Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 78 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Synergy of Wisdom and Action

Sanskrit Shloka (Original)

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः | तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||१८-७८||

Transliteration

yatra yogeśvaraḥ kṛṣṇo yatra pārtho dhanurdharaḥ . tatra śrīrvijayo bhūtirdhruvā nītirmatirmama ||18-78||

Word-by-Word Meaning

यत्रwherever
योगेश्वरःthe Lord of Yoga
कृष्णःKrishna
यत्रwherever
पार्थःArjuna
धनुर्धरःthe archer
तत्रthere
श्रीःprosperity
विजयःvictory
भूतिःhappiness
ध्रुवाfirm
नीतिःpolicy
मतिःconviction
ममmy.Commentary This verse is called the Ekasloki Gita

📖 Translation

English

18.78 Wherever is Krishna, the Lord of Yoga; wherever is Arjuna, the wielder of the bow; there are prosperity, victory, happiness and firm policy; such is my conviction.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.78।। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, emulate Krishna by cultivating strategic vision, ethical leadership, and a clear sense of purpose. Then, like Arjuna, apply diligent effort, master your skills, and execute tasks with unwavering commitment. This synergy of wise planning and determined action will lead to career prosperity, project victory, and a stable, principled approach to your work.

🧘 For Stress & Anxiety

To manage stress and cultivate mental well-being, seek your inner 'Krishna' – your core wisdom, moral compass, or a guiding principle that offers clarity and peace. Combine this with the 'Arjuna' within – taking disciplined, purposeful action to address challenges rather than being paralyzed by them. This alignment of inner wisdom with decisive action fosters resilience, inner happiness, and a firm policy for handling life's pressures.

❤️ In Relationships

Build robust relationships by embodying Krishna's wisdom through empathy, clear communication, and principled boundaries, ensuring your interactions are guided by understanding and respect. Complement this with Arjuna's active commitment – investing effort, loyalty, and a willingness to act for the well-being of the relationship. This blend of sagacious guidance and dedicated participation cultivates harmonious connections and provides a firm policy for navigating relational dynamics.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

When divine wisdom and principled guidance align with dedicated, skillful action, prosperity, victory, happiness, and firm conviction are assured.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.78 यत्र wherever? योगेश्वरः the Lord of Yoga? कृष्णः Krishna? यत्र wherever? पार्थः Arjuna? धनुर्धरः the archer? तत्र there? श्रीः prosperity? विजयः victory? भूतिः happiness? ध्रुवा firm? नीतिः policy? मतिः conviction? मम my.Commentary This verse is called the Ekasloki Gita? i.e.? Bhagavad Gita in one verse. Repetition of even this one verse bestows the benefits of reading the whole of the scripture.Wherever On that side on which.Yogesvarah The Lord of Yoga. Krishna is called the Lord of Yogas as the seed of all Yogas comes forth from Him.Dhanurdharah The wielder of the bow called the Gandiva. There On the side of the Pandavas.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eighteenth discourse entitledThe Yoga of Liberation by Renunciation.OM SHANTIH SHANTIH SHANTIH ,,

Shri Purohit Swami

18.78 Wherever is the Lord Shri Krishna, the Prince of Wisdom, and wherever is Arjuna, the Great Archer, I am more than convinced that good fortune, victory, happiness and righteousness will follow"

Dr. S. Sankaranarayan

18.78. Where Krsna, the Lord of Yogins remains, where the son of Prtha holds his bow, there lie fortune, victory, prosperity and firm justice-so I believe.

Swami Adidevananda

18.78 Wherever there is Sri Krsna, the Lord of Yoga, and Arjuna the archer, there are ever fortune, victory, wealth and sound morality. This is my firm conviction.

