Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 4 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः | तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये | यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ||१५-४||
Transliteration
tataḥ padaṃ tatparimārgitavyaṃ yasmingatā na nivartanti bhūyaḥ . tameva cādyaṃ puruṣaṃ prapadye . yataḥ pravṛttiḥ prasṛtā purāṇī ||15-4||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
15.4 Then That goal should be sought for, whither having gone none returns again. I seek refuge in that Primeval Purusha Whence streamed forth the ancient activity or energy.
।।15.4।। (तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, identify and commit to a 'primeval purpose' or core values that transcend immediate projects and temporary successes. Seek work that aligns with your deepest principles and contributes to a larger, enduring vision, rather than just chasing fleeting trends or material gains. Develop mastery that comes from a deep, foundational understanding, making your contributions lasting and impactful.
🧘 For Stress & Anxiety
When overwhelmed, seek 'refuge' in a steadfast inner anchor – whether it's mindfulness, meditation, a spiritual practice, or connecting with core values. Shift your perspective from the immediate, transient stressors (the 'ancient activity streamed forth') to an enduring sense of purpose or a higher power, understanding that true peace comes from aligning with the unchanging source within, rather than reacting to external chaos.
❤️ In Relationships
Build your relationships on 'primeval' principles like unconditional love, trust, honesty, and mutual respect, rather than superficial desires or transactional exchanges. Understand that true, lasting connection comes from a deeper source of shared values and spiritual kinship, offering a 'refuge' that helps navigate the transient ups and downs, leading to bonds that are fulfilling and enduring.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Seek refuge in the eternal source of all creation; it is the ultimate, unchanging goal that liberates you from life's transient cycles and offers lasting peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
15.4 ततः then? पदम् goal? तत् That? परिमार्गितव्यम् should be sought for? यस्मिन् whither? गताः gone? न not? निवर्तन्ति return? भूयः again? तम् that? एव even? च and? आद्यम् primeval? पुरुषम् Purusha? प्रपद्ये I seek refuge? यतः whence? प्रवृत्तिः activity or energy? प्रसृता streamed forth? पुराणी ancient.Commentary That which fills the whole world with the form of ExistenceKnowledgeBliss is Purusha. Or? that which sleeps in this Puri (city) of the body is the Purusha.Singleminded devotion which consists of ceaselessly thinking of or meditating on the Supreme Being is the sure means of attaining Selfrealisation. Taking sole refuge in the Primeval Purusha is the means to know or realise that supreme goal goind whither the wise do not return again to this world of death.The aspirant should know the abode of Vishnu. He should struggle hard to reach it. He should seek it by taking refuge in the Primeval Purusha. If he reaches this immortal abode of Vishnu or the imperishable Brahmic seat of ineffable splendour and glory he will never return to this mortal world.The Primeval Purusha or the pure? Supreme Being Who is ExistenceKnowledgeBliss Absolute is the goal or the supreme abode or the abode of Vishnu. Just as illusory objects like elephants? horses? etc.? come forth through the jugglery of the magician? so also this ancient energy or the original divine power or emanation of this tree or illusory Samsara has streamed forth from that Primeval Purusha.What sort of persons reach that goal eternal Listen.
Shri Purohit Swami
15.4 Beyond lies the Path, from which, when found, there is no return. This is the Primal God from whence this ancient creation has sprung.
Dr. S. Sankaranarayan
15.4. Then that Abode must be sought, having reached Which one would not return. [The Yogin] would attain nothing but that Primal Person from Whom the old activity (world creation) commences.
Swami Adidevananda
15.4 Then, one should seek that goal attaining which one never returns. One should seek refuge with that Primal Person from whom streamed forth this ancient activity.
