Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 42 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः | मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ||३-४२||
Transliteration
indriyāṇi parāṇyāhurindriyebhyaḥ paraṃ manaḥ . manasastu parā buddhiryo buddheḥ paratastu saḥ ||3-42||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.42 They say that the senses are superior (to the body); superior to the senses is the mind; superior to the mind is the intellect; one who is superior even to the intellect is He (the Self).
।।3.42।। (शरीर से) परे (श्रेष्ठ) इन्द्रियाँ कही जाती हैं; इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है, वह है आत्मा।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
To excel, transcend mere sensory gratification or impulsive reactions. Employ intellect for strategic thinking, complex problem-solving, and making sound, long-term decisions over immediate impulses. Cultivate self-awareness (the Self) to align your work with deeper purpose, preventing burnout and ensuring sustained focus and ethical conduct despite external pressures or distractions.
🧘 For Stress & Anxiety
Recognize that much stress and mental agitation arise from uncontrolled sensory input and the mind's often erratic narratives. Employ the intellect (buddhi) to rationally analyze thoughts, discriminate between valid concerns and irrational fears, and choose appropriate responses. Connecting with the 'Self' provides a stable, tranquil anchor beyond the mind's fluctuations, fostering inner peace, resilience, and a detached perspective on stressors.
❤️ In Relationships
Move beyond superficial attractions, ego-driven reactions, or emotional volatility that often arise from uncontrolled senses and mind. Use your intellect to understand others' perspectives, practice empathy, and resolve conflicts thoughtfully rather than impulsively. Cultivate self-awareness to avoid projecting personal biases and to foster genuine, deeper connections based on mutual understanding, respect, and wisdom rather than fleeting emotions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Master your senses, mind, and intellect to realize the supreme Self within, the ultimate source of wisdom, control, and lasting peace, allowing you to live a life of conscious purpose.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.42 इन्द्रियाणि the senses? पराणि superior? आहुः (they) say? इन्द्रियेभ्यः than the senses? परम् superior? मनः the mind? मनसः than the mind? तु but? परा superior? बुद्धिः intellect? यः who? बुद्धेः than the intellect? परतः greater? तु but? सः He.Commentary When compared with the physical body which is gross? external and limited? the senses are certainly superior as they are more subtle? internal and have a wider range of activity. The mind is superior to the senses? as the senses cannot do anything independently without the help of the mind. The mind can perform the functions of the five senses. The intellect is superior to the mind because it is endowed with the faculty of discrimination. When the mind is in a state of doubt? the intellect comes to its resuce. The Self? the Witness? is superior even to the intellect? as the intellect borrows its light from the Self.
Shri Purohit Swami
3.42 It is said that the senses are powerful. But beyond the senses is the mind, beyond the mind is the intellect, and beyond and greater than intellect is He.
Dr. S. Sankaranarayan
3.42. Different are the sense-organs [from their objects], they say; from the sense-organs different is the mind; from the mind too the intellect is different; what is different from the intellect is That (Self).
Swami Adidevananda
3.42 The senses are high, they say: the mind is higher than the senses; the intellect is higher than the mind; but what is greater than intellect is that (desire).