Swami Gambirananda

18.78 Where there is Krsna, the Lord of yogas, and where there is Partha, the wielder of the bow, there are fortune, victory, prosperity and unfailing prudence. Such is my conviction.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.78।। सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है? जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही? ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। संजय का कथन यह है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं? वहाँ समृद्धि (श्री)? विजय? विस्तार और अचल नीति है? यह मेरा मत है।यदि संजय का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मत को हम पर थोपने का होता? और इस श्लोक में किसी विशेष सत्य का प्रतिपादन नहीं किया होता? तो? सार्वभौमिक शास्त्र के रूप में गीता को प्राप्त मान्यता समाप्त हो गयी होती।पूर्ण सिद्ध महर्षि व्यास इस प्रकार की त्रुटि कभी नहीं कर सकते थे? इस श्लोक का गम्भीर आशय है? जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है।योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में? श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है? जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में? पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित? परिच्छिन्न? असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है? तो निसन्देह? वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है? तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं? जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है।इस प्रकार? योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है? तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती। संक्षेप में? गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है? और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है।आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी? आज का मानव? जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है। इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है? लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है। मनुष्य के सुखद जीवन के विषय में श्री वेद व्यास जी की यही कल्पना है। केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है? परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ हैपरन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। सम्पूर्ण गीता में व्याप्त समाञ्जस्य के इस सिद्धांत को मैंने यथाशक्ति एवं यथासंभव सर्वत्र स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मनुष्य के चिरस्थायी सुख का यही एक मार्ग है।संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने? विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं (धनुर्धारी अर्जुन)? और इसी के साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण)? तो ऐसे राष्ट्र में समृद्धि? विजय? भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है।समृद्धि? विजय? विस्तार और दृढ़ नीति का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में? हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है? और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। दृढ़ नीति और क्षमताओं के विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है? वरन् सभी आत्मसंयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है।गीता के अनेक व्याख्याकार? हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म। मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है। जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है? तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए? गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान? प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्याय।।इस प्रकार? श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय समाप्त होता है।इस अन्तिम अध्याय का शार्षक मोक्षसंन्यासयोग है। यह नाम हमें वेदान्त के अस्पर्शयोग का स्मरण कराता है? जिसकी परिभाषा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में दी है। जीवन के असत् मूल्यों का परित्याग करने का अर्थ ही अपने स्वत सिद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करना है। हममें स्थित पशु का त्याग (संन्यास) करना ही? हममें स्थित दिव्यतत्त्व का मोक्ष है।मेरे सद्गुरु स्वामी तपोवनजी महाराज को समर्पित।।

