Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 30 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा | निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||३-३०||
Transliteration
mayi sarvāṇi karmāṇi saṃnyasyādhyātmacetasā . nirāśīrnirmamo bhūtvā yudhyasva vigatajvaraḥ ||3-30||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.30 Renouncing all actions in Me, with the mind centred in the Self, free from hope and egoism, and from (mental) fever, do thou fight.
।।3.30।। सम्पूर्ण कर्मों का मुझ में संन्यास करके, आशा और ममता से रहित होकर, संतापरहित हुए तुम युद्ध करो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach your work as a selfless offering, focusing on the quality of your effort and the task at hand, rather than being driven by promotions, recognition, or fear of failure. Maintain mindfulness and an inner alignment with your values while performing duties, detaching from specific outcomes and ego-driven validation. This fosters deep engagement and resilience.
🧘 For Stress & Anxiety
When facing overwhelming challenges or uncertainty, consciously release the need to control every outcome or predict the future. Practice letting go of ego-driven worries about how you are perceived or whether you will succeed or fail. By cultivating an inner focus and detachment, you can eliminate 'mental fever' (grief, sorrow, anxiety) and maintain equanimity amidst life's storms.
❤️ In Relationships
Engage with others with an attitude of unconditional giving and service, free from the expectation of reciprocation or personal gain. Let go of ego-based demands, the need to be 'right,' or seeking validation through others. Connect from a place of your authentic self, offering support and understanding without attachment to how others respond, fostering healthier and more fulfilling interactions.
daily_life
Undertake all daily activities, whether mundane or significant, with a spirit of mindful presence and selflessness. Do what needs to be done with excellence and integrity, focusing on your action and inner state, rather than obsessing over potential results or personal credit. This transforms routine into a spiritual practice and reduces daily friction.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Perform your duties with selfless dedication, centered in your true self, free from attachment to outcomes or ego, and maintain inner calm in the face of all challenges.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.30 मयि in Me? सर्वाणि all? कर्माणि actions? संन्यस्य renouncing? अध्यात्मचेतसा with the mind centred in the Self? निराशीः free from hope? निर्ममः free from egoism? भूत्वा having become युध्यस्व fight (thou)? विगतज्वरः free from (mental) fever.Commentary Surrender all the actions to Me with the thought? I perform all actions for the sake of the Lord.Fever means grief? sorrow. (Cf.V.10XVIII.66).
Shri Purohit Swami
3.30 Therefore, surrendering thy actions unto Me, thy thoughts concentrated on the Absolute, free from selfishness and without anticipation of reward, with mind devoid of excitement, begin thou to fight.
Dr. S. Sankaranarayan
3.30. Renouncing all actions in Me, with mind that concentrates on the Self; being free from the act of reesting and from the sense of possession; and [conseently being free from [mental] fever; you should fight.
Swami Adidevananda
3.30 Surrendering all your actions to Me with a mind focussed on the self, free from desire and selfishness, fight with the heat of excitement abated.
