Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके | हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ||२-५||
Transliteration
gurūnahatvā hi mahānubhāvān śreyo bhoktuṃ bhaikṣyamapīha loke . hatvārthakāmāṃstu gurūnihaiva bhuñjīya bhogān rudhirapradigdhān ||2-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.5 Better it is, indeed, in this world to accept alms than to slay the most noble teachers. But if I kill them, even in this world all my enjoyments of wealth and fulfilled desires will be stained with (their) blood.
।।2.5।। इन महानुभाव गुरुजनों को मारने से इस लोक में भिक्षा का अन्न भी ग्रहण करना अधिक कल्याण कारक है, क्योंकि गुरुजनों को मारकर मैं इस लोक में रक्तरंजित अर्थ और काम रूप भोगों को ही भोगूँगा।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Prioritize ethical leadership and integrity over short-term gains or promotions achieved through questionable means. Recognize that 'winning' by betraying mentors, colleagues, or core values will ultimately tarnish one's professional reputation and internal peace, making any success feel hollow.
🧘 For Stress & Anxiety
Avoid the mental burden and long-term psychological stress that arises from compromising one's values for material benefit. Choosing a path of integrity, even if it seems harder, can lead to a clearer conscience and greater mental well-being, freeing one from guilt and regret.
❤️ In Relationships
Uphold loyalty and respect for those who have guided or supported you (mentors, family, friends). Acknowledge that achieving personal goals by harming or betraying significant relationships will irreversibly stain those connections, making any 'enjoyment' gained feel tainted and undermining the very foundation of trust and genuine affection.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True fulfillment and peace come from upholding integrity and choosing ethical means, for any gain achieved through morally questionable or harmful actions is inherently tainted and leads only to inner conflict, not lasting joy.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.5 गुरून् the Gurus (teachers)? अहत्वा instead of slaying? हि indeed? महानुभावान् most noble? श्रेयः better? भोक्तुम् to eat? भैक्ष्यम् alms? अपि even? इह here? लोके in the world? हत्वा having slain? अर्थकामान् desirous of wealth? तु indeed? गुरून् Gurus? इह here? एव also? भुञ्जीय enjoy? भोगान् enjoyments? रुधिरप्रदिग्धान् stained with blood.No commentary.
Shri Purohit Swami
2.5 Rather would I content myself with a beggar's crust that kill these teachers of mine, these precious noble souls! To slay these masters who are my benefactors would be to stain the sweetness of life's pleasures with their blood.
Dr. S. Sankaranarayan
2.5. It is good indeed even to go about begging in this world without killing the elders of great dignity; but with greed for wealth, I would not enjoy, by killing my elders, the blood-stained objects of pleasures.
Swami Adidevananda
2.5 It is better even to live on a beggar's fare in this world than to slay these most venerable teachers. If I should slay my teachers, though degraded they be by desire for wealth, I would be enjoying only blood-stained pleasures here.