Swami Gambirananda
3.42 They say that the organs are superior (to the gross body); the mind is superior to the organs; but the intellect is superior to the mind. However, the one who is superior to the intellect is He.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.42।। तृतीय अध्याय के अन्तिम दो श्लोकों में व्यास जी ने उस परिपूर्ण साधना की ओर संकेत किया है जिसके अभ्यास से कोई भी साधक सफलतापूर्वक अपने शत्रु काम को खोजकर उसका नाश कर सकता है।यद्यपि भगवद्गीता के प्रारम्भ के अध्यायों में ही हम ध्यानविधि के विस्तृत विवेचन की अपेक्षा नहीं कर सकते फिर भी इन श्लोकों में भगवान् आत्मप्राप्ति के उपाय रूप ध्यानविधि की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं।बाह्य जगत् की वस्तुओं की तुलना में हमारे लिए अपनी इन्द्रियाँ अधिक महत्त्व की होती हैं। कर्मेन्द्रियों की अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक श्रेष्ठ और सूक्ष्म हैं। हमारा सबका अनुभव है कि मन ही इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है अत यहाँ मन को इन्द्रियों से सूक्ष्म और परे कहा गया है।निसन्देह मन के विचरण का क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है फिर भी उसकी अपनी सीमाएँ हैं। एक ज्ञान के पश्चात् अन्य ज्ञान को प्राप्त कर हम अपने मन की सीमा बढ़ाते हैं और विजय के इस अभियान में बुद्धि ही सर्वप्रथम मन के वर्तमान ज्ञान की सीमा रेखा को पार करके उसके लिए ज्ञान के नये राज्यों को विजित करती है। इस दृष्टि से बुद्धि की व्यापकता और भी अधिक विस्तृत है इसलिए बुद्धि को मन से श्रेष्ठतर कहा गया है। जो बुद्धि के भी परे तत्त्व है उसे ही आत्मा कहते हैं।बुद्धिवृत्तियों को प्रकाशित करने वाला चैतन्य बुद्धि से भी सूक्ष्म होना ही चाहिये। उपनिषदों में कहा गया है कि इस चैतन्यस्वरूप आत्मा के परे और कुछ नहीं है। ध्यानसाधनामें शरीर मन और बुद्धि उपाधियों से अपने तादात्म्य को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित होने का सजग प्रयत्न किया जाता है। ये सभी प्रयत्न तब समाप्त हो जाते हैं जब सब मिथ्या वस्तुओं की ओर से अपना ध्यान हटाकर हम निर्विषय चैतन्यस्वरूप बनकर स्थित हो जाते हैं।भगवान् आगे कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।3.42।। व्याख्या इन्द्रियाणि पराण्याहुः शरीर अथवा विषयोंसे इन्द्रियाँ पर हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका ज्ञान होता है पर विषयोंके द्वारा इन्द्रियोंका ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियाँ विषयोंके बिना भी रहती हैं पर इन्द्रियोंके बिना विषयोंकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। विषयोंमें यह सामर्थ्य नहीं कि वे इन्द्रियोंको प्रकाशित करें प्रत्युत इन्द्रियाँ विषयोंको प्रकाशित करती हैं। इन्द्रियाँ वही रहती हैं पर विषय बदलते रहते हैं। इन्द्रियाँ व्यापक हैं और विषय व्याप्य हैं अर्थात् विषय इन्द्रियोंके अन्तर्गत आते हैं पर इन्द्रियाँ विषयोंके अन्तर्गत नहीं आतीं। विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। इसलिये विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म हैं।