Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 7 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||२-७||
Transliteration
kārpaṇyadoṣopahatasvabhāvaḥ pṛcchāmi tvāṃ dharmasammūḍhacetāḥ . yacchreyaḥ syānniścitaṃ brūhi tanme śiṣyaste.ahaṃ śādhi māṃ tvāṃ prapannam ||2-7||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.7 My heart is overpowered by the taint of pity; my mind is confused as to duty. I ask Thee: Tell me decisively what is good for me. I am Thy disciple. Instruct me who has taken refuge in Thee.
।।2.7।। करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When facing significant career uncertainty, ethical dilemmas in the workplace, or pivotal decisions, humbly seek guidance from experienced mentors or industry leaders, clearly articulating your confusion and readiness to learn and implement their decisive advice.
🧘 For Stress & Anxiety
Acknowledge feelings of mental confusion, emotional overwhelm, or anxiety. Instead of struggling in isolation, reach out to a therapist, counselor, or spiritual guide, surrendering the burden of indecision to a trusted authority who can provide clarity and a path forward.
❤️ In Relationships
In moments of relational conflict, personal duty confusion, or emotional paralysis regarding loved ones, approach a trusted elder, mediator, or wise friend with humility, expressing your dilemma and seeking impartial wisdom to determine the most righteous and beneficial course of action.
When to Chant/Recall This Verse
Key Message in One Line
“When overwhelmed by profound confusion and emotional distress, humble surrender to a wise guide is the essential first step towards clarity and decisive right action.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.7 कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः with nature overpowered by the taint of pity? पृच्छामि I ask? त्वाम् Thee? धर्मसंमूढचेताः with a mind in confusion about duty? यत् which? श्रेयः good? स्यात् may be? निश्चितम् decisively? ब्रूहि say? तत् that? मे for me? शिष्यः disciple? ते Thy? अहम् I? शाधि teach? माम् me? त्वाम् to Thee? प्रपन्नम् taken refuge.No commentary.
Shri Purohit Swami
2.7 My heart is oppressed with pity; and my mind confused as to what my duty is. Therefore, my Lord, tell me what is best for my spiritual welfare, for I am Thy disciple. Please direct me, I pray.
Dr. S. Sankaranarayan
2.7. With my very nature, overpowered by the taint of pity, and with my mind, utterly confused as to the right action [at the present juncture], I ask you: Tell me definitely what would be good [to me]; I am your pupil; please teach me, who am taking refuge in You.
Swami Adidevananda
2.7 With my heart stricken by the fault of weak compassion, with my mind perplexed about my duty, I reest you to say for certain what is good for me. I am your disciple. Teach me who have taken refuge in you.
Swami Gambirananda
