Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 18 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Transcendence

Sanskrit Shloka (Original)

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः | अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ||१५-१८||

Transliteration

yasmātkṣaramatīto.ahamakṣarādapi cottamaḥ . ato.asmi loke vedeca prathitaḥ puruṣottamaḥ ||15-18||

Word-by-Word Meaning

यस्मात्as
क्षरम्the perishable
अतीतःtranscend
अहम्I
अक्षरात्than the imperishable
अपिalso
and
उत्तमःbest
अतःtherefore
अस्मि(I) am
लोकेin the world
वेदेin the Vedas
and
प्रथितःdeclared

📖 Translation

English

15.18 As I transcend the perishable and am even higher than the imperishable, I am declared to be the highest Purusha in the world and in the Vedas.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।15.18।। क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate a perspective that seeks meaning beyond immediate results and material gains, understanding that true fulfillment comes from aligning with a higher purpose. Strive for excellence, but remain detached from the transient nature of success and failure, knowing there's a greater reality at play.

🧘 For Stress & Anxiety

Recognize that most stressors stem from attachment to impermanent situations or outcomes. By understanding a transcendent, unchanging reality, you can gain perspective, reduce anxiety, and find inner peace, knowing that temporary fluctuations do not define your core being or the ultimate truth.

❤️ In Relationships

Approach relationships with an understanding of the impermanence of physical forms and ego identities. Seek to connect on a deeper, spiritual level, appreciating the inherent divine spark in others while remaining unattached to superficial expectations or transient roles. This fosters unconditional love and reduces dependency.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The Divine is the ultimate, transcendent reality, superior to all perishable and imperishable aspects of existence. Understanding this truth liberates us from the transient and connects us to our eternal source.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

15.18 यस्मात् as? क्षरम् the perishable? अतीतः transcend? अहम् I? अक्षरात् than the imperishable? अपि also? च and? उत्तमः best? अतः therefore? अस्मि (I) am? लोके in the world? वेदे in the Vedas? च and? प्रथितः declared? पुरुषोत्तमः the Highest Purusha.Commentary Purushottama is a wellknown name of the Lord. The name is ite appropriate as He is the supreme Purusha.Kshara The perishable -- the tree of Samsara.Akshara The imperishable -- the seed of the tree of Samsara.Because I excel the perishable (the tree of illusory Samsara) and am more excellent also than the imperishable (the seed of the tree of the illusory Samsara) and because I am thus superior to the perishable and the imperishable? I am proclaimed in the world and in the Vedas as the highest Purusha. Devotees know Me as such. Poets also describe Me as such.I am beyond all limitations. There is no trace of dualism in Me. Therefore? I am called by all and by the scriptures the highest Purusha.

Shri Purohit Swami

15.18 Beyond comparison of the Eternal with the non-eternal am I, Who am called by scriptures and sages the Supreme Personality, the Highest God.

Dr. S. Sankaranarayan

15.18. Becuase, I have transcended the perishing and also the nonperishing, therefore I am acclaimed in the world as well as in the Veda as the Highest of persons.

Swami Adidevananda

15.18 Because I transcend the perishable Person and am also higher than the imperishable person, therefore I am styled in the Smrti and the Veda as the Supreme Person (Purusotama).

Swami Gambirananda

15.18 Since I am transcendental to the mutable and above even the immutable, hence I am well known in the world and in the Vedas as the supreme Person.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।15.18।। जैसा कि पूर्व के दो श्लोकों के विवेचन में कहा गया है कि एक परमात्मा ही परिवर्तनशील जगत् के रूप में क्षर और उस जगत् के अपरिवर्तनशील ज्ञाता के रूप में अक्षर कहलाता है। यह सर्वविदित है कि एक अपरिवर्तनशील वस्तु के बिना अन्य परिवर्तनों का ज्ञान होना संभव नहीं होता है। अत यदि शरीर? मन? बुद्धि और बाह्य जगत् के विकारों का हमें बोध होता है? तो उससे ही इस अक्षर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है? जो स्वयं कूटस्थ रहकर अन्य विचारों को प्रकाशित करता है।यह भी स्पष्ट हो जाता है कि केवल क्षर की दृष्टि से ही परमात्मा को अक्षर का विशेषण प्राप्त हो जाता है? अन्यथा वह स्वयं निर्विशेष ही है।इसलिये यहाँ भगवान् कहते हैं? क्षर और अक्षर से अतीत होने के कारण लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। अर्थात् भगवान् पूर्ण होने से पुरुष है तथा क्षर और अक्षर से अतीत होने से उत्तम भी है? इसलिये वेदों में तथा लोक में भी कवियों और लेखकों ने उन्हें पुरुषोत्तम नाम से भी संबोधित और निर्देशित किया है।अब? परमात्मा के ज्ञान का फल बताते हुये कहते है