Swami Gambirananda
2.5 Rather than killing the noble-minded elders, it is better in this world to live even on alms. But by killing the elders we shall only be enjoying here the pleasures of wealth and desireable things drenched in blood.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.5।। अत्यन्त उच्च प्रतीत होने वाले परन्तु वास्तव में अर्थशून्य तर्क अर्जुन पुन प्रस्तुत करता है क्योंकि स्वयं को न समझने के कारण वह अपनी समस्या को भी नहीं समझ पाया है।यहाँ उसने अपने गुरुओं अर्थात् भीष्म और द्रोण को महानुभाव कहा है जिसका अर्थ है अपने युग के आदर्श पुरुष। अपनी संस्कृति में जो कुछ उच्च और श्रेष्ठ है उसके वे प्रतीक स्वरूप हैं जिन्होंने विशाल और उदार अन्तकरण से सनातन धर्म के लिये अनेक प्रकार के त्याग किये। अपनी संस्कृति के ऐसे श्रेष्ठ आदर्श युगपुरुषों का नाश केवल व्यक्तिगत शक्ति एवं पदलिप्सा के लिये करना किसी प्रकार उचित नहीं प्रतीत होता है। केवल वह युग विशेष ही नहीं बल्कि इन महापुरुषों के अमूल्य जीवनोच्छेद होने से भावी पीढ़ियाँ भी दरिद्र हो जायेंगी।अर्जुन कहता है कि संस्कृति के उपवन के सुन्दरतम् सुमनों को विनष्ट करने का विचार त्याग कर पाण्डवों के लिये भिक्षान्न पर जीवन यापन करना अधिक उचित होगा। इन गुरुजनों को मारकर प्राप्त किये गये राज्य का उपभोग भी वह नहीं कर सकेगा क्योंकि वे सब उनकी कटु स्मृतियों और मूल्यवान रक्त से सने होंगे जिनको विस्मृत कर पाना कठिन होगा।एक बार यदि हम परिस्थिति का त्रुटिपूर्ण आकलन कर लेते हैं तो भावनाओं के कारण हमारी बुद्धि पर आवरण पड़ जाता है और तब हम भी जीवन में अर्जुन के समान व्यवहार करने लगते हैं। इसका स्पष्ट संकेत व्यास जी द्वारा इस घटना में किये गये विस्तृत वर्णन में देखने को मिलता है।
Swami Ramsukhdas
।।2.5।। व्याख्या -- [इस श्लोकसे ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें भगवान्के कहे हुए वचन अब अर्जुनके भीतर असर कर रहे हैं। इससे अर्जुनके मनमें यह विचार आ रहा है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनोंको मारना धर्मयुक्त नहीं है--ऐसा जानते हुए भी भगवान् मुझे बिना किसी सन्देहके युद्धके लिये आज्ञा दे रहे हैं, तो कहीं-न-कहीं मेरी समझमें ही गलती है! इसलिये अर्जुन अब पूर्वश्लोककी तरह उत्तेजित होकर नहीं बोलते, प्रत्युत कुछ ढिलाईसे बोलते हैं।] 'गुरुनहत्वा ৷৷. भैक्ष्यमपीह लोके'-- अब अर्जुन पहले अपने पक्षको सामने रखते हुए कहते हैं कि अगर मैं भीष्म, द्रोण आदि पूज्यजनोंके साथ युद्ध नहीं करूँगा, तो दुर्योधन भी अकेला मेरे साथ युद्ध नहीं करेगा। इस तरह युद्ध न होनेसे मेरेको राज्य नहीं मिलेगा, जिससे मेरेको दुःख पाना पड़ेगा। मेरा जीवननिर्वाह भी कठिनतासे होगा। यहाँतक कि क्षत्रियके लिये निषिद्ध जो भिक्षावृत्ति है, उसको ही जीवन-निर्वाहके लिये ग्रहण करना पड़ सकता है। परन्तु गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा मैं उस कष्टदायक भिक्षा-वृत्तिको भी ग्रहण करना श्रेष्ठ मानता हूँ। 'इह लोके' कहनेका तात्पर्य है कि यद्यपि भिक्षा माँगकर खानेसे इस संसारमें मेरा अपमान-तिरस्कार होगा, लोग मेरी निन्दा करेंगे, तथापि गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगना श्रेष्ठ है। 