Swami Gambirananda
3.30 Devoid of the fever of the soul, engage in battle by dedicating all actions to Me, with (your) mind intent on the Self, and becoming free from expectations and egoism.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.30।। भगवान् का यह स्पष्ट मत था कि अर्जुन को युद्ध करना चाहिये। पाण्डव राजकुमार अर्जुन अभी उच्चस्तरीय ध्यान साधना के योग्य नहीं था। कर्म में वासना उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है और फिर उस वासना से कर्म में वृद्धि होती है। श्रीकृष्ण के कर्मयोग के उपदेशानुसार कर्माचरण करने पर पुरानी वासनाओं का क्षय तो होता ही है परन्तु अन्य नयी वासनायें भी उत्पन्न नहीं होतीं। अहंकार और स्वार्थ से रहित कर्म के आचरण के उस सिद्धान्त को ही यहां दूसरे शब्दों में बताया गया है।समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके जैसा कि हम देख चुके हैं यहाँ भी मुझ में शब्द से तात्पर्य शुद्ध परमात्मस्वरूप से है। श्रीकृष्ण का उपदेश है कि अर्जुन को भक्तिपूर्वक परमात्मा का स्मरण करते हुये (अध्यात्मचेतसा) समस्त कर्मों का संन्यास (अर्पण) परमात्मा में करना चाहिये। कर्मों के संन्यास का अर्थ अकर्मण्यता का जीवन नहीं समझना चाहिये। कर्मों से अहंकार और स्वार्थ का त्याग ही वास्तविक कर्मसंन्यास कहलाता है।सर्प की भयंकरता उसके विष में है। यदि उसके विषदन्त निकाल दिये जाँय तो वह भयानक सर्प किसी को हानि नहीं पहुँचा सकता। इसी प्रकार अहंकार और स्वार्थ के कारण ही कर्म बन्धन कारक होते हैं अन्यथा नहीं। यहाँ कर्मों के संन्यास से तात्पर्य उनके उत्प्रेरक दुष्प्रयोजनों के त्याग से है।आत्मस्वरूप ईश्वर के निरन्तर कीर्तिगान से उद्देश्यों की शुद्धता प्राप्त की जा सकती है। कीर्तिगान से हृदय दैवी भावनाओं से स्पन्दित हो उठता है। ऐसे व्यक्ति के कर्म सामान्य नहीं समझने चाहिये वरन् ईश्वर के संकल्प ही उस व्यक्ति के माध्यम से जगत् में व्यक्त होते हैं। परिच्छिन्न जीवभाव के स्थान पर पूर्णत्व का भाव दृढ़ होने पर वह व्यक्ति ईश्वरेच्छा को व्यक्त करने का सर्वोत्कृष्ट माध्यम बन जाता है।केवल निषिद्ध कर्मों का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। हमको उन आन्तरिक सद्गुणों का भी विकास करना चाहिये जिससे ईश्वर के संकल्पों का प्रवाह निर्वाध रूप से हमारे द्वारा प्रवाहित हो सके। इस का संकेत यहाँ निराशी और निर्मम इन शब्दों से किया गया है।इस श्लोक के सतही अध्ययन से भ्रमित होकर कोई इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि हिन्दू धर्म गतिशील जीवन का त्याग कर निराशा का जीवन जीने की शिक्षा देता है। परन्तु सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट होगा कि इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन के उच्चतर मनोवैज्ञानिक सत्य की ओर इंगित कर रहे हैं।निराशी आशा उस वस्तु या घटना की अपेक्षा है जो भविष्य काल में व्यक्त या प्राप्त होगी। आशा सदैव भविष्य के लिए होती है वर्तमान में नहीं।निर्मम अहंकार मूलक ममभाव और कुछ नहीं उन घटनाओं एवं उपलब्धियों की एक गठरी है जो भूतकाल में घटित हुई थीं। अत अहंकार भूतकाल की प्रतिच्छाया मात्र है और उसका अस्तित्त्व व्यतीत हुए काल के सन्दर्भ में ही है।