इन्द्रियेभ्यः परं मनः इन्द्रियाँ मनको नहीं जानतीं पर मन सभी इन्द्रियोंको ही जानता है। इन्द्रियोंमें भी प्रत्येक इन्द्रिय अपनेअपने विषयको ही जानती है अन्य इन्द्रियोंके विषयोंको नहीं जैसे कान केवल शब्दको जानते हैं पर स्पर्श रूप रस और गंधको नहीं जानते त्वचा केवल स्पर्शको जानती है पर शब्द रूप रस और गन्धको नहीं जानती नेत्र केवल रूपको जानते हैं पर शब्द स्पर्श रस और गन्धको नहीं जानते रसना केवल रसको जानती है पर शब्द स्पर्श रूप और गन्धको नहीं जानती और नासिका केवल गन्धको जानती है पर शब्द स्पर्श रूप और रसको नहीं जानती परन्तु मन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको जानता है। इसलिये मन इन्द्रियोंसे श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म है।मनसस्तु परा बुद्धिः मन बुद्धिको नहीं जानता पर बुद्धि मनको जानती है। मन कैसा है शान्त है या व्याकुल ठीक है या बेठीक इत्यादि बातोंको बुद्धि जानती है। इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं या नहीं इसको भी बुद्धि जानती है तात्पर्य है कि बुद्धि मनको तथा उसके संकल्पोंको भी जानती है और इन्द्रियोँको तथा उनके विषयोंको भी जानती है। इसलिये इन्द्रियोँसे पर जो मन है उस मनसे भी बुद्धि पर (श्रेष्ठ बलवान् प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म) है।य बुद्धेः परतस्तु सः बुद्धिका स्वामीअहम् है इसलिये कहता है मेरी बुद्धि। बुद्धि करण है औरअहम् कर्ता है। करण परतन्त्र होता है पर कर्ता स्वतन्त्र होता है। उसअहम्में जो जडअंश है उसमेंकाम रहता है। जडअंशसे तादात्म्य होनेके कारण वह काम स्वरूप(चेतन) में रहता प्रतीत होता है।वास्तवमेंअहम्में हीकाम रहता है क्योंकि वही भोगोंकी इच्छा करता है और सुखदुःखका भोक्ता बनता है। भोक्ता भोग और भोग्य इन तीनोंमें सजातीयता (जातीय एकता) है। इनमें सजातीयता न हो तो भोक्तामें भोग्यकी कामना या आकर्षण हो ही नहीं सकता। भोक्तापनका जो प्रकाशक है जिसके प्रकाशमें भोक्ता भोग और भोग्य तीनोंकी सिद्धि होती है उस परम प्रकाशक(शुद्ध चेतन) मेंकाम नहीं है।अहम्तक सब प्रकृतिका अंश है। उसअहम् से भी आगे साक्षात् परमात्माका अंशस्वयं है जो शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि और अहम् इन सबका आश्रय आधार कारण और प्रेरक है तथा श्रेष्ठ बलवान् प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म है।जड(प्रकृति) का अंश ही सुखदुःखरूपमें परिणत होता है अर्थात् सुखदुःखरूप विकृति जडमें ही होती है। चेतनमें विकृति नहीं है प्रत्युत चेतन विकृतिका ज्ञाता है परन्तु जडसे तादात्म्य होनेसे सुखदुःखका भोक्ता चेतन ही बनता है अर्थात् चेतन ही सुखीदुःखी होता है। केवल जडमें सुखीदुःखी होना नहीं बनता। तात्पर्य यह है किअहम्में जो जडअंश है उसके साथ तादात्म्य कर लेनेसे चेतन भी अपनेकोमैं भोक्ता हूँ ऐसा मान लेता है। परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार होते ही रसबुद्धि निवृत्त हो जाती है रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते (गीता 2। 51)। इसमें अस्य पद भोक्ता बने हुए अहम् का वाचक है और जो भोक्तापनसे निर्लिप्त तत्त्व है उस परमात्माका वाचक परम पद है। उसके ज्ञानसे रस अर्थात्काम निवृत्त हो जाता है। कारण कि सुखके लिये ही कामना होती है और स्वरूप सहजसुखराशि है। इसलिये परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार होनेसेकाम (संयोगजन्य सुखकी इच्छा) सर्वदा और सर्वथा मिट जाता है।