Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 45 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||२-४५||
Transliteration
traiguṇyaviṣayā vedā nistraiguṇyo bhavārjuna . nirdvandvo nityasattvastho niryogakṣema ātmavān ||2-45||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.45 The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes. O Arjuna, free yourself from the pairs of opposites, and ever remain in the ality of Sattva (goodness), freed from (the thought of) acisition and preservation, and be established in the Self.
।।2.45।। हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत? निर्द्वन्द्व? नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित? योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, cultivate equanimity regarding successes and failures, promotions or setbacks. Focus on performing your duties with excellence and integrity, rather than being solely driven by the desire for 'acquisition' (e.g., higher salary, prestige) or the fear of 'preservation' (e.g., job security). Let your work be an expression of your best self, not just a means to external ends. This detachment brings inner stability regardless of external career fluctuations.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress, recognize that many stressors arise from clinging to desires for certain outcomes or fearing the loss of what you have. Practice detaching from the 'pairs of opposites' – the emotional swings of joy/sorrow, success/failure. Establish yourself in an inner state of goodness (Sattva) and self-awareness, realizing that your true Self is untouched by external pressures. This perspective helps you rise above the turbulence of daily life and find inner calm.
❤️ In Relationships
In relationships, avoid getting entangled in the emotional 'dualities' of praise and blame, attachment and aversion. Love and connect without possessiveness or rigid expectations for 'acquisition' (what you want from others) or 'preservation' (fear of losing them). Maintain your inner sense of Self and integrity, offering love and support from a place of steadfast inner peace, rather than seeking validation or emotional highs from others.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Transcend the influence of nature's dualities and the pursuit of material security to establish yourself firmly in the serene wisdom of the Self.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.45 त्रैगुण्यविषयाः deal with the three attributes? वेदाः the Vedas? निस्त्रैगुण्यः without these three attributes? भव be? अर्जुन O Arjuna निर्द्वन्द्वः free from the pairs of opposites? नित्यसत्त्वस्थः ever remaining in the Sattva (goodness)? निर्योगक्षेमः free from (the thought of) acisition and preservation? आत्मवान् established in the Self.Commentary Guna means attribute or ality. It is substance as well as ality. Nature (Prakriti) is made up of three Gunas? viz.? Sattva (purity? light or harmony)? Rajas (passion or motion) and Tamas (darkness or inertia). The pairs of opposites are heat and cold? pleasure and pain? gain and loss? victory and defeat? honour and dishonour? praise and censure. He who is anxious about new acuqisitions or about the preservation of his old possessions cannot have peace of mind. He is ever restless. He cannot concentrate or meditate on the Self. He cannot practise virtue. Therefore? Lord Krishna advises Arjuna that he should be free from the thought of acisition and preservation of things. (Cf.IX.20?21).
Shri Purohit Swami
2.45 The Vedic Scriptures tell of the three constituents of life - the Qualities. Rise above all of them, O Arjuna, above all the pairs of opposing sensations; be steady in truth, free from worldly anxieties and centered in the Self.
Dr. S. Sankaranarayan
2.45. The Vedas bind by means of the three Strands. [Hence] O Arjuna, you must be free from the three Strands, free from the pairs [of opposites]; be established in this eternal Being; be free from [the idea of] acisition and preservation; and be possessed of the Self.
Swami Adidevananda
2.45 The Vedas have the three Gunas for their sphere, O Arjuna. You must be free from the three Gunas and be free from the pairs of opposites. Abide in pure Sattva; never care to acire things and to protect what has been acired, but be established in the self.