Swami Gambirananda
15.4 Thereafter, that State has to be sought for, going where they do not return again: I take refuge in that Primeval Person Himself, from whom has ensued the eternal Manifestation.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।15.4।। कहीं ऐसा न हो कि कोई विद्यार्थी इस रूपक के वास्तविक अभिप्राय को न समझकर उसे कोई लौकिक वृक्ष ही समझ लें? गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसा वर्णन किया गया है? वैसा वृक्ष यहाँ उपलब्ध नहीं होता। पूर्व श्लोक में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष इस व्यक्त हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रतीक है। सूक्ष्म चैतन्य आत्मा विविध रूपों और विभिन्न स्तरों पर विविधत व्यक्त होता है जैसे शरीर? मन और बुद्धि में क्रमश विषय? भावनाओं और विचारों के प्रकाशक के रूप में और कारण शरीर में वह अज्ञान को प्रकाशित करता है। आत्मअज्ञान या वासनाओं को ही कारण शरीर कहते हैं। ये समस्त उपाधियाँ तथा उनके अनुभव अपनी सम्पूर्णता में अश्वत्थवृक्ष के द्वारा निर्देशित किये गये हैं। अत यह कोई परिच्छिन्न वृक्ष न होने के कारण कोई इसे एक दृष्टिक्षेप से देखकर समझ नहीं सकता है।कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि या अन्त या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष परम सत्य के अज्ञान से उत्पन्न होता है। जब तक वासनाओं का प्रभाव बना रहता है तब तक इसका अस्तित्व भी रहता है? किन्तु आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। बहुसंख्यक लोगों द्वारा इन आध्यात्मिक आशयों को न देखा जाता है और न पहचाना या समझा ही जाता है।इस संसार वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र है असंग अर्थात् वैराग्य। भौतिक जगत् जड़? अचेतन है। इसके द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया जाता है? वह चैतन्य के सम्बन्ध के कारण ही संभव होता है। जब तक कार के चक्रों का सम्बन्ध मशीन से बना रहता है तब तक उनमें गति रहती है। यदि प्रवाहित होने वाली शक्ति को रोक दिया जाये? तो वे चक्र स्वत ही गतिशून्य स्थिति में आ जायेंगे। इसी प्रकार यदि हम अपना ध्यान शरीर? मन और बुद्धि से निवृत्त करें? तो तादात्म्य के अभाव में विषय? भावनाओं तथा विचारों का ग्रहण स्वत अवरुद्ध हो जायेगा। तादात्म्य की निवृत्ति को ही वैराग्य कहते हैं। यहाँ उसे असंग शस्त्र कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन्ा को उपदेश देते हैं कि उसको इस असंगशस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष को काटना चाहिये।हमारी वर्तमान स्थिति की दृष्टि से उपर्युक्त अवस्था का अर्थ है शून्य? जहाँ न कोई विषय हैं और न भावनाएं हैं न कोई विचार ही हैं। अत हम ऐसे उपदेश को सहसा स्वीकार नहीं करेंगे। भगवान् हमारी मनोदशा को समझते हुये उसी क्रम में कहते हैं? तत्पश्चात् उस पद का अन्वेषण करना चाहिये? जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुन लौटते नहीं हैं।उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन का निष्कर्ष यह निकलता है कि निदिध्यासन के अभ्यास के शान्त क्षणों में साधक को अपना ध्यान जगत् एवं उपाधियों से निवृत्त कर उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिये? जहाँ से इस संसार की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यदि इस उपदेश को केवल यहीं तक छोड़ दिया गया होता? तो अधिक से अधिक वह एक सुन्दर काव्यात्मक कल्पना ही बन कर रह जाता। आध्यात्मिक मूल्यों को अपने व्यावहारिक जीवन में जीने