मार्मिक बातस्थूलशरीरविषय है इन्द्रियाँबहिःकरण हैं और मनबुद्धिअन्तःकरण हैं। स्थूलशरीरसे इन्द्रियाँ पर (श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म) हैं तथा इन्द्रियोंसे बुद्धि पर है। बुद्धिसे भी परअहम् है जो कर्ता है। उसअहम्(कर्ता) मेंकाम अर्थात् लौकिक इच्छा रहती है।अपनी सत्ता (होनापन) अर्थात् अपना स्वरूप चेतन निर्विकार और सत्चित्आनन्दरूप है। जब वह जड(प्रकृतिजन्य शरीर) के साथ तादात्म्य कर लेता है तबअहम् उत्पन्न होता है और स्वरूपकर्ता बन जाता है। इस प्रकार कर्तामें एक जडअंश होता है और एक चेतनअंश। जडअंशकी मुख्यतासे संसारकी तरफ और चेतनअंशकी मुख्यतासे परमात्माकी तरफ आकर्षण होता है (टिप्पणी प0 201)। तात्पर्य यह है कि उसमें जडअंशकी प्रधानतासे लौकिक (संसारकी) इच्छाएँ रहती हैं और चेतनअंशकी प्रधानतासे पारमार्थिक (परमात्माकी) इच्छा रहती है। जडअंश मिटनेवाला है इसलिये लौकिक इच्छाएँ मिटनेवाली हैं और चेतनअंश सदा रहनेवाला है इसलिये पारमार्थिक इच्छा पूरी होनेवाली है। इसलिये लौकिक इच्छाओं(कामनाओं) की निवृत्ति और पारमार्थिक इच्छा(संसारसे छूटनेकी इच्छा स्वरूपबोधकी जिज्ञासा और भगवत्प्रेमकी अभिलाषा) की पूर्ति होती है लौकिक इच्छाएँ उत्पन्न हो सकती हैं पर टिक नहीं सकतीं। परन्तु पारमार्थिक इच्छा दब सकती है पर मिट नहीं सकती। कारण कि लौकिक इच्छाएँ अवास्तविक और पारमार्थिक इच्छा वास्तविक है। इसलिये साधकको न तो लौकिक इच्छाओँकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये।वस्तुतः मूलमें इच्छा एक ही है जो अपने अंशी परमात्माकी है। परन्तु जडके सम्बन्धसे इस इच्छाके दो भेद हो जाते हैं और मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छाकी पूर्ति परिवर्तनशील जड(संसार) के द्वारा करनेके लिये जडपदार्थोंकी इच्छाएँ करने लगता है जो उसकी भूल है। कारण कि लौकिक इच्छाएँपरधर्म और पारमार्थिक इच्छास्वधर्म है। परन्तु साधकमें ल��किक और पारमार्थिक दोनों इच्छाएँ रहनेसे द्वन्द्व पैदा हो जाता है। द्वन्द्व होनेसे साधकमें भजन ध्यान सत्सङ्ग आदिके समय तो पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् रहती है पर अन्य समयमें उसकी पारमार्थिक इच्छा दब जाती है और लौकिक (भोग एवं संग्रहकी) इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। लौकिक इच्छाओंके रहते हुए साधकमें साधन करनेका एक निश्चय स्थिर नहीं रह सकता। पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् हुए बिना साधककी उन्नति नहीं होती। जब साधकका एकमात्र परमात्मप्राप्ति करनेका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है तब यह द्वन्द्व मिट जाता है और साधकमें एक पारमार्थिक इच्छा ही प्रबल रह जाती है। एक ही पारमार्थिक इच्छा प्रबल रहनेसे साधक सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर लेता है (गीता 5। 3)। इसलिये लौकिक और पारमार्थिक इच्छाका द्वन्द्व मिटाना साधकके लिये बहुत आवश्यक है।शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है जिसकोप्रेम कहते हैं। जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वहप्रेम दब जाता है औरकाम उत्पन्न हो जाता है। जबतककाम रहता है तबतकप्रेम जाग्रत् नहीं होता। जबतकप्रेम जाग्रत् नहीं होता तबतककाम का सर्वथा नाश नहीं होता। जडअंशकी मुख्यतासे जिसमें सांसारिक भोगोंकी इच्छा (काम) रहती है उसीमें चेतनअंशकी मुख्यतासे परमात्माकी इच्छा भी रहती है। अतः वास्तवमेंकाम का निवास जडअंशमें ही है पर वह भी चेतनके सम्बन्धसे ही है। चेतनका सम्बन्ध छूटते हीकाम का नाश हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि चेतनद्वारा जडसे सम्बन्धविच्छेद करते ही जडचेतनके तादात्म्यरूपअहम् का नाश हो जाता है औरअहम् का नाश होते हीकाम नष्ट हो जाता है।