Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 54 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Inner Peace & Equanimity

Sanskrit Shloka (Original)

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति | समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||१८-५४||

Transliteration

brahmabhūtaḥ prasannātmā na śocati na kāṅkṣati . samaḥ sarveṣu bhūteṣu madbhaktiṃ labhate parām ||18-54||

Word-by-Word Meaning

ब्रह्मभूतःhaving become Brahman
प्रसन्नात्माsereneminded
not
शोचति(he) grieves
not
काङ्क्षतिdesires
समःthe same
सर्वेषुall
भूतेषुin beings
मद्भक्तिम्devotion unto Me
लभतेobtains

📖 Translation

English

18.54 Becoming Brahman, serene in the Self, he neither grieves nor desires, the same to all beings, he obtains supreme devotion to Me.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.54।। ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach your work with dedication but without excessive attachment to specific outcomes (success or failure). Maintain equanimity in all professional dealings, treating colleagues and clients with fairness and empathy, seeing their well-being as connected to your own. This fosters a harmonious and productive environment, rooted in a higher purpose beyond mere personal gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate a serene mind by consciously releasing the burden of past regrets (grief) and future anxieties (desire). Practice emotional balance and resilience, viewing external challenges as transient and fostering an internal state of peace that is independent of circumstances. This allows you to respond to stress with calm discernment rather than reactive agitation.

❤️ In Relationships

Extend unconditional acceptance and profound empathy to all beings, seeing beyond superficial differences and personal biases. Dissolve judgments, prejudices, and narrow-mindedness, fostering genuine connection and compassion. Share in others' joys and sorrows, understanding their experiences as your own, which naturally builds strong, loving, and interconnected communities.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Achieve profound inner peace and universal empathy by transcending personal desires and grief, leading to ultimate spiritual connection and a life of selfless, compassionate engagement.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.54 ब्रह्मभूतः having become Brahman? प्रसन्नात्मा sereneminded? न not? शोचति (he) grieves? न not? काङ्क्षति desires? समः the same? सर्वेषु all? भूतेषु in beings? मद्भक्तिम् devotion unto Me? लभते obtains? पराम् supreme.Commentary Brahmabhutah Having attained to Brahman. His attainment of perfect freedom or oneness with the Supreme is described in the next verse.He is tranilminded. He is in a state of balance and eanimity. There is nothing connected with the little personality that may cause him to grieve or prompt him to feel desire. When this state is attained? the multiplicity of objects gradually disappears and he perceives only unity everywhere. The waking and dream consciousness that gives rise to false knowledge gradually passes away.He does not grieve about his bodily wants. If he fails in his attempt to fulfil them? he does not grieve either. He always keeps evenness of mind in success and failure. He has no longing for any object that is not attained.Na sochati na kankshati can also be interpreted as he neither grieves nor exults.Samah sarveshu bhuteshu may also mean he puts himself in the position of others and feels for others. If anyone is in acute agony or distress? he himself feels that he is affected. His heart is very tender and soft. He is extremely compassionate and merciful. He considers that the pleasure and pain of all beings are his own. If others rejoice he also rejoices if others are in distress? he also is distressed. His heart is so much expanded that he feels for all. Jealousy? narrowness of heart? pettymindedness? the idea of separateness? all barriers that separate man from man? prejudices of all sorts and dislike for others -- all vanished in toto. He has cosmic love. He is a cosmic benefactor. He is the friend of all. This state of expansion is beyond description. One has to experience it for oneself. Such a devotee or aspirant attains supreme devotion to Me? the fourth or the highest of the four kinds of devotion mentioned in verse 16 of chapter VII? viz.? devotion of knowledge of the man of wisdom. (Cf.II.70)

Shri Purohit Swami

18.54 And when he becomes one with the Eternal, and his soul knows the bliss that belongs to the Self, he feels no desire and no regret, he regards all beings equally and enjoys the blessing of supreme devotion to Me.

Dr. S. Sankaranarayan

18.54. Having become the Brahman, the serene-minded one neither grieves nor rejoices; remaining eal to all beings, he gains the highest devotion to Me.

Swami Adidevananda

18.54 Having realised the state of Brahman, tranil, he neither grieves nor craves. Regarding all beings alike, he attains supreme devotion to Me.