आशा यदि अनुत्पन्न भविष्य का शिशु है तो अहंकार भूतकाल की हठीली स्मृति। आशा और अहंभाव में रहने का अर्थ है भविष्य और भूतकाल में ही जीना। दुख की बात यह है कि इन सबमें हम शक्तिशाली वर्तमान को खो देते हैं जबकि वर्तमान ही वह अवसर है जो कर्म करने आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्त करने के लिये हमें प्राप्त हुआ है। श्रीकृष्ण अर्जुन को आशा और ममभाव से रहित होकर कर्म करने का उपदेश देते हैं। भूत और भविष्य के विचारों में शक्ति का अपव्यय किये बिना वर्तमान का सदुपयोग करने के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचना इस श्लोक में दी गयी है।विचाराधीन यह श्लोक सभी दृष्टियों से अपने आप में पूर्ण है जिसे पढ़कर आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित रह जायेगा। यद्यपि अब तक के विवेचन को समझने से भूत और भविष्य के विचारों में होने वाले शक्ति के अपव्यय को हम रोक सकते हैं परन्तु वर्तमान में कार्य करते हुये अपनी क्षमता के क्षरण की संभावना रह सकती है। इसका कारण अनावश्यक रूप से व्याकुल और उत्तेजित होने का हमारा स्वभाव है। इस उत्तेजना को यहाँ ज्वर कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं कि समस्त कर्मों का संन्यास परमात्मा में करके आशा और ममता से रहित होकर तथा मानसिक उत्तेजना का त्याग कर अर्जुन को युद्ध करना चाहिये। गीता के इस्ा सिद्धांत की परिपूर्णता इसके समस्त अध्येताओं को स्पष्ट जाती है।यहाँ युद्ध करने से तात्पर्य जीवन संघर्षों में आने वाली समस्त परिस्थितियों का सामना करने से है। अत यह उपदेश केवल अर्जुन के लिये ही नहीं बल्कि उन सभी के लिये हैं जो बुद्धिमत्तापूर्वक पूर्ण रूप से अपना जीवन जीना चाहते हैं।कर्मयोग का सीमित अर्थ समझकर जिन्होंने वेदों का अध्ययन किया है उन्हें इस श्लोक में दिया उपदेश पारम्परिक प्रतीत होगा।अपनी पीढ़ी के द्वारा इस उपदेश के स्वीकृत होने पर उसके प्रचारार्थ भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
3.30।। व्याख्या--'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा'-- प्रायः साधकका यह विचार रहता है कि कर्मोंसे बन्धन होता है और कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं; इसलिये कर्म करनेसे तो मैं बँध जाऊँगा! अतः कर्�� किस प्रकार करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धनकारक न हों, प्रत्युत मुक्तिदायक हो जायँ-- इसके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू अध्यात्मचित्त-(विवेक-विचारयुक्त अन्तःकरण-) से सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण कर दे अर्थात् इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान। कारण कि वास्तवमें संसार-मात्रकी सम्पूर्ण क्रियाओंमें केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है। शरीर, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है। इसलिये 'सब कुछ भगवान्का है और भगवान् अपने हैं'-- गम्भीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्वव्य-कर्म करेगा, तब वे कर्म तेरेको बाँधनेवाले नहीं होंगे, प्रत्युत उद्धार करनेवाले हो जायँगे। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिपर अपना कोई अधिकार नहीं चलता-- यह मनुष्यमात्रका अनुभव है। ये सब प्रकृतिके हैं-- 'प्रकृतिस्थानि' और 'स्वयं 'परमात्माका है-- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7)। अतः शरीरादि पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनको हटाकर इनको भगवान्का ही मानना (जो कि वास्तवमें है) 'अर्पण' कहलाता है। अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मोंसे मूर्खतावश माने हुए सम्बन्धका त्याग करना ही अर्पण करनेका तात्पर्य है।'