Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 34 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ | तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||३-३४||
Transliteration
indriyasyendriyasyārthe rāgadveṣau vyavasthitau . tayorna vaśamāgacchettau hyasya paripanthinau ||3-34||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.34 Attachment and aversion for the objects of the senses abide in the senses; let none come under their sway; for, they are his foes.
।।3.34।। इन्द्रियइन्द्रिय (अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the workplace, resist letting personal likes (attachment to certain projects, praise, or comfort zones) or dislikes (aversion to difficult tasks, criticism, or specific colleagues) dictate your professional decisions or performance. Strive for objectivity, focusing on the task's merit and organizational goals rather than emotional preferences. This approach fosters resilience, impartiality, and consistent high performance.
🧘 For Stress & Anxiety
Much stress stems from our attachment to desired outcomes and aversion to uncomfortable experiences or perceived failures. By recognizing these as internal 'foes,' one can cultivate mental detachment. When faced with demanding situations, observe your reactions (e.g., anxiety about failing, frustration with a setback) without immediately being swept away. This practice reduces emotional reactivity, promotes equanimity, and builds mental resilience, leading to greater inner peace.
❤️ In Relationships
Attachment (e.g., possessiveness, idealization, unrealistic expectations) and aversion (e.g., resentment, judgment, holding grudges) are major saboteurs of healthy relationships. The verse advises against letting these sway you. Practice accepting others as they are, without imposing your desires or recoiling from their perceived flaws. This fosters unconditional love, reduces conflict, and creates more authentic, less turbulent connections built on mutual respect rather than emotional dependence or avoidance.
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Recognize attachment and aversion as internal adversaries. Master your reactions to sensory experiences to gain true freedom and inner peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.34 इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य of each sense? अर्थे in the object? रागद्वेषौ attachment and aversion? व्यवस्थितौ seated? तयोः of these two? न not? वशम् sway? आगच्छेत् should come under? तौ these two? हि verily? अस्य his? परिपन्थिनौ foes.Commentary Each sense has got attraction for a pleasant object and aversion for a disagreeable object. If one can control these two currents? viz.? attachment and aversion? he will not come under the sway of these two currents. Here lies the scope for personal exertion or Purushartha. Nature which contains the sum total of ones Samskaras or the latent selfproductive impressions of the past actions of merit and demerit draws a man to its course through the two currents? attachment and aversion. If one can control these two currents? if he can rise above the sway of love and hate through discrimination and Vichara or right eniry? he can coner Nature and attain immortality and eternal bliss. He willl no longer be subject to his own nature now. One should always exert to free himself from attachment and aversion to the objects of the senses.
Shri Purohit Swami
3.34 The love and hate which are aroused by the objects of sense arise from Nature; do not yield to them. They only obstruct the path.
Dr. S. Sankaranarayan
3.34. [For a man of worldly life] there are likes and dislikes clearly fixed with regard to the objects of each of his sense organs. These are the obstacles for him. [The wise] would not come under the control of these.
Swami Adidevananda
3.34 Each sense has fixed attachment to, and aversion for, its corresponding object. But no one should come under their sway; for they are his foes.
Swami Gambirananda
