Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 52 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति | तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||२-५२||

Transliteration

yadā te mohakalilaṃ buddhirvyatitariṣyati . tadā gantāsi nirvedaṃ śrotavyasya śrutasya ca ||2-52||

Word-by-Word Meaning

यदाwhen
तेthy
मोहकलिलम्mire of delusion
बुद्धिःintellect
व्यतितरिष्यतिcrosses beyond
तदाthen
गन्तासिthou shalt attain
निर्वेदम्to indifference
श्रोतव्यस्यof what has to be heard
श्रुतस्यwhat has been heard

📖 Translation

English

2.52 When thy intellect crosses beyond the mire of delusion, then thou shalt attain to indifference as to what has been heard and what has yet to be heard.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.52।। जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In a world of constant information overload and shifting trends, cultivating an intellect free from the 'mire of delusion' means making decisions based on core principles and clear insight rather than being swayed by every new 'expert opinion' or the latest buzz. It fosters detachment from the fruits of labor, allowing one to focus on the task with conviction, unburdened by external validation or the anxiety of 'what ifs', leading to more effective and peaceful work.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse offers liberation from mental clutter and anxiety. By transcending the 'mire of delusion' – our attachments, expectations, and misidentifications – we reduce the source of much stress. Attaining 'indifference' to the endless stream of news, social media, and others' opinions ('what has been heard and what has yet to be heard') allows the mind to find inner quietude and peace, no longer needing external validation or answers for contentment.

❤️ In Relationships

In relationships, delusion often manifests as unrealistic expectations, possessiveness, or defining our worth through others' approval. When our intellect crosses this mire, we can interact with greater clarity and less emotional entanglement. 'Indifference' to constant external advice or gossip about relationships means relying on our own intuitive wisdom and discerning heart, fostering healthier connections free from projection and dependency.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate an intellect free from the mire of delusion to achieve profound inner clarity and self-reliance, rendering external information secondary to true wisdom.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.52 यदा when? ते thy? मोहकलिलम् mire of delusion? बुद्धिः intellect? व्यतितरिष्यति crosses beyond? तदा then? गन्तासि thou shalt attain? निर्वेदम् to indifference? श्रोतव्यस्य of what has to be heard? श्रुतस्य what has been heard? च and.Commentary The mire of delusion is the identification of the Self with the notself. The sense of discrimination between the Self and the notSelf is confounded by the mire of delusion and the mind runs towards the sensual objects and the body is takes as the pure Self. When you attain purity of mind? you will attain to indifference regarding things heard and yet to be heard. They will appear to you to be of no use. You will not care a bit for them. You will entertain disgust for them. (Cf.XVI.24).

Shri Purohit Swami

2.52 When thy reason has crossed the entanglements of illusion, then shalt thou become indifferent both to the philosophies thou hast heard and to those thou mayest yet hear.

Dr. S. Sankaranarayan

2.52. When your determining faculty goes beyond the impregnable thicket of delusion, at that time you will attain an attitude of futility regarding what has to be heard and what has been heard.

Swami Adidevananda

2.52 When your intellect has passed beyond the tangle of delusion, you will yourself feel disgusted regarding what you shall hear and what you have already heard.