अध्यात्मचेतसा' पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्गका साधक हो, उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये, लौकिक नहीं। वास्तवमें उद्देश्य या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्वकी (आध्यात्मिक) होती है और कामना सदैव अनित्यतत्त्व (उत्पत्ति विनाशशील वस्तु) की होती है। साधकमें उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं। उद्देश्यवाला अन्तःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है।दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक, किसी भी दृष्टिसे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ अपने हैं। वास्तवमें ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत केवल सदुपयोग करनेके लिये मिले हुए हैं। अपने न होनेके कारण ही इनपर किसीका आधिपत्य नहीं चलता।संसारमात्र परमात्माका है; परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धनमें पड़ जाता है। अतः विवेक-विचारके द्वारा इस भूलको मिटाकर सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंको अध्यात्मतत्त्व(परमात्मा) का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्तके द्वारा उनका अर्पण करना है।इस श्लोकमें 'अध्यात्मचेतसा' पद मुख्यरूपसे आया है। तात्पर्य यह है कि अविवेकसे ही उत्पत्ति-विनाशशील शरीर (संसार) अपना दीखता है। यदि विवेक-विचार-पूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दीखेगा। संसारको अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान है--'द्वयक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।' ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्।। (महा0 शान्ति0 13। 4 आश्वमेधिक0 51। 29) 'दो अक्षरोंका 'मम' (यह मेरा है-- ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरोंका 'न मम' (यह मेरा नहीं है--ऐसा भाव) अमृत--सनातन ब्रह्म है।' अर्पणसम्बन्धी विशेष बात भगवान्ने 'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य' पदोंसे सम्पूर्ण कर्मोंको अर्पण करनेकी बात इसलिये कही है कि मनुष्यने करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण), उपकरण (कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री) तथा क्रियाओंको भूलसे अपनी और अपने लिये मान लिया, जो कभी इसके थे नहीं हैं, नहीं होंगे नहीं और हो सकते भी नहीं। उत्पत्ति-विनाशवाली वस्तुओंसे अविनाशीका क्या सम्बन्ध? अतः कर्मोंको चाहे संसारके अर्पण कर दे, चाहे प्रकृतिके अर्पण कर दे और चाहे भगवान्के अर्पण कर दे-- तीनोंका एक ही नतीजा होगा; क्योंकि संसार प्रकृतिका कार्य है और भगवान् प्रकृतिके स्वामी हैं। इस दृष्टिसे संसार और प्रकृति दोनों भगवान्के हैं। अतः 'मैं भगवान्का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवान्की हैं' इस प्रकार सब कुछ भगवान्के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये। ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान्से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान् स्वतः करते हैं। अपर्ण करनेके बाद फिर शरीरादि पदार्थ अपने प्रतीत नहीं होने चाहिये। यदि अपने प्रतीत होते हैं तो वास्तवमें अर्पण हुआ ही नहीं। इसीलिये भगवान्ने विवेक-विचारयुक्त चित्तसे अर्पण करनेके लिये कहा है, जिससे यह वास्तविकता ठीक तरहसे समझमें आ जाय कि ये पदार्थ भगवान्के ही हैं, अपने हैं ही नहीं।