Swami Ramsukhdas

।।15.18।। व्याख्या --   यस्मात्क्षरमतीतोऽहम् -- इन पदोंमें भगवान्का यह भाव है कि क्षर (प्रकृति) प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मैं नित्यनिरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहनेवाला हूँ। इसलिये मैं क्षरसे सर्वथा अतीत हूँ।शरीरसे पर (व्यापक? श्रेष्ठ? प्रकाशक? सबल? सूक्ष्म) इन्द्रियाँ हैं? इन्द्रियोंसे पर मन है और मनसे पर बुद्धि है (गीता 3। 42)। इस प्रकार एकदूसरेसे पर होते हुए भी शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि एक ही जातिके? जड हैं। परन्तु परमात्मतत्त्व इनसे भी अत्यन्त पर है क्योंकि वह जड नहीं है? प्रत्युत चेतन है।अक्षरादपि चोत्तमः -- यद्यपि परमात्माका अंश होनेके कारण जीवात्मा(अक्षर) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है? तथापि यहाँ भगवान् अपनेको जीवात्मासे भी उत्तम बताते हैं। इसके कारण ये हैं -- (1) परमात्माका अंश होनेपर भी जीवात्मा क्षर(जड प्रकृति) के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है (गीता 15। 7) और प्रकृतिके गुणोंसे मोहित हो जाता है? जबकि परमात्मा (प्रकृतिसे अतीत होनेके कारण) कभी मोहित नहीं होते (गीता 7।13)। (2) परमात्मा प्रकृतिको अपने अधीन करके लोकमें आते? अवतार लेते हैं (गीता 4। 6)? जबकि जीवात्मा प्रकृतिके वशमें होकर लोकमें आता है (गीता 8। 19)। (3) परमात्मा सदैव निर्लिप्त रहते हैं? (गीता 4। 14 9। 9)? जबकि जीवात्माको निर्लिप्त होनेके लिये साधन करना पड़ता है (गीता 4। 18 7। 14)।भगवान्द्वारा अपनेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम बतानेसे यह भाव भी प्रकट होता है कि क्षर और अक्षर -- दोनोंमें भिन्नता है। यदि उन दोनोंमें भिन्नता न होती? तो भगवान् अपनेको या तो उन दोनोंसे ही अतीत बताते या दोनोंसे ही उत्तम बताते। अतः यह सिद्ध होता है कि जैसे भगवान् क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हैं? ऐसे ही अक्षर भी क्षरसे अतीत और उत्तम है।अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः -- यहाँ लोके पदका अर्थ है -- पुराण? स्मृति आदि शास्त्र। शास्त्रोंमें भगवान् पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हैं।शुद्ध ज्ञानका नाम वेद है? जो अनादि है। वही ज्ञान आनुपूर्वीरूपसे ऋक्? यजुः आदि वेदोंके रूपसे प्रकट हुआ है। वेदोंमें भी भगवान् पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हैं।पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा था कि क्षर और अक्षर -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है। वह उत्तम पुरुष कौन है -- इसको बताते हुए भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि वह उत्तम पुरुष -- पुरुषोत्तम मैं ही हूँ।विशेष बात(1) भौतिक सृष्टिमात्र क्षर (नाशवान्) है और परमात्माका सनातन अंश जीवात्मा अक्षर (अविनाशी) है। क्षरसे अतीत और उत्तम होनेपर भी अक्षरने क्षरसे अपना सम्बन्ध मान लिया -- इससे बढ़कर और कोई दोष? भूल या गलती है ही नहीं। क्षरके साथ यह सम्बन्ध केवल माना हुआ है? वास्तवमें एक क्षण भी रहनेवाला नहीं है। जैसे बाल्यावस्थासे अबतक शरीर बिलकुल बदल गया? फिर भी हम कहते हैं कि मैं वही हूँ। यह भी हम नहीं बता सकते कि अमुक दिन बाल्यावस्था खत्म हुई और युवावस्था शुरू हुई। कारण कि नदीके प्रवाहकी तरह शरीर निरन्तर ही बहता रहता है? जब कि अक्षर (जीवात्मा) नदीमें स्थित शिला(चट्टान) की तरह सदा अचल और असङ्ग रहता है। यदि अक्षर भी क्षरकी तरह निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान् होता तो इसकी आफत मिट जाती। परन्तु स्वयं (अक्षर) अपरिवर्तनशील और अविनाशी होते हुए भी निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान् क्षरको पकड़ लेता है -- उसको अपना मान लेता है। होता यह है कि अक्षर क्षरको छोड़ता नहीं और क्षर एक क्षण भी ठहरता नहीं। इस आफतको मिटानेका सुगम उपाय है -- क्षर(शरीरादि) को क्षर(संसार) की ही सेवामें लगा दिया जाय -- उसको संसाररूपी वाटिकाकी खाद बना दी जाय।मनुष्यको शरीरादि नाशवान् पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना माननेके लिये नहीं मिले हैं? प्रत्युत सेवा करनेके लिये ही मिले हैं। इन पदार्थोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेकी ही मनुष्यपर जिम्मेवारी है? अपना माननेकी बिलकुल जिम्मेवारी नहीं।(2) पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने पहले क्षर -- संसारवृक्षका वर्णन किया। फिर उसका छेदन करके परम पुरुष परमात्माके शरण होने अर्थात् संसारसे अपनापन हटाकर एकमात्र परमात्माको अपना माननेकी प्रेरणा की। फिर अक्षर -- जीवात्माको अपना सनातन अंश बताते हुए उसके स्वरूपका वर्णन किया। उसके बाद भगवान्ने (बारहवेंसे पन्द्रहवें श्लोकतक) अपने प्रभावका वर्णन करते हुए बताया कि सूर्य? चन्द्र और अग्निमें मेरा ही तेज है मैं ही पृथ्वीमें प्रविष्ट होकर अपनी शक्तिसे चराचर सब प्राणियोंको धारण करता हूँ मैं ही अमृतमय चन्द्रके रूपसे सम्पूर्ण वनस्पतियोंको पुष्ट करता हूँ वैश्वानर अग्निके रूपमें मैं ही प्राणियोंके शरीरमें स्थित होकर उनके द्वारा खाये हुए अन्नको पचाता हूँ मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विद्यमान हूँ मेरेसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (भ्रम? संशय आदि दोषोंका नाश) होता है वेदादि सब शास्त्रोंके द्वारा,मैं ही जाननेयोग्य हूँ और वेदोंके अन्तिम सिद्धान्तका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ। इस प्रकार अपना प्रभाव प्रकट करनेके बाद इस श्लोकमें भगवान् यह गुह्यतम रहस्य प्रकट करते हैं कि जिसका यह सब प्रभाव है? वह (क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम) पुरुषोत्तम मैं (साक्षात् साकाररूपसे प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ।भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनपर बहुत विशेष कृपा करके ही अपने रहस्यकी बात अपने मुखसे प्रकट की है जैसे -- कोई पिता अपने पुत्रके सामने अपनी गुप्त सम्पत्ति प्रकट कर दे अथवा कोई आदमी किसी भूलेभटके मनुष्यको अपना परिचय दे दे कि जिसके लिये तू भटक रहा है? वह मैं ही हूँ और तेरे सामने बैठा हूँ, सम्बन्ध --   चौदहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कही थी और जिसको प्राप्त करानेके लिये इस पन्द्रहवें अध्यायमें संसार? जीव और परमात्माका विस्तृत विवेचन किया गया? उसका अब आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।15.18।। क्योंकि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।15.18।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।15.18।।किञ्च लोकवेदयोर्भगवतो नामप्रसिद्ध्या सिद्धमप्रपञ्चत्वमित्याह -- यथेति। अश्वकर्णादिवदस्य नाम्नो रूढत्वादर्थविशेषाभावाद्भगवतोऽपि लौकिकेश्वरवदीश्वरत्वं सातिशयमिति नेत्याह -- तस्येति। यस्मादित्यस्यापेक्षितं निक्षिपति -- अत इति। उत्तमः पुरुष इति वाक्यशेषः।