Swami Gambirananda

2.52 When your mind will go beyond the turbidity of delusion, then you will acire dispassion for what has to be heard and what has been heard.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.52।। मोह निवृत्ति होने पर वैराग्य प्राप्ति का आश्वासन यहाँ अर्जुन को दिया गया है। श्रोतव्य शब्द से तात्पर्य उन सभी विषयोपभोगों से है जिनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया गया है तथा श्रुत शब्द से सभी ज्ञान अनुभव सूचित किये गये हैं। यह स्वाभाविक है कि बुद्धि के शुद्ध होने पर विषयोपभोग में कोई राग नहीं रह जाता।स्वरूप से दिव्य होते हुये भी चैतन्य आत्मा मोहावरण में फँसी हुई प्रतीत होती है। इस मोह का कारण है एक अनिर्वचनीय शक्ति माया। अव्यक्त विद्युत के समान माया भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु विभिन्न रूपों में उसकी अभिव्यक्ति से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।सभी जीवों की संरचना में माया के कार्य के निरीक्षण एवं अध्ययन से वेदान्त के आचार्यों ने यह पाया कि मनुष्य के व्यक्तित्व के दो स्तरों पर माया की अभिव्यक्ति दो प्रकार से होती है। बुद्धि पर आत्मस्वरूप के अज्ञान के रूप में पड़े इस आवरण को वेदान्त में माया की आवरण शक्ति कहा गया है। बुद्धि पर पड़े इस अज्ञान आवरण के कारण मन अनात्म जगत् की कल्पना करता है और उस जगत् के विषय में उसकी दो धारणायें दृढ़ होती हैं कि (क) यह सत्य है और (ख) यह अनात्मा (देह आदि) ही में हूँ। मन के स्तर पर कार्य करने वाली माया की यह शक्ति विक्षेप शक्ति कहलाती है।इस श्लोक में कहा गया है कि कर्मयोग की भावना से कर्म करते रहने पर बुद्धि की शुद्धि होती है और तब उसके लिये सम्भव होता है कि आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर सके। इस प्रकार मोह निवृति का परिणाम है विषयोपभोग से वैराग्य परन्तु आत्मअज्ञान के होने पर मनुष्य विषयों से ही सुख पाने की आशा में दिनरात परिश्रम करता रहता है।शीत ऋतु में बादलों से सूर्य के आच्छादित होने पर मनुष्य अग्नि जलाकर उसके समीप बैठता है किन्तु धीरेधीरे बादलों के हट जाने पर सूर्य की उष्णता का अनुभव कर वह अग्नि के पास से उठकर धूप का आनन्द लेता है। वैसे ही आनन्दस्वरूप के अज्ञान के कारण विषयों को पाने के लिये चल रही मनुष्य की भागदौड़ स्वत समाप्त हो जाती है जब वह स्वस्वरूप को पहचान लेता है।यहाँ सम्पूर्ण जगत् का निर्देश श्रुत और श्रोतव्य इन दो शब्दों से किया गया है। इसमें सभी इन्द्रियों द्वारा ज्ञात होने वाले विषय समाविष्ट हैं। कर्मयोगी की बुद्धि न तो पूर्वानुभूत विषय सुखों का स्मरण करती है और न ही भविष्य में प्राप्त होनेवाले अनुभवों की आशा।भाष्यकार भगवान् शंकराचार्य अगले श्लोक की संगति बताते हैं कि यदि तुम्हारा प्रश्न हो कि मोहावरण भेदकर और विवेकजनित आत्मज्ञान को प्राप्त कर कर्मयोग के फल परमार्थयोग को तुम कब पाओगे तो सुनो