2.7 With my nature overpowered by weak commiseration, with a mind bewildered about duty, I supplicate You. Telll me for certain that which is better; I am Your disciple. Instruct me who have taken refuge in You.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.7।। अपने आप को असहाय अवस्था तथा कोई निर्णय लेने से सर्वथा असमर्थ पाकर अर्जुन सम्पूर्ण रूप से स्वयं को भगवान् की शरण में समर्पित कर देता है। वह स्वीकार कर रहा है कि उसकी मानसिक स्थिति नष्टभ्रष्ट हो गयी है। वह स्वयं बताता है कि उसका मुख्य कारण करुणा की अत्यधिकता है। अज्ञान के कारण वह समझ नहीं पा रहा है कि उसकी वह करुणा निराधार है। वह स्वीकार करता है कि युद्ध करने या न करने के विषय में उसकी बुद्धि भ्रमाच्छादित होने के कारण वह धर्मअधर्म का निर्णय नहीं कर पा रहा है।हम पहले ही धर्म शब्द का अर्थ देख चुके हैं। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण उस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है उस वस्तु का धर्म कहलाता है। हिन्दू दर्शन मानव धर्म पर बल देता है जिसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुद्ध दैवी स्वरूप के अनुरूप रहना चाहिये और उसका यह प्रयत्न होना चाहिये कि वह स्वस्वरूप की महत्ता बनाये रखे और पशुवत जीवन व्यतीत न करे।यहाँ अर्जुन शिष्यभाव से भगवान् की शरण में जाता है जो यह संकेत करता है कि अब वह उपदेश ग्रहण करने योग्य हो गया है और वह भगवान् के उपदेश का पालन करेगा। एक और बात का भी संकेत मिलता है कि यदि अज्ञानवश अर्जुन अनेक बार अपनी शंका प्रस्तुत करते हुए प्रश्न पूछता है तो उसका समाधान भगवान् को सहानुभूति और धैर्यपूर्वक करना होगा। सम्पूर्ण गीता में हम अनेक स्थानों पर अर्जुन को कृष्णोपदेश के मध्य शंकायें प्रकट करते हुये देखते हैं परन्तु कहीं पर भी श्रीकृष्ण को धैर्य खोते नहीं देखते। इतना ही नहीं अर्जुन द्वारा प्रत्येक प्रश्न पूछे जाने पर वे और अधिक उत्साहित होकर युद्धभूमि में उसका उत्तर देते हैं।
Swami Ramsukhdas
2.7।। व्याख्या--'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः'(टिप्पणी प0 43.1)--यद्यपि अर्जुन अपने मनमें युद्धसे सर्वथा निवृत्त होनेको सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते थे, तथापि पापसे बचनेके लिये उनको युद्धसे उपराम होनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय भी नहीं दीखता था। इसलिये वे युद्धसे उपराम होना चाहते थे, और उपराम होनेको गुण ही मानते थे, कायरतारूप दोष नहीं। परन्तु भगवान्ने अर्जुनकी इस उपरतिको कायरता और हृदयकी तुच्छ दुर्बलता कहा, तो भगवान्के उन निःसंदिग्ध वचनोंसे अर्जुनको ऐसा विचार हुआ कि युद्धसे निवृत्त होना मेरे लिये उचित नहीं है। यह तो एक तरहकी कायरता ही है, जो मेरे स्वभावके बिलकुल विरुद्ध है क्योंकि मेरे क्षात्र-स्वभावमें दीनता और पलायन (पीठ दिखाना)--ये दोनों ही नहीं हैं (टिप्पणी प0 43.2) । इस तरह भगवान्के द्वारा कथित कायरतारूप दोषको अपनेमें स्वीकार करते हुए अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि एक तो कायरतारूप दोषके कारण मेरा क्षात्र-स्वभाव एक तरहसे दब गया है; और दूसरी बात, मैं अपनी बुद्धिसे धर्मके विषयमें कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी बुद्धिमें ऐसी मूढ़ता छा गयी है कि धर्मके विषयमें मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है तीसरे श्लोकमें तो भगवान्ने अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा दे दी थी कि 'हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको, कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़े हो जाओ'। इससे अर्जुनको धर्म-(कर्तव्य-) के विषयमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये था। फिर भी सन्देह रहनेका कारण यह है कि एक तरफ तो युद्धमें कुटुम्बका नाश करना, पूज्यजनोंको मारना अधर्म (पाप) दीखता है, और दूसरी तरफ युद्ध करना क्षत्रियका धर्म दीखता है। इस प्रकार कुटुम्बियोंको देखते हुए युद्ध नहीं करना चाहिये और क्षात्र-धर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना चाहिये-- इन दो बातोंको लेकर अर्जुन धर्म-संकटमें पड़ गये। उनकी बुद्धि धर्मका निर्णय करनेमें कुण्ठित हो गयी। ऐसा होनेपर 'अभी इस समय मेरे लिये खास कर्तव्य क्या है? मेरा धर्म क्या है?'