Swami Gambirananda
2.45 O Arjuna, the Vedas [Meaning only the portion dealing with rites and duties (karma-kanda).] have the three alities as their object. You become free from worldliness, free from the pairs of duality, ever-poised in the ality of sattva, without (desire for) acisition and protection, and self-collected.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.45।। विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण हुआ है। अन्तकरण (मन और बुद्धि) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन के परे जाना। तांबा जस्ता और टिन से निर्मित किसी मिश्र धातु का पात्र बना हो और यदि उसमें से इन तीनों धातुओं को विलग करने के लिये कहा जाय तो उसका अर्थ उस पात्र को ही नष्ट करना होगा। उपनिषद् साधक को मन के परे जाने का उपदेश देते हैं जिससे साधक को आत्मस्वरूप से ईश्वर का परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को यथार्थ में नहीं समझने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग हो गये और इसलिये गीता में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया। औपनिषदिक अर्थ को ही यहां दूसरे शब्दों में कहा अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो।यदि कोई चिकित्सक किसी रोगी के लिये ऐसी औषधि लिख देता है जो विश्व में कहीं भी उपलब्ध न हो तो उस चिकित्सक का लिखा हुआ उपचार व्यर्थ है। इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार के लिये त्रिगुणों के परे जाने का उपदेश भले ही श्रेष्ठ हो परन्तु कौन सी साधना के अभ्यास से उसे सम्पादित किया जाय इसका स्पष्टीकरण यदि नहीं किया गया है तो वह उपदेश निरर्थक है। ज्ञान क्रिया और निष्क्रियता ये क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण के लक्षण हैं।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में त्रिगुणों के ऊपर उठकर असीम आनन्द में स्थित होने की साधना बतायी गयी है। पूर्व उपदिष्ट समत्व भाव का ही उपदेश यहाँ दूसरे शब्दों में किया गया है।परस्पर भिन्न एवं विपरीत लक्षणों वाले सुखदुख शीतउष्ण लाभहानि इत्यादि जीवन के द्वन्द्वात्मक अनुभव हैं। इन सब में समभाव में रहने का अर्थ ही निर्द्वन्द्व होना है इनसे मुक्त होना है। यही उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को दे रहे हैं। नित्यसत्त्वस्थ तीनों गुणों में सत्व गुण सूक्ष्मतम एवं स्वभाव से शुद्ध है तथापि शोकात्मक रजोगुण और मोहात्मक तमोगुण के सम्बन्ध से उसमें अशुद्धि भी आ जाती है। मोह का अर्थ है वस्तु को यथार्थ रूप में न पहचानना (आवरण)। जिसके कारण वस्तु का अनुभव किसी अन्य रूप मे ही होता है जिसे विक्षेप कहते हैं और जिसका परिणाम हैशोक। अत सत्वगुण में स्थित होने का अर्थ विवेकजनित शान्ति में स्थित होना है। सत्त्वस्थ बनने के लिए सतत् सजग प्रयत्न की अपेक्षा है। निर्योगक्षेमयहाँ योग का अर्थ है अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम हैक्षेम। मनुष्य के सभी प्रयत्न योग और क्षेम के लिये होते हैं। अत इन दो शब्दों में विश्व के सभी प्राणियों के कर्म समाविष्ट हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित कर्मों का निर्देश योग और क्षेम के द्वारा किया गया है। मनुष्य की चिन्ताओं और विक्षेपों का कारण भी ये दो ही हैं। निर्योगक्षेम बनने का अर्थ है इन दोनों को त्याग देना जिससे चिन्ताओं से मुक्ति तत्काल ही मिलती हैं।निर्द्वन्द और निर्योगक्षेम बनने का उपदेश देना सरल है किन्तु साधक के लिये तत्त्वज्ञान का उपयोग तभी है जब इस ज्ञान को जीवन में उतारने की व्यावहारिक विधि का भी उपदेश दिया गया हो। इस श्लोक में ऐसी विधि का निर्देश आत्मवान भव इन शब्दों में किया गया है। द्वन्द्वों तथा योगक्षेम के कारण उत्पन्न दुख और पीड़ा केवल तभी सताते हैं जब हमारा तादात्म्य शरीर मन और बुद्धि के साथ होकर अहंकार और स्वार्थ की अधिकता होती है।