Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 29 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु | प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ||१८-२९||
Transliteration
buddherbhedaṃ dhṛteścaiva guṇatastrividhaṃ śṛṇu . procyamānamaśeṣeṇa pṛthaktvena dhanañjaya ||18-29||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.29 Hear thou the threefold division of intellect and firmness according to the Gunas, as I declare them fully and distinctly, O Arjuna.
।।18.29।। हे धनंजय ! मेरे द्वारा अशेषत: और पृथकत: कहे जाने वाले, गुणों के कारण उत्पन्न हुए बुद्धि और धृति के त्रिविध भेद को सुनो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
By understanding how the Gunas influence intellect and resolve, one can critically assess their decision-making style, commitment to tasks, and overall work ethic. This awareness enables the conscious cultivation of Sattvic qualities for clearer judgment, focused effort, ethical leadership, and resilience against professional setbacks, leading to more sustainable success and job satisfaction.
🧘 For Stress & Anxiety
Recognizing if stress responses stem from a Tamasic intellect (apathy, procrastination, inertia), a Rajasic intellect (anxiety, overthinking, impulsive action), or a Sattvic intellect (calm analysis, resilient problem-solving) is crucial. This knowledge empowers one to consciously shift towards a Sattvic firmness and clarity, building mental resilience and reducing the detrimental effects of stress and mental fatigue.
❤️ In Relationships
Applying the Guna framework to intellect and firmness helps in understanding one's own and others' communication patterns, motivations, and commitment levels. This fosters empathy, reduces misunderstandings, and allows for conscious cultivation of Sattvic qualities – such as clear communication, stable affection, and steadfast support – to build healthier, more harmonious, and enduring relationships.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True wisdom begins with understanding how the universal Gunas shape our intellect and resolve, providing the blueprint for conscious self-improvement and a life of clarity and steadfast purpose.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.29 बुद्धेः of intellect? भेदम् division? धृतेः of firmness? च and? एव even? गुणतः according to alities? त्रिविधम् threefold? श्रृणु hear? प्रोच्यमानम् as I declare? अशेषेण fully? पृथक्त्वेन distinctly? धनञ्जय O Dhananjaya.Commentary Dhananjaya The coneror of wealth Arjuna is so called because he acired much material and spiritual wealth during his tours of conest (Digvijaya) to the four arters of the earth.
Shri Purohit Swami
18.29 Reason and conviction are threefold, according to the Quality which is dominant. I will explain them fully and severally, O Arjuna!
Dr. S. Sankaranarayan
18.29. You must listen [from Me] to the three-fold division of the intellect and also of content both being expounded completely and individually, [by Me] basing on the Strands, O Dhananjaya !
