Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 7 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् | तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ||१४-७||

Transliteration

rajo rāgātmakaṃ viddhi tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam . tannibadhnāti kaunteya karmasaṅgena dehinam ||14-7||

Word-by-Word Meaning

रजःRajas
रागात्मकम्of the nature of passion
विद्धिknow
तृष्णासङ्गसमुद्भवम्the source of thirst and attachment
तत्that
निबध्नातिbinds
कौन्तेयO son of Kunti (Arjuna)
कर्मसङ्गेनby attachment to action

📖 Translation

English

14.7 Know thou Rajas to be of the nature of passion, the source of thirst (for sensual enjoyment) and attachment; it binds fast, O Arjuna, the embodied one by attachment to action.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.7।। हे कौन्तेय ! रजोगुण को रागस्वरूप जानो, जिससे तृष्णा और आसक्ति उत्पन्न होती है। वह देही आत्मा को कर्मों की आसक्ति से बांधता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, recognize when ambition transforms into an insatiable craving for more (promotions, wealth, recognition). This Rajasic drive, while seemingly productive, can lead to burnout, a perpetual feeling of 'not enough,' and an 'I am the doer' mentality that fuels attachment to outcomes rather than the work itself. Cultivate a mindful approach to action, focusing on contribution rather than solely on personal gain, to avoid the binding cycle of endless striving.

🧘 For Stress & Anxiety

Understand that much of modern stress and mental agitation stems from Rajasic desires and attachments. The constant 'thirst' for new experiences, possessions, or achievements, coupled with attachment to what we already have, creates restlessness and anxiety. Practice observing these desires without immediately acting on them, recognizing them as transient. Detach from the outcomes of your efforts to cultivate inner peace and reduce mental turbulence.

❤️ In Relationships

Be aware of how Rajas fuels conditional relationships. Attachment (sanga) to others can arise from a desire for personal gratification, emotional support, or control. This can lead to possessiveness, unrealistic expectations, and disappointment when desires are not met. Strive for relationships based on unconditional giving and mutual respect, rather than seeking what others can provide, thereby avoiding the binding and often painful cycle of desire-driven connection.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Rajas, driven by insatiable desire and attachment to action and its fruits, binds the individual to a cycle of restless striving, clouding judgment and preventing true contentment and inner peace.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.7 रजः Rajas? रागात्मकम् of the nature of passion? विद्धि know? तृष्णासङ्गसमुद्भवम् the source of thirst and attachment? तत् that? निबध्नाति binds? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? कर्मसङ्गेन by attachment to action? देहिनम् the embodied one.Commentary The ality of Rajas denotes activity and ambition. The Rajasic man is full of cravings and desires. The cravings force him to act for their fulfilment. He gets attached to those who help him in the fulfilment of his desire and hates those who stand in his way. He is attached to action. He enters on great undertakings. He performs various sorts of sacrifices and rituals and charitable activities. He runs after sensual pleasures and his desires become insatiable like a flame fed by oil. The Self is not the doer. It is the silent witness but Rajas creates in the man the idea? I am the doer.Rajas pleases the mind and keeps alive the passions.A Rajasic man is never contented. He is ever greedy and restless. The more he acires? the more passionate and greedy he becomes. Desires multiply. Nothing gives him satisfaction. If he is a millionaire? he tries to become a multimillionaire. It is like petrol poured into the fire? which inflames it further. A Rajasic man loses his understanding and power of discrimination. His understanding is clouded. He is under intoxication of the pride of wealth. His intellect is turbid. He has a perverted intellect. On account of perversion of intellect misery appears to him to be happiness pain appears to him to be pleasure sorrow appears to be joy. His goal is money and women. He worships mammon as his god.He runs after name? fame and comforts and involves himself in endless activities. Quickness has been associated with the fish? with the flash of lightning and with the glance of a woman. But Rajas is icker than these. A Rajasic man is more active than these. He thinks What will happen to me after my possessions are gone and thus worries himself unnecessarily and engages himself in endless activities. He has no peace of mind.He thirsts for what has not been attained and is attached to what has already been obtained. He wishes and tries to protect his possessions. This is Sanga. I will do such and such an action. I will get such and such a result. I will do this sacrifice. I will enjoy in heaven. This sort of clinging to action and its fruits is Karma Sanga.

Shri Purohit Swami

14.7 Passion, engendered by thirst for pleasure and attachment, binds the soul through its fondness for activity.

Dr. S. Sankaranarayan

14.7. You should know that the Rajas is of the nature of desire and is a source of craving-attachment; and it binds the embodied by the attachment to action, O son of Kunti !

Swami Adidevananda

14.7 Know, O Arjuna, that Rajas is of the nature of passion springing from thirst and atttachment. It binds the embodied self with attachment to work.

