Bhagavad Gita Chapter 15 Verse 12 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Immanence

Sanskrit Shloka (Original)

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् | यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ||१५-१२||

Transliteration

yadādityagataṃ tejo jagadbhāsayate.akhilam . yaccandramasi yaccāgnau tattejo viddhi māmakam ||15-12||

Word-by-Word Meaning

यत्which
आदित्यगतम्residing in the sun
तेजःlight
जगत्the world
भासयतेillumines
अखिलम्whole
यत्which
चन्द्रमसिin the moon
यत्which
and
अग्नौin the fire
तत्that
तेजःlight
विद्धिknow

📖 Translation

English

15.12 That light which residing in the sun illumines the whole world, that which is in the moon and in the fire know that light to be Mine.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।15.12।। जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Acknowledge that your intelligence, creativity, and problem-solving abilities stem from a universal source of consciousness. Cultivate clarity, focus, and integrity (Sattva) in your work to enhance intuition, insights, and effective decision-making, allowing your true potential to illuminate your professional path and impact.

🧘 For Stress & Anxiety

In moments of stress or mental fog, remember that an inherent, divine light of consciousness resides within you, offering clarity and peace. By cultivating mental purity (Sattva) through mindfulness, introspection, and ethical living, you can better access this inner light, gaining perspective and reducing the grip of external anxieties.

❤️ In Relationships

Recognize the underlying divine light and consciousness in every individual, fostering empathy and understanding. Just as light manifests differently, appreciate the unique expressions of consciousness in others. Cultivating personal clarity and non-judgment helps you perceive beyond superficial differences, resolving conflicts and building deeper, more harmonious connections.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The divine light of consciousness is the pervasive source of all illumination and energy; cultivate inner purity to manifest its brilliance in your life.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

15.12 यत् which? आदित्यगतम् residing in the sun? तेजः light? जगत् the world? भासयते illumines? अखिलम् whole? यत् which? चन्द्रमसि in the moon? यत् which? च and? अग्नौ in the fire? तत् that? तेजः light? विद्धि know? मामकम् Mine.Commentary The immanence of the Lord as the allilluminating light of consciousness is described in this verse.I am the cause and the source of the light by which the sun illumines the world? as also the reflected light of the sun in the moon and that of fire.Tejah Light The light of consciousness.If that is so? an objector says The light of consciousness exists alike in all moving and unmoving objects. Then why has the Lord mentioned this special alification of light as residing in the sun? moon and fire Please explain. We say The higher manifestation of the light of consciousness in the sun? etc.? is due to a large concentration of Sattva in them. Sattva is very brilliant and luminous in them. That is the reason why there is this special alification.Here is an illustration. The face of a man is not at all reflected on a wall? piece of wood or a block of stone? but the same face is reflected beautifully in a very clean mirror. The degree of clearness of the reflection in the mirror is acording to the degree of transparency of the mirror. The more the transparency of the mirror? the better the reflection of the face the less the transparency? the worse the reflection. Even so Gods light shines in the sun and also in the pure heart of a devotee.

Shri Purohit Swami

15.12 Remember that the Light which, proceeding from the sun, illumines the whole world, and the Light which is in the moon, and That which is in the fire also, all are born of Me.

Dr. S. Sankaranarayan

15.12. That light which is found in the sun, which is in the moon, and which is [also] in the fire-all illuminating the entire world-know that light to be of Mine.

Swami Adidevananda

15.12 That brilliance in the sun which illumines the whole universe, that in the moon and that in fire, know that brilliance as Mine.