Swami Gambirananda

18.54 One who has become Brahman and has attained the blissful Self does not grieve or desire. Becoming the same towards all beings, he attains supreme devotion to Me.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.54।। अहंकार और उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के परित्याग से साधक का मन शान्त हो जाता है। प्राय मन के असंयमित होने तथा जीवन के त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन के कारण ही अन्तकरण में विक्षेप और संभ्रम उत्पन्न होते हैं। उनकी निवृत्ति से मन आपेक्षिक शान्ति को प्राप्त करता है। प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की गयी शान्ति स्वरूपानुभव से स्वाभाविक बन जाती है।कृत्रिम शान्ति को स्वाभाविक शान्ति में परिवर्तित करने के लिए शारीरिक प्रयत्नों की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए तो मन की सतत सजगता की ही अपेक्षा होती है। प्राय यह देखा जाता है कि कर्तृत्व के अभिमान का त्याग करने पर भी? साधक में यदि वैराग्य की कुछ न्यूनता हो? तो उसके मन में भोक्तृत्व का अभिमान उत्पन्न हो जाता है। इसी भोक्तृत्वाभिमान के कारण अनेक साधकगण पुन भोगों में आसक्त हो जाते हैं। इसीलिए? साधक को अत्यधिक सजग रहना चाहिए। कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों का नाश होना अनिवार्य है।इस श्लोक में प्रयुक्त ब्रह्मभूत शब्द उस साधक को दर्शाता है? जिसने अध्यात्म शास्त्र का श्रवण और मनन करके अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उसने ब्रह्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त कर ली है? तथापि? इस ज्ञान के कारण मन के विक्षेपों की संख्या घटती जाती है। उपाधितादात्म्य से ही विक्षेप उत्पन्न होते हैं? परन्तु विवेकी पुरुष का प्रयत्न उस तादात्म्य की निवृत्ति के लिए ही होता है। जिस मात्रा में वह अपने विवेकी स्वरूप का भान बनाये रखने में समर्थ होता है? उसी मात्रा में उसका अन्तकरण प्रसन्न? अर्थात् शान्त? शुद्ध और स्थिर रहता है।उपर्युक्त गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक की विषयोपभोग की इच्छा समाप्त प्राय हो जाती है। वह भोग की आकांक्षा नहीं करता ( न कांक्षति)। इच्छा के न होने पर शोक का भी अभाव हो जाता है (न शोचति)। इष्ट फल के प्राप्त न होने पर अथवा उसके नष्ट हो जाने पर दुख अवश्यंभावी है। परन्तु विवेकी साधक इन दोनों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इच्छा? शोक आदि अहंकार के धर्म है? शुद्ध आत्मा के नहीं।जिस विवेकी साधक का सुख बाह्यविषयनिरपेक्ष हो जाता है? वह अपने उस आत्मस्वरूप का दर्शन करता है? जो भूतमात्र की आत्मा है। अत वह समस्त भूतों के प्रति सम हो जाता है।उक्त गुणों से युक्त साधक मेरी परा भक्ति को प्राप्त कर लेता है। इसके पूर्व? एक सम्पूर्ण अध्याय में भक्तियोग का विस्तृत विवेचन किया गया था। भक्ति प्रेमस्वरूप है। प्रेम का मापदण्ड है? प्रियतम के साथ तादात्म्य उस के साथ पूर्णत एकरूप हो जाना। इस पूर्ण तादात्म्य के लिए साधक का उपाधियों के साथ तादात्म्य तथा विषय संग सर्वथा समाप्त हो जाना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण के तीन श्लोकों में उल्लिखित गुणों से युक्त पुरुष ही परमात्मा की परा भक्ति का अधिकारी होता है।साधना के अन्तिम सोपान को अगले श्लोक में बताया गया है