Swami Ramsukhdas

।।18.78।। व्याख्या --   यत्र योगेश्वरः कृष्णो पार्थो धनुर्धरः -- सञ्जय कहते हैं कि राजन जहाँ अर्जुनका संरक्षण करनेवाले? उनको सम्मति देनेवाले? सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर? महान् बलशाली? महान् ऐश्वर्यवान्? महान् विद्यावान्? महान् चतुर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ भगवान्की आज्ञाका पालन करनेवाले? भगवान्के प्रिय सखा तथा भक्तगाण्डीवधनुर्धारी अर्जुन हैं? उसी पक्षमें श्री? विजय? विभूति और अचल नीति -- ये सभी हैं और मेरी सम्मति भी उधर ही है। भगवान्ने जब अर्जुनको दिव्य दृष्टि दी? उस समय सञ्जयने भगवान्को महायोगेश्वरः (टिप्पणी प0 1001) कहा था? अब उसी महायोगेश्वरकी याद दिलाते हुए यहाँ योगेश्वरः कहते हैं। वे सम्पूर्ण योगोंके ईश्वर (मालिक) भगवान् कृष्ण तो प्रेरक हैं और उनकी आज्ञाका पालन करनेवाले धनुर्धारी अर्जुन प्रेर्य हैं। गीतामें भगवान्के लियेमहायोगेश्वर?योगेश्वर आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है। इनका तात्पर्य है कि भगवान् सब योगियोंको सिखानेवाले हैं। भगवान्को खुद सीखना नहीं पड़ता क्योंकि उनका योग स्वतःसिद्ध है। सर्वज्ञता? ऐश्वर्य? सौन्दर्य? माधुर्य आदि जितने भी वैभवशाली गुण हैं? वे सबकेसब भगवान्में स्वतः रहते हैं? वे गुण भगवान्में नित्य रहते हैं? असीम रहते हैं। ऐसे पिताका पिता? फिर पिताका पिता -- यह परम्परा अन्तमें जाकर परमपिता परमात्मामें समाप्त होती है? ऐसे ही जितने भी गुण हैं? उन सबकी समाप्ति परमात्मामें ही होती है।पहले अध्यायमें जब युद्धकी घोषणाका प्रसङ्ग आया? तब कौरवपक्षमें सबसे पहले भीष्मजीने शङ्ख बजाया। भीष्मजी कौरवसेनाके अधिपति थे? इसलिये उनका शङ्ख बजाना उचित ही था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तो पाण्डवसेनामें सारथि बने हुए हैं और सबसे पहले शङ्ख बजाकर युद्धकी घोषणा करते हैं लौकिक दृष्टिसे देखा जाय तो सबसे पहले शङ्ख बजानेका भगवान्का कोई अधिकार नहीं दीखता। फिर भी वे शङ्ख बजाते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि पाण्डवसेनामें सबसे मुख्य भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं और दूसरे नम्बरमें अर्जुन हैं। इसलिये इन दोनोंने पाण्डवसेनामें सबसे पहले शङ्ख बजाये। तात्पर्य यह हुआ कि सञ्जयने जैसे आरम्भमें (शङ्खवादनक्रियामें) दोनोंकी मुख्यता प्रकट की? ऐसे ही यहाँ अन्तमें इन दोनोंका नाम लेकर दोनोंकी मुख्यता प्रकट करते हैं।गीताभरमें पार्थ सम्बोधनकी अड़तीस बार आवृत्ति हुई है। अर्जुनके लिये इतनी संख्यामें और कोई सम्बोधन नहीं आया है। इससे मालूम होता है कि भगवान्को पार्थ सम्बोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसी रीतिसे अर्जुनको भी कृष्ण सम्बोधन ज्यादा प्रिय लगता है। इसलिये गीतामें कृष्ण सम्बोधनकी आवृत्ति नौ बार हुई है। भगवान्के सम्बोधनोंमें इतनी संख्यामें दूसरे किसी भी सम्बोधनकी आवृत्ति नहीं हुई। अन्तमें गीताका उपसंहार करते हुए सञ्जयने भी कृष्ण और पार्थ ये दोनों नाम लिये हैं।तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम -- लक्ष्मी? शोभा? सम्पत्ति -- ये सब श्री शब्दके अन्तर्गत हैं। जहाँ श्रीपति भगवान् कृष्ण हैं? वहाँ श्री रहेगी ही।विजय नाम अर्जुनका भी है और शूरवीरता आदिका भी। जहाँ विजयरूप अर्जुन होंगे? वहाँ शूरवीरता? उत्साह आदि क्षात्रऐश्वर्य रहेंगे ही।ऐसे ही जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण होंगे? वहाँ विभूति -- ऐश्वर्य? महत्ता? प्रभाव? सामर्थ्य आदि सबकेसब भगवद्गुण रहेंगे ही और जहाँ धर्मात्मा अर्जुन होंगे? वहाँ ध्रुवा नीति -- अटल नीति? न्याय? धर्म आदि रहेंगे ही।वास्तवमें श्री? विजय? विभूति और ध्रुवा नीति -- ये सब गुण भगवान्में और अर्जुनमें हरदम विद्यमान रहते हैं। उपर्युक्त दो विभाग तो मुख्यताको लेकर किये गये हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन -- ये दोनों जहाँ रहेंगे? वहाँ अनन्त ऐश्वर्य? अनन्त माधुर्य? अनन्त सौशील्य? अनन्त सौजन्य? अनन्त सौन्दर्य आदि दिव्य गुण रहेंगे ही।धृतराष्ट्रका विजयकी गूढ़ाभिसन्धिरूप जो प्रश्न है? उसका उत्तर सञ्जय यहाँ सम्यक् रीतिसे दे रहे हैं। तात्पर्य है कि पाण्डुपुत्रोंकी विजय निश्चित है? इसमें कोई सन्देह नहीं है। ज्ञानयज्ञः सुसम्पन्नः प्रीतये पार्थसारथेः। अङ्गीकरोतु तत्सर्वं मुकुन्दो भक्तवत्सलः।। नेत्रवेदखयुग्मे हि बहुधान्ये च वत्सरे (टिप्पणी प0 1002) संजीवनी मुमुक्षूणां माधवे पूर्णतामियात्।। इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।18।।