की कला सिखाने वाली निर्देशिका के रूप में? गीता को यह भी बताना आवश्यक था कि किस प्रकार एक साधक इस उपदेश का पालन कर सकता है। इनका एक व्यावहारिक उपाय है? प्रार्थना। जिसका निर्देश इस श्लोक के अन्त में इन शब्दों में किया है? मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ? जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यह श्लोक दर्शाता है कि जब हमारी बहिर्मुखी प्रवृत्ति बहुत कुछ मात्रा में क्षीण हो जाती है? तब हमें अपनी बुद्धि को सजगतापूर्वक संसार के आदिस्रोत सच्चिदानन्द परमात्मा में भक्ति और समर्पण के भाव के साथ समाहित करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस आदि पुरुष का स्वरूप तथा उसके अनुभव के उपाय को बताना इस अध्याय का विषय है।किन गुणों से सम्पन्न साधक उस पद को प्राप्त होते हैं सुनो
Swami Ramsukhdas
।।15.4।। व्याख्या -- ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् -- भगवान्ने पूर्वश्लोकमें छित्त्वा पदसे संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेकी बात कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्माकी खोज करनेसे पहले संसारसे सम्बन्धविच्छेद करना बहुत आवश्यक है। कारण कि परमात्मा तो सम्पूर्ण देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें ज्योंकेत्यों विद्यमान हैं? केवल संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवमें बाधा लग रही है। संसारसे सम्बन्ध बना रहनेसे परमात्माकी खोज करनेमें ढिलाई आती है और जप? कीर्तन? स्वाध्याय आदि सब कुछ करनेपर भी विशेष लाभ नहीं दीखता। इसलिये साधकको पहले संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेको ही मुख्यता देनी चाहिये।जीव परमात्माका ही अंश है। संसारसे सम्बन्ध मान ल��नेके कारण ही वह अपने अंशी(परमात्मा) के नित्यसम्बन्धको भूल गया है। अतः भूल मिटनेपर मैं भगवान्का ही हूँ -- इस वास्तविकताकी स्मृति प्राप्त हो जाती है। इसी बातपर भगवान् कहते हैं कि उस परमपद(परमात्मा) से नित्यसम्बन्ध पहलेसे ही विद्यमान है। केवल उसकी खोज करनी है।संसारको अपना माननेसे नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त दीखने लग जाता है और अप्राप्त संसार प्राप्त दीखने लग जाता है। इसलिये परमपद(परमात्मा) को तत् पदसे लक्ष्य करके भगवान् कहते हैं कि जो परमात्मा नित्यप्राप्त है? उसीकी पूरी तरह खोज करनी है।खोज उसीकी होती है? जिसका अस्तित्व पहलेसे ही होता है। परमात्मा अनादि और सर्वत्र परिपूर्ण हैं। अतः यहाँ खोज करनेका मतलब यह नहीं है कि किसी साधनविशेषके द्वारा परमात्माको ढूँढ़ना है। जो संसार (शरीर? परिवार? धनादि) कभी अपना था नहीं? है नहीं? होगा नहीं उसका आश्रय न लेकर? जो परमात्मा,सदासे ही अपने हैं? अपनेमें हैं और अभी हैं? उनका आश्रय लेना ही उनकी खोज करना है।साधकको साधनभजन करना तो बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके समान कोई उत्तम काम नहीं है किंतु,परमात्मतत्त्वको साधनभजनके द्वारा प्राप्त कर लेंगे -- ऐसा मानना ठीक नहीं क्योंकि ऐसा माननेसे अभिमान बढ़ता है? जो परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। परमात्मा कृपासे मिलते हैं। उनको किसी साधनसे खरीदा नहीं जा सकता। साधनसे केवल असाधन(संसारसे तादात्म्य? ममता और कामनाका सम्बन्ध अथवा परमात्मासे विमुखता) का नाश होता है? जो अपने द्वारा ही किया हुआ है। अतः साधनका महत्त्व असाधनको मिटानेमें ही समझना चाहिये। असाधनको मिटानेकी सच्ची लगन हो? तो असाधनको मिटानेका बल भी परमत्माकी कृपासे मिलता है।