Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 32 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् | सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ||३-३२||
Transliteration
ye tvetadabhyasūyanto nānutiṣṭhanti me matam . sarvajñānavimūḍhāṃstānviddhi naṣṭānacetasaḥ ||3-32||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.32 But those who carp at My teaching and do not practise it, deluded of all knowledge, and devoid of discrimination, know them to be doomed to destruction.
।।3.32।। परन्तु जो दोष दृष्टि वाले मूढ़ लोग इस मेरे मत का पालन नहीं करते, उन सब ज्ञानों में मोहित चित्तवालों को नष्ट हुये ही तुम समझो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In a professional context, this means actively listening to expert advice, adopting proven methodologies, and adapting to new best practices rather than stubbornly sticking to outdated methods or critiquing new approaches without giving them a fair trial. Failure to apply sound business principles or feedback from experienced mentors will inevitably lead to stagnation or failure.
🧘 For Stress & Anxiety
When dealing with mental health, it refers to those who dismiss therapeutic advice, mindfulness practices, or self-care strategies as 'woo-woo' or 'unnecessary' without genuine engagement. Refusing to practice recommended techniques or adopting a cynical attitude towards beneficial changes perpetuates suffering and prevents healing.
❤️ In Relationships
In relationships, this applies to individuals who constantly criticize their partner's constructive suggestions for improvement or dismiss established principles of healthy communication and respect. An unwillingness to internalize and practice empathy, compromise, or active listening, coupled with an arrogant dismissal of feedback, will inevitably lead to relational breakdown and isolation.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“To dismiss profound wisdom and fail to integrate it into action leads to spiritual blindness and inevitable downfall.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.32 ये those who? तु but? एतत् this? अभ्यसूयन्तः carping at? न not? अनुतिष्ठन्ति practise? मे My? मतम् teaching? सर्वज्ञानविमूढान् deluded of all knowledge? तान् them? विद्धि know? नष्टान् ruined? अचेतसः devoid of discrimination.Commentary The pigheaded people who are obstinate? who find fault with the teachings of the Lord and who do not practise them are certainly doomed to destruction. They are incorrigible and senseless persons indeed.
Shri Purohit Swami
3.32 But they who ridicule My word and do not keep it, are ignorant, devoid of wisdom and blind. They seek but their own destruction.
Dr. S. Sankaranarayan
3.32. But those who, finding fault, do not follow this doctrine of Mine-be sure that these men to be highly deluded in all [branches of] knowledge and to be lost and brainless.
Swami Adidevananda
3.32 But those who calumniate it, and those who do not practise this teaching of Mine - know them to be absolutely senseless and devoid of all knowledge, and therefore lost.
Swami Gambirananda
