Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 21 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Leadership by Example

Sanskrit Shloka (Original)

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः | स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||३-२१||

Transliteration

yadyadācarati śreṣṭhastattadevetaro janaḥ . sa yatpramāṇaṃ kurute lokastadanuvartate ||3-21||

Word-by-Word Meaning

यद्यत्whatsoever
आचरतिdoes
श्रेष्ठःthe best
तत्तत्that
एवonly
इतरःthe other
जनःpeople
सःhe (that great man)
यत्what
प्रमाणम्standard (authority
कुरुतेdoes
लोकःthe world (people)
तत्that

📖 Translation

English

3.21 Whatsoever a great man does, that the other men also do; whatever he sets up as the standard, that the world (mankind) follows.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.21।। श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण करते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Leaders and managers in the workplace must embody the values, work ethic, and integrity they expect from their teams. By consistently demonstrating diligence, ethical decision-making, and respectful communication, they set a powerful standard that shapes the organizational culture and inspires subordinates to follow suit. Mentors similarly guide their mentees through exemplary conduct and practice.

🧘 For Stress & Anxiety

When facing stress or mental health challenges, individuals can observe and emulate those who successfully manage similar pressures with grace and resilience. Choosing role models (whether public figures, spiritual guides, or personal acquaintances) who demonstrate healthy coping mechanisms, mindfulness, and positive outlooks can provide tangible examples to adopt, fostering better emotional regulation and reducing overall stress. Conversely, recognizing and avoiding negative influences is equally crucial.

❤️ In Relationships

In personal relationships, particularly within families or partnerships, one's actions serve as a primary model for others. Parents, for instance, teach their children about respect, empathy, and conflict resolution not just through words, but by consistently demonstrating these qualities in their own interactions. Similarly, partners set the tone for their relationship through their mutual kindness, honesty, and commitment, influencing the overall health and dynamic of the bond.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The actions and standards set by those in positions of influence profoundly shape the behavior and moral compass of society. Lead consciously, for others will follow.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.21 यद्यत् whatsoever? आचरति does? श्रेष्ठः the best? तत्तत् that? एव only? इतरः the other? जनः people? सः he (that great man)? यत् what? प्रमाणम् standard (authority? demonstration)? कुरुते does? लोकः the world (people)? तत् that? अनुवर्तते follows.Commentary Man is a social animal. He is an imitating animal too. He takes his ideas of right and wrong from those whom he regards as his moral superior. Whatever a great man follows? the same is considered as an authority by his followers. They try to follow him. They endeavour to walk in his footsteps.

Shri Purohit Swami

3.21 For whatever a great man does, others imitate. People conform to the standard which he has set.

Dr. S. Sankaranarayan

3.21. Whatsoever a great man does, other commoners do the same; whatever standard he sets up, the world follows that.

Swami Adidevananda

3.21 Whatever a great man does, other men also do. Whichever standard he sets, the world follows it.

Swami Gambirananda

3.21 Whatever a superior person does, another person does that very thing! Whatever he upholds as authority, an ordinary person follows that.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.21।। मनुष्य मूलत अनुकरण करने वाला प्राणी है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। इतिहास के किसी काल में भी समाज का नैतिक पुनरुत्थान हुआ है तो उस केवल राष्ट्र के नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों के आदर्शों के कारण। शिक्षकों के सद्व्यवहार से ही विद्यार्थियों को अनुशासित किया जा सकता है यदि किसी राष्ट्र का शासक भ्रष्ट और अत्याचारी हो तो निम्न पदों के अधिकारी सत्य और ईमानदार नहीं हो सकते। छोटे बालकों का व्यवहार पूर्णत उनके मातापिता के आचरण एवं संस्कृति द्वारा निर्भर और नियन्त्रित होता है।इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये भगवान् कर्माचरण के लिए अर्जुन के समक्ष एक और कारण प्रस्तुत करते हैं। यदि वह कर्म नहीं करता तो सम्भव है समाज के अधिकांश लोग भी स्वकर्तव्यपराङमुख हो जायेंगे और अन्त में परिणाम होगा जीवन में संस्कृति का ह्रास।अब आगे इस बात पर बल देने तथा अब तक दिये गये उपदेश का प्रभाव दृढ़ करने के लिए भगवान् स्वयं का ही उदाहरण देते हैं। यद्यपि भगवान् स्वयं नित्यमुक्त हैं तथापि तमोगुण और रजोगुण की बुराइयों में पड़ी तत्कालीन पीढ़ी को उसमें से बाहर निकालने के लिए वे स्वयं अनासक्त भाव से कुशलतापूर्वक कर्म करते हुये सभी के लिये एक आदर्श स्थापित करते हैं।अधर्म का सक्रिय प्रतिकार यह श्रीकृष्ण का सिद्धांत है। उनकी अहिंसा उस दिवास्वप्न देखने वाले कायर के समान नहीं थी जो अन्याय का प्रतिकार न करके संस्कृति का रक्षण करने में असमर्थ होता है। अब अर्जुन मन में कर्मयोग के विषय में कोई संदेह नहीं रह सकता था।यदि लोकसंग्रह के विषय में तुम्हें कोई शंका हो तो तुम मुझे क्यों नहीं देखते मेरे अनुसार तुम भी लोगों को अधर्म के मार्ग से निवृत्त कर उन्हें धर्म मार्ग में प्रवृत्त होने के लिये अपना आदर्श क्यों नहीं स्थापित करते