इसका निर्णय करानेके लिये वे भगवान्से पूछते हैं। 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे'--इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि तू जो कायरताके कारण युद्धसे निवृत्त हो रहा है, तेरा यह आचरण 'अनार्यजुष्ट' है अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष ऐसा आचरण नहीं करते, वे तो जिसमें अपना कल्याण हो वही आचरण करते हैं। यह बात सुनकर अर्जुनके मनमें आया कि मुझे भी वही करना चाहिये जो श्रेष्ठ पुरुष किया करते हैं। इस प्रकार अर्जुनके मनमें कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी और उसीको लेकर वे भगवान्से अपने कल्याणकी बात पूछते हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो जाय, ऐसी बात मेरेसे कहिये। अर्जुनके हृदयमें हलचल (विषाद) होनेसे और अब यहाँ अपने कल्याणकी बात पूछनेसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य जिस स्थितिमें स्थित है, उसी स्थितिमें वह संतोष करता रहत�� है तो उसके भीतर अपने असली उद्देश्यकी जागृति नहीं होती। वास्तविक उद्देश्य--कल्याणकी जागृति तभी होती है, जब मनुष्य अपनी वर्तमान स्थितिसे असन्तुष्ट हो जाय, उस स्थितिमें रह न सके। 'शिष्यस्तेऽहम्'--अपने कल्याणकी बात पूछनेपर अर्जुनके मनमें यह भाव पैदा हुआ कि कल्याणकी बात तो गुरुसे पूछी जाती है, सारथिसे नहीं पूछी जाती। इस बातको लेकर अर्जुनके मनमें जो रथीपनका भाव था, जिसके कारण वे भगवान्को यह आज्ञा दे रहे थे कि 'हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये', वह भाव मिट जाता है और अपने कल्याणकी बात पूछनेके लिये अर्जुन भगवान्के शिष्य हो जाते हैं और कहते हैं कि 'महाराज! मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा लेनेका पात्र हूँ, आप मेरे कल्याणकी बात कहिये'। 'शाधि मां त्वां प्रपन्नम्'--गुरु तो उपदेश दे देंगे, जिस मार्गका ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे, पूरा प्रकाश दे देंगे, पूरी बात बता देंगे, पर मार्गपर तो स्वयं शिष्यको ही चलना पड़ेगा। अपना कल्याण तो शिष्यको ही करना पड़ेगा। मैं तो ऐसा नहीं चाहता कि भगवान् उपदेश दें और मैं उसका अनुष्ठान करूँ; क्योंकि उससे मेरा काम नहीं चलेगा। अतः अपने कल्याणकी जिम्मेवारी मैं अपनेपर क्यों रखूँ ?गुरुपर ही क्यों न छोड़ दूँ! जैसे केवल माँके दूधपर ही निर्भर रहनेवाला बालक बीमार हो जाय, तो उसकी बीमारी दूर करनेके लिये ओषधि स्वयं माँको खानी पड़ती है, बालकको नहीं। इसी तरह मैं भी सर्वथा गुरुके ही शरण हो जाऊँ, गुरुपर ही निर्भर हो जाऊँ, तो मेरे कल्याणका पूरा दायित्व गुरुपर ही आ जायगा, स्वयं गुरुको ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा--इस भावसे अर्जुन कहते हैं कि 'मैं' आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये'। यहाँ अर्जुन 'त्वां प्रपन्नम्' पदोंसे भगवान्के शरण होनेकी बात तो कहते हैं, पर वास्तवमें सर्वथा शरण हुए नहीं हैं। अगर वे सर्वथा शरण हो जाते, तो फिर उनके द्वारा 'शाधि माम्' 'मेरेको शिक्षा दीजिये' यह कहना नहीं बनता; क्योंकि सर्वथा शरण होनेपर शिष्यका अपना कोई कर्तव्य रहता ही नहीं। दूसरी बात, आगे नवें श्लोकमें अर्जुन कहेंगे कि मैं युद्ध नहीं करूँगा'--'न योत्स्ये'। अर्जुनकी वह बात भी शरणागतिके विरुद्ध पड़ती है। कारण कि शरणागत होनेके बाद 'मैं युद्ध करूँगा या नहीं करूँगा; क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा'--यह बात रहती ही नहीं। उसको यह पता ही नहीं रहता कि शरण्य क्या करायेंगे और क्या नहीं करायेंगे। उसका तो यही एक भाव रहता है कि अब शरण्य जो करायेंगे, वही करूँगा। अर्जुनकी इस कमीको दूर करनेके लिये ही आगे चलकर भगवान्को 'मामेकं शरणं व्रज' (18। 