Sri Vallabhacharya

।।15.18।।एवम्भूतं पुरुषोत्तमत्वं स्वस्य निरुक्त्या स्वयं निर्दिशति -- यस्मादिति। क्षरमतिक्रम्येतः अक्षरादपि चोत्तम इति अतो लोके वेदे च प्रथितोऽहं पुरुषोत्तम इति पुरुषाभ्यां क्षराक्षराभ्यां उत्तम इत्येवं वेदे ब्रह्मविदाप्नोति परं [तै.उ.2।1] इति श्रुतौ लोके च माहात्म्यदर्शनात् अतः सच्चिदानन्दाकृतिरेवाहं परिदृश्यमानोऽपि? प्रतीत्यन्तरं तु माययेति सिद्धान्तः।

Sridhara Swami

।।15.18।। एवंभूतं पुरुषोत्तमत्वमात्मनो नामनिर्वचनेन दर्शयति -- यस्मादिति। यस्मात्क्षरं जडवर्गमतिक्रान्तोऽहं नित्यमुक्तत्वात्? अक्षराच्चेतनवर्गादप्युत्तमश्च नियन्तृत्वात्? अतो लोके वेदे च पुरुषोत्तम इति प्रथितः प्रख्यातोऽस्मि। तथाच श्रुतिःस वा अयमात्मा सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति इत्यादिः।

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