। वेदे हि मुख्यः कर्मयज्ञ एव भगवद्रूपत्वात्। ततोऽन्यत्र काम्ये परधर्मे वा बन्धनम्।यज्ञरूपो हरिः कर्मोपास्तिकाण्डे परे बृहत्। प्रेमभक्तौ तु स्वयं हीत्यानर्थक्यं न युज्यते।बुद्ध्वा चेत्कुरुते कर्म ततस्तद्बन्धकं न हि। अन्यथा करणे तस्य सर्वथाबन्धसम्भवः इत्यर्थो दर्शितः।
Sridhara Swami
।।3.9।।सांख्यास्तु सर्वमपि कर्म बन्धकत्वान्न कार्यमित्याहुस्तन्निराकुर्वन्नाह यज्ञार्थादिति। यज्ञोऽत्र विष्णुः।यज्ञो वै विष्णुःइति श्रुतेः। तदाराधनार्थात्कर्मणोऽन्यत्र तदेकं विनाऽयं लोकः कर्मबन्धनः कर्मभिर्बध्यते न त्वीश्वराराधनार्थेन कर्मणा। अतस्तदर्थ विष्णुप्रीत्यर्थं मुक्तसङ्गो निष्कामः सन्कर्म सम्यगाचर।