इन अनात्म उपाधियों के साथ विद्यमान तादात्म्य को छोड़कर इनसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप के प्रति सतत जागरूक रहने का अभ्यास ही आत्मवान अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित होने का उपाय है। इसकी सिद्धि होने पर अहंकार नष्ट हो जाता है और वह साधक त्रिगुणों के परे आत्मा में स्थित हो जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुष को वेदों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। वास्तव में ज्ञानी पुरुष के होने के कारण वेदवाक्यों का प्रामाण्य सिद्ध होता है।यदि वैदिक यज्ञों के फलों की कामना त्यागनी चाहिये तो उनका अनुष्ठान किस लिये करें इसका उत्तर है
Swami Ramsukhdas
2.45।। व्याख्या-- 'त्रैगुण्यविषया वेदाः'-- यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोँके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है। यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है। 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन'-- हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा। 'निर्द्वन्द्वः'-- संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता 3।34) (टिप्पणी प0 81) । इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।यहाँ भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा क्यों दे रहे हैं? कारण कि द्वन्द्वोंसे सम्मोह होता है, संसारमें फँसावट होती है (गीता 7। 27)। जब साधक निर्द्वन्द्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीता 7। 28)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक सुखपूर्वक संसार-बंधनसे मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। निर्द्वन्द्व होनेसे मूढ़ता चली जाती है (गीता 15। 5)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीता 4। 22)। तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है। इसलिये भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं।दूसरी बात, अगर संसारमें किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिमें राग होगा, तो दूसरी वस्तु व्यक्ति आदिमें द्वेष हो जायगा--यह नियम है। ऐसा होनेपर भगवान्की उपेक्षा हो जायगी--यह भी एक प्रकारका द्वेष है। परन्तु जब साधकका भगवान्में प्रेम हो जायगा, तब संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारसे स्वाभाविक उपरति हो जायगी। उपरति होनेकी पहली अवस्था यह होगी कि साधकका प्रतिकूलतामें द्वेष नहीं होगा; किन्तु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षाके बाद उदासीनता होगी और उदासीनताके बाद उपरति होगी। उपरतिमें रागद्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रममें अगर सूक्ष्मतासे देखा जाय तो उपेक्षामें राग-द्वेषके संस्कार रहते हैं उदासीनतामें रागद्वेषकी सत्ता रहती है और उपरतिमें राग-द्वेषके न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है, किन्तु राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है। 'नित्यसत्त्वस्थः'-- द्वन्द्वोंसे रहित होनेका उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहनेवाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसीमें निरन्तर स्थित रह। 'निर्योगक्षेमः'-- (टिप्पणी प0 82.1) तू योग और क्षेमकी (टिप्पणी प0 82.2) इच्छा भी मत रख; क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेमका वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीता 9। 22)। 'आत्मवान्'-- तू केवल परमात्माके परायण हो जा। एक परमात्मप्राप्तिका ही लक्ष्य रख। सम्बन्ध-- तीनों गुणोंसे रहित निर्द्वन्द्व आदि हो जानेसे क्या होगा--इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.45।। हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत? निर्द्वन्द्व? नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित? योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.45।।