Swami Tejomayananda

।।18.78।। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.78।। पूर्णादोषमहाविष्णोर्गीतामाश्रित्य लेशतः। निरूपणं कृतं तेन प्रीयतां मे सदा विभुः।सङ्कराख्यस्य दुयोर्नेर्निस्सृतेन रजस्वला। गीतानारी समीरेण शोधिता हंसरूपिणा।।1।।मायिनः शलभायन्ते भास्करस्तस्करायते। यस्य तस्मिन्प्राणनाथे यतीन्द्रे भक्तिरस्तु मे।।2।।

Sri Anandgiri

।।18.78।।द्वयोरपि कृष्णार्जुनयोर्नरनारायणयोः संवादस्य प्रामाण्यार्थं परममुत्कर्षं दर्शयति -- किं बहुनेति। कथं सर्वेषां योगानामीश्वरो भगवानिति तत्राह -- तत्प्रभवत्वादिति। सर्वयोगो ज्ञानं कर्म च तस्य बीजं शास्त्रीयं ज्ञानवैराग्यादि तद्धि भगवदधीनं तदनुग्रहविहीनस्य तदयोगादतो योगतत्फलयोर्भगवदनुग्रहायत्तत्वाद्भगवतो योगेश्वरत्वमित्यर्थः। श्रीर्लक्ष्मीर्विजयः परम उत्कर्षः। राज्ञो धृतराष्ट्रस्य स्वपुत्रेषु विजयाशां शिथिलीकृत्य पाण्डवेषु जयप्राप्तिमैकान्तिकीमुपसंहरति -- इत्येवमिति। उपायोपेयभावेन निष्ठाद्वयस्य प्रतिष्ठापितत्वात्कर्मनिष्ठा परंपरया ज्ञाननिष्ठाहेतुः? ज्ञाननिष्ठा तु साक्षादेव मोक्षहेतुरिति शास्त्रार्थमुपसंहर्तुमितीत्युक्तम्।काण्डत्रयात्मकं शास्त्रं पदवाक्यार्थगोचरम्। आदिमध्यान्तषट्केषु व्याख्याया गोचरीकृतम्।।1।।संक्षेपविस्तराभ्यां यो लक्षणैरुपपादितः। सोऽर्थोऽन्तिमेन संक्षिप्य लक्षणेन विवक्षितः।।2।।गीताशास्त्रमहार्णवोत्थममृतं वैकुण्ठकण्ठोद्भवं श्रीकण्ठापरनामवन्मुनिकृतं निष्ठाद्व्यद्योतितम्।निष्ठा यत्र मतिप्रसादजननी साक्षात्कृतं कुर्वती मोक्षे पर्यवसास्यति प्रतिदिनं सेवध्वमेतद्बुधाः।।3।।प्राचामाचार्यपादानां पदवीमनुगच्छता। गीताभाष्ये कृता टीका टीकतां पुरुषोत्तमम्।।4।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यशुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यभगवदानन्दगिरिविरचितेश्रीगीताभाष्यविवेचनेऽष्टादशोऽध्यायः।।18।।

Sri Vallabhacharya

।।18.78।।अतो राजंस्त्वमेवं सर्वमालोच्य निस्संशयो भव? किंबहुना यत्रेति। यत्र योगेश्वरः कृष्णः? यत्र पार्थो धनुर्धरः? तत्र श्रीः राज्यलक्ष्मीः? विजयो ध्रुवा निश्चिता नीतिः? अन्यत्रैवं न? भगवतः श्रीपतित्वात् अर्जुनस्य विजयत्वात्? तत्संयोगे एव सर्वं ध्रुवं नीतिश्चेति मे मतिः। अन्येषामेवं भातु मा भातु वा? ममत्वेवं प्रतिभातीत्यर्थः।यावत्तदुक्तमार्गेण श्रीकृष्णः शरणं मम। नरो न भावयेद्भक्त्या तावन्मोहो न नश्यति।।1।।साङ्ख्यबुद्ध्या नात्मभिन्ने स्वात्मन्यवगते क्रिया। भगवत्यर्पिता कार्या तथा योगधियाऽपि च।।2।।सापि भक्त्या गमयति श्रीकृष्णस्याक्षरं पदम्। तत्रापि पुष्टिभक्त्या हि हरितत्त्वावबोधनम्।।3।।तत्प्रवेशः फलं काम्यं भगवांस्तु परं फलम्। सन्न्यस्य सर्वधर्मान्वा शरणं भावयेत्प्रभुम्।।4।।तदाज्ञा धर्मतः सिद्धिरिति गीतार्थसङ्ग्रहः। विवेकधैर्यहेतुभ्यामाश्रयोऽयं निरूपितः।।5।।तथासति स्थिता राज्ये भगवद्धर्मतेति च।।6।।कर्मान्तर्गतमेव यत्र विमलं ज्ञानं विशुद्धं परं साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमैकविषयं भक्तिश्च निर्हेतुका।मर्यादा भुवि पुष्टिरुद्भवमिता गत्या प्रपत्त्यात्मनः सर्वत्यागत एव सेयममला गीता समुद्भासते।।6।।या वेदार्थपराद्ध्य्ररत्नविलसन्मञ्जूषिका दूषिका निस्सत्त्वस्य च यन्त्रिणा भगवता पार्थार्थमुद्धाटिता।स्वस्नेहाद्विमतान्तरालतिमिरे श्रीवल्लभाग्नेर्मया प्रादुर्भावितदीपिकात इह सा सन्दृश्यतां भो बुधाः।।7।।श्रीवल्लभविभुचरणाम्बुजयुगविलसद्रजस्सनाथेन। कृतया तुष्यतु रमया सह हरिरनया सतत्त्वदीपिकाया।।8।।,