साधकोंके अन्तःकरणमें प्रायः एक दृढ़ धारणा बनी हुई है कि जैसे उद्योग करनेसे संसारके पदार्थ प्राप्त होते हैं? ऐसे ही साधन करतेकरते (अन्तःकरण शुद्ध होनेपर) ही परमात्माकी प्राप्ति होती है। परन्तु वास्तवमें यह बात नहीं है क्योंकि परमात्मप्राप्ति किसी भी कर्म (साधन? तपस्यादि) का फल नहीं है? चाहे वह कर्म कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो। कारण कि श्रेष्ठसेश्रेष्ठ कर्मका भी आरम्भ और अन्त होता है अतः उस कर्मका फल नित्य कैसे होगा कर्मका फल भी आदि और अन्तवाला होता है। इसलिये नित्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति किसी कर्मसे नहीं होती। वास्तवमें त्याग? तपस्या आदिसे जडता(संसार और शरीर) से सम्बन्धविच्छेद ही होता है? जो भूलसे माना हुआ है। सम्बन्धविच्छेद होते ही जो तत्त्व सर्वत्र है? सदा है? नित्यप्राप्त है? उसकी अनुभूति हो जाती है -- उसकी स्मृति जाग्रत् हो जाती है।अर्जुन भी पूरा उपदेश सुननेके बाद अन्तमें कहते हैं -- स्मृतिर्लब्धा (18। 73) मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। यद्यपि विस्मृति भी अनादि है? तथापि वह अन्त होनेवाली है। संसारकी स्मृति और परमात्माकी स्मृतिमें बहुत अन्तर है। संसारकी स्मृतिके बाद विस्मृतिका होना सम्भव है जैसे -- पक्षाघात (लकवा) होनेपर पढ़ी हुई विद्याकी विस्मृति होना सम्भव है। इसके विपरीत परमात्माकी स्मृति एक बार हो जानेपर फिर कभी विस्मृति नहीं होती (गीता 2। 72? 4। 35) जैसे -- पक्षाघात होनेपर अपनी सत्ता (मैं हूँ) की विस्मृति नहीं होती। कारण यह है कि संसारके साथ कभी सम्बन्ध होता नहीं और परमात्मासे कभी सम्बन्ध छूटता नहीं।शरीर? संसारसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है -- इस तत्त्वका अनुभव करना ही संसारवृक्षका छेदन करना है और मैं परमात्माका अंश हूँ -- इस वास्तविकतामें हरदम स्थित रहना ही परमात्माकी खोज करना है। वास्तवमें संसारसे सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो जाती है।यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः -- जिसे पहले श्लोकमें ऊर्ध्वमूलम् पदसे तथा इस श्लोकमें आद्यम् पुरुषम् पदोंसे कहा गया है और आगे छठे श्लोकमें जिसका विस्तारसे वर्णन हुआ है? उसी परमात्मतत्त्वका निर्देश यहाँ यस्मिन् पदसे किया गया है।जैसे जलकी बूँदे समुद्रमें मिल जानेके बाद पुनः समुद्रसे अलग नहीं हो सकती? ऐसे ही परमात्माका अंश (जीवात्मा) परमात्माको प्राप्त हो जानेके बाद फिर परमात्मासे अलग नहीं हो सकता अर्थात् पुनः लौटकर संसारमें नहीं आ सकता। ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण प्रकृति अथवा उसके कार्य गुणोंका सङ्ग ही है (गीता 13। 21)। अतः जब साधक असङ्गशस्त्रके द्वारा गुणोंके सङ्गका सर्वथा छेदन (असत्के सम्बन्धका सर्वथा त्याग) कर देता है? तब उसका पुनः कहीं जन्म लेनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता।यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी -- सम्पूर्ण सृष्टिके रचयिता एक परमात्मा ही हैं। वे ही इस संसारके आश्रय और प्रकाशक हैं। मनुष्य भ्रमवश सांसारिक पदार्थोंमें सुखोंको देखकर संसारकी तरफ आकर्षित हो जाता है और संसारके रचयिता(परमात्मा)को भूल जाता है। परमात्माका रचा हुआ संसार भी जब इतना प्रिय लगता है? तब (संसारके रचयिता) परमात्मा कितने प्रिय लगने चाहिये यद्यपि रची हुई वस्तुमें आकर्षणका होना एक प्रकारसे रचयिताका ही आकर्षण है (गीता 10। 41)? तथापि मनुष्य अज्ञानवश उस आकर्षणमें परमात्माको कारण न मानकर संसारको ही कारण मान लेता है और उसीमें फँस जाता है।