भगवान्के अर्पणकी बात ऐसी विलक्षण है कि किसी तरहसे (उकताकर भी) अर्पण किया जाय तो भी लाभ-ही-लाभ है। कारण कि कर्म और वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं। कर्मोंको करनेके बाद भी उनका अर्पण किया जा सकता है, पर वास्तविक अर्पण पदार्थों और कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होता है। पदार्थों और कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होता है, जब यह बात ठीक-ठीक अनुभवमें आ जाय कि करण (शरीरादि), उपकरण (सांसारिक पदार्थ), कर्म और 'स्वयं'--ये सब भगवान्के ही हैं। साधकसे प्रायः यह भूल होती है कि वह उपकरणोंको तो भगवान्का माननेकी चेष्टा करता है, पर 'करण तथा स्वयं भीभगवान्के हैं'-- इसपर ध्यान नहीं देता। इसीलिये उसका अर्पण अधूरा रह जाता है। अतः साधकको करण, उपकरण, क्रिया और 'स्वयं'-- सभीको एकमात्र भगवान्का ही मान लेना चाहिये, जो वास्तवमें उन्हींके हैं।कर्मों और पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना अर्पण नहीं है। भगवान्की वस्तुको भगवान्की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए भगवान्के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान् बहुत वस्तुएँ देते हैं; जैसे --पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है। परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवान्की हीमानते हुए) भगवान्के अर्पण करता है, भगवान् उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं। तात्पर्य है कि वस्तुको अपनी मानकर देनेसे (अन्तःकरणमें वस्तुका महत्त्व होनेसे) उस वस्तुका मूल्य वस्तुमें ही मिलता है और अपनी न मानकर देनेसे स्वयं भगवान् मिलते हैं।वास्तविक अर्पणसे भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्पण करनेसे भगवान्को कोई सहायता मिलती है; परन्तु अर्पण करनेवाला कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है और इसीमें भगवान्की प्रसन्नता है। जैसे छोटा बालक आँगनमें पड़ी हुई चाबी पिताजीका सौंप देता है तो पिताजी प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि छोटा बालक भी पिताजीका है, आँगन भी पिताजीका है और चाबी भी पिताजीकी है, पर वास्तवमें पिताजी चाबीके मिलनेसे नहीं, प्रत्युत बालकका (देनेका) भाव देखकर प्रसन्न होते हैं और हाथ ऊँचा करके बालकसे कहते हैं कि तू इतना बड़ा हो जा! अर्थात् उसे अपनेसे भी ऊँचा (बड़ा) बना लेते हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ, शरीर तथा शरीरी (स्वयं) भगवान्के ही हैं; अतः उनपरसे अपनापन हटाने और उन्हें भगवान्के अर्पण करनेका भाव देखकर ही वे (भगवान्) प्रसन्न हो जाते हैं और उसके ऋणी हो जाते हैं।कामनासम्बन्धी विशेष बातपरमात्माने मनुष्य-शरीरकी रचना बड़े विचित्र ढंगसे की है। मनुष्यके जीवन-निर्वाह और साधनके लिये जो-जो आवश्यक सामग्री है, वह उसे प्रचुर मात्रामें प्राप्त है। उसमें भगवत्प्रदत्त विवेक भी विद्यमान है। उस विवेकको महत्त्व न देकर जब मनुष्य प्राप्त वस्तुओंका ठीक-ठीक सदुपयोग नहीं करता, प्रत्युत उन्हें अपना मानकर अपने लिये उनका उपयोग करता है एवं प्राप्त वस्तुओंमें ममता तथा अप्राप्त वस्तुओंकी कामना करने लगता है, तब वह जन्म-मरणके बन्धनमें बँध जाता है। वर्तमानमें जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, योग्यता, शक्ति, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्रा��, बुद्धि आदि मिले हुए दीखते हैं, वे पहले भी हमारे पास नहीं थे और बादमें भी सदा हमारे पास नहीं रहेंगे; क्योंकि वे कभी एकरूप नहीं रहते, प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इस वास्तविकताको मनुष्य जानता है। यदि मनुष्य जैसा जानता है, वैसा ही मान ले और वैसा ही आचरणमें