3.32 But those who, decaying [Finding fault where there is none.] this, do not follow My teaching, know them-who are deluded about all knoweldge [Knowledge concerning the alified and the un-alified Brahman.] and who are devoid of discrimination-to have gone to ruin.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.32।। भगवान् के उपदेश में दोष देखकर उसका पालन न करने से मनुष्य और भी अधिक मोहित हुआ अपनी ही हानि कर लेगा।जीवन के मार्ग को भली प्रकार समझ लेने पर ही मनुष्य को कर्ममय जीवन जीने के लिये उत्साहित किया जा सकता है। यदि मनुष्य पहले से किसी सिद्धांत की ही निन्दा में प्रवृत्त हो जाता है तो उस सिद्धांत के अनुरूप जीवन यापन की कोई सम्भावना ही नहीं रह जाती। कर्मयोग जीवन यापन का एक मार्ग है और उसके कल्याणकारी फल को प्राप्त करने के लिये हमें तदनुसार ही जीवन जीना होगा।अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर कर्म करना ही आदर्श जीवन है जिसके द्वारा मनुष्य को नित्य और महान् उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं। ऐसे जीवन का त्याग करने का अर्थ है अविवेक को निमन्त्रण देना और अन्त में स्वयं का नाश कराना।बुद्धि के कारण ही मनुष्य को प्राणि जगत् में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। बुद्धि में स्थित आत्मानात्मविवेक सत्य और मिथ्या का विवेक करने की क्षमता का सदुपयोग ही आत्मविकास का एकमात्र उपाय है। विवेक के नष्ट होने पर वह पशु के समान मन की प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवहार करने लगता है तथा मनुष्य जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता। यही उसका विनाश है।क्या कारण है कि लोग इस उपदेशानुसार कर्तव्य पालन नहीं करते भगवान् के उपदेश का उल्लंघन करने में उन्हें भय क्यों नहीं लगता इसका उत्तर है
Swami Ramsukhdas
3.32।। व्याख्या--'ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्'-- तीसवें श्लोकमें वर्णित सिद्धान्तके अनुसार चलनेवालोंके लाभका वर्णन इकतीसवें श्लोकमें करनेके बाद इस सिद्धान्तके अनुसार न चलनेवालोंकी पृथक्ता करने-हेतु यहाँ 'तु' पदका प्रयोग हुआ है।जैसे संसारमें सभी स्वार्थी मनुष्य चाहते हैं कि हमें ही सब पदार्थ मिलें, हमें ही लाभ हो, ऐसे ही भगवान् भी चाहते हैं कि समस्त कर्मोंको मेरे ही अर्पण किया जाय, मेरेको ही स्वामी माना जाय-- इस प्रकार मानना 'भगवान्' पर दोषारोपण करना है।कामनाके बिना संसारका कार्य कैसे चलेगा? ममताका सर्वथा त्याग तो हो ही नहीं सकता; राग-द्वेषादि विकारोंसे रहित होना असम्भव है-- इस प्रकार मानना भगवान्के 'मत' पर दोषारोपण करना है।भोग और संग्रहकी इच्छावाले जो मनुष्य शरीरादि पदार्थोंको अपने और अपने लिये मानते हैं और समस्त कर्म अपने लिये ही करते हैं, वे भगवान्के मतके अनुसार नहीं चलते। 'सर्वज्ञानविमूढान् तान्'-- जो मनुष्य भगवान्के मतका अनुसरण नहीं करते, वे सब प्रकारके सांसारिक ज्ञानों-(विद्याओं, कलाओं आदि-) में मोहित रहते हैं। वे मोटर ,हवाई जहाज, रेडियो, टेलीविजन आदि आविष्कारोंमें, उनके कला-कौशलको जाननेमें तथा नये-नये आविष्कार करनेमें ही रचे-पचे रहते हैं। जलपर तैरने, मकान आदि बनाने, चित्रकारी करने आदि शिल्प-कलाओंमें; मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदिकी जानकारी प्राप्त करनेमें तथा उनके द्वारा विलक्षण-विलक्षण चमत्कार दिखानेमें, देश-विदेशकी भाषाओं, लिपियों, रीति-रिवाजों, खान-पान आदिकी जानकारी प्राप्त करनेमें ही वे लगे रहते हैं। जो कुछ है, वह यही है-- ऐसा उनका निश्चय होता है (गीता 16। 11)। ऐसे लोगोंको यहाँ सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित कहा गया है। 'अचेतसः'--भगवान्के मतका अनुसरण न करने-वाले मनुष्योंमें सत्- असत्, सार-असार, धर्म-अधर्म, बन्धन-मोक्ष आदि पारमार्थिक बातोंका भी ज्ञान (विवेक) नहीं होता। उनमें चेतनता नहीं होती, वे पशुकी तरह बेहोश रहते हैं। वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त मूढ़ पुरुष होते हैं-- 'मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः' (गीता 9। 