प्राणिमात्रका यह स्वभाव है कि वह उसीका आश्रय लेना चाहता है और उसीकी प्राप्तिमें जीवन लगा देना चाहता है? जिसको वह सबसे बढ़कर मानता है अथवा जिससे उसे कुछ प्राप्त होनेकी आशा रहती है। जैसे संसारमें लोग रुपयोंको प्राप्त करनेमें और उनका संग्रह करनेमें बड़ी तत्परतासे लगते हैं? क्योंकि उनको रुपयोंसे सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओंके मिलनेकी आशा रहती है। वे सोचते हैं -- शरीरके निर्वाहकी वस्तुएँ तो रुपयोंसे मिलती ही हैं? अनेक तरहके भोग? ऐशआरामके साधन भी रुपयोंसे प्राप्त होते हैं। इसलिये रुपये मिलनेपर मैं सुखी हो जाऊँगा तथा लोग मुझे धनी मानकर मेरा बहुत मानआदर करेंगे। इस प्रकार रुपयोंको सर्वोपरि मान लेनपर वे लोभके कारण अन्याय? पापकी भी परवाह नहीं करते। यहाँतक कि वे शरीरके आरामकी भी उपेक्षा करके रुपये कमाने तथा संग्रह करनेमें ही तत्पर रहते हैं। उनकी दृष्टिमें रुपयोंसे बढ़कर कुछ नहीं रहता। इसी प्रकार जब साधकको यह ज्ञात हो जाता है कि परमात्मासे बढ़कर कुछ भी नहीं है और उनकी प्राप्तिमें ऐसा आनन्द है? जहाँ संसारके सब सुख फीके पड़ जाते हैं (गीता 6। 22)? तब वह परमात्माको ही प्राप्त करनेके लिये तत्परतासे लग जाता है (गीता 15। 19)।तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये -- जिसका कोई आदि नहीं है किन्तु जो सबका आदि है (गीता 10। 2)? उस आदिपुरुष परमात्माका ही आश्रय (सहारा) लेना चाहिये। परमात्माके सिवाय अन्य कोई भी आश्रय टिकनेवाला नहीं है। अन्यका आश्रय वास्तवमें आश्रय ही नहीं है? प्रत्युत वह आश्रय लेनेवालेका ही नाश (पतन) करनेवाला है जैसे -- समुद्रमें डूबते हुए व्यक्तिके लिये मगरमच्छका आश्रय इस मृत्युसंसारसागरके सभी आश्रय मगरमच्छके आश्रयकी तरह ही हैं। अतः मनुष्यको विनाशी संसारका आश्रय न लेकर अविनाशी परमात्माका ही आश्रय लेना चाहिये।जब साधक अपना पूरा बल लगानेपर भी दोषोंको दूर करनेमें सफल नहीं होता? तब वह अपने बलसे स्वतः निराश हो जाता है। ठीक ऐसे समयपर यदि वह (अपने बलसे सर्वथा निराश होकर) एकमात्र भगवान्का आश्रय ले लेता है? तो भगवान्की कृपाशक्तिसे उसके दोष निश्चितरूपसे नष्ट हो जाते हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है (टिप्पणी प0 752)। इसलिये साधकको भगवत्प्राप्तिसे कभी निराश नहीं होना चाहिये। भगवान्की शरण लेकर निर्भय और निश्चिन्त हो जाना चाहिये। भगवान्के शरण होनेपर उनकी कृपासे विघ्नोंका नाश और भगवत्प्राप्ति -- दोनोंकी सिद्धि हो जाती है (गीता 18। 58? 62)।साधकको ज��से संसारके सङ्गका त्याग करना है? ऐसे ही असङ्गता के सङ्गका भी त्याग करना है। कारण कि असङ्ग होनेके बाद भी साधकमें मैं असङ्ग हूँ -- ऐसा सूक्ष्म अहंभाव (परिच्छिन्नता) रह सकता है? जो परमात्माके शरण होनेपर ही सुगमतापूर्वक मिट सकता है। परमात्माके शरण होनेका तात्पर्य है -- अपने कहलानेवाले शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि? अहम् (मैंपन)? धन? परिवार? मकान आदि सबकेसब पदार्थोंको परमात्माके अर्पण कर देना अर्थात् उन पदार्थोंसे अपनापन सर्वथा हटा लेनाशरणागत भक्तमें दो भाव रहते हैं -- मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं। इन दोनोंमें भी मैं भगवान्का हूँ और भगवान्के लिये हूँ -- यह भाव ज्यादा उत्तम है। कारण कि भगवान् मेरे हैं और मेरे लिये हैं -- इस भावमें अपने लिये भगवान्से कुछ चाह रहती है अतः साधक भगवान्से अपनी मनचाही कराना चाहेगा। परन्तु मैं भगवान्का हूँ और भगवान्के लिये हूँ -- इस भावमें केवल भगवान्की मनचाही होगी। इस प्रकार साधकमें अपने लिये कुछ भी करने और पानेका भाव न रहना ही वास्तवमें अनन्य शरणागति है। इस अनन्य शरणागतिसे उसका भगवान्के प्रति वह अनिर्वचनीय और अलौकिक प्रेम जाग्रत् हो,जाता है जो क्षति? पूर्ति और निवृत्तिसे रहित है जिसमें अपने प्रियके मिलनेपर भी तृप्ति नहीं होती और वियोगमें भी अभाव नहीं होता जो प्रतिक्षण बढ़ता रहता है जिसमें असीमअपार आनन्द है? जिससे आनन्ददाता भगवान्को भी आनन्द मिलता है। तत्त्वज्ञान होनेके बाद जो प्रेम प्राप्त होता है? वही प्रेम अनन्य शरणागतिसे भी प्राप्त हो जाता है।