अहम् में जो जडअंश है उसमेंकाम रहता है इसकी प्रबल युक्ति यह है कि दृश्यरूपसे दीखनेवाला संसार उसे देखनेवाली इन्द्रियाँ तथा बुद्धि और उसे देखनेवाला स्वयं भोक्ता इन तीनोंमें जातीय (धातुगत) एकताके बिना भोक्ताका भोग्यकी ओर आकर्षण हो ही नहीं सकता। कारण कि आकर्षण सजातीयतामें ही होता है विजातीयतामें नहीं जैसे नेत्रोंका रूपके प्रति ही आकर्षण होता है शब्दके प्रति नहीं। यही बात सब इन्द्रियोंमें लागू होती है। बुद्धिका भी समझनेके विषय(विवेकविचार) में आकर्षण होता है शब्दादि विषयोंमें नहीं (यदि होता है तो इन्द्रियोंको साथमें लेनेसे ही होता है)। ऐसे ही स्वयं(चेतन) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है इसलियेस्वयंका परमात्माकी ओर आकर्षण होता है। यह तात्त्विक एकता जडअंशका सर्वथा त्याग करनेसे अर्थात् जडसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद करनेसे ही अनुभवमें आती है। अनुभवमें आते हीप्रेम जाग्रत् हो जाता है। प्रेममें जडता(असत्) का अंश भी शेष नहीं रहता अर्थात् जडताका अत्यन्त अभाव हो जाता है।प्रकृतिके कार्य महत्तत्त्व(समष्टि बुद्धि) का अत्यन्त सूक्ष्म अंशकारणशरीर हीअहम् का जडअंश है। इस कारणशरीरमें हीकाम रहता है। कारणशरीरके तादात्म्यसेकाम स्वयंमें दीखता है। तादात्म्य मिटनेपर जिसमेंकाम का लेश भी नहीं है ऐसे अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है। स्वरूपका अनुभव हो जानेपरकाम सर्वथा निवृत्त हो जाता है।एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा पहले शरीरसे पर इन्द्रियाँ इन्द्रियोंसे पर मन मनसे पर बुद्धि और बुद्धिसे परकाम को बताया गया। अब उपर्युक्त पदोंमें बुद्धिसे परकाम को जाननेके लिये कहनेका अभिप्राय यह है कि यहकामअहममें रहता है। अपने वास्तविक स्वरूपमेंकाम नहीं है। यदि स्वरूपमेंकाम होता तो कभी मिटता नहीं। नाशवान् जडके साथ तादात्म्य कर लेनेसे हीकाम उत्पन्न होता है। तादात्म्यमें भीकाम रहता तो जडमें ही है पर दीखता है स्वरूपमें। इसलिये बुद्धिसे परे रहनेवाले इसकाम को जानकर उसका नाश कर देना चाहिये। संस्तभ्यात्मानमात्मना बुद्धिसे परेअहम् में रहनेवालेकामको मारनेका उपाय है अपने द्वारा अपनेआपको वशमें करना अर्थात् अपना सम्बन्ध केवल अपने शुद्ध स्वरूपके साथ अथवा अपने अंशी भगवान्के साथ रखना जो वास्तवमें है। छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें उद्धरेदात्मनात्मानम् पदसे और छठे श्लोकमें येनात्मैवात्मनाजितः पदोंसे भी यही बात कही गयी है।स्वरूप (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश है और शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि संसारके अंश हैं। जब स्वरूप अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर प्रकृति(संसार) के सम्मुख हो जाता है तब उसमें कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कामनाएँ अभावसे उत्पन्न होती हैं और अभाव संसारके सम्बन्धसे होता है क्योंकि संसार अभावरूप ही है नासतो विद्यते भावः (गीता 2। 16)। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होते ही कामनाओंका नाश हो जाता है क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)।परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध माननेपर भी जीवकी वास्तविक इच्छा (आवश्यकता या भूख) अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी ही होती है।मैं सदा जीता रहूँ मैं सब कुछ जान जाऊँ मैं सदाके लिये सुखी हो जाऊँ इस रूपमें वह वास्तवमें सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्माकी ही इच्छा करता है पर संसारसे सम्बन्ध माननेके कारण वह भूलसे इन इच्छाओंको संसारसे ही पूरी करना चाहता है यहीकाम है। इसकामकी पूर्ति तो कभी हो ही नहीं सकती। इसलिये इसकामका नाश तो करना ही पड़ेगा।जिसने संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ा है वही उसे तोड़ भी सकता है। इसलिये भगवान्ने अपने द्वारा ही संसारसे अपना सम्बन्धविच्छेद करकेकाम को मारनेकी आज्ञा दी है।अपने द्वारा ही अपनेआपको वशमें करनेमें कोई अभ्यास नहीं है क्योंकि अभ्यास संसार(शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि) की सहायतासे ही होता है। इसलिये अभ्यासमें संसारके सम्बन्धकी सहायता लेनी पड़ती है। वास्तवमें अपने स्वरूपमें स्थिति अथवा परमात्माकी प्राप्ति संसारकी सहायतासे नहीं होती प्रत्युत संसारके त्याग(सम्बन्धविच्छेद) से अपनेआपसे होती है।मार्मिक बात जब चेतन अपना सम्बन्ध जडके साथ मान लेता है तब उसमें संसार(भोग) की भी इच्छा होती है और परमात्माकी भी। जडसे सम्बन्ध माननेपर जीवसे यही भूल होती है कि वह सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्माकी इच्छा अभिलाषाको संसारसे ही पूरी करनेके लिये सांसारिक पदार्थोंकी इच्छा करने लगता है। परिणामस्वरूप उसकी ये दोनों ही इच्छाएँ (स्वरूपबोधके बिना) कभी मिटती नहीं।संसारको जाननेके लिये अलग होना और परमात्माको जाननेके लिये परमात्मासे अभिन्न होना आवश्यक है क्योंकि वास्तवमेंस्वयं की संसारसे भिन्नता और परमात्मासे अभिन्नता है। परन्तु संसारकी इच्छा करनेसेस्वयं संसारसे अपनी अभिन्नता या समीपता मान लेता है जो कभी सम्भव नहीं और परमात्माकी इच्छा करनेसेस्वयं परमात्मासे अपनी भिन्नता या दूरी (विमुखता) मान लेता है पर इसकी सम्भावना ही नहीं। हाँ सांसारिक इच्छाओंको मिटानेके लिये पारमार्थिक इच्छा करना बहुत उपयोगी है। यदि पारमार्थिक इच्छा तीव्र हो जाय तो लौकिक इच्छाएँ स्वतः मिट जाती हैं। लौकिक इच्छाएँ सर्वथा मिटनेपर पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 203.1)। कारण कि वास्तवमें परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान है पर लौकिक इच्छाएँ रहनेसे उनका अनुभव नहीं होता।जहि शत्रुं महाबाहो कारूपँ दुरासदम् महाबाहो का अर्थ है बड़ी और बलवान् भुजाओंवाला अर्थात् शूरवीर। अर्जुनको महाबाहो अर्थात् शूरवीर कहकर भगवान् यह लक्ष्य कराते हैं कि तुम इसकामरूप शत्रुका दमन करनेमें समर्थ हो।संसारसे सम्बन्ध रखते हुएकाम का नाश करना बहुत कठिन है। यहकाम बड़ोंबड़ोंके भी विवेकको ढककर उन्हें कर्तव्य���े च्युत कर देता है जिससे उनका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान्ने इसे दुर्जय शत्रु कहा है।काम को दुर्जय शत्रु कहनेका तात्पर्य इससे अधिक सावधान रहनेमें है इसे दुर्जय समझकर निराश होनेमें नहीं।