Swami Ramsukhdas

3.21।। व्याख्या--'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः'-- श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो संसार-(शरीरादि पदार्थों-) को और 'स्वयं'-(अपने स्वरूप-) को तत्त्वसे जानता है। उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, कुटुम्ब, जमीन आदि पदार्थ संसारके हैं, अपने नहीं। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ पुरुष त्याग, वैराग्य, प्रेम, ज्ञान, सद्गुण आदिको भी अपना नहीं मानता; क्योंकि उन्हें भी अपना माननेसे व्यक्तित्व पुष्ट होता है, जो तत्त्वप्राप्तिमें बाधक है। 'मैं त्यागी हूँ', 'मैं वैरागी हूँ', 'मैं सेवक हूँ', 'मैं भक्त हूँ' आदि भाव भी व्यक्तित्वको पुष्ट करनेवाले होनेके कारण तत्त्वप्राप्तिमें बाधक होते हैं। श्रेष्ठ पुरुषमें (जडताके सम्बन्धसे होनेवाला) 'व्यष्टि अहंकार' तो होता ही नहीं, और 'समष्टि अहंकार' व्यवहारमात्रके लिये होता है, जो संसारकी सेवामें लगा रहता है; क्योंकि अहंकार भी संसारका ही है (गीता 7। 4 13। 5)। संसारसे मिले हुए शरीर, धन, परिवार, पद, योग्यता, अधिकार आदि सब पदार्थ सदुपयोग करने अर्थात् दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही मिले हैं; उपभोग करने अथवा अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। जो इन्हें अपना और अपने लिये मानकर इनका उपभोग करता है, उसको भगवान् चोर कहते हैं-- 'यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः' (गीता 3। 12)। ये सब पदार्थ समष्टिके ही हैं, व्यष्टिके कभी किसी प्रकार नहीं। वास्तवमें इन पदार्थोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। श्रेष्ठ पुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ (संसारके होनेसे) स्वतः-स्वाभाविक संसारकी सेवामें लगते हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। 'देने' के भावसे समाजमें एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और 'लेने' के भावसे संघर्ष उत्पन्न होता है। 'देने' का भाव उद्धार करनेवाला और 'लेने' का भाव पतन करनेवाला होता है। शरीरको 'मैं', 'मेरा' अथवा 'मेरे लिये' माननेसे ही 'लेने' का भाव उत्पन्न होता है। शरीरसे अपना कोई सम्बन्ध न माननेके कारण श्रेष्ठ पुरुषमें 'लेने' का भाव किञ्चिन्मात्र भी नहीं होता। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली ही होती है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, चिन्तन आदिसे स्वतः लोगोंका हित होता है। इतना ही नहीं, उसके शरीरको स्पर्श करके बहनेवाली वायुतकसे लोगोंका हित होता है। ऐसे श्रेष्ठ पुरुष दो प्रकारके होते हैं-- (1) अवधूत कोटिके ओर (2) आचार्य कोटिके। अवधूत कोटिके श्रेष्ठ पुरुष अवधूतोंके लिये ही आदर्श होते हैं, साधारण जनताके लिये नहीं। परन्तु आचार्य कोटिके श्रेष्ठ पुरुष मनुष्यमात्रके लिये आदर्श होते हैं। यहाँ आचार्य कोटिके श्रेष्ठ पुरुषोंका वर्णन किया गया है, जिनके आचरण सदा शास्त्रमर्यादाके अनुकूल ही होते हैं। कोई देखे या न देखे, अहंता-ममता न रहनेके कारण उनके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्यका पालन होता है। जैसे, जंगलमें कोई पुष्प खिला और कुछ समयके बाद मुरझा गया और सूखकर गिर गया। उसे किसीने देखा नहीं, फिर भी उसने (चारों ओर) अपनी सुगन्ध फैलाकर दुर्गन्धका नाश किया ही है। इसी तरह श्रेष्ठ पुरुषसे (परहितका असीम भाव होनेके कारण) संसारमात्रका स्वाभाविक ही बहुत उपकार हुआ करता है, चाहे कोई समझे या न समझे। कारण यह है कि व्यक्तित्व (अहंता-ममता) मिट जानेके कारण भगवान्की उस पालन-शक्तिके साथ उसकी एकता हो जाती है जिसके द्वारा संसारमात्रका हित हो रहा है।