Sridhara Swami

।।18.78।।अतस्त्वं पुत्राणां राज्यादिशङ्कां परित्यजेत्याशयेनाह -- यत्रेति। यत्र येषां पाण्डवानां पक्षे योगेश्वरः श्रीकृष्णो वर्तते? यत्र च पार्थो गाण्डीवधनुर्धरः तत्रैव श्री राज्यलक्ष्मीः? तत्रैव च विजयः तत्रैव च भूतिरुत्तरोत्तराभिवृद्धिश्च? तत्रैव नीतिर्नयोऽपि ध्रुवा निश्चितेति सर्वत्र संबद्ध्यते। इति मम मतिर्निश्चयः। अत इदानीमपि तावत्सपुत्रस्त्वं श्रीकृष्णं शरणमुपेत्य पाण्डवान्प्रसाद्य सर्वस्वं च तेभ्यो निवेद्य पुत्रप्राणरक्षणं कुर्विति भावः। भगवद्भक्तियुक्तस्य तत्प्रसादात्मबोधतः। सुखं बन्धविमुक्तिः स्यादिति गीतार्थसंग्रहः।।1।।तथाहिपुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया?भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन इत्यादौ भगवद्भक्तेर्मोक्षं प्रति साधकतमत्वश्रवणात्तदेकान्तभक्तिरेव तत्प्रसादोत्थज्ञानावान्तरव्यापारमात्रयुक्ता मोक्षहेतुरिति स्फुटं प्रतीयते। ज्ञानस्य भक्त्यवान्तरव्यापारत्वमेव युक्तम्।तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते?भद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते इत्यादिवचनात्तत्त्वज्ञानमेव भक्तिरित्युक्तम्।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्। भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः इत्यादौ भेदेन निर्देशात्। न चैवं सतितमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इत्यादि श्रुतिविरोधः शङ्कनीयः? भक्त्यवान्तरव्यापारत्वाज्ज्ञानस्य। न हि काष्ठैः पचतीत्युक्ते ज्वालानामसाधनत्वमुक्तं भवति। किंचयस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनाम्देहान्ते देवः परं ब्रह्म तारकं व्याचष्टेयमेवैष वृणुते तेन लभ्यः इत्यादि श्रुतिस्मृतिपुराणवचनान्येवं सति समंजसानि भवन्ति तस्माद्भक्तिरेव मोक्षहेतुरिति सिद्धम्।।तेनैव दत्तया मत्या तद्गीताविवृतिः कृता। स एव परमानन्दस्तया प्रीणातु माधवः।।1।।परमानन्दपादाब्जरजःश्रीधारिणाधुना। श्रीधरस्वामियतिना कृता गीतासुबोधिनी।।2।।स्वप्रागल्भ्यबलाद्विलोड्य भगवद्गीतां तदन्तर्गतं तत्त्वं प्रेप्सुरुपैति किं गुरुकृपापीयूषदृष्टिं विना।अम्बु स्वाञ्जलिना निरस्य जलधेरादित्सुरन्तर्मणीनावर्तेषु न किं निमज्जति जनः सत्कर्णधारं विना।।3।।

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