3.34 Attraction and repulsion are ordained with regard to the objects of all the organs. One should not come under the sway of these two, because they are his adversaries.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.34।। पूर्व श्लोक में कहा गया था कि शास्त्राध्ययन करने वाला ज्ञानवान् पुरुष भी नैतिकता का उच्च जीवन जीने में अपने को असमर्थ पाता है क्योंकि उसकी कुछ निम्न स्तर की प्रवृत्तियाँ कभीकभी उससे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होती हैं। सर्वत्र अनुपलब्ध औषधि का उपचार लिख देना रोग का निवारण करना नहीं कहलाता। दार्शनिक तत्त्ववेत्ता का यह कर्तव्य है कि वह केवल हमारे वर्तमान जीवन की दुर्बलताओं को ही नहीं दर्शाये बल्कि पूर्णत्व की स्थिति का ज्ञान कराकर उस साधन मार्ग को भी दिखाये जिससे हम दोषमुक्त होकर पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकें। केवल ऐसा करके ही वह दार्शनिक तत्त्वविज्ञ पुरुष अपनी पीढ़ी को कृतार्थ कर सकता है।यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभावानुसार कार्य करता है परन्तु यह स्वभाव वह अपने कर्म एवं विचारों के द्वारा बनाता है और न कि किसी अन्य के कारण। अत यहाँ पुरुषार्थ के लिये अवसर है। उसी को यहाँ श्रीकृष्ण बता रहे हैं। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के मन में राग अथवा द्वेष उत्पन्न होता है। शब्दस्पर्शादि इन्द्रियों के विषय स्वयं किसी भी प्रकार हमारे अन्तकरण में दुख या विक्षेप उत्पन्न नहीं कर सकते। विषयों के ग्रहण करके मन किसी के प्रति राग और किसी के प्रति द्वेष रखता है और मन के इन रागद्वेषों के कारण प्रिय या अप्रिय विषय के दर्शन अथवा प्राप्ति से मनुष्य को हर्ष या विषाद होता है। स्वयं रागद्वेष्ा को उत्पन्न करके मनुष्य का फिर प्रयत्न होता है प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय का त्याग। विषयों के प्रति राग और द्वेष सदा परिवर्तित होते रहने के कारण वह सदा ही क्षुब्धचित्त बना रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये रागद्वेष ही लुटेरे हैं जो मन की शांति का हरण कर लेते हैं और जिनके कारण मनुष्य सच्चा जीवन नहीं जी पाता। वास्तव में यह दुख की बात है।वस्तुस्थिति को दर्शाकर भगवान् समस्त साधकों को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को चाहिये कि वह इन दोनों के वश में न होवे।प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में बाह्य जगत् से पलायन करने का उपदेश गीता में कहीं पर भी नहीं मिलता। भगवान् का उपदेश तो यहाँ और अभी जीवन की उपलब्ध परिस्थितियों में शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से सब अनुभवों को प्राप्त करते हुये जीने के लिये है। आग्रह केवल इस बात का है कि सभी परिस्थितियों में मनुष्य को मन आदि उपाधियों का स्वामी बनकर रहना चाहिये और न कि उनका दास बनकर। इस प्रकार के स्वामित्व को प्राप्त करने का उपाय राग और द्वेष से मुक्त हो जाना है।रागद्वेष से मुक्ति पाने के लिये मिथ्या अहंकार तथा तज्जनित अन्य प्रवृत्तियों को समाप्त करना चाहिये क्योंकि राग और द्वेष अहंकार से सम्बन्धित हैं। इसलिए अहंकाररहित कर्म करने पर वासनाओं का क्षय हो जाता है। वासनाओं से उत्पन्न होता है मन और वहीं पर अहंकार का खेल होता है। जैसेजैसे वासनायें क्षीण होती जाती हैं वैसेवैसे मन भी नष्ट हो जाता है। मन के नष्ट होने पर शुद्ध आत्मा का प्रतिबिम्ब रूप अहंकार भी नष्ट हो जाता है।भगवान् वासना क्षय का उपाय निम्न श्लोक में बताते हैं
Swami Ramsukhdas
3.34।। व्याख्या--'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ'--प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग-द्वेषको अलग-अलग स्थित बतानेके लिये यहाँ 'इन्द्रियस्य' पद दो बार प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय-(श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण-) के प्रत्येक विषय-(शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-) में अनुकूलता-प्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके राग-द्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रियके विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें 'राग' हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमें 'द्वेष' हो जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रहते। यदि विषयोंमें राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय अथवा अप्रिय लगता। परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे--वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है, पर कुम्हारको अप्रिय। एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता; जैसे--ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है, पर सरदीमें बुरी। इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है। इसलिये भगवान्ने राग-द्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है। वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए 'अहम्'-(मैं-पन-) में