Swami Adidevananda
18.29 Hear now, the threefold division of Buddhi (reason) and Dhrti (fortitude), O Arjuna, according to the Gunas, fully and severally to be set forth.
Swami Gambirananda
18.29 O Dhananjaya, listen to the classification of the intellect as also of fortitude, which is threefold according to the gunas, while it is being stated elaborately and severally.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.29।। कर्म संपादन के तीन संघटक तत्त्व हैं ज्ञान? कर्म और कर्ता। पूर्व के नौ श्लोंको में इन तीनों के त्रिविध वर्गीकरण का वर्णन किया गया था। ज्ञान से प्रेरित होकर जब कर्ता जगत् में कर्म करता है तब? निसन्देह? एक कार्य विशेष सम्पन्न होता है। परन्तु कार्य सम्पादन के लिए प्रयत्नों के सातत्य की जो आवश्यकता होती है? उसकी पूर्ति दो तत्त्वों के द्वारा होती हैं? और वे तत्त्व हैं बुद्धि और धृति। ये दोनों तत्त्व मानो ईन्धन और प्रेरक बल हैं।बुद्धि से तात्पर्य मनुष्य की उस क्षमता से है? जिसके द्वारा वह कर्म की कर्तव्यता तथा बाह्य घटनाओं के अर्थ आदि को समझता है। धृति का अर्थ है धारणशक्ति। लक्ष्य प्राप्ति में अनेक विघ्न आते हैं? जिनको पार करके लक्ष्य को पाने के लिए धृति की आवश्यकता होती है। इन दोनों बुद्धि और धृति के अभाव में तो मनुष्य केवल शुष्क पर्ण के समान इतस्तत भटकता रहेगा।प्रथम? बुद्धि के त्रिविध भेद को बताते हैं
Swami Ramsukhdas
।।18.29।। व्याख्या -- [इसी अध्यायके अठारहवें श्लोकमें कर्मसंग्रहके तीन हेतु बताये गये हैं -- करण? कर्म और कर्ता। इनमेंसे कर्म करनेके जो इन्द्रियाँ आदि करण हैं? उनके सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीन भेद नहीं होते। उन इन्द्रियोंमें बुद्धिकी ही प्रधानता रहती है और सभी इन्द्रियाँ बुद्धिके अनुसार ही काम करती हैं। इसलिये यहाँ बुद्धिके भेदसे करणोंके भेद बता रहे हैं।बुद्धिके निश्चयको? विचारको दृढ़तासे ठीक तरह रखनेवाली और अपने लक्ष्यसे विचलित न होने देनेवाली धारणशक्तिका नाम धृति है। धारणशक्ति अर्थात् धृतिके बिना बुद्धि अपने निश्चयपर दृढ़ नहीं रह सकती। इसलिये बुद्धिके साथहीसाथ धृतिके भी तीन भेद बताने आवश्यक हो गये (टिप्पणी प0 911.1)।मनुष्य जो कुछ भी करता है? बुद्धिपूर्वक ही करता है अर्थात् ठीक सोचसमझकर ही किसी कार्यमें प्रवृत्त होता है। उस कार्यमें प्रवृत्त होनेपर भी उसको धैर्यकी बड़ी भारी आवश्यकता होती है। उसकी बुद्धिमें विचारशक्ति तेज है और उसे धारण करनेवाली शक्ति -- धृति श्रेष्ठ है? तो उसकी बुद्धि अपने निश्चित किये हुए लक्ष्यसे विचलित नहीं होती। जब बुद्धि अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहती है? तब मनुष्यका कार्य सिद्ध हो जाता है।अभी साधकोंके लिये कर्मप्रेरक और कर्मसंग्रहका जो प्रकरण चला है? उसमें ज्ञान? कर्म और कर्ताकी ही खास आवश्यकता है। ऐसे ही साधक अपनी साधनामें दृढ़तापूर्वक लगा रहे? इसके लिये बुद्धि और धृतिके भेदको जाननेकी विशेष आवश्यकता है क्योंकि उनके भेदको ठीक जानकर ही वह संसारसे ऊँचा उठ सकता है। किस प्रकारकी बुद्धि और धृतिको धारण करके साधक संसारसे ऊँचा उठ सकता है और किस प्रकारकी बुद्धि और धृतिके रहनेसे उसे ऊँचा उठनेमें बाधा लग सकती है -- यह जानना साधकके लिये बहुत जरूरी है। इसलिये भगवान्ने उन दोनोंके भेद बताये हैं। भेद बतानेमें भगवान्का भाव यह है कि सात्त्विकी बुद्धि और धृतिसे ही साधक ऊँचा उठ सकता है? राजसीतामसी बुद्धि और धृतिसे नहीं।]