तां योगबुद्धिमाह त्रैगुण्यविषया इत्यादिना। इतरदपोद्य वेदानां परोक्षार्थत्वात्ित्रगुणसम्बन्धिस्वर्गादिप्रतीतितोऽर्थ इव भाति।परोक्षवादो वेदोऽयं इति ह्युक्तम्। अतः प्रातीतिकेऽर्थे भ्रान्तिं मा कुर्वित्यर्थः।वादो विषयकत्वं च मुखतोवचनं स्मृतम् इत्यभिधानात्। न तु वेदपक्षो निषिध्यते।वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते। सर्वे वेदा यत्पदम् कठो.2।15वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनो रुचि(नस्तुष्टि) रेव च मनुः2।16वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः। भाग.6।1।40 इति वेदानां सर्वात्मना विष्णुपरत्वोक्तेस्तद्विहितस्य तद्विरुद्धस्य च धर्माधर्मोक्तेश्च।
Sri Anandgiri
।।2.45।।अविवेकिनामपि वेदाभ्यासवतां विवेकबुद्धिरुदेष्यतीत्याशङ्क्याह य एवमिति। तर्हि वेदार्थतया कामात्मता प्रशस्तेत्याशङ्क्याह निस्त्रैगुण्य इति। भवेति पदं निर्द्वन्द्वादिविशेषणेष्वपि प्रत्येकं संबध्यते। त्रयाणां सत्त्वादीनां गुणानां पुण्यपापव्यामिश्रकर्मतत्फलसंबन्धलक्षणः समाहारस्त्रैगुण्यमित्यङ्गीकृत्य व्याचष्टे संसार इति। वेदशब्देनात्र कर्मकाण्डमेव गृह्यते तदभ्यासवतां तदर्थानुष्ठानद्वारा संसारध्रौव्यान्न विवेकावसरोऽस्तीत्यर्थः। तर्हि संसारपरिवर्जनार्थं विवेकसिद्धये किं कर्तव्यमित्याशङ्क्याह त्वं त्विति। कथं निस्त्रैगुण्यो भवेति गुणत्रयराहित्यं विधीयते नित्यसत्त्वस्थो भवेति वाक्यशेषविरोधादित्याशङ्क्याह निष्काम इति। सप्रतिपक्षत्वं परस्परविरोधित्वं पदार्थौ शीतोष्णादिलक्षणौ। निष्कामत्वे द्वन्द्वान्निर्गतत्वं शीतोष्णादिसहिष्णुत्वं हेतुमुक्त्वा तत्रापि हेत्वपेक्षायां सदा सत्वगुणाश्रितत्वं हेतुमाह नित्येति। योगक्षेमव्यापृतचेतसो रजस्तमोभ्यामसंस्पृष्टे सत्त्वमात्रे समाश्रितत्वमशक्यमित्याशङ्क्याह तथेति। योगक्षेमयोर्जीवनहेतुतया पुरुषार्थसाधनत्वान्निर्योगक्षेमो भवेति कुतो विधिरित्याशङ्क्याह योगेति। योगक्षेमप्रधानत्वं सर्वस्य स्वारसिकमिति ततो निर्गमनमशक्यमित्याशङ्क्याह आत्मवानिति। अप्रमादो मनसो विषयपारवश्यशून्यत्वम्। अथ यथोक्तोपदेशस्य मुमुक्षुविषयत्वादर्जुनस्य मुमुक्षुत्वमिह विवक्षितमिति नेत्याह एष इति।
Sri Vallabhacharya
।।2.45।।स्वयमेव वेदतात्पर्यमाह भगवान् त्रैगुण्यविषया वेदा इति। यत एवं कामात्मनां त्रैगुण्याधिकारिणां त्रैगुण्यफलविषया वेदास्त्रिकाण्डविषया अपि अतस्त्वं वेदादिमूलानिस्त्रिगुणतत्त्वाश्रितो भव। त्रिगुणमाश्रितस्त्रैगुण्यस्तद्भिन्नो निस्त्रैगुण्यः। निस्त्रिगुणं मामाश्रितो भवेति गूढाभिप्रायः। तल्लिङ्गमाह निर्द्वन्द्व इत्यादि।त्रिदुःखसहनं धैर्यं इति नित्यं सत्वे धैर्ये स्थितःसत्त्वैकमनसो वृत्तिः इति वाक्यान्नित्यसत्त्वरूपभगवन्निष्ठो भवेति गूढाभिसन्धिः। स्वबलेन कृतमप्राप्तसम्पादनं योगः। प्राप्तपरिपालनं क्षेमः। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमौ तद्रहित इति योगानुरोधेनोक्तम्। वस्तुतस्तु सत्त्वैकमनसो भगवदीयस्य भक्तियोगानुसारेण भगवदधीनयोगक्षेमवत्त्वं सूच्यते निर्योगक्षेमशब्देन। एवमेवाग्रे वक्ष्यति। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 9।22 इति। आत्मना मनो विद्यते यस्य वश इति तथा।
Sridhara Swami
।।2.45।।ननु च यदि स्वर्गादिकं परमं फलं न भवति तर्हि किमिति वेदैस्तत्साधनतया कर्माणि विधीयन्ते तत्राह त्रैगुण्यविषया इति। त्रिगुणात्मकाः सकामा येऽधिकारिणस्तद्विषयास्तेषां कर्मफलसंबन्धप्रतिपादका वेदाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव। तत्रोपायमाह। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखशीतोष्णादियुगुलानि द्वन्द्वानि तद्रहितो भव। तानि सहस्वेत्यर्थः। कथमित्यत्राह। नित्यसत्त्वस्थः सन्। धैर्यमवलम्ब्येत्यर्थः। तथा निर्योगक्षेमः। अप्राप्तस्वीकारो योगः प्राप्तपरिपालनं क्षेमं तद्रहितः। आत्मवानप्रमत्तः। नहि द्वन्द्वाकुलस्य योगक्षेमव्यापृतस्य च प्रमादिनस्त्रैगुण्यातिक्रमः संभवतीति।