Swami Ramsukhdas

2.52।। व्याख्या-- 'यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति'-- शरीरमें अहंता और ममता करना तथा शरीर-सम्बन्धी माता-पिता, भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, वस्तु, पदार्थ आदिमें ममता करना 'मोह' है। कारण कि इन शरीरादिमें अहंता-ममता है नहीं, केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, संसारमें--परिवारमें विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना--यह सब-का-सब 'कलिल' अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदलमें जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं। यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थोंमें अहंता-ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तवमें यह जिन-जिन चीजोंके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता। परन्तु मोहके कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, प्रत्युत यह अनेक प्रकारके नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसारमें अधिक-से-अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचनेसे पहले ही रास्तेमें अपने डेरा लगाकर खेल-कूद, हँसी-दिल्लगी आदिमें अपना समय बिता दे, ऐसे ही मनुष्य यहाँके नाशवान् पदार्थोंका संग्रह करनेमें और उनसे सुख लेनेमें तथा व्यक्ति, परिवार आदिमें ममता करके उनसे सुख लेनेमें लग गया। यही इसकी बुद्धिका मोहरूपी कलिलमें फँसना है। हमें शरीरमें अहंता-ममता करके तथा परिवारमें ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है? इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति-(कल्याण-) से वञ्चित थोड़े ही रहना है? हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है--ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धिका मोहरूपी दलदलसे तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होनेपर बुद्धि संसारके सम्बन्धोंको लेकर अटकेगी नहीं, संसारमें चिपकेगी नहीं। मोहरूपी कलिलसे तरनेके दो उपाय हैं--विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन 2। 11 30 में हुआ है) तेज होता है, तो वह असत् विषयोंसे अरुचि करा देता है। मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख-आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा। जैसे शिष्यकी गुरुके लिये, पुत्रकी माता-पिताके लिये, नौकरकी मालिकके लिये सुख पहुँचानेकी इच्छा हो जाती है, तो उनकी अपने सुख-आरामकी इच्छा स्वतः सुगमतासे मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्रकी सेवा करनेका भाव हो जाता है, तो उसकी अपने सुख-भोगकी इच्छा स्वतः मिट जाती है। विवेक-विचारके द्वारा अपनी भोगेच्छाको मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो, तो वह तभीतक काम देता है, जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं, तब साधक प्रायः उनको देखकर विचलित हो जाता है। परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है, उसके सामने बढ़िया-से-बढ़िया भोग आनेपर भी वह उस भोगको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है। अतः उसकी अपने सुखआरामकी इच्छा सुगमतासे मिट जाती है। इसलिये भगवान्ने सांख्य-योगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ (5। 2) सुगम (5। 3) एवं जल्दी सिद्धि देनेवाला (5। 6) बताया है।  'तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च'   मनुष्यने जितने भोगोंको सुन लिया है, भोग लिया है, अच्छी तरहसे अनुभव कर लिया है, वे सब भोग यहाँ  'श्रुतस्य'  पदके अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदिके जितने भोग सुने जा सकते हैं, वे सब भोग यहाँ  'श्रोतव्यस्य' (टिप्पणी प0 90)  पदके अन्तर्गत हैं। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, तब इन 'श्रुत' ऐहलौकिक और 'श्रोतव्य'--पारलौकिक भोगोंसे, विषयोंसे तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोहकलिलको तर जाती है, तब बुद्धिमें तेजीका विवेक जाग्रत् हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ; अतः इस संसारसे मेरेको शान्ति कैसे मिल सकती है? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है? तब  'श्रुत'  और  'श्रोतव्य'  जितने विषय हैं, उन सबसे स्वतः वैराग्य हो जाता है। यहाँ भगवान्को  'श्रुत'  के स्थानपर भुक्त और  'श्रोतव्य'  के स्थानपर भोक्तव्य कहना चाहिये था। परन्तु ऐसा न कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयोंका आकर्षण होता है, वह सुननेसे ही होता है। अतः इनमें सुनना ही मुख्य है। संसारसे, विषयोंसे छूटनेके लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गका वर्णन किया गया है, वहाँ भी 'श्रवण' को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसारमें और परमात्मामें लगनेमें सुनना ही मुख्य है। यहाँ  'यदा'  और  'तदा'  कहनेका तात्पर्य है कि इन  'श्रुत'  और  'श्रोतव्य'  विषयोंसे इतने वर्षोंमें, इतने महीनोंमें और इतने दिनोंमें वैराग्य होगा--ऐसा कोई नियम नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण बुद्धि मोहकलिलको तर जायगी, उसी क्षण  'श्रुत'  और  'श्रोतव्य'  विषयोंसे भोगोंसे वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरीका काम नहीं है।

Swami Tejomayananda

।।2.52।। जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.52।।कियत्पर्यन्तमवश्यं कर्तव्यानि मुमुक्षुणैवं कर्माणीत्याह यदेति। निर्वेदं नितरां लाभम्। प्रयोगात् तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य बृ.उ.3।5।1 इत्यादि। न हि तत्र वैराग्यमुपपद्यते तथा सति पाण्डित्यादिति स्यात्।न च ज्ञानिनां भगवन्महिमादिश्रवणेन विरक्तिर्भवति।आत्मारामा हि मुनयो निर्ग्राह्या (निर्ग्रन्था) अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः भाग.1।7।10 इति वचनात् अनुष्ठानाच्च शुकादीनाम्। न च तेषां फलं सुखं नास्ति तस्यैव महत्सुखत्वात्। तेषांया निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्मध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्। साब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्किम्वन्तकासि लुलितात्पततां विमानात् भाग.4।9।10 इत्यादिवचनात्। तेषामप्युपासनादिफलस्य साधितत्वात् तारतम्याधिगतेश्च।तथाहि यदि तारतम्यं न स्यात्नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं भाग.3।15।48नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचित् भाग.2।25।34एकत्वमप्युत दीयमानं न गृह्णन्ति इति मुक्तिमप्यनिच्छतामपि मोक्ष एव फलम्। तमिच्छतामपि भवति सुप्रतीकादीनाम्। कथमनिच्छतां स्तुतिरुपपन्ना स्यात् वचनाच्च।यथा भक्तिविशेषोऽत्र दृश्यते पुरुषोत्तमे। तथा मुक्तिविशेषोऽपि ज्ञानिनां लिङ्गभेदने इति।योगिनां भिन्नलिङ्गानामाविर्भूतस्वरूपिणाम्। प्राप्तानां परमानन्दं तारतम्यं सदैव हि इति।न त्वामतिशयिष्यन्ति मुक्तावपि कदाचन। मद्भक्तियोगाज्ज्ञानाच्च सर्वानतिशयिष्यसि इति च। साम्यवचनं तु प्राचुर्यविषयम् दुःखाभावविषयं च। तथा चोक्तम् दुःखाभावः परानन्दो लिङ्गभेदः समो मतः। तथापि परमानन्दो ज्ञानभेदात्तु भिद्यते इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतो न वैराग्यं श्रुतादावत्र विवक्षितम्। न च सङ्कोचे मानं किञ्चिद्विद्यमान इतरत्र प्रयोगे महद्भिः श्रवणीयस्य श्रुतस्य च वेदादेः फलं प्राप्स्यसीत्यर्थः।