'अपि' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे लिये गुरुजनोंको मारना भी निषिद्ध है; और भिक्षा माँगना भी निषिद्ध है परन्तु इन दोनोंमें भी गुरुजनोंको मारना मुझे अधिक निषिद्ध दीखता है। 'हत्वार्थकामांस्तु ৷৷. रुधिरप्रदिग्धान्'-- अब अर्जुन भगवान्के वचनोंकी तरफ दृष्टि करते हुए कहते हैं कि अगर मैं आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो युद्धमें गुरुजनोंकी हत्याके परिणाममें मैं उनके खूनसे सने हुए और जिनमें धन आदिकी कामना ही मुख्य है, ऐसे भोगोंको ही तो भोगूँगा। मेरेको भोग ही तो मिलेंगे। उन भोगोंके मिलनेसे मुक्ति थोड़े ही होगी! शान्ति थोड़े ही मिलेगी! यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन धनके द्वारा ही कौरवोंसे बँधे थे; अतः यहाँ अर्थकामान्' पदको 'गुरुन्' पदका विशेषण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? इसका उत्तर यह है कि 'अर्थकी कामनावाले गुरुजन'--ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। कारण कि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण आदि गुरुजन धनकी कामनावाले नहीं थे। वे तो दुर्योधनके वृत्तिभोगी थे उन्होंने दुर्योधनका अन्न खाया था। अतः युद्धके समय दुर्योधनका साथ छो़ड़ना कर्तव्य न समझकर ही वे कौरवोंके पक्षमें खड़े हुए थे। दूसरी बात अर्जुनने भीष्म द्रोण आदिके लिये 'महानुभावान' पदका प्रयोग किया है। अतः ऐसे श्रेष्ठ भाववालोंको अर्थकी कामनावाले कैसे कहा जा सकता है तात्पर्य है कि जो महानुभाव हैं, वे अर्थकी कामनावाले नहीं हो सकते; और जो अर्थकी कामनावाले हैं वे महानुभाव नहीं हो सकते। अतः यहाँ 'अर्थकामान्' पद 'भोगान्' पदका ही विशेषण हो सकता है। विशेष ���ात भगवान्ने दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें अर्जुनके कल्याणकी दृष्टिसे ही उन्हें कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़ा होनेकी आज्ञा दी थी। परन्तु अर्जुन उलटा ही समझे अर्थात् वे समझे कि भगवान् राज्यका भोग करनेकी दृष्टिसे ही युद्धकी आज्ञा देते हैं। (टिप्पणी प0 42) पहले तो अर्जुनका युद्ध न करनेका एक ही पक्ष था, जिससे वे धनुषबाण छोड़कर और शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (1। 47)। परंतु युद्ध करनेका पक्ष तो भगवान्के कहनेसे ही हुआ है। तात्पर्य है कि अर्जुनका भाव था कि हमलोग तो धर्मको जानते हैं, पर दुर्योधन आदि धर्मको नहीं जानते, इसलिये वे धन, राज्य आदिके लोभसे युद्ध करनेके लिये तैयार खड़े हैं। अब वही बात अर्जुन यहाँ अपने लिये कहते हैं कि अगर मैं भी आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो परिणाममें गुरुजनोंके रक्तसे सने हुए धन, राज्य आदिको ही तो प्राप्त करूँगा! इस तरह अर्जुनको युद्ध करनेमें बुराई-ही-बुराई दिखायी दे रही है। जो बुराई बुराईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा सुगम होता है। परन्तु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है; जैसे--सीताजीके सामने रावण और हनुमान्जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उन दोनोंका वेश साधुओंका था। अर्जुनकी मान्यतामें युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करना बुराई है और युद्ध न करना भलाई है अर्थात् अर्जुनके मनमें धर्म (हिंसा-त्याग-) रूप भलाईके वेशमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। उनको कर्तव्यत्यागरूप बुराई बुराईके रूपमें नहीं दीख रही