Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 41 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Intrinsic Nature (Svabhava)

Sanskrit Shloka (Original)

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप | कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ||१८-४१||

Transliteration

brāhmaṇakṣatriyaviśāṃ śūdrāṇāṃ ca parantapa . karmāṇi pravibhaktāni svabhāvaprabhavairguṇaiḥ ||18-41||

Word-by-Word Meaning

ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्of Brahmanas
शूद्राणाम्of Sudras
as also
परंतपO Parantapa
कर्माणिduties
प्रविभक्तानिare distributed
स्वभावप्रभवैःborn of their own nature
गुणैःby alities.Commentary Brahmanas

📖 Translation

English

18.41 Of Brahmanas, Kshatriyas and Vaisyas, as also of Sudras, O Arjuna, the duties are distributed according to the alities born of their own nature.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.41।। हे परन्तप!  ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के कर्म, स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Identify your innate strengths, passions, and working style (your 'svabhava' or natural inclination). Choose or shape your career path to align with these natural aptitudes rather than solely pursuing external rewards or societal expectations. This leads to greater fulfillment, efficiency, and a deep sense of purpose in your professional life.

🧘 For Stress & Anxiety

Reduce stress and burnout by recognizing and accepting your inherent temperament and capacities. Don't force yourself into roles or expectations that fundamentally clash with your nature. Embracing your authentic self and finding meaning in your natural contributions fosters mental well-being and reduces internal conflict and anxiety.

❤️ In Relationships

Understand that people possess different intrinsic natures and strengths (Gunas). Appreciate the diverse contributions individuals bring to a team, family, or community, recognizing that each role, when performed according to one's true nature, is valuable and necessary for collective harmony. This promotes empathy, reduces judgment, and strengthens collaborative efforts.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Discover your intrinsic nature and align your actions and contributions accordingly; this path leads to purpose, effectiveness, and inner harmony.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.41 ब्राह्मणक्षत्रियविशाम् of Brahmanas? Kshatriyas and Vaisyas? शूद्राणाम् of Sudras? च as also? परंतप O Parantapa? कर्माणि duties? प्रविभक्तानि are distributed? स्वभावप्रभवैः born of their own nature? गुणैः by alities.Commentary Brahmanas? Kshatriyas and Vaisyas are alified to practise the Vedic rites. The members of the fourth class? O Arjuna? have no claim to these rites? for their profession is to serve the members of the first three. They are not allowed to study the Vedas or perform Yajnas. There is organisation of mankind into the four castes and each mans life is divided into four stages? according to the nature of the Gunas and the degree of the growth or evolution. I will now explain the specific duties of these castes according to the alities by means of which? freeing themselves from the grip of birth and death? they can attain Selfrealisation or knowledge of the Self. Passion (Rajas) slightly mingled with Tamas causes the growth of the merchant caste (the Vaisya). Rajas mixed with Tamas is the cause of the appearance of the Sudra.The one human race has been divided into four castes based upon the three alities. The duties are allotted to each according to the alities born of Nature.Nature (Svabhava) is Isvaras Prakriti (Maya) constituted of the three alities -- Sattva? Rajas and Tamas.The Brahmanas nature is Sattva. So he is serene. The nature of the Kshatriya is Rajas and Sattva. Sattva in his case is subordinate to Rajas. Rajas predominates. Therefore he possesses lordliness. The nature of the Vaisya is Rajas and Tamas. Tamas is subordinate to Rajas. So he does various sorts of activities or business to earn money. The nature of the Sudra is Tamas? with subordinate Rajas. He is dull.Karma is action arising from and fashioned by past thoughts and desires. The Gunas cannot manifest themselves without a cause. Nature is the tendency? Samskara or Vasana in living beings. This is acired by them in the past births. This manifests itself in the present birth and produces its effects. This nature is the source of the Gunas. Every man or woman is born with his or her own Svabhava (nature). The Gunas operate according to the respective natural tendencies of man which impel him to perform his own duties as their natural effects. The duties are allottted to the four classes or castes in accordance with the Gunas of individuals. (Cf.IV.13)

Shri Purohit Swami

18.41 O Arjuna! The duties of spiritual teachers, the soldiers, the traders and the servants have all been fixed according to the dominant Quality in their nature.

Dr. S. Sankaranarayan

18.41. The duties of the Brahmanas, the Ksatriyas, the Vaisyas, and of the Sudras are properly classified according to the Strands which are the sources of their nature, O scorcher of foes !