धनञ्जय -- जब पाण्डवोंने राजसूय यज्ञ किया था? तब अर्जुन अनेक राजाओंको जीतकर बहुतसा धन लेकर आये थे। इसीसे उनका नाम धनञ्जय पड़ा था। अब भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि अपनी साधनामें सात्त्विकी बुद्धि और धृतिको ग्रहण करके गुणातीत तत्त्वकी प्राप्ति करना ही वास्तविक धन है इसलिये तुम इस वास्तविक धनको धारण करो? इसीमें तुम्हारे धनञ्जय नामकी सार्थकता है।बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु -- भगवान् कहते हैं कि बुद्धि भी एक है और धृति भी एक है परन्तु गुणोंकी प्रधानतासे उस बुद्धि और धृतिके भी सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीनतीन भेद हो जाते हैं। उनका मैं ठीकठीक विवेचन करूँगा और थोड़ेमें बहुत विशेष बात कहूँगा? उनको तुम मन लगाकर? ध्यान देकर ठीक तरहसे सुनो।धृति श्रोत्रादि करणोंमें नहीं आयी है। इसलिये भगवान् चैव पदका प्रयोग करके कह रहे हैं कि जैसे बुद्धिके तीन भेद बताऊँगा? ऐसे ही धृतिके भी तीन भेद बताऊँगा। साधारण दृष्टिसे देखनेपर तो धृति भी बुद्धिका ही एक गुण दीखती है। बुद्धिका एक गुण होते हुए भी धृति बुद्धिसे अलग और विलक्षण है क्योंकि धृति स्वयं अर्थात् कर्तामें रहती है। उस धृतिके कारण ही मनुष्य बुद्धिका ठीकठीक उपयोग कर सकता है। धृति जितनी श्रेष्ठ अर्थात् सात्त्विकी होगी? साधककी (साधनमें) बुद्धि उतनी ही स्थिर रहेगी। साधनमें बुद्धिकी स्थिरताकी जितनी आवश्यकता है? उतनी आवश्यकता मनकी स्थिरताकी नहीं है। हाँ? एक अंशमें अणिमा आदि सिद्धियोंकी प्राप्तिमें मनकी स्थिरताकी आवश्यकता है परन्तु पारमार्थिक उन्नतिमें तो बुद्धिके अपने उद्देश्यपर स्थिर रहनेकी ही ज्यादा आवश्यकता है (टिप्पणी प0 911.2)। साधककी बुद्धि भी सात्त्विकी हो और धृति भी सात्त्विकी हो? तभी साधक अपने साधनमें दृढ़तासे लगा रहेगा। इसलिये इन दोनोंके ही भेद जाननेकी आवश्यकता है।पृथक्त्वेन -- उनके भेद अलगअलग ठीक तरहसे कहूँगा अर्थात् बुद्धि और धृतिके विषयमें भी क्याक्या भेद होते हैं? उनको भी कहूँगा।प्रोच्यमानमशेषेण -- भगवान् कहते हैं कि बुद्धि और धृतिके विषयमें जाननेकी जोजो आवश्यक बाते हैं? उन सबको मैं पूरापूरा कहूँगा? जिसके बाद फिर जानना बाकी नहीं रहेगा।, सम्बन्ध -- अब भगवान् सात्त्विकी बुद्धिके लक्षण बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.29।। हे धनंजय ! मेरे द्वारा अशेषत: और पृथकत: कहे जाने वाले, गुणों के कारण उत्पन्न हुए बुद्धि और धृति के त्रिविध भेद को सुनो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.29।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.29।।ज्ञानादीनां प्रत्येकं त्रैविध्यमुक्त्वा वृत्तिमत्या बुद्धेस्तद्वृत्तेश्च धृत्याख्यायास्त्रैविध्यं सूचयति -- बुद्धेरिति। सूत्रविवरणं प्रतिजानीते -- प्रोच्यमानमिति। अर्जुनस्य धनंजयत्वं व्युत्पादयति -- दिगिति।
Sri Vallabhacharya
।।18.29।।अथ कर्तृत्रैविध्येनैव ज्ञातुरपि त्रैविध्यमुक्तं तथा कर्मस्थले कर्मत्रैविध्येन च ज्ञेयस्यापि त्रैविध्यं बुद्धेः त्रैविध्येन करणस्याप्युक्तमिति निश्चयरूपाया बुद्धेर्धृतेश्च गुणतस्त्रैविध्यं प्रतिजानन्नाह -- बुद्धेरिति। गुणतस्त्रिविधं भेदं शृणु। तत्रापि पृथक्त्वेनोभयोर्भेदं शृणु।
Sridhara Swami
।।18.29।।इदानीं बुद्धेर्धृतेश्चापि त्रैविध्यं प्रतिजानीते -- बुद्धिरिति। स्पष्टार्थः।