एव पदका तात्पर्य है कि दूसरे सब आश्रयोंका त्याग करके एकमात्र भगवान्का ही आश्रय ले। यही भाव गीतामें मामेव ये प्रपद्यन्ते (7। 14)? तमेव शरणं गच्छ (18। 62) और मामेकं शरणं व्रज (18। 66) पदोंमें भी आया है।प्रपद्ये कहनेका अर्थ है -- मैं शरण हूँ। यहाँ शङ्का हो सकती है कि भगवान् कैसे कहते हैं कि मैं शरण हूँ क्या भगवान् भी किसीके शरण होते हैं यदि शरण होते हैं तो किसके शरण होते हैं इसका समाधान यह है कि भगवान् किसीके शरण नहीं होते क्योंकि वे सर्वोपरि हैं। केवल लोकशिक्षाके लिये भगवान् साधककी भाषामें बोलकर साधकको यह बताते हैं कि वह मैं शरण हूँ ऐसी भावना करे।परमात्मा है और मैं (स्वयं) हूँ -- इन दोनोंमें है के रूपमें एक ही परमात्मसत्ता विद्यमान है। मैं के साथ होनेसे ही है का हूँ में परिवर्तन हुआ है। यदि मैंरूप एकदेशीय स्थितिको सर्वदेशीय,है में विलीन कर दें? तो है ही रह जायगा? हूँ नहीं रहेगा। जबतक स्वयंके साथ बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ? शरीर आदिका सम्बन्ध मानते हुए हूँ बना हुआ है? तबतक व्यभिचारदोष होनेके कारण अनन्य शरणागति नहीं है।परमात्माका अंश होनेके कारण जीव वास्तवमें सदा परमात्माके ही आश्रित रहता है परन्तु परमात्मासे विमुख होनेके बाद (आश्रय लेनेका स्वभाव न छूटनेके कारण) वह भूलसे नाशवान् संसारका आश्रय लेने लगता है? जो कभी टिकता नहीं। अतः वह दुःख पाता रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह परमात्मासे अपने वास्तविक सम्बन्धको पहचनाकर एकमात्र परमात्माके शरण हो जाय। सम्बन्ध -- जो महापुरुष आदिपुरुष परमात्माके शरण होकर परमपदको प्राप्त होते हैं? उनके लक्षणोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।15.4।। (तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।15.4।।तदर्थं च तमेव प्रपद्ये प्रपद्येत। तच्चोक्तं तत्रैव तं वै प्रपद्येत यं वै प्रपद्य न शोचति न हृष्यति न जायते न म्रियते तद्ब्रह्म मूलं तच्छित्सुः इति।नारायणेन दृष्टश्च प्रतिबुद्धो भवेत्पुमान् इति च मोक्षधर्मे। छेदनोपायो ह्यत्राकाङ्क्षितः न च भगवतोऽन्यः शरण्योऽस्ति।
Sri Anandgiri
।।15.4।।उद्धृत्य किं कर्तव्यं तदाह -- तत इति। पश्चादश्वत्थादूर्ध्वं व्यवस्थितमित्यर्थः। किं तत्पदं यदन्विष्य ज्ञातव्यं तदाह -- यस्मिन्निति। येन सर्वं पूर्णं पूर्षु वा शयानं पुरुषं प्रपद्ये शरणं गतोऽस्मीत्यर्थः। विवर्तवादानुरोधिनं दृष्टान्तमाह -- ऐन्द्रेति।
Sri Vallabhacharya
।।15.4।।तद्विशिनष्टि -- यस्मिन्निति। यत्र गता ज्ञानिनो भूयो न निवर्त्तन्ते। तत्र मुख्यं साधनं भक्तिमाह -- तमेव चाद्यं प्रपद्य इति। यतः पुराणी कृत्स्नस्य जगतः कर्मसु प्रवृत्तिरुत्पत्तिः प्रसृता भवति। तं प्रपद्य इति वा पाठः।
Sridhara Swami
।।15.4।। तत इति। ततस्तस्य मूलभूतं तत्पदं वस्तु वैष्णवं पदं परिमार्गितव्यमन्वेष्टव्यम्। कीदृशम्। यस्मिन्गता यत्पदं प्राप्ताः सन्तो भूयो न निवर्तन्ति। नावर्तन्त इत्यर्थः। अन्वेषणप्रकारमाह। यत एषा पुराणी चिरंतनी संसारप्रवृत्तिः प्रसृता विस्तृता तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये शरणं व्रजामीत्येवमेकान्तभक्त्यान्वेष्टव्यमित्यर्थः।