Swami Ramsukhdas

।।18.54।। व्याख्या --   ब्रह्मभूतः -- जब अन्तःकरणमें विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व मिट जाता है? तब अन्तःकरणकी अहंकार? घमंड आदि वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं अर्थात् उनका त्याग हो जाता है। फिर अपने पास जो वस्तुएँ हैं? उनमें भी ममता नहीं रहती। ममता न रहनेसे सुख और भोगबुद्धिसे वस्तुओंका संग्रह नहीं होता। जब सुख और भोगबुद्धि मिट जाती है? तब अन्तःकरणमें स्वतःस्वाभाविक ही शान्ति आ जाती है।इस प्रकार साधक जब असत्से ऊपर उठ जाता है? तब वह ब्रह्मप्राप्तिका पात्र बन जाता है। पात्र बननेपर उसकी ब्रह्मभूतअवस्था अपनेआप हो जाती है। इसके लिये उसको कुछ करना नहीं पड़ता। इस अवस्थामें मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ और ब्रह्म मेरा स्वरूप है ऐसा उसको अपनी दृष्टिसे अनुभव हो जाता है। इसी अवस्थाको यहाँ (और गीता 5। 24 में भी) ब्रह्मभूतः पदसे कहा गया है।प्रसन्नात्मा -- जब अन्तःकरणमें असत् वस्तुओंका महत्त्व हो जाता है? तब उन वस्तुओंको प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है और अशान्ति (हलचल) पैदा हो जाती है। परन्तु जब असत् वस्तुओंका महत्त्व मिट जाता है? तब साधकके चित्तमें स्वाभाविक ही प्रसन्नता रहती है। अप्रसन्नताका कारण मिट जानेसे फिर कभी अप्रसन्नता होती ही नहीं। कारण कि सांख्ययोगी साधकके अन्तःकरणमें अपनेसहित संसारका अभाव और परमात्मतत्त्वका भाव अटल रहता है।न शोचति न काङ्क्षति -- उस प्रसन्नताकी पहचान यह है कि वह शोकचिन्ता नहीं करता। सांसारिक कितनी ही बड़ी हानि हो जाय? तो भी वह शोक नहीं करता और अमुक परिस्थिति प्राप्त हो जाय -- ऐसी इच्छा भी नहीं करता। तात्पर्य है कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली तथा आनेजानेवाली परिवर्तनशील परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ आदिके बननेबिगड़नेसे उसपर कोई असर ही नहीं पड़ता। जो परमात्मामें अटलरूपसे स्थित है? उसपर आनेजानेवाली परिस्थितियोंका असर हो ही कैसे सकता हैसमः सर्वेषु भूतेषु -- जबतक साधकमें किञ्चिन्मात्र भी हर्षशोक? रागद्वेष आदि द्वन्द्व रहते हैं? तबतक वह सर्वत्र व्याप्त परमात्माके साथ अभिन्नताका अनुभव नहीं कर सकता। अभिन्नताका अनुभव न होनेसे वह अपनेको सम्पूर्ण भूतोंमें सम नहीं देख सकता। परन्तु जब साधक हर्षशोकादि द्वन्द्वोंसे सर्वथा रहित हो जाता है? तब परमात्माके साथ स्वतःस्वाभाविक अभिन्नता (जो कि सदासे ही थी) का अनुभव हो जाता है। परमात्माके साथ अभिन्नता होनेसे? अपना कोई व्यक्तित्व (टिप्पणी प0 948) (व्यक्तित्व उसे कहते हैं? जिसमें मनुष्य अपनी सत्ता अलग मानता है और जिससे बन्धन होता है) न रहनेसे अर्थात् मैं हूँ इस रूपसे अपनी कोई अलग सत्ता न रहनेसे वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम है -- समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29)? ऐसे ही वह भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हो जाता है।वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम किस प्रकार होता है जैसे -- मनोराज्य और स्वप्नमें जो नाना सृष्टि होती है? उसमें मन ही अनेक रूप धारण करता है अर्थात् वह सृष्टि मनोमयी होती है। मनोमयी होनेसे जैसे सब सृष्टिमें मन है और मनमें सब सृष्टि है? ऐसे ही सब प्राणियोंमें (आत्मरूपसे) वह है और उसमें सम्पूर्ण प्राणी हैं (गीता 6। 29)। इसीको यहाँ समः सर्वेषु भूतेषु कहा है।मद्भक्तिं लभते पराम् -- जब समरूप परमात्माके साथ अभिन्नताका अनुभव होनेसे साधकका सर्वत्र समभाव हो जाता है? तब उसका परमात्मामें प्रतिक्षण वर्धमान एक विलक्षण आकर्षण? खिंचाव? अनुराग हो जाता है। उसीको यहाँ पराभक्ति कहा है।पाँचवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें जैसे ब्रह्मभूतअवस्थाके बाद ब्रह्मनिर्वाणकी प्राप्ति बतायी है -- स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति? ऐसे ही यहाँ ब्रह्मभूतअवस्थाके बाद पराभक्तिकी प्राप्ति बतायी है। सम्बन्ध --   अब आगेके श्लोकमें पराभक्तिका फल बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.54।। ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.54।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।18.54।।अपेक्षितं पूरयन्नुत्तरश्लोकमवतारयति -- अनेनेति। बुद्ध्या विशुद्धयेत्यादिरत्र क्रमः? ब्रह्मप्राप्तो जीवन्नेव निवृत्ताशेषानर्थो निरतिशयानन्दं ब्रह्मात्मत्वेनानुभवन्नित्यर्थः। अध्यात्मं प्रत्यगात्मा तस्मिन्प्रसादः सर्वानर्थनिवृत्त्या परमानन्दाविर्भावः स लब्धो येन जीवन्मुक्तेन स तथा। न शोचतीत्यादौ तात्पर्यमाह -- ब्रह्मभूतस्येति। प्राप्तव्यपरिहार्याभावनिश्चयादित्यर्थः। स्वभावानुवादमुपपादयति -- नहीति। तस्याप्राप्तविषयाभावान्नापि परिहार्यापरिहारप्रयुक्तः शोकः परिहार्यस्यैवाभावादित्यर्थः। पाठान्तरे तु रमणीयं प्राप्य न प्रमोदते तदभावादित्यर्थः। विवक्षितं समदर्शनं विशदयति -- आत्मेति। ननु सर्वेषु भूतेष्वात्मनः समस्य निर्विशेषस्य दर्शनमत्राभिप्रेतं किं नेष्यते तत्राह -- नात्मेति। उक्तविशेषणवतो जीवन्मुक्तस्य ज्ञाननिष्ठा प्रागुक्तक्रमेण प्राप्ता सुप्रतिष्ठिता भवतीत्याह -- एवंभूत इति। श्रवणमनननिदिध्यासनवतः शमादियुक्तस्याभ्यस्तैः श्रवणादिभिर्ब्रह्मात्मन्यपरोक्षं मोक्षफलं ज्ञानं सिध्यतीत्यर्थः। आर्तादिभक्तित्रयापेक्षया ज्ञानलक्षणा भक्तिश्चतुर्थीत्युक्ता। तत्र सप्तमस्थवाक्यमनुकूलयति -- चतुर्विधा इति।