है; क्योंकि उनके भीतर शरीरोंको लेकर मोह है। अतः इस बुराईको मिटानेमें भगवान्को भी बड़ा जोर पड़ रहा है और समय लग रहा है। आजकल समाजमें एकताके बहाने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाको मिटानेकी कोशिश की जा रही है, तो यह बुराई एकतारूप अच्छाईके वेशमें आनेसे बुराईरूपसे नहीं दीख रही है। अतः वर्ण-आश्रमकी मर्यादा मिटनेसे परिणाममें लोगोंका कितना पतन होगा, लोगोंमें कितना आसुरभाव आयेगा--इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती। ऐसे ही धनके बहाने लोग झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, विश्वासघात आदि-आदि दोषोंको भी दोषरूपसे नहीं जानते। यहाँ अर्जुनमें धर्मके रूपमें बुराई आयी है कि हम भीष्म, द्रोण आदि महानुभावोंको कैसे मार सकते हैं? क्योंकि हम धर्मको जाननेवाले हैं। तात्पर्य है कि अर्जुनने जिसको अच्छाई माना है, वह वास्तवमें बुराई ही है; परन्तु उसमें मान्यता अच्छाईकी होनेसे वह बुराईरूपसे नहीं दीख रही है। सम्बन्ध-- भगवान्के वचनोंमें ऐसी विलक्षणता है कि वे अर्जुनके भीतर अपना प्रभाव डालते जा रहे हैं जिससे अर्जुनको अपने युद्ध न करनेके निर्णयमें अधिक सन्देह होता जा रहा है। ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुए अर्जुन कहते हैं--
Swami Tejomayananda
।।2.5।। इन महानुभाव गुरुजनों को मारने से इस लोक में भिक्षा का अन्न भी ग्रहण करना अधिक कल्याण कारक है, क्योंकि गुरुजनों को मारकर मैं इस लोक में रक्तरंजित अर्थ और काम रूप भोगों को ही भोगूँगा।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.5।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
Sri Anandgiri
।।2.5।।राज्ञां धर्मेऽपि युद्धे गुर्वादिवधे वृत्तिमात्रफलत्वं गृहीत्वा पापमारोप्य ब्रूते गुरूनिति। गुरून्भीष्मद्रोणादीन्भ्रात्रादींश्चात्र प्राप्तानहिंसित्वा महानुभावान्महामाहात्म्याञ्श्रुताध्ययनसंपन्नान् श्रेयः प्रशस्यतरं युक्तं भोक्तुमभ्यवहर्तुं भैक्षं भिक्षाणां समूहः भिक्षाशनं नृपादीनां निषिद्धमपीह लोके व्यवहारभूमौ। नहि गुर्वादिहिंसया राज्यभोगोऽपेक्ष्यते। किञ्च हत्वा गुर्वादीनर्थकामानेव भुञ्जीय न मोक्षमनुभवेयमिहैव भोगो न स्वर्गे। अर्थकामानेव विशिनष्टि भोगानिति। भुज्यन्त इति भोगास्तान्रुधिरप्रदिग्धांल्लोहितलिप्तानिवात्यन्तगर्हितान् अतोभोगान्गुरुवधादिसाध्यान्परित्यज्य भिक्षाशनमेव युक्तमित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।2.5।।अतो गुर्वादिहननं लोकवेदविरुद्धमित्याह गुरूनिति। महानुभावान्गुरूनहत्वा भैक्ष्यं भिक्षालब्धमन्नं भोक्तुं सन्न्यासिनेव लोके श्रेष्ठम्। तान् रुधिरप्रदिग्धान्भोगानहं भुञ्जीयेति हि काकुः। नैतद्युक्तमिति भावः।
Sridhara Swami
।।2.5।।तर्हि तव देहयात्रापि न स्यादिति चेत्तत्राह गुरूनिति। गुरून्द्रोणादीनहत्वा परलोकविरुद्धो गुरुवधस्तमकृत्वा इह लोके भिक्षान्नमपि भोक्तुं श्रेयः उचितम्। विपक्षे तु न केवलं परत्र दुःखं इहैव तु नरकदुःखमनुभवेयमित्याह हत्वेति। गुरून्हत्वा इहैव तु रुधिरेण प्रदिग्धान्प्रकर्षेण लिप्तानर्थकामात्मकान्भोगानहं भुञ्जीय अश्नीयाम्। यद्वा अर्थकामानिति गुरूणां विशेषणम्। अर्थतृष्णाकुलत्वादेते तावद्युद्धान्न निवर्तेरन्। तस्मादेतद्वधः प��रसज्येतैवेत्यर्थः। तथाच युधिष्ठिरं प्रति भीष्मेणोक्तम्अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।। इति।