रहते हैं (टिप्पणी प0 176)। शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध हीअहम् कहलाता है। अतः जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें रागद्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष, बुद्धि, मन, इन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं। इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक भगवान्ने इन्हीं राग-द्वेषको 'काम' और 'क्रोध' के नामसे कहा है। राग और द्वेषके ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं। चालीसवें श्लोकमें बताया है कि यह 'काम' इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें रहता है। विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें) 'काम' की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान्ने इनको 'काम' का निवास-स्थान बताया है। जैसे विषयोंमें राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है, ऐसे ही इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें भी रागद्वेषकी प्रतीतिमात्र है। ये इन्द्रियाँ मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं। इनमें काम-क्रोध अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ? इसके सिवाय दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता। यह राग परमात्माका साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है। 'तयोर्न वशमागच्छेत्' इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्वासन देते हैं कि राग-द्वेषकी वृत्ति उत्पन्न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये ,अपितु राग-द्वेषकी वृत्तिके वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये। कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता 16।24)। यदि राग-द्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेषके वशमें हो गया। रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'राग' पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'द्वेष' पुष्ट होता है। इस प्रकार राग-द्वेष पुष्ट होनेके फलस्वरूप पतन ही होता है।जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है, तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे वह घबरा जाता है। यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्वासन देते हैं कि उसे इन स्फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये। इन स्फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता ही नहीं है; क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं; और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होनेवाली होती है। अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं रही हैं, प्रत्युत जा रही हैं। कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय अवकाश न मिलनेसे स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे पुराने संस्कार स्फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं। अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओंसे भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये। इसी प्रकारउसे पदार्थ, व्यक्ति, विषय आदिमें भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये। रागद्वेषपर विजय पानेके उपाय राग-द्वेषके वशीभूत होकर कर्म करनेसे राग-द्वेष पुष्ट (प्रबल) होते हैं और अशुद्ध प्रकृति-(स्वभाव-) का रूप धारण कर लेते हैं। प्रकृतिके अशुद्ध होनेपर प्रकृतिकी अधीनता रहती है। ऐसी अशुद्ध प्रकृतिकी अधीनतासे होनेवाले कर्म मनुष्यको बाँधते हैं। अतः राग-द्वेषके वशमें होकर कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति नहीं होनी चाहिये-- यह उपाय यहाँ बताया गया। इससे पहले भगवान् कह चुके हैं कि जो मेरे मतका अनुसरण करता है, वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है (गीता 3। 31)। इसलिये राग-द्वेषकी वृत्तिके वशमें न होकर भगवान्के मतके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। तात्पर्य यह कि साधक सम्पूर्ण कर्मोंको और अपनेको भी भलीभाँति भगवदर्पण कर दे और ऐसा मान ले कि कर्म मेरे लिये नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्के लिये ही हैं; जिनसे कर्म होते हैं, वे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी भगवान्के ही हैं; और मैं भी भगवान्का ही हूँ। फिर निष्काम, निर्मम और निःसन्ताप होकर कर्तव्य-कर्म करनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं। इस प्रकार भगवान्के मत अर्थात् सिद्धान्तको सामने रखकर ही किसी कार्यमें प्रवृत्त या निवृत्त होना चाहिये।सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृतिका कार्य है और शरीर सृष्टिका एक अंश है। जबतक शरीरके प्रति ममता रहती है, तभीतक रागद्वेष होते हैं अर्थात् मनुष्य रुचि या अरुचिपूर्वक वस्तुओंका ग्रहण और त्याग करता है। यह रुचिअरुचि ही रागद्वेषका सूक्ष्म रूप है। राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे रागद्वे-ष पुष्ट होते हैं; परन्तु शास्त्रको सामने रखकर किसी कर्ममें प्रवृत्त या निवृत्त होनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं। कारण कि शास्त्रके अनुसार चलनेसे अपनी रुचि और अरुचिकी मुख्यता नहीं रहती। यदि कोई मनुष्य शास्त्रको नहीं जानता, तो उसके लिये महर्षि वेदव्यासजीके वचन हैं-- 'श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।' आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।(पद्मपुराण सृष्टि0 19। 35556)C 'हे मनुष्यों! तुमलोग धर्मका सार सुनो और सुनकर धारण करो कि जो हम अपने लिये नहीं चाहते, उसको दूसरोंके प्रति न करें।' जीवन्मुक्त महापुरुष भी शास्त्र-मर्यादाको ही आदर देते हैं। इसीलिये श्राद्धमें पिण्डदान करते समय पिताजीका हाथ प्रत्यक्ष दिखायी देनेपर भी भीष्मपितामहने शास्त्रके आज्ञानुसार कुशोंपर ही पिण्डदान किया (महाभारत, अनुशासन0 84। 1520)। अतः साधकको सम्पूर्ण कर्म शास्त्रके आज्ञानुसार ही करने चाहिये।राग-द्वेष मिटानेके इच्छुक साधकोंके लिये तो कर्म करनेमें शास्त्रप्रमाणकी आवश्यकता रहती है, पर राग-द्वेषसे सर्वथा रहित महापुरुषका अन्तःकरण इतना शुद्ध, निर्मल होता है कि उसमें स्वतः वेदोंका तात्पर्य प्रकट हो जाता है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या न हो। उसके अन्तःकरणमें जो बात आती है, वह शास्त्रानुकूल ही होती है (टिप्पणी प0 178)। राग-द्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उस महापुरुषके द्वारा शास्त्र-निषिद्ध क्रियाएँ कभी होती ही नहीं। उसका स्वभाव स्वतः शास्त्रके अनुसार बन जाता है। यही कारण है कि ऐसे महापुरुषके आचरण और वचन दूसरे मनुष्योंके लिये आदर्श होते हैं (गीता 3। 21)। अतः उस महापुरुषके आचरणों और वचनोंका अनुसरण करनेसे साधकके रागद्वेष भी मिट जाते हैं।कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि रागद्वेष अन्तःकरणके धर्म हैं अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता। पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती। वास्तवमें राग-द्वेष अन्तःकरणके आगन्तुक विकार हैं, धर्म नहीं। यदि ये अन्तःकरणके धर्म होते तो जिस समय अन्तःकरण जाग्रत् रहता है, उस समय राग-द्वेष भी रहते अर्थात् इनकी सदा ही प्रतीति होती। परन्तु इनकी प्रतीति सदा न होकर कभी-कभी ही होती है। साधन करनेपर राग-द्वेष उत्तरोत्तर कम होते--हैं यह साधकोंका अनुभव है। कम होनेवाली वस्तु मिटनेवाली होती है। इससे भी सिद्ध होता है कि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं। भगवान्ने रागद्वेषको 'मनोगत' कहा है-- 'कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्' (गीता 2। 55) अर्थात् ये मनमें आनेवाले हैं, सदा रहनेवाले नहीं। इसके अतिरिक्त भगवान्ने राग-द्वेषको विकार कहा है (गीता 13। 6) और प्रिय-अप्रियकी प्राप्तिमें चित्तके सदा सम रहनेको साधन कहा है (गीता 13। 9)। यदि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म होते, तो यह समचित्ततारूप साधन बन ही नहीं सकता। धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आने-जानेवाले होते हैं। राग-द्वेष अन्तःकरणमें आने-जानेवाले हैं; अतः इनको मिटाया जा सकता है।प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन)--दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इन दोनोंका विवेक स्वतःसिद्ध है। पुरुष इस विवेकको महत्त्व न देकर प्रकृतिजन्य शरीरसे एकता कर लेता है और अपनेको एकदेशीय मान लेता है। यह जड-चेतनका तादात्म्य ही 'अहम्' (मैं) कहलाता है और इसीमें राग-द्वेष रहते हैं। तात्पर्य यह है कि अहंता-(मैं-पन-) में राग-द्वेष रहते हैं और राग-द्वेषसे अहंता पुष्ट होती है। यही राग-द्वेष बुद्धिमें प्रतीत होते हैं, जिससे बुद्धिमें सिद्धान्त आदिको लेकर अपनी मान्यता प्रिय और दूसरोंकी मान्यता अप्रिय लगती है। फिर ये राग-द्वेष मनमें प्रतीत होते हैं, जिससे मनके अनुकूल बातें प्रिय और प्रतिकूल बातें अप्रिय लगती हैं। फिर यही राग-द्वेष इन्द्रियोंमें प्रतीत होते हैं, जिससे इन्द्रियोंके अनुकूल विषय प्रिय और प्रतिकूल विषय अप्रिय लगते हैं। यही राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयों-(शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-) में अपनी अनुकूल और प्रतिकूल भावनाको लेकर प्रतीत होते हैं। अतः जड-चेतनकी ग्रन्थि-रूप अहंता-(मैं-पन-) के मिटनेपर राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है क्योंकि अहंतापर ही राग-द्वेष टिके हुए हैं।