ले आये तो उसका उद्धार होनेमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है। जैसा जानता है, वैसा मान लेनेका तात्पर्य यह है कि शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने, उनके आश्रित न रहे और उन्हें महत्त्व देकर उनकी पराधीनता स्वीकार न करे। पदार्थोंको महत्त्व देना महान् भूल है। उनकी प्राप्तिसे अपनेको कृतार्थ मानना महान् बन्धन है। नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही उनकी नयी-नयी कामनाएँ उत्पन्न होती हैं। कामना सम्पूर्ण पापों, तापों, दुःखों ,अनर्थों, नरकों आदिकी जड़ है। कामनासे पदार्थ मिलते नहीं और प्रारब्धवशात् मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। कारण कि पदार्थ आने-जानेवाले हैं और 'स्वयं' सदा रहनेवाला है। अतः कामनाका त्याग करके मनुष्यको कर्तव्य-कर्मका पालन करना चाहिये।यहाँ शङ्का हो सकती है कि कामनाके बिना कर्मोंमें प्रवृत्ति कैसे होगी? इसका समाधान यह है कि कामनाकी पूर्ति और निवृत्ति--दोनोंके लिये कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है। साधारण मनुष्य कामनाकी पूर्तिके लिये कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं और साधक आत्मशुद्धि-हेतु कामनाकी निवृत्तिके लिये (गीता 5। 11)। वास्तवमें कर्मोंमें प्रवृत्ति कामनाकी निवृत्तिके लिये ही है, कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं। मनुष्य-शरीर उद्देश्यकी पूर्ति के लिये ही मिला है। उद्देश्यकी पूर्ति होनेपर कुछ भी करना शेष नहीं रहता। कामना-पूर्तिके लिये कर्मोंमें प्रवृत्ति उन्हीं मनुष्योंकी होती है, जो अपने वास्तविक उद्देश्य (नित्यतत्त्व परमात्माकी प्राप्ति) को भूले हुए हैं। ऐसे मनुष्योंको भगवान्ने 'कृपण' (दीन या दयाका पात्र) कहा है-- 'कृपणाः फलहेतवः' (गीता 2। 49)। इसके विपरीत जो मनुष्य उद्देश्यको सामने रखकर (कामनाकी निवृत्तिके लिये) कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं, उन्हें भगवान्ने 'मनीषी' (बुद्धिमान् या ज्ञानी) कहा है-- 'फलं त्यक्त्वा मनीषिणः' (गीता 2।51)। सेवा, स्वरूप-बोध और भगवत्प्राप्तिका भाव उद्देश्य है, कामना नहीं। नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्तिका भाव ही कामना है। अतः कामनाके बिना कर्मोंमें प्रवृत्ति नहीं होती--ऐसा मानना भूल है। उद्देश्यकीपूर्तिके लिये भी कर्म सुचारुरूपसे होते हैं।अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर संसार-(जडता-) से अपना सम्बन्ध मान लेनेसे ही आवश्यकता और कामना--दोनोंके उत्पत्ति होती है। संसारसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग होनेपर आवश्यकताकी पूर्ति और कामनाकी निवृत्ति हो जाती है। 'निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः' सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थों-(कर्मसामग्री-) को भगवदर्पण करनेके बाद भी कामना, ममता और सन्तापका कुछ अंश शेष रह सकता है। उदाहरणार्थ-- हमने किसीको पुस्तक दी। उसे वह पुस्तक पढ़ते हुए देखकर हमारे मनमें ऐसा भाव आ जाता है कि वह मेरी पुस्तक पढ़ रहा है। यही आंशिक ममता है, जो पुस्तक अर्पण करनेके बाद भी शेष है। इस अंशका त्याग करनेके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू नयी वस्तुकी 'कामना' मत कर, प्राप्त वस्तुमें 'ममता' मत कर, और नष्ट वस्तुका 'संताप' मत कर। सब कुछ मेरे अर्पण करनेकी कसौटी यह है कि कामना, ममता और संतापका अंश भी न रहे।