जैसे एक ही शरीरके सब अङ्ग भिन्न-भिन्न होनेपर भी एक ही हैं (जैसे--किसी भी अङ्गमें पीड़ा होनेपर मनुष्य उसे अपनी पीड़ा मानता है), ऐसे ही संसारके सब प्राणी भिन्न-भिन्न होनेपर भी एक ही हैं। जैसे शरीरका कोई भी पीड़ित (रोगी) अङ्ग ठीक हो जानेपर सम्पूर्ण शरीरका हित होता है, ऐसे ही मर्यादामें रहकर प्राप्त वस्तु, समय ,परिस्थिति आदिके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण संसारका स्वतः हित होता है।श्रेष्ठ पुरुषके आचरणों और वचनोंका प्रभाव (स्थूलशरीरसे होनेके कारण) स्थूलरीतिसे पड़ता है जो सीमित होता है। परन्तु उसके भावोंका प्रभाव सूक्ष्मरीतिसे पड़ता है जो असीम होता है। कारण यह है कि क्रिया तो सीमित होती है पर भाव असीम होता है।श्रेष्ठ पुरुष जिन भावोंको अपने आचरणोंमें लाता है उन भावोंका दूसरे मनुष्योंपर बहुत प्रभाव पड़ता है। अपने वर्ण आश्रम सम्प्रदाय आदिके आचरणोंका अच्छी तरहसे पालन करनेके कारण उसके द्वारा कहे हुए वचनोंका दूसरे वर्ण आश्रम सम्प्रदाय आदिके लोगोंपर भी बहुत प्रभाव पड़ता है। यद्यपि श्रेष्ठ मनुष्य अपने लिये कोई आचरण नहीं करता और उसमें कर्तृत्वाभिमान भी नहीं होता तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह आचरण करता हुआ दीखनेके कारण यहाँ 'आचरति' क्रियाका प्रयोग हुआ है। उसके द्वारा सबके उपकारके लिये स्वतःस्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं। अपना कोई स्वार्थ न रहनेके कारण उसकी छोटीबड़ी प्रत्येक क्रिया लोगोंका स्वतः हित करनेवाली होती है। यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है 'तस्य कार्यं न विद्यते' (गीता 3। 17) और उसमें करनेका अभिमान भी नहीं है 'निर्ममो निरहंकारः' (गीता 2। 71) तथापि उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक सुचारुरूपसे कर्तव्यका पालन होता है। इस प्रकार उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक लोगसंग्रह होता है।'विशेष बात'प्रायः देखा जाता है कि जिस समाज, सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, आश्रम आदिमें जो श्रेष्ठ मनुष्य कहलाते हैं और जिनको लोग श्रेष्ठ मानकर आदरकी दृष्टिसे देखते हैं, वे जैसा आचरण करते हैं, उस समाज, सम्प्रदाय, जाति आदिके लोग भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं।अन्तःकरणमें धन और पदका महत्त्व एवं लोभ रहनेके कारण लोग अधिक धनवाले (लखपित, करोड़पति) तथा ऊँचे पदवाले (नेता, मन्त्री आदि) पुरुषोंको श्रेष्ठ मान लेते हैं और उन्हें बहुत आदरकी दृष्टिसे देखते हैं। जिनके अन्तःकरणमें जड वस्तुओं-(धन, पद आदि-) का महत्त्व है, वे मनुष्य वास्तवमें न तो स्वयं श्रेष्ठ होते हैं और न श्रेष्ठ व्यक्तिको समझ ही सकते हैं। जिसको वे श्रेष्ठ समझते हैं, वह भी वास्तवमें श्रेष्ठ नहीं होता। यदि उनके हृदयमें धनका अधिक आदर है तो उनपर अधिक धनवालोंका ही प्रभाव पड़ता है, जैसे--चोरपर चोरोंके सरदारका ही प्रभाव पड़ता है। वास्तवमें श्रेष्ठ न होनेपर भी लोगोंके द्वारा श्रेष्ठ मान लिये जानेके कारण उन धनी तथा उच्च पदाधिकारी पुरुषोंके आचरणोंका समाजमें स्वतः प्रचार हो जाता है। जैसे, धनके कारण जो श्रेष्ठ माने जाते हैं, वे पुरुष जिन-जिन उपायोंसे धन कमाते और जमा करते हैं, उन-उन उपायोंका लोगोंमें स्तवः प्रचार हो जाता है, चाहे वे उपाय कितने ही गुप्त क्यों न हों ! यही कारण है कि वर्तमानमें झूठ, कपट, बेईमानी, धोखा, चोरी आदि बुराइयोंका समाजमें, किसी पाठशालामें पढ़ाये बिना ही स्वतः प्रचार होता चला जा रहा है।