मैं सेवक हूँ; मैं जिज्ञासु हूँ; मैं भक्त हूँ-- ये सेवक, जिज्ञासु और भक्त जिस 'मैं' में रहते हैं, उसी 'मैं' में राग-द्वेष भी रहते हैं। राग-द्वेष न तो केवल जडमें रहते हैं और न केवल चेतनमें ही रहते हैं, प्रत्युत जड-चेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हैं। जड-चेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हुए भी ये राग-द्वेष प्रधानतः जडमें रहते हैं। जड-चेतनके तादात्म्यमें जडका आकर्षण जड-अंशमें ही होता है, पर तादात्म्यके कारण वह चेतनमें दीखता है। जडका आकर्षण ही राग है। अतः जब साधक शरीर-(जड-) को ही अपना स्वरूप मान लेता है, तब उसे राग-द्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत होती है। परन्तु अपने चेतन-स्वरूपकी ओर दृष्टि रहनेसे उसे राग-द्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत नहीं होती। कारण कि राग-द्वेष स्वतःसिद्ध नहीं हैं, प्रत्युत जड-(असत्-) के सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले हैं। यदि सत्सङ्ग, भजन, ध्यान आदिमें 'राग' होगा तो संसारसे द्वेष होगा; परन्तु 'प्रेम' होनेपर संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारकी उपेक्षा (विमुखता) होगी (टिप्पणी प0 179)। संसारके किसी एक विषयमें 'राग' होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्में प्रेम होनेसे संसारसे वैराग्य होता है। वैराग्य होनेपर संसारसे सुख लेनेकी भावना समाप्त हो जाती है और संसारकी स्वतः सेवा होती है। इससे शरीर, इन्द्रियाँ, मन औरबुद्धिके साथ 'अहम्' भी स्वतः संसारकी सेवामें लग जाता है। परिणामस्वरूप शरीरादिके साथ-साथ 'अहम्' से भी सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसमें रहनेवाले राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।मनुष्यकी क्रियाएँ स्वभाव अथवा सिद्धान्तको लेकर होती हैं। केवल आध्यात्मिक उन्नतिके लिये कर्म करना सिद्धान्तको लेकर कर्म करना है। स्वभाव दो प्रकारका होता है--रागद्वेषरहित (शुद्ध) और राग-द्वेषयुक्त (अशुद्ध)। स्वभावको मिटा तो नहीं सकते, पर उसे शुद्ध अर्थात् राग-द्वेषरहित अवश्य बना सकते हैं। जैसे गङ्गा गङ्गोत्रीसे निकलती है; गङ्गोत्री जितनी ऊँचाईपर है, अगर उतना अथवा उससे अधिक ऊँचा बाँध बनाया जाय, तो गङ्गाके प्रवाहको रोका जा सकता है। परन्तु ऐसा करना सरल कार्य नहीं है। हाँ गङ्गामें नहरें निकालकर उसके प्रवाहको बदला जा सकता है। इसी प्रकार स्वाभाविक कर्मोंके प्रवाहको मिटा तो नहीं सकते, पर उसको बदल सकते हैं अर्थात् उसको राग-द्वेषरहित बना सकते हैं--यह गीताका मार्मिक सिद्धान्त है। राग-द्वेषको लेकर जो क्रियाएँ होती हैं, उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति उतनी बाधक नहीं है, जितने कि राग-द्वेष बाधक हैं। इसीलिये भगवान्ने राग-द्वेषका त्याग करनेवालेको ही सच्चा त्यागी कहा है (गीता 18। 10)। रागद्वेषकी ओर प्रायः साधकका ध्यान नहीं जाता इसलिये उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति रागद्वेषपूर्वक होती है। अतः रागद्वेषसे रहित होनेके लिये साधकको सिद्धान्त सामने रखकर ही समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। फिर उसका स्वभाव स्वतः सिद्धान्तके अनुरूप और शुद्ध बन जायगा।रागद्वेषयुक्त स्फुरणाके उत्पन्न होनेपर उसके अनुसार कर्म करनेसे रागद्वेष पुष्ट होते हैं और उसके अनुसार कर्म न करके सिद्धान्तके अनुसार कर्म करनेसे रागद्वेष मिट जाते हैं।मनकी शुभ और अशुभ स्फुरणाओंमें रागद्वेष नहीं होने चाहिये। साधकको चाहिये कि वह मनमें होनेवाली स्फुरणाओंको स्वयंमें न मानकर उनसे किसी भी प्रकार सम्बन्ध न जोड़े उनका न समर्थन करे न विरोध करे।यदि साधक रागद्वेषको दूर करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहृद् प्रभुकी शरणमें चले जाना चाहिये। फिर प्रभुकी कृपासे उसके रागद्वेष दूर हो जाते हैं (गीता 7। 14) और परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 18। 62)। माने हुए अहम्सहित शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण और सांसारिक पदार्थ सबकेसब भगवान्के ही हैं ऐसा मानना ही भगवान्के शरण होना है। फिर भगवान्की प्रसन्नताके लिये भगवान्की दी हुई सामग्रीसे भगवान्के ही जनोंकी केवल सेवा कर देनी है और बदलेमें अपने लिये कुछ नहीं चाहना है। बदलेमें कुछ भी चाहनेसे जडके साथ सम्बन्ध बना रहता है। निष्कामभावपूर्वक संसारकी सेवा करना राग-द्वेषको मिटानेका अचूक उपाय है। अपने पास स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे लेकर माने हुए 'अहम्' तक जो कुछ है, उसे संसारकी ही सेवामें लगा देना है। कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसारसे अभिन्न हैं। इनको संसारसे भिन्न (अपना) मानना ही बन्धन है। स्थूल-शरीरसे क्रियाओं और पदार्थोंका सुख, सूक्ष्मशरीरसे चिन्तनका सुख और कारणशरीरसे स्थिरताका सुख नहीं लेना है। वास्तवमें मनुष्य-शरीर अपने सुखके लिये है ही नहीं-- एहि तन कर फल बिषय न भाई। (मानस 7। 44। 