Swami Gambirananda

15.12 That light in the sun which illumines the whole world, that which is in the moon, and that which is in fire,-know that light to be Mine.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।15.12।। आधुनिक विज्ञान के निष्कर्षों से परिचित हम लोग प्रस्तुत श्लोक के अर्थ को पढ़कर विचलित होते हैं और उसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं। परन्तु पूर्वाग्रहों को त्यागकर धैर्यपूर्वक यदि हम चिन्तन करें? तो हमें ज्ञात होगा कि हमारा भ्रम केवल अपनी बुद्धि का सीमितता के कारण ही है। हम सदैव भौतिक वस्तुओं का ही बौद्धिक अध्ययन करते हैं? इसलिये आध्यात्मिक विषयों को समझने में हमें कठिनाई होती है। विज्ञान की प्रारम्भिक कक्षाओं में ही हमें बताया जाता है कि पृथ्वी सूर्य से ही विलग हुआ एक भाग है? जो ग्रहों के परस्पर आकर्षणों के द्वारा इस स्थिति में धारण किया हुआ है। यह पृथ्वी शनै शनै शीतल हुई वर्तमान तापमान को पहुँची है। परन्तु? यदि हम विज्ञान के उस अध्यापक से पूछें कि सूर्य की उत्पत्ति कैसे हुई? तो वह न केवल कुछ विचलित हो जाता है? वरन् उसे कुछ क्रोध भी आ जाता है? जो क्षम्य है जहाँ इन्द्रियगोचर तथ्यों को एकत्र करके सिद्ध किया जा सकता है? भौतिक विज्ञान की गति केवल उसी परिसीमा में हो सकती है।परन्तु? दर्शनशास्त्र का प्रयोजन जगत् के आदिस्रोत के संबंध में मानव की बुद्धि की जिज्ञासा को शांत करना है? हो सकता है कि उसके इस प्रयत्न के लिये आवश्यक वौज्ञानिक तथ्य प्रयोगशाला में उपलब्ध न हों केवल अपनी बुद्धि से विचार करने की एक निश्चित सीमा होती है? जहाँ पहुँचकर बुद्धि और उसके निरीक्षण? उसके अनुमान और निष्कर्ष? उसके तर्क और निश्चित किये गये मत? इन सबका थक कर शान्त हो जाना अवश्यंभावी होता है और फिर भी उसकी जिज्ञासा पूर्णत शान्त नहीं होती? क्योंकि सत्यान्वेषक बुद्धि प्रश्न पूछती ही रहती है क्यों कैसे क्या परन्तु? वहाँ विज्ञान मौन रह जाता है। जहाँ विज्ञान का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है? और जहाँ से आगे के पथ को वह प्रकाशित नहीं कर पाता है? वहाँ से परम सन्तोष की ओर दर्शनशास्त्र की तीर्थयात्रा प्रारम्भ होती है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है ? वह वस्तुत मुझ चैतन्य स्वरूप का ही प्रकाश है। इसी प्रकार? चन्द्रमा और अग्नि के माध्यम से व्यक्त होने वाला प्रकाश भी मेरी ही विविध प्रकार की अभिव्यक्ति है।अभिव्यक्ति की विविधता विद्यमान उपाधियों की विभिन्नता के कारण होती है। एक ही विद्युत् शक्ति बल्ब? पंखा आदि उपकरणों से विभन्न रूप में व्यक्त होती है। इसी प्रकार सूर्य? चन्द्र और अग्नि का प्रकाश का अन्तर इन तीनों उपाधियों के कारण है? न कि इनके द्वारा व्यक्त हो रहे चैतन्य में। परमात्मा स्वयं को विविध रूप में व्यक्त करता है? जिससे ऐसा अनुकूल वातावरण बन सके कि जगत् की स्थिति बनी रहे और वह स्वयं विविधता की अपनी क्रीड़ा कर सके आगे कहते है