किसी एक कामनाकी उत्पत्ति पूर्ति अपूर्ति और निवृत्ति होती है इसलिये मात्र कामनाएँ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं। परन्तुस्वयं निरन्तर रहता है और कामनाओंके उत्पन्न तथा नष्ट होनेको जानता है। अतः कामनाओंसे वह सुगमतापूर्वक सम्बन्धविच्छेद कर सकता है क्योंकि वास्तवमें सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये साधकको कामनाओंसे कभी घबराना नहीं चाहिये। यदि साधकका अपने कल्याणका पक्का उद्देश्य है (टिप्पणी प0 203.2) तो वहकामको सुगमतापूर्वक मार सकता है।कामनाओंके त्यागमें अथवा परमात्माके प्राप्तिमें सब स्वतन्त्र अधिकारी योग्य और समर्थ हैं। परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र अधिकारी योग्य और समर्थ नहीं है। कारण कि कामना पूरी होनेवाली है ही नहीं। परमात्माने मानवशरीर अपनी प्राप्तिके लिये ही दिया है। अतः कामनाका त्याग करना कठिन नहीं है। सांसारिक भोगपदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही कामनाका त्याग कठिन मालूम देता है।सुख(अनुकूलता) की कामनाको मिटानेके लिये ही भगवान् समयसमयपर दुःख (प्रतिकूलता) भेजते हैं कि सुखकी कामना मत करो कामना करोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा। सांसारिक पदार्थोंकी कामनावाला मनुष्य दुःखसे कभी बच ही नहीं सकता यह नियम है क्योंकि संयोगजन्य भोग ही दुःखके हेतु हैं (गीता 5। 22)।स्वयं(स्वरूप) में अनन्त बल है। उसकी सत्ता ओर बलको पाकर ही बुद्धि मन और इन्द्रियाँ सत्तावान् एवं बलवान् होते हैं। परन्तु जडसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण वह अपने बलको भूल रहा है और अपनेको बुद्धि मन और इन्द्रियोंके अधीन मान रहा है। अतएवकामरूप शत्रुको मारनेके लिये अपनेआपको जानना और अपने बलको पहचानना बड़ा आवश्यक है।काम जडके सम्बन्धसे और जडमें ही होता है। तादात्म्य होनेसे वह स्वयंमें प्रतीत होता है। जडका सम्बन्ध न रहे तोकाम है ही नहीं। इसलिये यहाँकाम को मारनेका तात्पर्य वस्तुतःकाम का सर्वथा अभाव बतानेमें ही है। इसके विपरीत यदिकाम अर्थात् कामनाकी सत्ताको मानकर उसे मिटानेकी चेष्टा करें तो कामनाका मिटना कठिन है। कारण कि वास्तवमें कामनाकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। कामना उत्पन्न होती है और उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होगी ही यह नियम है। यही कामना न करें तो पहलेकी कामनाएँ अपनेआप नष्ट हो जायँगी। इसलिये कामनाको मिटानेका तात्पर्य है नयी कामना न करना।शरीरादि सांसारिक पदार्थोंकोमैंमेरा औरमेरे लिये माननेसे ही अपनेआपमें कमीका अनुभव होता है पर मनुष्य भूलसे उस कमीकी पूर्ति भी सांसारिक पदार्थोंसे ही करना चाहता है। इसलिये वह उन पदार्थोंकी कामना करता है। परन्तु वास्तवमें आजतक सांसारिक पदार्थोंसे किसीकी भी कमीकी पूर्ति हुई नहीं होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। कारण कि स्वयं अविनाशी है और पदार्थ नाशवान् हैं। स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान्की कामना करनेसे लाभ तो कोई होता नहीं और हानि कोईसी भी बाकी रहती नहीं। इसलिये भगवान् कामनाको शत्रु बताते हुए उसे मार डालनेकी आज्ञा देते हैं।कर्मयोगके द्वारा इस कामनाका नाश सुगमतासे हो जाता है। कारण कि कर्मयोगका साधक संसारकी छोटीसेछोटी अथवा बड़ीसेबड़ी प्रत्येक क्रिया परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर दूसरोंके लिये ही करता है कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं। वह प्रत्येक क्रिया निष्कामभावसे एवं दूसरोंके हित और सुखके लिये ही करता है अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके पास जो समय समझ सामग्री और सामर्थ्य है वह सब अपनी नहीं है प्रत्युत मिली हुई है और बिछुड़ जायगी। इसलिये वह उसे अपनी कभी न मानकर निःस्वार्थभावसे (संसारकी ही मानकर) संसारकी ही सेवामें लगा देता है। उसे पूरीकीपूरी संसारकी सेवामेंलगा देता है अपने पास बचाकर नहीं रखता। अपना न माननेसे ही वह पूरीकीपूरी सेवामें लगती हैअन्यथा नहीं।कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। कामनाओंका सर्वथा नाश होनेपर उसके उद्देश्यकी पूर्ति हो जाती है और वह अपनेआपमें ही अपनेआपको पाकर कृतकृत्य ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी करना जानना और पाना शेष नहीं रहता।
Swami Tejomayananda
।।3.42।। (शरीर से) परे (श्रेष्ठ) इन्द्रियाँ कही जाती हैं; इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है, वह है आत्मा।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.42।।शत्रुहनने आयुधरूपं ज्ञानं वक्तुं ज्ञेयमाह इन्द्रियाणीति।असङ्गज्ञानासिमादाय तरातिपारं इति ह्युक्तम्। शरीरादिन्द्रियाणि पराणि उत्कृष्टानि। न केवलं बुद्धेः परः श्रुत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तादपि अव्यक्तात्पुरुषः परः कठो.3।11 इति हि श्रुतिः। न च तत्र तत्रोक्तैकदेशज्ञानमात्रेण भवति मुक्तिः। सार्वत्रिकगुणोपसंहारो हि भगवता गुणोपसंहारपादेऽभिहितःआनन्दादयः प्रधानस्य ब्र.सू.3।3।11 इत्यादिना। तथा चान्यत्रअपौरुषेयवेदेषु विष्णुवेदेषु चैव हि। सर्वत्र ये गुणाः प्रोक्ताः सम्प्रदायागताश्च ये। सर्वैस्तैः सह विज्ञाय ये पश्यन्ति परं हरिम्। तेषामेव भवेन्मुक्तिर्नान्यथा तु कथञ्चन इति गारुडे। तस्मादव्यक्तादपि परत्वेन ज्ञेयः। न चात्र जीव उच्यतेरसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 2।59 इत्युक्तत्वात्।अविज्ञाय परं मत्तो जयः कामस्य वै कुतः इति च। अतः परमात्मज्ञानमेवात्र विवक्षितम्। आत्मानं मनः।आत्मना बुद्ध्या।
Sri Anandgiri
।।3.42।।पूर्वोक्तमनूद्य कामत्यागस्य दुष्करत्वं मन्वानो रसोऽप्यस्येत्यत्रोक्तमेव स्पष्टीकर्तुं प्रश्नपूर्वकं श्लोकान्तरमवतारयति इन्द्रियाणीत्यादिना। पञ्चेति ज्ञानेन्द्रियवत्कर्मेन्द्रियाण्यपि वागादीनि गृह्यन्ते। किमपेक्षया तेषां परत्वं तत्राह देहमिति। तथापि केन प्रकारेण परत्वं तदाह सौक्ष्म्येति। आदिशब्देन कारणत्वादि गृह्यते। इन्द्रियापेक्षया सूक्ष्मत्वादिना मनसः स्वरूपोक्तिपूर्वकं परत्वं कथयति तथेति। मनसि दर्शितं न्यायं बुद्धावतिदिशति तथा मनसस्त्विति। यो बुद्धेरित्यादि व्याचष्टे तथेत्यादिना। आत्मनोयथोक्तविशेषणस्याप्रकृतत्वमाशङ्क्याह यं देहिनमिति।
Sri Vallabhacharya
।।3.42।।ज्ञानविरोधिषु प्रधानत्वेन निर्दिशन्नाह इन्द्रियाणीति। पराणीति अत्र परशब्दो बलवत्प्रतीपत्वसूचकः। यः कामो बुद्धेः परतः सर्वैरिति।
Sridhara Swami
।।3.42।।अथात्र प्रसन्नतया चित्तप्रणिधानेनेन्द्रियाणि नियन्तुं शक्यन्ते तदात्मस्वरूपं देहादिभ्यो विविच्य दर्शयति इन्द्रियाणीति। इन्द्रियाणि देहादिभ्यो ग्राह्येभ्यः पराणि श्रेष्ठान्याहुः। सूक्ष्मत्वात्प्रकाशकत्वाच्च। अतएव तद्व्यतिरिक्तत्वमप्यर्थादुक्तं भवति। इन्द्रियेभ्यश्च संकल्पात्मकं मनः परम् तत्प्रवर्तकत्वात्। मनसस्तु बुद्धिर्निश्चयात्मिका परा निश्चयपूर्वकत्वात्संकल्पस्य। यस्तु बुद्धेः परः तत्साक्षित्वेनावस्थितः सर्वान्तरः स आत्मा विमोहयति देहिनमिति देहिशब्दोक्त आत्मा स इति परामृश्यते।