Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 18 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन | न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ||३-१८||
Transliteration
naiva tasya kṛtenārtho nākṛteneha kaścana . na cāsya sarvabhūteṣu kaścidarthavyapāśrayaḥ ||3-18||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.18 For him there is no interest whatever in what is done or what is not done; nor does he depend on any being for any object.
।।3.18।। इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, focus on performing your duties with excellence for the sake of the work itself, rather than solely for promotions, praise, or financial rewards. Cultivate self-motivation and find satisfaction in competence, becoming independent of external validation for your worth or job satisfaction. This fosters resilience against professional ups and downs.
🧘 For Stress & Anxiety
Alleviate stress by detaching from the outcomes of your efforts. Recognize that your inherent worth is not defined by success or failure, nor by others' opinions. This perspective reduces anxiety about performance, external expectations, and the need to constantly prove yourself, leading to greater inner peace and mental stability.
❤️ In Relationships
Build healthier relationships by practicing non-attachment and self-sufficiency. Engage with others without seeking to fulfill personal voids or depending on them for your happiness and validation. Give freely without expectation of return, fostering genuine connections based on mutual respect and love, rather than need or co-dependency.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True freedom and lasting contentment are found in cultivating inner independence, free from attachment to external actions, their results, or the validation of others.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.18 न not? एव even? तस्य of hi? कृतेन by action? अर्थः concern? न not? अकृतेन by actions not done? इह here? कश्चन् any? न not? च and? अस्य of this man? सर्वभूतेषु in all beings? कश्चित् any? अर्थव्यपाश्रयः depending for any object.Commentary The sage who is thus rejoicing in the Self does not gain anything by doing any action. For him really no purpose is served by an action. No evil (Pratyavaya Dosha) can touch him from inaction. He does not lose anything from inaction. He need not depend upon anybody to gain a particular object. He need not exert himself to get the favour of anybody.
Shri Purohit Swami
3.18 He has nothing to gain by the performance or non-performance of action. His welfare depends not on any contribution that an earthly creature can make.
Dr. S. Sankaranarayan
3.18. No purpose is served for him by what he has done or by what he has not done. For him there is hardly any dependenc on any purpose among all beings.
Swami Adidevananda
3.18 He has no purpose to gain by work done or left undone, nor has he to rely on any end.
Swami Gambirananda
3.18 For him there is no concern here at all with performing action; nor any (concern) with nonperformance. Moreover, for him there is no dependence on any object to serve any purpose.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.18।। सामान्य मनुष्य कर्म में दो कारणों से प्रवृत्त होता है (क) कर्म करने से (कृत) कुछ लाभ की आशा और (ख) कर्म न करने से (अकृत) किसी हानि का भय। परन्तु जिसने अपने परम पूर्ण आत्मस्वरूप को साक्षात् कर लिया ऐसे तृप्त और सन्तुष्ट पुरुष को कर्म करने अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता क्योंकि उसे न अधिक लाभ की आशा होती है और न हानि का भय। आत्मानुभूति में स्थित वह पुरुष आनन्द के लिये किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर आश्रित नहीं होता। परमार्थ दृष्टि से बाह्य विषय रूप जगत् आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। वास्तव में आत्मा ही अविद्या वृत्ति से जगत् के रूप में प्रतीत होता है।चूँकि तुमने समुद्र के समान पूर्णत्व प्राप्त नहीं किया है इसलिए
Swami Ramsukhdas