यह दुःख और आश्चर्यकी बात है कि वर्तमानमें लोग लखपतिको श्रेष्ठ मान लेते हैं, पर प्रतिदिन भगवन्नामका लाख जप करनेवालेको श्रेष्ठ नहीं मानते। वे यह विचार ही नहीं करते कि लखपतिके मरनेपर एक कौड़ी भी साथ नहीं जायगी, जबकि भगवन्नामका जप करनेवालेके मरनेपर पूरा-का-पूरा भगवन्नामरूप धन उसके साथ जायगा, एक भी भगवान्नाम पीछे नहीं रहेगा! अपने-अपने स्थान या क्षेत्रमें जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं, उन अध्यापक, व्याख्यानदाता, आचार्य, गुरु, नेता, शासक, महन्त, कथावाचक, पुजारी आदि सभीको अपने आचरणोंमें विशेष सावधानी रखनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है, जिससे दूसरोंपर उनका अच्छा प्रभाव पड़े। इसी प्रकार परिवारके मुख्य व्यक्ति-(मुखिया-) को भी अपने आचरणोंमें पूरी सावधानी रखनेकी आवश्यकता है। कारण कि मुख्य व्यक्तिकी ओर सबकीदृष्टि रहती है। रेलगाड़ीके चालकके समान मुख्य व्यक्तिपर विशेष जिम्मेवारी रहती है। रेलगाड़ीमें बैठे अन्य व्यक्ति सोये भी रह सकते हैं, पर चालकको सदा जाग्रत् रहना पड़ता है। उसकी थोड़ी भी असावधानीसे दुर्घटना हो जानेकी सम्भावना रहती है। इसलिये संसारमें अपने-अपने क्षेत्रमें श्रेष्ठ माने जानेवाले सभी पुरूषोंको अपने आचरणोंपर विशेष ध्यान रखनेकी बहुत आवश्यकता है।'स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते'--जिसके अन्तःकरणमें कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष नहीं हैं और नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व या कुछ भी लेनेका भाव नहीं है, ऐसे मनुष्यके द्वारा कहे हुएवचनोंका प्रभाव दूसरोंपर स्वतः पड़ता है और वे उसके वचनानुसार स्वयं आचरण करने भी लग जाते हैं। यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब आचरणकी बात कह दी, तब प्रमाणके कहनेकी क्या आवश्यकता है और प्रमाणकी बात कहनेपर आचरणके कहनेकी क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है कि यद्यपि आचरण मुख्य होता है, तथापि एक ही मनुष्यके द्वारा सभी वर्णों, आश्रमों, सम्प्रदायों आदिके भावोंका आचरण करना सम्भव नहीं है। अतः श्रेष्ठ मनुष्य स्वयं जिस वर्ण आश्रम आदिमें है, उसके अनुसार तो वह साङ्गोपाङ्ग आचरण करता ही है और अन्य वर्ण, आश्रम सम्प्रदाय आदिके लोगोंके लिये भी वह अपने वचनोंसे शास्त्र, इतिहास आदिके प्रमाणसे यह शिक्षा देता है कि अपने लिये कुछ न करके, सम्पूर्ण प्राणियोंके हितके भावसे अपने-अपने (वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि के अनुसार) कर्तव्यका पालन करना कल्याणका सुगम और श्रेष्ठ साधन है (गीता 18। 