66) 'एक मेरी शरणमें आ जा'--ऐसा कहना पड़ा। फिर अर्जुनने भी 'करिष्ये वचनं' तव (18। 73) आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ऐसा कहकर पूर्ण शरणागतिको स्वीकार किया। इस श्लोकमें अर्जुनने चार बातें कहीं हैं--(1) 'कार्पण्यदोषो' ৷৷. 'धर्मसम्मूढचेताः' (2) 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' (3) 'शिष्यस्तेऽहम्' (4) 'शाधि मां त्वां प्रपन्नम्'। इनमेंसे पहली बातमें अर्जुन धर्मके विषयमें पूछते हैं, दूसरी बातमें अपने कल्याणके लिये प्रार्थना करते हैं, तीसरी बातमें शिष्य बन जाते हैं और चौथी बातमें शरणागत हो जाते हैं। अब इन चारों बातोंपर विचार किया जाय, तो पहली बातमें मनुष्य जिससे पूछता है, वह कहनेमें अथवा न कहनेमें स्वतन्त्र होता है। दूसरीमें, जिससे प्रार्थना करता है, उसके लिये कहना कर्तव्य हो जाता है। तीसरीमें, जिनका शिष्य बन जाता है, उन गुरुपर शिष्यको कल्याणका मार्ग बतानेका विशेष दायित्व आ जाता है। चौथीमें जिसके शरणागत हो जाता है उस शरण्यको शरणागतका उद्धार करना ही पड़ता है अर्थात् उसके उद्धारका उद्योग स्वयं शरण्यको करना पड़ता है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें अर्जुन भगवान्के शरणागत तो हो जाते हैं पर उनके मनमें आता है कि भगवान्का तो युद्ध करानेका ही भाव है पर मैं युद्ध करना अपने लिये धर्मयुक्त नहीं मानता हूँ। उन्होंने जैसे पहले 'उत्तिष्ठ' कहकर युद्धके लिये आज्ञा दी ऐसे ही वे अब भी युद्ध करनेकी आज्ञा दे देंगे। दूसरी बात शायद मैं अपने हृदयके भावोंको भगवान्के सामने पूरी तरह नहीं रख पाया हूँ। इन बातोंको लेकर अर्जुन आगेके श्लोकमें युद्ध न करनेके पक्षमें अपने हृदयकी अवस्थाका स्पष्टरूपसे वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.7।। करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.7।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
Sri Anandgiri
।।2.7।।समधिगतसंसारदोषजातस्यातितरां निर्विण्णस्य मुमुक्षोरुपसन्नस्यात्मोपदेशसंग्रहणेऽधिकारं सूचयति कार्पण्येति। योऽल्पां स्वल्पामपि स्वक्षतिं न क्षमते स कृपणस्तद्विधत्वादखिलोऽनात्मविदप्राप्तपरमपुरुषार्थतया कृपणो भवति।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः तस्य भावः कार्पण्यं दैन्यं तेन दोषेणोपहतो दूषितः स्वभावश्चित्तमस्येति विग्रहः। सोऽहं पृच्छाम्यनुयुञ्जे त्वा त्वां धर्मसंमूढचेताः धर्मो धारयतीति परं ब्रह्म तस्मिन्संमूढमविवेकतां गतं चेतो यस्य ममेति तथाहमुक्तः। किं पृच्छसि यन्निश्चितमैकान्तिकमनापेक्षिकं श्रेयः स्यान्न रोगनिवृत्तिवदनैकान्तिकमनात्यन्तिकं स्वर्गवदापेक्षिकं वा तन्निःश्रेयसं मे मह्यं ब्रूहिनापुत्रायाशिष्याय इति निषेधान्न प्रवक्तव्यमिति मा मंस्थाः। यतः शिष्यस्तेऽहं भवामि। शाध्यनुशाधि मां निःश्रेयसं। त्वामहं प्रपन्नोऽस्मि।
Sri Vallabhacharya
।।2.6 2.8।।न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः।
Sridhara Swami
।।2.7।। कार्पण्येति। तस्मात्कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः। एतान्हत्वा कथं जीविष्याम इति कार्पण्यं दोषश्च स्वकुलक्षयकृतः ताभ्यामुपहतोऽभिभूतः स्वभावः शौर्यादिलक्षणो यस्य सोऽहं त्वां पृच्छामि। तथा धर्मे संमूढं चेतो यस्य सः। युद्धं त्यक्त्वा भिक्षाटनमपि क्षत्रियस्य धर्मो वाऽधर्मो वेति संदिग्धचित्तः सन्नित्यर्थः। अतो मे यन्निश्चितं श्रेयो युक्तं स्यात्तद्ब्रूहि। किंच तेऽहं शिष्यः शासनार्हः। अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं मां शाधि शिक्षय।