Swami Adidevananda

18.41 The duties of the Brahmanas, Ksatriyas, Vaisyas and the Sudras are clearly divided, O Arjuna, according to Gunas, born of their nature.

Swami Gambirananda

18.41 O scorcher of enemies, the duties of the Brahmanas, the Ksatriyas and the Vaisyas, as also of the Sudras have been fully classified according to the gunas born from Nature.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.41।। प्रकृति के तीन गुणों का विस्तृत वर्णन करने के पश्चात्? भगवान् श्रीकृष्ण उन गुणों के आधार पर ही मानव समाज का ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विवेकपूर्ण विभाजन करते हैं।इन चार वर्णों के लोगों में कर्तव्यों का विभाजन प्रत्येक वर्ग के लोगों के स्वभावानुसार किया गया है। स्वभाव का अर्थ प्रत्येक मनुष्य के अन्तकरण के विशिष्ट संस्कार हैं? जो किसी गुण विशेष के आधिक्य से प्रभावित हुए रहते हैं। कर्तव्यों के इस विभाजन में व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यवहार को ध्यान में रखा जाता है। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता का मापदण्ड उस व्यक्ति की शरीर रचना अथवा उसके केशों का वर्ण नहीं हो सकता श्रेष्ठता का मापदण्ड केवल उसका स्वभाव और व्यवहार ही हो सकता है।मनुष्यों के स्वभावों में विभिन्नता होने के कारण उनको सौंपे गये अधिकारों एवं कर्तव्यों में विभिन्नता होना स्वाभाविक ही है। अत ब्राह्मणादि चारों वर्णों के कर्तव्य परस्पर भिन्न भिन्न हैं तथापि सबका लक्ष्य समाजधारणा एवं सबकी आध्यात्मिक प्रगति ही है। प्रत्येक वर्ण के लिए शास्त्रों में विधान किये हुए कर्तव्यों का पालन? यदि उसउस वर्ण का व्यक्ति करता है तो वह व्यक्ति क्रमश तमस एवं रजस से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित हो सकता है। तत्पश्चात् ही त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप की अनुभूति में निष्ठा संभव होगी।प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान कर्म? कर्तव्य? बुद्धि एवं धृति के अध्ययन से ही उसका वर्ण निश्चित किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में? जब किसी पुरुष को सात्त्विक कहा जाता है? तो इसका अर्थ केवल इतना ही है कि सामान्यत उसमें सात्त्विक गुण का आधिक्य रहता है। कभीकभी सात्त्विक पुरुष में रजोगुण का अथवा तमोगुणी पुरुष में सत्त्वगुण का आधिक्य हो सकता है। कोई भी व्यक्ति केवल एक गुण से निर्मित नहीं है।आज भारतवर्ष में समाज की जो स्थिति है? उसमें इस चातुर्र्वण्य का वास्तविक स्वरूप बहुत कुछ लुप्त हो गया है। अब? केवल अनुवांशिक जन्मसिद्ध अधिकार और बाह्य शारीरिक भेद के आधार पर ही जातियाँ तथा अनेक उपजातियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। एक सच्चा ब्राह्मण पुरुष वही है जो सत्त्वगुण प्रधान है? जिसमें इन्द्रियसंयम और मनसंयम है और जो आत्मस्वरूप का निदिध्यासन करने में समर्थ है। परन्तु आज का ब्राह्मण वर्ग मात्र जन्म के आधार पर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करता है? और यह दुर्भाग्य है कि उसे कोई सम्मान प्राप्त नहीं होता? क्योंकि अपने आप को उस सम्मान के योग्य बनाने का वह कभी प्रयत्न ही नहीं करता है।चार वर्णों के कर्मों में? सर्वप्रथम ब्राह्मण का कर्म बताते हुए भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।18.41।। व्याख्या --   ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप -- यहाँ ब्राह्मण? क्षत्रिय और वैश्य -- इन तीनोंके लिये एक पद और शूद्रोंके लिये अलग एक पद देनेका तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण? क्षत्रिय और वैश्य -- ये द्विजाति हैं और शूद्र द्विजाति नहीं है। इसलिये इनके कर्मोंका विभाग अलगअलग है और कर्मोंके अनुसार शास्त्रीय अधिकार भी अलगअलग है।कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः -- मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है? उसके अन्तःकरणमें उस कर्मके संस्कार पड़ते हैं और उन संस्कारोंके अनुसार उसका स्वभाव बनता है। इस प्रकार पहलेके अनेक जन्मोंमें किये हुए कर्मोंके संस्कारोंके अनुसार मनुष्यका जैसा स्वभाव होता है? उसीके अनुसार उसमें सत्त्व? रज और तम -- तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ उत्पन्न होती है। इन गुणवृत्तियोंके तारतम्यके अनुसार ही ब्राह्मण? क्षत्रिय? वैश्य और शूद्रके कर्मोंका विभाग किया गया है (गीता 4। 13)। कारण कि मनुष्यमें जैसी गुणवृत्तियाँ होती हैं? वैसा ही वह कर्म करता है।विशेष बात(1) कर्म दो तरहके होते हैं -- (1) जन्मारम्भक कर्म और (2) भोगदायक कर्म। जिन कर्मोंसे ऊँचनीच योनियोंमें जन्म होता है? वे जन्मारम्भक कर्म कहलाते हैं और जिन कर्मोंसे सुखदुःखका भोग होता है? वे भोगदायक कर्म कहलाते हैं। भोगदायक कर्म अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिको पैदा करते हैं? जिसको गीतामें अनिष्ट? इष्ट और मिश्र नामसे कहा गया है (18। 12)।गहरी दृष्टिसे देखा जाय तो मात्र कर्म भोगदायक होते हैं अर्थात् जन्मारम्भक कर्मोंसे भी भोग होता है और भोगदायक कर्मोंसे भी भोग होता है। जैसे? जिसका उत्तम कुलमें जन्म होता है? उसका आदर होता है? सत्कार होता है और जिसका नीच कुलमें जन्म होता है? उसका निरादर होता है? तिरस्कार होता है। ऐसे ही अनुकूल परिस्थितिवालेका आदर होता है और प्रतिकूल परिस्थितिवालेका निरादर होता है। तात्पर्य है कि आदर और निरादररूपसे भोग तो जन्मारम्भक और भोगदायक -- दोनों कर्मोंका होता है। परन्तु जन्मारम्भक कर्मोंसे जो जन्म होता है? उसमें आदरनिरादररूप भोग गौण होता है क्योंकि आदरनिरादर कभीकभी हुआ करते हैं? हरदम नहीं हुआ करते और भोगदायक कर्मोंसे जो अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है? उसमें परिस्थितिका भोग मुख्य होता है क्योंकि परिस्थिति हरदम आती रहती है।भोगदायक कर्मोंका सदुपयोगदुरुपयोग करनेमें मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है अर्थात् वह अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिसे सुखीदुःखी भी हो सकता है और उसको साधनसामग्री भी बना सकता है। जो अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिसे सुखीदुःखी होते हैं? वे मूर्ख होते हैं और जो उसको साधनसामग्री बनाते हैं? वे बुद्धिमान् साधक होते हैं। कारण कि मनुष्यजन्म परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है अतः इसमें जो भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है? वह सब साधनसामग्री ही है।अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिको साधनसामग्री बनाना क्या है अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो उसको दूसरोंकी सेवामें? दूसरोंके सुखआराममें लगा दे? और प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छाका त्याग कर दे। दूसरोंकी सेवा करना और सुखेच्छाका त्याग करना -- ये दोनों साधन हैं।(2) शास्त्रोंमें आता है कि पुण्योंकी अधिकता होनेसे जीव स्वर्गमें जाता है और पापोंकी अधिकता होनेसे नरकोंमें जाता है तथा पुण्यपाप समान होनेसे मनुष्य बनता है। इस दृष्टिसे किसी भी वर्ण? आश्रम? देश? वेश आदिका कोई भी मनुष्य सर्वथा पुण्यात्मा या पापात्मा नहीं हो सकता।पुण्यपाप समान होनेपर जो मनुष्य बनता है? उसमें भी अगर देखा जाय तो पुण्यपापोंका तारतम्य रहता है अर्थात् किसीके पुण्य अधिक होते हैं और किसीके पाप अधिक होते हैं (टिप्पणी प0 927)। ऐसे ही गुणोंका विभाग भी है। कुल मिलाकर सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले ऊर्ध्वलोकमें जाते हैं? रजोगुणकी प्रधानतावाले मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोकमें आते हैं? और तमोगुणकी प्रधानतावाले अधोगतिमें जाते हैं। इन तीनोंमें भी गुणोंके तारतम्यसे अनेक तरहके भेद होते हैं।