Swami Ramsukhdas

।।15.12।। व्याख्या --   [प्रभाव और महत्त्वकी ओर आकर्षित होना जीवका स्वभाव है। प्राकृत पदार्थोंके सम्बन्धसे जीव प्राकृत पदार्थोंके प्रभावसे प्रभावित हो जाता है। कारण यह है कि प्रकृतिमें स्थित होनेके कारण जीवको प्राकृत पदार्थों(शरीर? स्त्री? पुत्र? धन आदि) का महत्त्व दीखने लगता है? भगवान्का नहीं। अतः जीवपर पड़े प्राकृत पदार्थोंका प्रभाव हटानेके लिये भगवान् अपने प्रभावका वर्णन करते हुए यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन प्राकृत पदार्थोंमें जो प्रभाव और महत्त्व देखनेमें आता है? वह वस्तुतः (मूलमें) मेरा ही है? उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाशसे सब प्रकाशित हो रहे हैं।]यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् -- जैसे भगवान्ने (गीता 2। 55में ) कामनाओंको मनोगतान् बताया है? ऐसे ही यहाँ तेजको आदित्यगतम् बताते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे मनमें स्थित कामनाएँ मनका धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक हैं? ऐसे ही सूर्यमें स्थित तेज सूर्यका धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक है अर्थात् वह तेज सूर्यका अपना न होकर (भगवान्से) आया हुआ है।सूर्यका तेज (प्रकाश) इतना महान् है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उससे प्रकाशित होता है। ऐसा वह तेज सूर्यका दीखनेपर भी वास्तवमें भगवान्का ही है। इसलिये सूर्य भगवान्को यहा उनके परमधामको प्रकाशित नहीं कर सकता। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं -- पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।।(योगदर्शन 1। 26)ईश्वर सबके पूर्वजोंका भी गुरु है क्योंकि उसका कालसे अवच्छेद नहीं है। सम्पूर्ण भौतिक जगत्में सूर्यके समान प्रत्यक्ष प्रभावशाली पदार्थ कोई नहीं है। चन्द्र? अग्नि? तारे? विद्युत् आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं? वे सभी सूर्यसे ही प्रकाश पाते हैं। भगवान्से मिले हुए तेजके कारण जब सूर्य इतना विलक्षण और प्रभावशाली है? तब स्वयं भगवान् कितने विलक्षण और प्रभावशाली होंगे ऐसा विचार करनेपर स्वतः भगवान्की तरफ आकर्षण होता है।सूर्य नेत्रोंका अधिष्ठातृदेवता है। अतः नेत्रोंमें जो प्रकाश (देखनेकी शक्ति) है वह भी परम्परासे भगवान्से ही आयी हुई समझनी चाहिये।यच्चन्द्रमसि -- जैसे सूर्यमें स्थित प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति -- दोनों ही भगवान्से प्राप्त (आगत) हैं? ऐसे ही चन्द्रमाकी प्रकाशिका शक्ति और पोषण शक्ति -- दोनों (सूर्यद्वारा प्राप्त होनेपर भी परम्परासे) भगवत्प्रदत्त ही हैं। जैसे भगवान्का तेज आदित्यगत है? ऐसे ही उनका तेज चन्द्रगत भी समझना चाहिये। चन्द्रमामें प्रकाशके साथ शीतलता? मधुरता? पोषणता आदि जो भी गुण हैं? वह सब भगवान्का ही प्रभाव है।यहाँ चन्द्रमाको तारे? नक्षत्र आदिका भी उपलक्षण समझना चाहिये।चन्द्रमा मन का अधिष्ठातृदेवता है। अतः मनमें जो प्रकाश (मनन करनेकी शक्ति) है? वह भी परम्परासे भगवान्से ही आयी हुई समझनी चाहिये।यच्चाग्नौ -- जैसे भगवान्का तेज आदित्यगत है? ऐसे ही उनका तेज अग्निगत भी समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अग्निकी प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति -- दोनों भगवान्की ही हैं? अग्निकी नहीं।यहाँ अग्निको विद्युत्? दीपक? जुगनू आदिका भी उपलक्षण समझना चाहिये।अग्नि वाणीका अधिष्ठातृदेवता है। अतः वाणीमें जो प्रकाश (अर्थप्रकाश करनेकी शक्ति) है? वह भी परम्परासे भगवान्से ही आयी हुई समझनी चाहिये।तत्तेजो विद्धि मामकम् -- जो तेज सूर्य? चन्द्रमा और अग्निमें है और जो तेज इन तीनोंके प्रकाशसे प्रकाशित अन्य पदार्थों (तारे? नक्षत्र? विद्युत्? जुगनू आदि) में देखने तथा सुननेमें आता है? उसे भगवान्का ही तेज समझना चाहिये।उपर्युक्त पदोंसे भगवान् यह कह रहे हैं कि मनुष्य जिसजिस तेजस्वी पदार्थकी तरफ आकर्षित होता है? उसउस पदार्थमें उसको मेरा ही प्रभाव देखना चाहिये (गीता 10। 41)। जैसे बूँदीके लड्डूमें जो मिठास है? वह उसकी अपनी न होकर चीनीकी ही है? ऐसे ही सूर्य? चन्द्रमा और अग्निमें जो तेज है? वह उनका अपना न होकर भगवान्का ही है। भगवान्के प्रकाशसे ही यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है -- तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (कठोपनिषद् 2। 2। 15)। वह सम्पूर्ण ज्योतियोंकी भी ज्योति है -- ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः (गीता 13। 17)।सूर्य? चन्द्रमा और अग्नि क्रमशः नेत्र? मन और वाणीके अधिष्ठाता एवं उनको प्रकाशित करनेवाले हैं। मनुष्य अपने भावोंको प्रकट करने और समझनेके लिये नेत्र? मन (अन्तःकरण) और वाणी -- इन तीन इन्द्रियोंका ही उपयोग करता है। ये तीन इन्द्रियाँ जितना प्रकाश करतीं हैं? उतना प्रकाश अन्य इन्द्रियाँ नहीं करतीं। प्रकाशका तात्पर्य है -- अलगअलग ज्ञान कराना। नेत्र और वाणी बाहरी करण हैं तथा मन भीतरी करण है। करणोंके द्वारा वस्तुका ज्ञान होता है। ये तीनों ही करण (इन्द्रियाँ) भगवान्को प्रकाशित नहीं कर सकते क्योंकि इनमें जो तेज या प्रकाश है? वह इनका अपना न होकर भगवान्का ही है। सम्बन्ध --   दृश्य (दीखनेवाले) पदार्थोंमें अपना प्रभाव बतानेके बाद अब भगवान् आगेके श्लोकमें जिस शक्तिसे समष्टिजगत्में क्रियाएँ हो रही हैं? उस समष्टिशक्तिमें अपना प्रभाव प्रकट करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।15.12।। जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।15.12 -- 15.14।।पूर्वोक्तमेव ज्ञानं प्रपञ्चयति -- यदादित्यगतमित्यादिना। गां भूमिम्।