जिन साधकोंको सब कुछ भगवदर्पण करनेके बाद भी पूर्वसंस्कारवश शरीरादि पदार्थोंकी कामना, ममता तथा संताप दीखते हैं, उन्हें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि जिसमें कामना दीखती है, वही कामनारहित होता है; जिसमें ममता दीखती है, वही ममतारहित होता है और जिसमें संताप दीखता है वही संतापरहित होता है। इसी प्रकार जो देहको 'अहम्' (मैं) मानता है, वही विदेह (अहंतारहित) होता है। अतः मनुष्यमात्र कामना, ममता और संताप-रहित होनेका पूरा अधिकारी है।गीतामें 'ज्वर' शब्द केवल यहीं आया है। युद्धमें कौटुम्बिक स्नेह आदिसे संताप होनेकी सम्भावना रहती है। अतः युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करते समय विशेष सावधान रहनेके लिये भगवान् 'विगतज्वरः' पद देकर अर्जुनसे कहते हैं कि तू सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर।अर्जुनके सामने युद्धके रूपमें कर्तव्य-कर्म था, इसलिये भगवान् 'युध्यस्व' पदसे उन्हें युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं। इसमें भगवान्का तात्पर्य युद्ध करनेसे नहीं, प्रत्युत कर्तव्य-कर्म करनेसे है। इसलिये समय-समयपर जो कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसे साधकको निष्काम, निर्मम तथा निःसंताप होकर भगवदर्पण-बुद्धिसे करना चाहिये। उसके परिणाम (सिद्ध या असिद्धि) की तरफ नहीं देखना चाहिये। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना 'विगतज्वर' होना है; क्योंकि अनुकूलतासे होनेवाली प्रसन्नता और प्रतिकूलतासे होनेवाली उद्विग्नता--दोनों ही ज्वर (संताप) हैं। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि विकार भी ज्वर हैं। संक्षेपमें राग-द्वेष, चिन्ता, उद्वेग, हलचल आदि जितनी भी मानसिक विकृतियाँ (विकार) हैं, वे सब ज्वर हैं और उनसे रहित होना ही 'विगतज्वरः' पदका तात्पर्य है।विशेष बातजब साधकका एकमात्र उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जाता है, तब उसके पास जो भी सामग्री (वस्तु, परिस्थिति आदि) होती है, वह सब साधनरूप (साधन-सामग्री) हो जाती है। फिर उस सामग्रीमें बढ़िया और घटिया-- ये दो विभाग नहीं होते। इसीलिये सामग्री जो है और जैसी है, वही और वैसी ही भगवान्के अर्पण करनी है। भगवान्ने जैसा दिया है, वैसा ही उन्हें वापस करना है।सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करनेके बाद भी अपनेमें जो कामना, ममता और संताप प्रतीत होते हैं, उन्हें भी भगवान्के अर्पण कर देना है। भगवान्के अर्पण करनेसे वह भगवन्निष्ठ हो जाता है। योगारूढ़ होनेमें कर्म करना ही हेतु कहा जाता है--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' (गीता 6। 3)। कारण कि कर्तव्य-कर्म करनेसे ही साधकको पता लगता है कि मुझमें क्या और कहाँ कमी (कामना, ममता आदि) है? (टिप्पणी प0 170) इसीलिये बारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें ध्यानकी अपेक्षा कर्मफल-त्याग-(कर्मयोग-) को श्रेष्ठ कहा गया है; क्योंकि ध्यानमें साधककी दृष्टि विशेषरूपसे मनकी चञ्चलतापर ही रहती है और वह ध्येयमें मन लगनेमात्रसे ध्यानकी सफलता मान लेता है। परन्तु मनकी चञ्चलताके अतिरिक्त दूसरी कमियों-(कामना ,ममता आदि-) की ओर उसकी दृष्टि तभी जाती है, तब वह कर्म करता है। इसलिये भगवान् प्रस्तुत श्लोकमें 'युध्यस्व' पदसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।जैसे दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी थी ऐसे ही यहाँ (तीसवें श्लोकमें) निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। जब युद्ध-जैसा घोर (क्रूर) कर्म भी समभावसे किया जा सकता है, तब ऐसा कौन-सा दूसरा कर्म है, जो समभावसे न किया जा सकता हो? समभाव तभी होता है, जब 'शरीर मैं नहीं मेरा नहीं, और मेरे लिये नहीं' ऐसा भाव हो जाय, जो कि वास्तवमें है।