सत्त्वगुणकी प्रधानतासे ब्राह्मण? रजोगुणकी प्रधानता और सत्त्वगुणकी गौणतासे क्षत्रिय? रजोगुणकी प्रधानता और तमोगुणकी गौणतासे वैश्य तथा तमोगुणकी प्रधानतासे शूद्र होता है। यह तो सामान्य रीतिसे गुणोंकी बात बतायी। अब इनके अवान्तर तारतम्यका विचार करते हैं -- रजोगुणप्रधान मनुष्योंमें सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले ब्राह्मण हुए। इन ब्राह्मणोंमें भी जन्मके भेदसे ऊँचनीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थितिरूपसे कर्मोंका फल भी कई तरहका आता है अर्थात् सब ब्राह्मणोंकी एक समान अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति नहीं आती। इस दृष्टिसे ब्राह्मणयोनिमें भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे। ऐसे ही क्षत्रिय? वैश्य और शूद्र भी जन्मसे ऊँचनीच माने जाते हैं और अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति भी कई तरहकी आती है। इसलिये गीतामें कहा गया है कि तीनों लोकोंमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है? जो तीनों गुणोंसे रहित हो (18। 40)।अब जो मनुष्येतर योनिवाले पशुपक्षी आदि हैं? उनमें भी ऊँचनीच माने जाते हैं जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता? गधा? सूअर आदि नीच माने जाते हैं। कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कौआ? चील आदि नीच माने जाते हैं। इन सबको अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति भी एक समान नहीं मिलती। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति? मध्यगति और अधोगतिवालोंमें भी कई तरहके जातिभेद और परिस्थितिभेद होते हैं। सम्बन्ध --   अब भगवान् ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।18.41।। हे परन्तप!  ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के कर्म, स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.41।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।18.41।।प्रकरणार्थमुपसंहृतमनुवदति -- सर्व इति। तस्यानेकात्मकत्वेन हेयत्वं सूचयति -- क्रियेति। निर्गुणादात्मनो वैलक्षण्याच्च तस्य हेयतेत्याह -- सत्त्वेति। अनर्थत्वाच्च तस्य त्याज्यत्वमनर्थत्वं चाविद्याकल्पितत्वेनावस्तुनो वस्तुवद्भानादित्याह -- अविद्येति। न केवलमष्टादशे संसारो दर्शितः? किंतु पञ्चदशेपीत्याह -- वृक्षेति। चकारादुक्तः संसार इत्यनुकृष्यते। संसारध्वस्तिसाधनं सम्यग्ज्ञानं च तत्रैवोक्तमित्याह -- असङ्गेति। वृत्तमनूद्यानन्तरसंदर्भतात्पर्यमाह -- तत्र चेति। उक्तो निवर्तयिषितः संसारः सतिसप्तम्या परामृश्यते? सर्वो हि संसारो गुणत्रयात्मकः। नच गुणानां प्रकृत्यात्मकानां संसारकारणीभूतानां निवृत्तिर्युक्ता प्रकृतेर्नित्यत्वादित्याशङ्कायां स्वधर्मानुष्ठानात्तत्त्वज्ञानोत्पत्त्या गुणानामज्ञानात्मकानां निवृत्तिर्यथा भवति तथा स्वधर्मजातं वक्तव्यमित्युत्तरग्रन्थप्रवृत्तिरित्यर्थः। तत्तद्वर्णप्रयुक्तधर्मजातानुपदेशे चोपसंहारप्रकरणप्रकोपः स्यादित्याह -- सर्वश्चेति। उपसंहृते गीताशास्त्रार्थे यद्यपि सर्वो वेदार्थः स्मृत्यर्थश्च सर्व उपसंहृतस्तथापि मुमुक्षुभिरनुष्ठेयमस्ति वक्तव्यमवशिष्टमित्याशङ्क्याह -- एतावानिति। अनुष्ठेयपरिमाणनिर्धारणवदुक्तशङ्कानिवर्तनं शास्त्रार्थोपसंहारश्चेत्येतदुभयं चकारार्थः। संप्रतिवर्णचतुष्टयस्यानुष्ठेयं धर्मजातं संकीर्णमिति सूत्रमुपन्यस्यति -- ब्राह्मणेति। उपनयनसंस्कारवत्त्वे सति वेदाधिकारित्वं समानमिति त्रयाणां समासकरणम्। इतरेषामसमासे हेतुमाह -- शूद्राणामिति। एकजातित्वमुपनयनवर्जितत्वं कर्मणामसंकीर्णत्वेन व्यवस्थापकं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति -- केनेत्यादिना। स्वभावप्रभवैर्गुणैरित्यस्यार्थान्तरमाह -- अथवेति। उक्तव्यवस्थायां कार्यदर्शनं प्रमाणयति -- प्रशान्तीति। स्वभावशब्दस्यार्थान्तरमाह -- अथवेति। किमिति गुणाभिव्यक्तेरुक्तवासनाधीनत्वं तत्राह -- गुणेति। ननु नास्ति गुणप्रादुर्भावस्य निष्कारणत्वं प्रकृतिजैर्गुणैरिति प्रकृतेर्गुणकारणत्वाभिधानादत आह -- स्वभाव इति। वासनाकारणमिति गुणव्यक्तेर्निमित्तकारणत्वं विवक्षितं प्रकृतिस्तूपादानमिति भावः। उक्तमुपसंहरति -- एवमिति। स्वभावप्रभवैः सत्त्वादिगुणैर्ब्राह्मणादीनां कर्माणि प्रविभक्तानीत्युक्तमाक्षिपति -- नन्विति। शास्त्रस्य धर्मविभागहेतोः सत्त्वादिविशेषापेक्षयैव विभागज्ञापकत्वादुभयत्र विभागहेतुत्वोक्तिरविरुद्धेति परिहरति -- नैष दोष इति।