45)। उसके वचनोंसे प्रभावित होकर दूसरे वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके लोग उसके कहे अनुसार अपने-अपने कर्तव्योंका पालन करने लग जाते हैं। यद्यपि आचरणका क्षेत्र सीमित और प्रमाण-(वचनों-) का क्षेत्र विस्तृत होता है, तथापि भगवान्के द्वारा श्रेष्ठ पुरुषके आचरणमें पाँच पद--'यत्' 'यत्' 'तत्' 'तत्' और (विशेषरूपसे) 'एव'देनेका अभिप्राय है कि उसके आचरणका प्रभाव समाजपर पाँच गुना (अधिक) पड़ता है और प्रमाणमें दो पद--'यत्' और 'तत्' देनेका अभिप्राय है कि प्रमाणका प्रभाव समाजपर केवल दो गुना (अपेक्षाकृत कम) पड़ता है। इसीलिये भगवान्ने बीसवें श्लोकमें लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यकर्मोंका पालन करनेपर ही विशेषरूपसे जोर दिया है।.यदि श्रेष्ठ मनुष्य स्वयं अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार आचरण न करके केवल प्रमाण दे, तो उसका लोगोंपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। उसमें लोगोंका ऐसा भाव हो सकता है कि ये बातें तो केवल कहने-सुननेकी हैं; क्योंकि कहनेवाला स्वयं भी तो अपने कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं कर रहा है। ऐसा भाव होनेपर लोगोंमें अपने कर्तव्यके प्रति अश्रद्धा और अरुचि होनेकी सम्भावना रहती है। इसलिये श्रेष्ठ पुरुष स्वयं आचरण करके और प्रमाण देकर--दोनों ही प्रकारसे लोगोंको अपने-अपने कर्तव्य-पालनमें लगाकर उनका हित करता है।श्रेष्ठ पुरुषके आचरणोंका अनुवर्तन (अनुसरण) वे ही लोग करते हैं, जो उसे श्रेष्ठ मानते हैं। अतः वास्तवमें श्रेष्ठ होनेपर भी अगर कोई मनुष्य उसे श्रेष्ठ नहीं मानता, तो वह उस श्रेष्ठ पुरुषके आचरणों और वचनोंके अनुसार आचरण नहीं कर सकेगा।वर्तमानमें पारमार्थिक (भगवत्सम्बन्धी) भावोंका प्रचार करनवाले बहुत-से पुरुषोंके होनेपर भी लोगोंपर उन भावोंका प्रभाव बहुत कम दिखायी देता है। इसका कराण यही है कि प्रायः वक्ता जैसा कहता है, वैसा स्वयं पूरा आचरण नहीं करता। स्वयं आचरण करके कही गयी बात गोलीसे भरी बन्दूकके समान है, जो गोलीके छूटनेपर आवाजके साथसाथ मार भी करती है। इसके विपरीत आचरणमें लाये बिना कही गयी बात केवल बारूदसे भरी बन्दूकके समान है जो केवल आवाज करके ही शान्त हो जाती है। हाँ, पारमार्थिक बातें ऐसे ही खत्म नहीं हो जातीं प्रत्युत कुछ-न-कुछ प्रभाव डालती ही हैं। भगवत्त्चर्चा कथाकीर्तन आदिका कुछ-न-कुछ प्रभाव सबपर पड़ता ही है। अगर सुननेवालोंमें श्रद्धा है और वे साधन करते हैं अथवा करना चाहते हैं, तो उनपर (अपनी श्रद्धा और साधनकी रुचिके कारण) वचनोंका प्रभाव अधिक पड़ता है।  सम्बन्ध--अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें अपना उदाहरण देकर लोकसंग्रहकी पुष्टि करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।3.21।। श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण करते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.21।।स यद्वाक्यादिकं प्रमाणीकुरुते यदुक्तप्रकारेण तिष्ठतीत्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।3.21।।ज्ञानवता कृतार्थेन लोकसंग्रहार्थमपि न प्रवर्तितव्यमित्याशङ्कामुत्थाप्य परिहरति लोकेत्यादिना। श्रुताध्ययनसंपन्नत्वेनाभिमतो यद्यद्विहितं प्रतिषिद्धं वा कर्मानुतिष्ठति तत्तदेव प्राकृतो जनोऽनुवर्तते तेन विद्यावतापि लोकमर्यादास्थापनार्थं विहितं कर्तव्यमित्यर्थः। श्रेष्ठानुसारित्वमितरेषामाचारे दर्शयित्वा प्रतिपत्तावपि दर्शयति किञ्चेति।

Sri Vallabhacharya

।।3.21।।यतः यद्यदिति।

Sridhara Swami

।।3.21।।कर्मकरणे लोकसंग्रहो यथा स्यात्तथाह यदिति। इतरः प्राकृतो जनः तत्तदेवाचरति। स श्रेष्ठो जनः कर्मशास्त्रं निवृत्तिशास्त्रं वा यत्प्रमाणं मन्यते तदेव लोकोऽप्यनुसरति।

Explore More