Sri Anandgiri

।।2.52।।यस्मिन्कर्मणि क्रियमाणे परमार्थदर्शनलक्षणा बुद्धिरुद्देश्यतया युज्यते तस्मात्कर्मणः सकाशादितरत्कर्म तथाविधोद्देश्यभूतबुद्धिसंबन्धविधुरमतिशयेन निष्कृष्यते ततश्च परमार्थबुद्धिमुद्देश्यत्वेनाश्रित्य कर्मानुष्ठातव्यं परिच्छिन्नफलान्तरमुद्दिश्य तदनुष्ठाने कार्पण्यप्रसङ्गात् किञ्च परमार्थबुद्धिमुद्देश्यमाश्रित्य कर्मानुतिष्ठतः करणशुद्धिद्वारा परमार्थदर्शनसिद्धौ जीवत्येव देहे सुकृतादि हित्वा मोक्षमधिगच्छति। तथाच परमार्थदर्शनलक्षणयोगार्थं मनो धारयितव्यं योगशब्दितं हि परमार्थदर्शनमुद्देश्यतया कर्मस्वनुतिष्ठतो नैपुण्यमिष्यते यदि च परमार्थदर्शनमुद्दिश्य तद्युताः सन्तः समारभेरन्कर्माणि तदा तदनुष्ठानजनितबुद्धिशुद्ध्या ज्ञानिनो भूत्वा कर्मजं फलं परित्यज्य निर्मुक्तबन्धना मुक्तिभाजो भवन्तीत्येवमस्मिन्पक्षे श्लोकत्रयाक्षराणि व्याख्यातव्यानि। यथोक्तबुद्धिप्राप्तिकालं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति  योगेति।  श्रुतं श्रोतव्यं दृष्टं द्रष्टव्यमित्यादौ फलाभिलाषप्रतिबन्धान्नोक्ता बुद्धिरुदेष्यतीत्याशङ्क्याह  यदेति।  विवेकपरिपाकावस्था कालशब्देनोच्यते। कालुष्यस्य दोषपर्यवसायित्वं दर्शयन्विशिनष्टि  येनेति।  तदनर्थरूपं कालुष्यं तवेत्यन्वयार्थं पुनर्वचनम्। बुद्धिशुद्धिफलस्य विवेकस्य प्राप्त्या वैराग्यप्राप्तिं दर्शयति  तदेति।  अध्���ात्मशास्त्रातिरिक्तं शास्त्रं श्रोतव्यादिशब्देन गृह्यते। उक्तं वैराग्यमेव स्फोरयति  श्रोतव्यमिति।  यथोक्तविवेकसिद्धौ सर्वस्मिन्ननात्मविषये नैष्फल्यं प्रतिभातीत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।2.52 2.53।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामि इत्यपेक्षायामाह यदेति द्वाभ्याम्। निश्चला विशोकधैर्यादिवती ते यदा बुद्धिर्व्यवसायात्मिकैव तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च त्रैगुण्यस्य कर्मफलस्य निर्वेदं वैराग्यं प्राप्स्यसि। तस्यात्रानुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः। तादृशी सती ते बुद्धिरचला यदा समाधीयते तदा योगं योगस्वरूपं यास्यसि ततश्च कार्यसिद्धिः।

Sridhara Swami

।।2.52।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामीत्यपेक्षायामाह  यदेति  द्वाभ्याम्। मोहो देहादिष्वात्मबुद्धि तदेव कलिल��कलिलं गहनं विदुः इत्यभिधानकोशस्मृतेः। ततश्चायमर्थः। एवं पमेश्वराराधने क्रियमाणे यदा तत्प्रसादेन तव बुद्धिर्देहाभिमानलक्षणं मोहमयं गहनं दुर्गं विशेषेणातितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्यार्थस्य च निर्वेदं वैराग्यं गन्तासि प्राप्स्यसि। तयोरनुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः।

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