Sri Vallabhacharya

।।18.41।।एवं च त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः [महाना.8।14कैव.2] इति मोक्षसाधनतया निर्दिष्टः त्यागः सन्न्यासशब्दार्थः? न तदन्यः स च कर्तृत्वकामफलानां न्यासरूपः स्वस्मिन् तत्कर्तृत्वत्यागश्च परपुरुषान्तर्यामिकर्तृकत्वाद्यनुसन्धानेनेति सर्वं सगुणनिरूपणे सत्त्वगुणवृद्धिकार्यमिति तथोक्तम् इदानीमेवम्भूतकर्माधिकारिणां ब्राह्मणादीनां स्वभावानुसारिसत्त्वादिगुणभेदभिन्नवृत्त्या सह कर्त्तव्यकर्मस्वरूपं निरूपयति ब्राह्मणक्षत्ित्रयविशामिति। स्वभावः सहजः संस्कारात्मकस्तत्प्रभवैर्गुणैर्विभद्यंते? तत्र स्वभावप्रभवैर्गुणैः सात्त्विका ब्राह्मणाः सृष्टाः? सात्त्विकराजसाः क्षत्ित्रयाः? तामसराजसा वैश्याः? तामसाः शूद्राः एषामपि व्यत्यये निजपूर्वकृतिरेव हेतुरिति हे परन्तप पुरा तथा प्रविभक्तानि कर्माणि।

Sridhara Swami

।।18.41।।ननु च यद्येवं सर्वमपि क्रियाकारकफलादिकं प्राणिजातं च त्रिगुणात्मकमेव कथं तर्ह्यस्य मोक्ष इत्यपेक्षायां स्वस्वाधिकारविहितैः कर्मभिः परमेश्वराराधनात्तत्प्रसादलब्धज्ञानेनेत्येवं सर्वगीतार्थसारं संगृह्य प्रदर्शयितुं प्रकरणान्तरमारभते -- ब्राह्मणेत्यादि यावदध्यायसमाप्ति। हे परंतप शत्रुतापन? ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां विशां च शूद्राणां च कर्माणि प्रविभक्तानि प्रकर्षेण विभागतो विहितानि। शूद्राणां स्वभावात्पृथक्करणं द्विजत्वाभावेन वैलक्षण्यात्। विभागोपलक्षणमाह -- स्वभावः सात्त्विकादिः प्रभवति प्रादुर्भवति येभ्यस्तैर्गुणैरुपलक्षणभूतैः। यद्वा स्वभावः पूर्वजन्मसंस्कारस्तस्मात्प्रादुर्भूतैरित्यर्थः। तत्र सत्त्वप्रधाना ब्राह्मणाः? सत्त्वोपसर्जनरजःप्रधानाः क्षत्रियाः? तमउपसर्जनरजःप्रधाना वैश्याः? रजउपसर्जनतमःप्रधानाः शूद्राः।

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