3.18।। व्याख्या--'नैव तस्य कृतेनार्थः'--प्रत्येक मनुष्यकी कुछ-न-कुछ करनेकी प्रवृत्ति होती है। जबतक यह करनेकी प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिके लिये होती है, तबतक उसका अपने लिये 'करना' शेष रहता ही है। अपने लियेकुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है। उस इच्छाकी निवृत्तिके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकता है।कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं। कामना-पूर्तिके लिये और कामना-निवृत्तिके लिये। साधारण मनुष्य तो कामना-पूर्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी कामना-निवृत्तिके लिये कर्म करता है। इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें कोई भी कामना न रहनेके कारण उसका किसी भी कर्तव्यसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थभावसे समस्त सृष्टिके हितके लिये स्वतः कर्तव्य-कर्म होते हैं।कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका कर्मोंसे अपने लिये (व्यक्तिगत सुख-आरामके लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस महापुरुषका यह अनुभव होता है कि पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि केवल संसारके हैं और संसारसे मिले हैं व्यक्तिगत नहीं हैं। अतः इनके द्वारा केवल संसारके लिये ही कर्म करना है, अपने लिये नहीं। कारण यह है कि संसारकी सहायताके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। इसके अलावा मिली हुई कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध भी समष्टि संसारके साथ ही है, अपने साथ नहीं। इसलिये अपना कुछ नहीं है। व्यष्टिके लिये समष्टि हो ही नहीं सकती। मनुष्यकी यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्टिका उपयोग करना चाहता है इसीसे उसे अशान्ति होती है। अगर वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका समष्टिके लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्त हो सकती है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें यही विशेषता रहती है कि उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका उपयोग मात्र संसारके लिये ही होता है। अतः उसका शरीरादिकी क्रियाओंसे अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। प्रयोजन न रहनेपर भी उस महापुरुषसे स्वाभाविक ही लोगोंके लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं। जिसका कर्म करनेसे प्रयोजन रहता है उससे आदर्श कर्म नहीं--होते यह सिद्धान्त है। 'नाकृतेनेह कश्चन'--जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मोंको नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्न तामस-सुख रहता है (गीता 18।39)। परन्तु यह महापुरुष, जो सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठ चुका है, तामस सुखमें प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है? क्योंकि इसका शरीरादिसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, फिर आलस्य-आराम आदिमें रुचि रहनेका तो प्रश्न ही नहीं उठता।'मार्मिक बात'प्रायः साधक कर्मोंके न करनेको ही महत्त्व देते हैं। वे कर्मोंसे उपरत होकर समाधिमें स्थित होना चाहते हैं, जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे। यह बात श्रेष्ठ और लाभप्रद तो, है पर सिद्धान्त नहीं है। यद्यपि प्रवृत्ति-(करना-) की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्ठ है, तथापि यह तत्त्व नहीं है।प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना)--दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है, क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है--'प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः' और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना खड़ा होना मौन होना मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है (टिप्पणी प0 142)। वास्तविक तत्त्व(चेतन स्वरूप) में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही नहीं हैं। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंका निर्लिप्त प्रकाशक है।शरीरसे तादात्म्य होनेपर ही (शरीरको लेकर) करना और न करना ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं। वास्तवमें करना और न करना दोनोंकी एक ही जाति है। शरीरसे सम्बन्ध रखकर न करना भी वास्तवमें करना ही है। जैसे 'गच्छति' (जाता है) क्रिया है ऐसे ही 'तिष्ठति' (खड़ा है) भी क्रिया ही है। यद्यपि स्थूल दृष्टिसे 'गच्छति' में क्रिया स्पष्ट दिखायी देती है और 'तिष्ठति' में क्रिया नहीं दिखायी देती है, तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो जिस शरीरमें 'जाने' की क्रिया थी, उसीमें अब 'खड़े रहने' की क्रिया है। इसी प्रकार किसी कामको करना और न 'करना' इन दोनोंमें ही क्रिया है। अतः जिस प्रकार क्रियाओंका स्थूलरूपसे दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृतिमें ही है, उसी प्रकार स्थूल दृष्टिसे क्रियाओंका दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृतिमें ही है। जिसका प्रकृति एवं उसके कार्यसे भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस महापुरुषका करने एवं न करनेसे कोई स्वार्थ नहीं रहता।