कर्तव्य-कर्मका पालन तभी सम्भव है, जब साधकका उद्देश्य संसारका न होकर एकमात्र परमात्माका हो जाय। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधक ज्यों-ज्यों कर्तव्य-परायण होता है ,त्यों-ही-त्यों कामना, ममता, आसक्ति आदि दोष स्वतः मिटते चले जाते हैं और समतामें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता जाता है। समतामें अपनी स्थितिका पूर्ण अनुभव होते ही कर्तापन सर्वथा मिट जाता है और उद्देश्यके साथ एकता हो जाती है। यह नियम है कि अपने लिये कुछ भी पाने या करनेकी इच्छा न रहनेपर 'अहम्' (व्यक्तित्व) स्वतः नष्ट हो जाता है।अर्जुन श्रेय (कल्याण) तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मसे हटकर। इसलिये अर्जुनके द्वारा अपना श्रेय पूछनेपर भगवान् उन्हें युद्धरूप कर्तव्यकर्म करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि भगवान्के मतानुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे अर्थात् कर्मयोगसे भी श्रेयकी प्राप्ति होती है और ज्ञानयोग एवं भक्तियोगसे भी होती है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें अपना मत (सिद्धान्त) बताकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें अपने मतकी पुष्टि करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.30।। सम्पूर्ण कर्मों का मुझ में संन्यास करके, आशा और ममता से रहित होकर, संतापरहित हुए तुम युद्ध करो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.30।।अतः सर्वाणि कर्माणि मय्येव सन्न्यस्य भ्रान्त्या जीवेऽध्यारोपितानि मय्येव विसृज्य भगवानेव सर्वाणि कर्माणि करोतीति मत्पूजेति च आत्मानं मामधिकृत्य यच्चेतस्तदध्यात्मचेतः। सन्न्यासस्तु भगवान्करोतीति। निर्ममत्वं नाहं करोमीति।
Sri Anandgiri
।।3.30।।यद्यपि कर्मण्यज्ञोऽधिक्रियते तथापि मोक्ष्यमाणेन तेन कर्म त्यक्तव्यं मोक्षस्य कर्मासाध्यत्वान्नतु तेन कर्म कर्तुं शक्यं कर्मणः सापेक्षितविरोधित्वादिति शङ्कते कथमिति। श्लोकेनोत्तरमाह उच्यत इति। यथोक्ते परस्मिन्नात्मनि सर्वकर्मणां समर्पणे कारणमाह अध्यात्मेति। विवेकबुद्धिमेव व्याकरोति अहमिति। दर्शितरीत्या कर्मसु प्रवृत्तस्य कर्तव्यान्तरमाह किञ्चेति। त्यक्ताशीः फलप्रार्थनाहीनः सन्नित्यर्थः। निर्ममो भूत्वा पुत्रभ्रात्रादिष्विति शेषः। ननु युद्धे नियोगो नोपपद्यते पुत्रभ्रात्रादिहिंसात्मनस्तस्य संतापहेतोर्नियोगविषयत्वायोगादिति तत्राह विगतेति।
Sri Vallabhacharya
।।3.30।।स्वमतमुपदिशति मयीति। साङ्ख्यचेतसा सर्वकर्माणि मयि मुख्ये साक्षात्कर्त्तरि परदेवतायां सन्न्यस्य समर्प्यानुसन्धाय वा युद्ध्यस्व। कर्मत्यागे हि दण्डिपुरुषं त्यजेतिवत् विशेषणविषयक एव त्यागः न तु विशेष्यविषयक इति तदाह निराशीरिति। तत्फलविषयकस्त्यागः निर्मम इति ममताविषयकः विगतज्वर इति कर्तृत्वविषयक इति त्रिविधस्त्यागः कर्मणि प्रकीर्तितः। यथोक्तं निबन्धेसाङ्ख्येऽपि भगवच्चित्ते फलमेतन्न चान्यथा। समर्पणात्कर्मणां च सिद्धिर्भवति नान्यथा इति।
Sridhara Swami
।।3.30।।तदेवं तत्त्वविदापि कर्म कर्तव्यं त्वं तु नाद्यापि तत्त्ववित् अतः कर्मैव कुर्वित्याह मयीति। सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य समर्प्याध्यात्मचेतसान्तर्याम्यधीनोऽहं करोमीति दृष्ट्या निराशीर्निष्कामोऽतएव मत्फलसाधनं मदर्थमिदं कर्मेत्येवं ममताशून्यश्च भूत्वा विगतज्वरस्त्यक्तशोकश्च भूत्वा युध्यस्व।