Sri Anandgiri

।।15.12।।अनन्तरश्लोकचतुष्टयस्य वृत्तानुवादद्वारा तात्पर्यार्थमाह -- यत्पदमिति। जीवात्मत्वेन चिद्रूपत्वमुक्त्वा तदीयचैतन्येनादित्यादीनामवभासकत्वाच्च ब्रह्मणश्चिद्रूपत्वमित्याह -- यदादित्येति। चिद्रूपस्यैव ब्रह्मणः सर्वात्मकत्वप्रतिपादकत्वेन श्लोकं व्याचष्टे -- यदित्यादिना। आदित्यादौ तत्र तत्र स्थितं ब्रह्मचैतन्यज्योतिः सर्वावभासकमित्यर्थः। ब्रह्मणः सर्वज्ञत्वेन चिद्रूपत्वमत्र विवक्षितमिति व्याख्यान्तरमाह -- अथवेति। चैतन्यज्योतिषः सर्वत्राविशेषादादित्यादिगतत्वविशेषणमयुक्तमिति शङ्कते -- नन्विति। सर्वत्र सत्त्वेऽपि क्वचिदेवाभिव्यक्तिविशेषाद्विशेषणमिति परिहरति -- नैष दोष इति। तदेव प्रपञ्चयति -- आदित्यादिष्विति। सर्वत्र चैतन्यज्योतिषस्तुल्यत्वेऽपि क्वचिदेवाभिव्यक्त्या विशेषणोपपत्तिं दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- यथाहीति।

Sri Vallabhacharya

।।15.12।।तदेवं सूर्यादीनां इन्द्रियसन्निकर्षविरोधिसन्तमसनिरसनमुखेनेन्द्रियानुग्राहकतया प्रकाशकानां ज्योतिष्मतामपि प्रकाशनिरपेक्षं सदानन्दचिद्रूपधामाक्षरः कालः प्रकृत्यध्यक्षः पुरुषश्चात्मा केवलचिद्रूपः जीवावस्थश्च भगवतो मे विभूतिरंश इत्युक्तम् इदानीमचित्परिणामविशेषोऽप्यादित्यादीनां पूर्वोक्तानां ज्योतिरादिर्मद्विभूतिरिति श्रौतार्थमाह -- यदित्यादिचतुर्भिः। आदित्यादिषु ममैवांशो तेजो यथा जीवलोके जीवभूत इति ब्रह्मवादेनाह। अंशभूतं तेजो विद्धि यत्तु योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहं [मैत्र्यु.6।35] इति श्रुतं? तत्तूपासनाभिप्रायेणाधिदैवतम्। एवं चन्द्रमस्यपि यदेष औषधीनामधिपतिः [ ] इति। आधिदैविकतया तैराराधिते वा मया तेभ्यो दत्तमिति च श्रूयते।

Sridhara Swami

।।15.12।।तदेवंन तद्भासयते सूर्यः इत्यादिना पारमेश्वरं परं धामोक्तं? तत्प्राप्तानां चापुनरावृत्तिरुक्ता? तत्र च संसारिणोऽभावमाशङ्क्य संसारिस्वरूपं देहादिव्यतिरिक्तं दर्शितम्? इदानीं तदेव पारमेश्वरं रूपमनन्तशक्तित्वेन निरूपयति -- यदेत्यादिचतुर्भिः। आदित्यादिषु स्थितं यदनेकप्रकारं तेजो विश्वं प्रकाशयति तत्सर्वं तेजो मदीयमेव जानीहि।

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