Sri Vallabhacharya

।।18.54।।स ब्रह्मभूतः सर्वनिरपेक्षः शुक इव परां ज्ञानादपि फलरूपां मम पुरुषोत्तमस्य क्षराक्षरातीतस्य भक्तिं नवविधां प्रेमलक्षणां लभते? आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः,[5।7।10] इत्यादिभागवतवाक्यात्। अत्रमद्भक्तिं इत्यनेनाक्षरब्रह्मात्मत्वज्ञानिनो जीवन्मुक्तस्यापि पुरुषोत्तमभक्तिरेवातिशयितपुरुषार्थो भगवताऽऽभिमतः? न त्वक्षरब्रह्मैक्यं साङ्ख्यादिनेति गम्यते। अन्यथैवं नोक्तं स्यात्। न चेहब्रह्मभूयाय कल्पते इत्येव न ब्रह्मरूप इत्यतोविशते तदनन्तरं [18।55] इत्यैक्यमेवायातीति वाच्यम्? अग्रेब्रह्मभूतः इति सिद्धनिर्देशस्तदनन्तरं प्रत्युत तस्य भक्तिलाभकथनात्? तयाऽक्षरातीतपुरुषोत्तमतत्त्वाभिज्ञानतः पुरुषोत्तमस्वरूपप्रवेशोक्तेश्च अतोऽक्षरज्ञानरूपं प्रमाणमार्गादधिकोऽयं प्रमेयमार्गः पुरुषोत्तमसम्बन्धपर्यवसायीति।अक्षरब्रह्ममार्गे हि अक्षरब्रह्मोपासनम्? ततः श्रवणादीच्छा? ततः श्रवणादिसिद्ध्यर्थकज्ञानतोऽक्षरात्मैक्यफलम्। भगवन्मार्गे तु भगवदीयस्वधर्माचरणद्वारा श्रीपुरुषोत्तमभजनं तत्कृपयाक्षरात्मब्रह्मभावेऽपि श्रवणकीर्तनसेवनादिभिः पुनरपि श्रीशुकोद्धवादेरिव पुरुषोत्तमभक्त्या प्रवेश एव एकं कामिकं फलमिति भेदः। अतएववदन्ति तत्तत्त्वविदः [भाग.1।2।11] इत्यत्र यशोदोत्सङ्गलालितं पुरुषोत्तमतत्त्वं भगवानिति सात्वतः? उपासतेअक्षरं ब्रह्म इति साङ्ख्याः?परमात्मा इति योगिन इत्युक्तम्। ते च यथायथं निर्गुणसगुणभक्तिज्ञानकर्मभावधीविषयाः। निर्गुणपरभक्तिविषयस्तु पुष्टिपुरुषोत्तम एव गुणातीतः लोकवेदाप्रथितः। इदं सर्वंगतेरर्थवत्त्वमुभयथाऽन्यथा हि विरोधः [ब्र.सू.3।3।29] इति सूत्रे विचारितं भाष्यकारेणेति ततोऽवगन्तव्यम्।

Sridhara Swami

।।18.54।।ब्रह्माहमित्येवं नैश्चल्येनावस्थानस्य फलमाह -- ब्रह्मभूत इति। ब्रह्मभूतो ब्रह्मण्यवस्थितः प्रसन्नचित्तो नष्टं न शोचति। न चाप्राप्तं काङ्क्षति देहाद्यभिमानाभावात्। अतएव सर्वेष्वपि भूतेषु समः सन् रागद्वेषादिकृतविक्षेपाभावात्सर्वभूतेषु मद्भावनालक्षणां परां मद्भक्तिं लभते।

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