12)।'विद्धि नष्टान्'-- मनुष्य-शरीरको पाकर भी जो भगवान्के मतके अनुसार नहीं चलते, उन मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझना चाहिये। तात्पर्य है कि वे मनुष्य जन्म-मरणके चक्रमें ही पड़े रहेंगे। मनुष्यजीवनमें अन्तकालतक मुक्तिकी सम्भावना रहती है (गीता 8। 5)। अतः जो मनुष्य वर्तमानमें भगवान्के मतका अनुसरण नहीं करते, वे भी भविष्यमें सत्संग आदिके प्रभावसे भगवान्के मतका अनुसरण कर सकते हैं, जिससे उनकी मुक्ति हो सकती है। परन्तु यदि उन मनुष्योंका भाव जैसा वर्तमानमें है, वैसा ही भविष्यमें भी बना रहा तो उन्हें (भगवत्प्राप्तिसे वञ्चित रह जानेके कारण) नष्ट हुए ही समझना चाहिये। इसी कारणभगवान्ने ऐसे मनुष्योंके लिये 'नष्टान् विद्धि' पदोंका प्रयोग किया है। भगवान्के मतका अनुसरण न करनेवाला मनुष्य समस्त कर्म राग अथवा द्वेषपूर्वक करता है। राग और द्वेष--दोनों ही मनुष्यके महान शत्रु हैं-- 'तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ' (गीता 3। 34)। नाशवान् होनेके कारण पदार्थ और कर्म तो सदा साथ नहीं रहते, पर राग-द्वेषपूर्वक कर्म करनेसे मनुष्य तादात्म्य, ममता और कामनासे आबद्ध होकर बार-बार नीच योनियों और नरकोंको प्राप्त होता रहता है। इसीलिये भगवान्ने ऐसे मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझनेकी बात कही है।इकतीसवें और बत्तीसवें--दोनों श्लोकोंमें भगवान्ने कहा है कि मेरे सिद्धान्तके अनुसार चलनेवाले मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं और न चलनेवाले मनुष्योंका पतन हो जाता है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि मनुष्य भगवान्को माने या न माने, इसमें भगवान्का कोई आग्रह नहीं है; परन्तु उसे भगवान्के मत-(सिद्धान्त-) का पालन अवश्य करना चाहिये-- इसमें भगवान्की आज्ञा है। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो उसका पतन अवश्य हो जायगा। हाँ, यदि साधक भगवान्को मानकर उनके मतका अनुष्ठान करे तो भगवान् उसे अपने-आपको दे देंगे। परन्तु यदि भगवान्को न मानकर केवल उनके मतका अनुष्ठान करे तो भगवान् उसका उद्धार कर देंगे। तात्पर्य यह है कि भगवान्को माननेवालेको 'प्रेम'की प्राप्ति और भगवान्का मत माननेवालेको 'मुक्ति'की प्राप्ति होती है। सम्बन्ध-- भगवान्के मतके अनुसार कर्म न करनेसे मनुष्यका पतन हो जाता है-- ऐसा क्यों है? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.32।। परन्तु जो दोष दृष्टि वाले मूढ़ लोग इस मेरे मत का पालन नहीं करते, उन सब ज्ञानों में मोहित चित्तवालों को नष्ट हुये ही तुम समझो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.31 3.32।।फलमाह ये म इति। ये त्वेवं निवृत्तकर्मिणस्तेऽपि मुच्यन्ते ज्ञानद्वारा किम्वपरोक्षज्ञानिनः न तु साधनान्तरमुच्यते।निवृत्तादीनि कर्माणि ह्यपरोक्षेशदृष्टये। अपरोक्षेशदृष्टिस्तु मुक्तौ किञ्चिन्न मार्गते। सर्वं तदन्तराऽधाय मुक्तये साधनं भवेत्। न किञ्चिदन्तराधाय निर्वाणायापरोक्षदृक् इति ह्युक्तं नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अत एव समुच्चयनिमयो निराकृतः।
Sri Anandgiri
।।3.32।।भगवन्मताननुवर्तिनां प्रत्यवायित्वं प्रत्याययति ये त्विति। तद्विपरीतत्वं भगवन्मतानुवर्तिभ्यो वैपरीत्यंतदेव दर्शयति एतदित्यादिना। अभ्यसूयन्तस्तत्रासन्तमपि दोषमुद्भावयन्त इत्यर्थः। सर्वज्ञानानि सगुणनिर्गुणविषयाणि। प्रमाणप्रमेयप्रयोजनविभागतो विविधत्वम्।
Sri Vallabhacharya
।।3.32।।विपक्षे दोषमाह ये त्विति।
Sridhara Swami
।।3.32।।विपक्षे दोषमाह येत्विति। ये तु मे मतमीश्वरार्थं कर्म कर्तव्यमित्यनुशासनमभ्यसूयन्तो द्विषन्तो नानुतिष्ठन्ति तानचेतसो विवेकशून्यानतएव सर्वस्मिन्कर्मणि ब्रह्मविषये च यज्ज्ञानं तत्र विमूढान्नष्टान्विद्धि।