जडताके साथ सम्बन्ध रहनेपर ही करने और न करनेका प्रश्न होता है; क्योंकि जडताके सम्बन्धके बिना कोई क्रिया होती ही नहीं। इस महापुरुषका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति--दोनोंसे अतीत सहज-निवृत्त-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। अतः साधकको जडता-(शरीरमें अहंता और ममता) से सम्बन्धविच्छेद करनेकी ही आवश्यकता है। तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ही।'न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः' शरीर तथा संसारसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध न रहनेके कारण उस महापुरुषकी समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरोंके हितके लिये होती हैं। जैसे शरीरके सभी अङ्ग स्वतः शरीरके हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुषका अपना कहलानेवाला शरीर (जो संसारका एक छोटा-सा अङ्ग है) स्वतः संसारके हितमें लगा रहता है। उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ संसारके हितके लिये ही होती हैं। जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर अपनेमें स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीरके द्वारा संसारका हित होनेपर उस महापुरुषमें किञ्चित् भी स्वार्थ प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता। पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सिद्ध महापुरुषके लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है--'तस्य कार्यं न विद्यते।' उसका हेतु बताते हुए भगवान्ने इस श्लोकमें उस महापुरुषके लिये तीन बातें कही हैं--(1) कर्म करनेसे उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, (2) कर्म न करनेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (3) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पानेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता।वस्तुतः स्वरूपमें करने अथवा न करनेका कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। कारण कि शुद्ध स्वरूपके द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं। जो भी क्रिया होती है, वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके सम्बन्धसे ही होती है। इसलिये अपने लिये कुछ करनेका विधान ही नहीं है।जबतक मनुष्यमें करनेका राग, पानेकी इच्छा, जीनेकी आशा और मरनेका भय रहता है, तबतक उसपर कर्तव्यका दायित्व रहता है। परन्तु जिसमें किसी भी क्रियाको करने अथवा न करनेका कोई राग नहीं है, संसारकी किसी भी वस्तु आदिको प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं है, जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है और मृत्युसे कोई भय नहीं है, उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उससे स्वतः कर्तव्य-कर्म होते रहते हैं।जहाँ अकर्तव्य होनेकी सम्भावना हो, वहीं कर्तव्य पालनकी प्रेरणा रहती है।'विशेष बात'गीतामें भगवान्की ऐसी शैली रही है कि वे भिन्नभिन्न साधनोंसे परमात्माकी ओर चलनेवाले साधकोंके भिन्न-भिन्न लक्षणोंके अनुसार ही परमात्माको प्राप्त सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं। यहाँ सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें भी इसी शैलीका प्रयोग किया गया है। जो साधन जहाँसे प्रारम्भ होता है, अन्तमें वहीं उसकी समाप्ति होती है। गीतामें कर्मयोगका प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकसे प्रारम्भ होता है, तथापि कर्मयोगके मूल साधनका विवेचन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें किया गया है। उस श्लोक (2। 47) के चार चरणोंमें बताया गया है-- (1) कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है) (2) मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है)। (3) मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन)। (4) मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो)। प्रस्तुत श्लोक (3। 18) में ठीक उपर्युक्त साधनाकी सिद्धिकी बात है। वहाँ (2। 47) में दूसरे और तीसरे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके उत्तरार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका किसी प्राणी और पदार्थसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। वहाँ पहले और चौथे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके पूर्वार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने--दोनोंसे ही कोई प्रयोजन नहीं रहता। इस प्रकार सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें 'कर्मयोग' से सिद्ध हुए महापुरुषके लक्षणोंका ही वर्णन किया गया है।