1)दूसरी बात, जिन शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिसे सेवा होती है, वे सब संसारके ही अंश हैं। जब संसार ही अपना नहीं, तो फिर उसका अंश अपना कैसे हो सकता है? इन शरीरादि पदार्थोंको अपना माननेसे सच्ची सेवा हो ही नहीं सकती; क्योंकि इससे ममता और स्वार्थ-भाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिये इन पदार्थोंको उसीके मानने चाहिये, जिसकी सेवा की जाय। जैसे भक्त पदार्थोंको भगवान्का ही मानकरभगवान्के अर्पण करता है-- 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये'ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थोंको संसारका ही मानकर संसारके अर्पण करता है। सेवा-सम्बन्धी मार्मिक बातसेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करनेके लिये धनादि पदार्थोंकी चाह तो कामना है ही, सेवा करनेकी चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवाकी चाह होनेसे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो ��ेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करना चाहिये।दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है,-- ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मानबड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाते है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।'मैं किसीको कुछ देता हूँ--ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलेमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलमें क्या हम कुछ चाहते हैं शङ्का-- सेवा तो धनादि वस्तुओंके द्वारा ही होती है। वस्तुओंके बिना सेवा कैसे हो सकती है? अतः सेवा करनेके लिये भी वस्तुओंकी चाह न करनेसे क्या तात्पर्य है? समाधान-- स्थूल वस्तुओंसे सेवा करना तो बहुत स्थूल बात है। वास्तवमें सेवा भाव है, कर्म नहीं। कर्मसे बन्धन और सेवासे मुक्ति होती है। सेवाका भाव होनेसे अपने पास जो वस्तुएँ हैं, वे स्वतः सेवामें लगती हैं। भाव होनेसे अपने पास जितनी वस्तुएँ हैं, उन्हींसे पूर्ण सेवा हो जाती है; इसलिये और वस्तुओंको चाहनेकी आवश्यकता ही नहीं है।वास्तविक सेवा वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि न रहनेसे ही हो सकती है। स्थूल वस्तुओंसे भी वही सेवा कर सकता है जिसकी वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि नहीं है। वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि रखते हुए सेवा करनेसे सेवाका अभिमान आ जाता है। जबतक अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व रहता है तबतक सेवकमें भोगबुद्धि रहती ही है, चाहे कोई जाने या न जाने।वास्तवमें सेवा भावसे होती है, वस्तुओंसे नहीं। वस्तुओंसे कर्म होते हैं, सेवा नहीं। अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है। वस्तुएँ तो दूकानदार भी देता है, पर साथमें लेनेका भाव रहनेसे उससे पुण्य नहीं होता। ऐसे ही प्रजा राजाको कर-रूपसे धन देती है, पर वह दान नहीं होता। किसीको जल पिलानेपरमैंने उसे जल पिलाया, तभी वह सुखी हुआ'--ऐसे भावका रहना दूकानदारी ही है। हम मान-बड़ाई नहीं चाहते, पर 'जल पिलानेसे पुण्य होगा' अथवा 'दान करनेसे पुण्य होगा'--ऐसा भाव रहनेपर भी फलके साथ सम्बन्ध होनेके कारण अन्तःकरणमें जल, धन आदि वस्तुओंका महत्त्व अङ्कित हो जाता है। वस्तुओंका महत्त्व अङ्कित होनेपर फिर वास्तविक सेवा नहीं होती, प्रत्युत लेनेका भाव रहनेसे असत्के साथ सम्बन्ध बना रहता है, चाहे जानें या न जानें। इसलिये वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना है।हमारे द्वारा वस्तु उसीको मिल सकती है, जिसका उस वस्तुपर अधिकार है अर्थात् वास्तवमें जिसकी वह वस्तु है। उसे वस्तु देनेसे हमारा ऋण उतरता है। यदि दूसरेको किसी वस्तुकी हमसे अधिक आवश्यकता (भूख) है, तो उस वस्तुका वही अधिकारी है। दूसरा अपने अधिकार-(हक-) की ही वस्तु लेता है। हमारे अधिकारकी वस्तु दूसरा ले ही नहीं सकता।एक बात खास ध्यान देनेकी है कि सच्चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे, जिसकी वह सेवा करता है, उस-(सेव्य-) के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है-- यह नियम है। सच्चे हृदयसे सेवा करनेवाला पुरुष स्थूलदृष्टिसे तो पदार्थोंको सेव्यकी सेवामें लगाता है, पर सूक्ष्मदृष्टिसे देखा जाय तो वह सेव्यके हृदयमेंसेवाभाव जाग्रत् करता है। यदि सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् न हो, तो साधकको समझ लेना चाहिये कि सेवा करनेमें कोई त्रुटि (अपने लिये कुछ पाने या लेनेकी इच्छा) है। अतः साधकको इस विषयमें विशेष सावधानी रखते हुए ही दूसरोंकी सेवा करना चाहिये और अपनी त्रुटियोंको खोजकर निकाल देना चाहिये। दूसरे मुझे अच्छा कहें-- ऐसा भाव सेवामें बिलकुल नहीं रखना चाहिये। ऐसा भाव आते ही उसे तुरंत मिटा देना चाहिये, क्योंकि यह भाव अभिमान बढ़ानेवाला है।