कर्मयोगके साधनकी दृष्टिसे वास्तवमें अठारहवाँ श्लोक पहले तथा सत्रहवाँ श्लोक बादमें आना चाहिये। कारण कि जब कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। तब उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही हो जाती है। परन्तु सोलहवें श्लोकमें भगवान्ने 'मोघं पार्थ स जीवति' पदोंसे कर्तव्य-पालन न करनेवाले मनुष्यके जीनेको निरर्थक बतलाया था; अतः सत्रहवें श्लोकमें 'यः तु' पद देकर यह बतलाते हैं कि यदि सिद्ध महापुरुष कर्तव्य-कर्म नहीं करता तो उसका जीना निरर्थक नहीं है, प्रत्युत महान् सार्थक है। कारण कि उसने मनुष्यजन्मके उद्देश्यको पूरा कर लिया है। अतः उसके लिये अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा।जिस स्थितिमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता उस स्थितिको साधारण-से-साधारण मनुष्य भी प्रत्येक अवस्थामें तत्परता एवं लगनपूर्वक, निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करनेपर प्राप्त कर सकता है; क्योंकि उसकी प्राप्तिमें सभी स्वतन्त्र और अधिकारी हैं। कर्तव्यका सम्बन्ध प्रत्येक परिस्थितिसे जुड़ा हुआ है। इसलिये प्रत्येकपरिस्थितिमें कर्तव्य निहित रहता है। केवल सुखलोलुपतासे ही मनुष्य कर्तव्यको भूलता है। यदि वह निःस्वार्थ-भावसे दूसरोंकी सेवा करके अपनी सुखलोलुपता मिटा डाले, तो जीवनके सभी दुःखोंसे छुटकारा पाकर परम शान्तिको प्राप्ति हो सकता है। इस परम शान्तिकी प्राप्तिमें सबका समान अधिकार है। संसारके सर्वोपरि पदार्थ, पद आदि सबको समानरूपसे मिलने सम्भव नहीं हैं; किन्तु परम शान्ति सबको समानरूपसेही मिलती है। सम्बन्ध--पीछेके दो श्लोकोंमें वर्णित महापुरुषकी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये साधकको क्या करना चाहिये--इसपर भगवान् आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.18।। इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.18।।तस्य कर्मकाले वक्तव्योऽहमिति कञ्चित्प्रत्युक्त्वा तत्कृतावात्मरत्यधिकः प्तमो वाऽर्थो नास्ति। न च सन्ध्याद्यकृतौ कश्चिद्दोषोऽस्ति। न चैतदपहाय सर्वभूतेषु कश्चित्प्रयोजनाश्रयः। अर्थो येन दर्शनादिना भवति सोऽर्थव्यपाश्रयः। ज्ञानमात्रेण यद्यपि प्रत्यवायो न भवति तदर्जुनस्यपि सममिति न तस्य कर्मोपदेशोपयोग्ये तद्भवति। ईषत्प्रारब्धानर्थसूचकं च तद्भवति। महच्चेद्वृत्रहत्यादिवत्।
Sri Anandgiri
।।3.18।।इतश्चात्मविदो न किंचित्कर्तव्यमित्याह किञ्चेति। अभ्युदयनिःश्रेयसयोरन्यतरत्प्रयोजनं कृतेन सुकृतेनात्मविदो भविष्यतीत्याशङ्क्याह नैवेति। प्रत्यवायनिवृत्तये स्वरूपप्रच्युतिप्रत्याख्यानाय वा कर्म स्यादित्याशङ्क्याह नेत्यादिना। ब्रह्मादिषु स्थावरान्तेषु भूतेषु कंचिद्भूतविशेषमाश्रित्य कश्चिदर्थो विदुषः साध्यो भविष्यति तदर्थं तेन कर्तव्यं कर्मेत्याशङ्क्याह नचेति। तत्राद्यं पादमादत्ते नैवेति। तं व्याचष्टे तस्येति। आत्मविदः स्वर्गाद्यभ्युदयानर्थित्वं निःश्रेयसस्य च प्राप्तत्वान्न कृतं कर्मार्थवदित्यर्थः। आत्मविदा चेत्कर्म न क्रियते तर्हि तेनाकृतेन तस्यानर्थो भविष्यतीति तत्प्रत्याख्यानार्थं तस्य कर्तव्यं कर्मेति शङ्कते तर्हीति। द्वितीयपादेनोत्तरमाह नेत्यादिना। अतो न तन्निवृत्त्यर्थं कृतमर्थवदिति शेषः। द्वितीयं भागं विभजते नचास्येति। व्यपाश्रयणमालम्बनं नेति संबन्धः। पदार्थमुक्त्वा वाक्यार्थमाह कंचिदिति। भूतविशेषस्याश्रितस्यापि क्रियाद्वारा प्रयोजनप्रसवहेतुत्वमिति मत्वाह येनेति। तर्हि मयापि यथोक्तं तत्त्वमाश्रित्य त्याज्यमेव कर्मेत्यर्जुनस्य मतमाशङ्क्याह न त्वमिति।
Sri Vallabhacharya
।।3.18।।नैवेति। तस्य कृतेन निषिद्धेन चार्थः फलं सुखदुःखादि नास्ति। किञ्चार्थार्थमाश्रयः कश्चिन्नास्ति।
Sridhara Swami
।।3.18।।तत्र हेतुमाह नैव तस्येति। कृतेन कर्मणा तस्यार्थः पुण्यं नैवास्ति। न चाकृतेन कश्चन कोऽपि प्रत्यवायोऽस्ति। निरहंकारत्वेन विधिनिषेधातीतत्वात् तथापितस्मात्तदेषां न प्रियं यदेतन्मनुष्या विदुः इति श्रुतेर्मोक्षे देवकृतविघ्नसंभवात्तत्परिहारार्थ कर्मभिर्देवाः सेव्या इत्याशङ्क्योक्तम्। सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु कश्चिदप्यर्थञ्यपाश्रयः आश्रय एव व्यपाश्रयः। अर्थे मोक्ष आश्रयणीयोऽस्य नास्तीत्यर्थः। विघ्नाभावस्य श्रुत्यैवोक्तत्वात्। तथाच श्रुतिःतस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशते आत्मा ह्येषां स भवति इति। हनेत्यव्ययमप्यर्थे। देवा अपि तस्यात्मतत्त्वज्ञास्याभूत्यै ब्रह्मताप्रतिबन्धनायनेशते न शक्नुवन्तीति श्रुतेरर्थः। देवकृतास्तु विघ्नाः सभ्यग्ज्ञानोत्पत्तेः प्रागेवयदेतद्ब्रह्म मनुष्या विदुस्तदेषां देवानां न प्रियम् इति श्रुत्या ब्रह्मज्ञानस्यैवाप्रियत्वोक्त्या तत्रैव विघ्नकर्तृत्वस्य सूचितत्वात्।