प्रत्येक साधकके लिये संसार केवल कर्तव्य-पालनका क्षेत्र है, सुखी-दुःखी होनेका क्षेत्र नहीं। संसार सेवाके लिये है। संसारमें साधकको सेवा-ही-सेवा करनी है। सेवा करनेमें सबसे पहले साधकका यह भाव होना चाहिये कि मेरे द्वारा किसीका किञ्चिन्मात्र भी अहित न हो। संसारमें कुछ प्राणी दुःखी रहते हैं और कुछ प्राणी सुखी रहते हैं। दुःखी प्राणीको देखकर दुःखी हो जाना और सुखी प्राणीको देखकर सुखी हो जाना भी सेवा है; क्योंकि इससे दुःखी और सुखी--दोनों व्यक्तियोंको सुखका अनुभव होता है और उन्हें बल मिलता है कि हमारा भी कोई साथी है! दूसरा दुःखी है तो उसके साथ हम भी हृदय से दुःखी हो जायँ कि उसका दुःख कैसे मिटे? उससे प्रेमपूर्वक बात करें और सुनें। उससे कहें कि प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर घबराना नहीं चाहिये; ऐसी परिस्थिति तो भगवान् राम एवं राजा नल, हरिश्चन्द्र आदि अनेक बड़े-बड़े पुरुषोंपर भी आयी है; आजकल तो अनेक लोग तुम्हारेसे भी ज्यादा दुःखी हैं; हमारे लायक कोई काम हो तो कहना; आदि। ऐसी बातोंसे वह राजी हो जायगा। ऐसे ही सुखी व्यक्तिसे मिलकर हम भी हृदयसे सुखी हो जायँ कि बहुत अच्छा हुआ, तो वह राजी हो जायगा। इस प्रकार हम दुःखी और सुखी दोनों-- व्यक्तियोंकी सेवा कर सकते हैं। दूसरेके दुःख और सुख--दोनोंमें सहमत होकर हम दूसरोंको सुख पहुँचा सकते हैं। केवल दूसरोंके हितका भाव निरन्तर रहनेकी आवश्यकता है। जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं, वे सन्त होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने संतोंके लक्षणोंमें कहा है-- 'पर दुख दुख सुख सुख देखे पर' (मानस 7। 38। 1)यहाँ शङ्का होती है कि यदि हम दूसरोंके दुःखसे दुःखी होने लगें तो फिर हमारा दुःख कभी मिटेगा ही नहीं; क्योंकि संसारमें दुःखी तो मिलते ही रहेंगे! इसका समाधान यह है कि जैसे हमारे ऊपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं ,ऐसे ही दूसरेको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उसका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होनी चाहिये। उसका दुःख दूर करनेकी सच्ची भावना होनी चाहिये। अतः दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेका तात्पर्य उसके दुःखको दूर करनेका भाव तथा चेष्टा करनेमें है, जिससे हमें प्रसन्नता ही होगी, दुःख नहीं। दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेपर हमारे पास शक्ति, योग्यता, पदार्थ आदि जो कुछ भी है, वह सब स्वतः दूसरेका दुःख दूर करनेमें लग जायगा। दुःखी व्यक्तिको सुखी बना देना तो हमारे हाथकी बात नहीं है, पर उसका दुःख दूर करनेके लिये अपनी सुख-सामग्रीको उसकी सेवामें लगा देना हमारे हाथकी बात है। सुख-सामग्रीके त्यागसे तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है। सेवा करनेका अर्थ है--सुख पहुँचाना। साधकका भाव 'मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्' (किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो) होनेसे वह सभीको सुख पहुँचाता है अर्थात् सभीकी सेवा करता है। साधक भले ही सबको सुखीन कर सके, पर वह ऐसा भाव तो बना ही सकता है। भाव बनानेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं। इसलिये सेवा-करनेमें धनादि पदार्थोंकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत सेवा-भावकी ही आवश्यकता है। क्रियाएँ और पदार्थ चाहे जितने हों, सीमित ही होते हैं। सीमित क्रियाओं और पदार्थोंसे सेवा भी सीमित ही होती है; फिर सीमित सेवासे असीम तत्त्व-(परमात्मा-) की प्राप्ति कैसे हो सकती है? परन्तु भाव असीम होता है। असीमभावसे सेवा भी असीम होती है और असीम सेवासे असीम तत्त्वकी प्राप्ति होती है। इसलिये सेवा-भाववाले व्यक्तिकी क्रियाएँ और पदार्थ कम होनेपर भी उसकी सेवा कम नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि उसका भाव असीम होता है।यद्यपि साधकके कर्तव्य-पालनका क्षेत्र सीमित ही होता है, तथापि उसमें जिन-जिनसे उसका व्यवहार होताहै, उनमें वह सुखीको देखकर सुखी एवं दुःखीको देखकर दुःखी होता है। पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको जो अपना नहीं मानता, वही दूसरोंके सुखमें सुखी एवं दुःखमें दुःखी हो सकता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि अपने और अपने लिये हैं ही नहीं--यह वास्तविकता है। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, सामर्थ्य आदि कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है। इन पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनका त्याग प्रत्येक मनुष्य कर सकता है, चाहे वह दरिद्र-से-दरिद्र हो अथवा धनी-से-धनी, पढ़ा-लिखा हो अथवा अनपढ़। इस त्यागमें सब-के-सब स्वाधीन तथा समर्थ हैं।सच्चे सेवककी वृत्ति नाशवान् वस्तुओंपर जाती ही नहीं; क्योंकि उसके अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व नहीं होता। अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व होनेपर ही वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) प्रतीत होती हैं। साधकको चाहिये कि वह पहलेसे ही ऐसा मान ले कि वस्तुएँ मेरी नहीं हैं और मेरे लिये भी नहीं हैं। वस्तुओंको अपनी और अपने लिये माननेसे भोग ही होता है, सेवा नहीं। इस प्रकार वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर सेव्यकी ही मानते हुए सेवामें लगा देनेसे राग-द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं।'तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ'-- पारमार्थिक मार्गमें राग-द्वेष ही साधककी साधन-सम्पत्तिको लूटनेवाले मुख्य शत्रु हैं। परन्तु इस ओर प्रायः साधक ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि साधन करनेपर भी साधककी जितनी आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिये, उतनी होती नहीं। प्रायः साधकोंकी यह शिकायत रहती है कि मन नहीं लगता; पर वास्तवमें मनका न लगना उतना बाधक नहीं है, जितने बाधक राग-द्वेष हैं। इसलिये साधक को चाहिये कि वह मनकी एकाग्रताको महत्त्व न दे और जहाँ-जहाँ राग-द्वेष दिखायी दें वहाँ-वहाँसे उनको तत्काल हटा दे। राग-द्वेष हटानेपर मन लगना भी सुगम हो जायगा।स्वाभाविक कर्मोंका त्याग करना तो हाथकी बात नहीं है, पर उन कर्मोंको राग-द्वेषपूर्वक करना या न करना बिलकुल हाथकी बात है। साधक जो कर सकता है, वही करनेके लिये भगवान् आज्ञा देते हैं कि राग-द्वेष-युक्त स्फुरणा उत्पन्न होनेपर भी उसके अनुसार कर्म मत करो; क्योंकि वे दोनों ही पारमार्थिक मार्गके लुटेरे हैं। ऐसा करनेमें साधक स्वतन्त्र है। वास्तवमें राग-द्वेष स्वतः नष्ट हो रहे हैं, पर साधक उन राग-द्वेषको अपनेमें मानकर उन्हें सत्ता दे देता है और उसके अनुसार कर्म करने लगता है। इसी कारण वे दूर नहीं होते। यदि साधक राग-द्वेषको अपनेमें न मानकर उसके अनुसार कर्म न करे, तो वे स्वतः नष्ट हो जायँगे। सम्बन्ध-- राग-द्वेषके वशमें न होकर क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये-- इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.34।। इन्द्रियइन्द्रिय (अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.34।।तथापि शक्तितो निग्रहः कार्यः। निग्रहात्सद्यः प्रयोजनाभावेऽपि भवत्येवातिप्रयत्नत इत्याशयवानाह इन्द्रियस्येति। तथा ह्युक्तम् संस्कारो बलवानेष ब्रह्माद्या अपि तद्वशाः। तथापि सोऽन्यथाकर्तुं शक्यतेऽतिप्रयत्नतः इति।
Sri Anandgiri
।।3.34।।सर्वस्य भूतवर्गस्य प्रकृतिवशवर्तित्वे लौकिकवैदिकपुरुषकारविषयाभावाद्विधिनिषेधानर्थक्यमिति शङ्कते यदीति। ननु यस्य न प्रकृतिरस्ति तस्य पुरुषकारसंभवादर्थवत्त्वं तद्विषये विधिनिषेधयोर्भविष्यति नेत्याह नचेति। शङ्कितदोषं श्लोकेन परिहरति इदमित्यादिना। वीप्सायाः सर्वकरणागोचरत्वं दर्शयति सर्वेति। प्रत्यर्थं रागद्वेषयोरव्यवस्थायाः प्राप्तौ प्रत्यादिशति इष्ट इति। प्रतिविषयं विभागेन तयोरन्यतरस्यावश्यकत्वेऽपि पुरुषकारविषयाभावप्रयुक्त्या प्रागुक्तं दूषणं कथं समाधेयमित्याशङ्क्याह तत्रेति। तयोरित्याद्यवतारितं भागं विभजते शास्त्रार्थ इति। प्रकृतिवशत्वाज्जन्तोर्नैव नियोज्यत्वमित्याशङ्क्याह या हीति। रागद्वेषद्वारा प्रकृतिवशवर्तित्वे स्वधर्मत्यागादि दुर्वारमित्युक्तम् इदानीं विवेकविज्ञानेन रागादिनिवारणे शास्त्रीयदृष्ट्या प्रकृतिपारवश्यं परिहर्तुं शक्यमित्याह यदेति। मिथ्याज्ञाननिबन्धनौ हि रागद्वेषौ तत्प्रतिपक्षत्वं विवेकविज्ञानस्य मिथ्याज्ञानविरोधित्वादवधेयम्। रागद्वेषयोर्मूलनिवृत्त्या निवृत्तौ प्रतिबन्धध्वंसे कार्यसिद्धिमभिसंधायोक्तं तदेति। एवकारस्यान्ययोगव्यवच्छेदकत्वं दर्शयति नेति। पूर्वोक्तं नियोगमुपसंहरति तस्मादिति। तत्र हेतुमाह यत इति। हिशब्दोपात्तो हेतुर्यत इति प्रकटितः स च पूर्वेण तच्छब्देन संबन्धनीयः। पुरुषपरिपन्थित्वमेव तयोः सोदाहरणं स्फोरयति श्रेयोमार्गस्येति।
Sri Vallabhacharya
।।3.34।।नन्वेवं सति विधिनिषेधवैयर्थ्यं प्रकृत्यधीनत्वात्सर्वस्येत्याशङ्क्याह इन्द्रियस्येति। न हि विधिनिषेधौ तत्त्वज्ञात्यन्ताज्ञयोः प्रवर्त्तकौ अविषयत्वात्। किन्तु मध्यमस्येति इन्द्रियरसवानेवाधिकारीति तस्य प्रतीन्द्रियार्थं रागद्वेषावन्तरस्वकृतौ व्यवस्थितौ तदनधीनत्वमेव सिद्धिहेतुरिति अतस्तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ विवेकवित्तस्य कुपथप्रापकौ प्रसभं घातकावित्यर्थः।
Sridhara Swami
।।3.34।।नन्वेवं प्रकृत्यधीनैव चेत्पुरुषस्य प्रवृत्तिः तर्हि विधिनिषेधवैयर्थ्यं प्राप्तमित्याशङ्क्याह इन्द्रियस्येन्द्रियस्येति। वीप्सया प्रत्येकं सर्वेषामिन्द्रियाणामित्युक्तम्। अर्थे स्वस्वविषयेऽनुकूले रागः प्रतिकूले द्वेषश्चेत्येवं रागद्वेषौ व्यवस्थिताववश्यंभाविनौ। ततश्च तदनुरूपा प्रवृत्तिरिति भूतानां प्रकृतिः तथापि तयोर्वशवर्ती न भवेदिति शास्त्रेण नियम्यते। हि यस्मादस्य मुमुक्षोस्तौ परिपन्थिनौ प्रतिपक्षौ। अयं भावः। विषयस्मरणादिना रागद्वेषावुत्पाद्यानवहितं पुरुषमनर्थेऽपि गम्भीरे स्रोतसीव प्रकृतिर्बलात्प्रवर्तयति शास्त्रं तु ततः प्रागेव विषयेषु रागद्वेषप्रतिबन्धके परमेश्वरभजनादौ प्रवर्तयति। गम्भीरस्रोतःपातात्पूर्वमेव नावमाश्रित इव नानर्थं प्राप्नोतीति।