Swami Gambirananda

14.7 Know rajas to be of the nature of passion, born of hankering and attachment. O son of Kunti, that binds the embodied one through attachment to action.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.7।। अपने मन पर विजय प्राप्त करने के इच्छुक साधक को मन की उन समस्त सूक्ष्म प्रवृत्तियों एवं रुचियों का ज्ञान होना चाहिये? जिनके द्वारा वह बारम्बार उन्मत्त के समान विषयों की ओर भागता है। इस प्रकार? यह मन साधक के आन्तरिक व्यक्तित्व को नष्ट करने के षड्यन्त्र में ही लगा रहता है।रजोगुण को रागस्वरूप जानो जब अन्तकरण में रजोगुण के प्रभावों का घातक आक्रमण होता है तब वह मनुष्य के मन को असंख्य पीड़ादायक उद्वेगों से चूरचूर कर देता है। मन के स्तर पर उठने वाले ये उद्वेग ही रजोगुण के मुख्य लक्षण हैं। ये मनोवेग असंख्य प्रकार से व्यक्त होते हैं? जैसे हठ? कामना? भावना इत्यादि। तथापि इन सबका समावेश केवल दो वृत्तियों में किया जा सकता है तृष्णा और संग अर्थात् आसक्ति। यहाँ इन दोनों का ही समस्त उद्वेगों के मुख्य स्रोत के रूप में निर्देश किया गया है।तृष्णा और संग विषयोपभोग की इच्छा के लिये संस्कृत में शब्द है तृष्णा अर्थात् प्यास। एक प्यासे व्यक्ति के लिये उस समय जल से अधिक महत्व की और कोई शान्तिप्रद वस्तु प्रतीत ही नहीं होती है। वह तृष्णा के कारण छटपटाता है? और केवल किसी प्रकार किसी भी स्थान से जल प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है। इसी प्रकार एक बार किसी विषय की कामना मन में उत्पन्न हो जाती है? तब उसकी सन्तुष्टि किये बिना मनुष्य को शान्ति अनुभव नहीं होती। यदि इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाती है? तो उसके प्रति संग हो जाता है। संग एक ऐसा दुष्ट मनोवेग है? जो मन के सुख और शान्ति को भंग कर देता है। संक्षेपत? अप्राप्त वस्तु को पाने की काम्ाना तृष्णा कहलाती है? और प्राप्त वस्तु से आसक्ति को संग कहते हैं।विषयों के प्रति मन में उत्पन्न होने वाली तृष्णा और संग ही वे ज्वालामुखी पर्वत हैं? जो निरन्तर अपना पिघला लावा उगल कर जीवन के हंसते उपवन को झुलसाकर ध्वस्त कर देते हैं। इन आग्नेय पर्वतों से उगला गया तप्त लावा विविध प्रकार के मनोद्वेग हैं? जो मनुष्य के कामुक जीवन में असंख्य वस्तुओं को अर्जित करने? उन पर अधिकार जमाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिये संघर्ष और कलह को जन्म देते हैं।यह रजोगुण मनुष्य को कर्मासक्ति से बांधता है रजोगुण के वशीभूत पुरुष के मन में विभिन्न इच्छाएं उत्पन्न होती हैं? जिन्हें पूर्ण करने के लिये स्वाभाविक है कि वह दिनरात कर्म में ही व्यस्त और आसक्त हो जाता है। उसका सम्पूर्ण जीवन धन के आय और व्यय? वस्तुओं के अर्जन और रक्षण करने में ही व्यतीत होता है। इस प्रक्रिया में उसका शरीर तो वृद्ध होता जाता है परन्तु उसकी तृष्णा नवयौवन को प्राप्त होती जाती है अधिकाधिक भोग को प्राप्त करने की व्याकुलता और प्राप्त वस्तु के नष्ट होने के भय के कारण वह एक कर्म से दूसरे कर्म में प्रवृत्त रहता है। इस प्रकार अपने ही कर्मों से उत्पन्न हुए सुख दुख रूप फलों को भोगने के लिए य्ाह जीव देह से बंधा रहता है।यदि सत्त्वगुण के बन्धन में मनुष्य को यह अभिमान होता है कि मैं सुखी हूँ और मैं जानने वाला हूँ? तो रजोगुण में मैं कर्ता हूँ इस प्रकार कर्तृत्व का अभिमान होता है। इस तथ्य का हमें स्मरण रहे कि इन गुणों से उत्पन्न ये बन्धन प्रतीतिक ही हैं? वास्तविक नहीं।

Swami Ramsukhdas

।।14.7।। व्याख्या --   रजो रागात्म्कं विद्धि -- यह रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात् किसी वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना? क्रिया आदिमें जो प्रियता पैदा होती है? वह प्रियता रजोगुणका स्वरूप है।रागात्मकम् कहनेका तात्पर्य है कि जैसे स्वर्णके आभूषण स्वर्णमय होते हैं? ऐसे ही रजोगुण रागमय है।पातञ्जलयोगदर्शनमें क्रिया को रजोगुणका स्वरूप कहा गया है (टिप्पणी प0 717.1)। परन्तु श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् (क्रियामात्रको गौणरूपसे रजोगुण मानते हुए भी) मुख्यतः रागको ही रजोगुणका स्वरूप मानते हैं (टिप्पणी प0 717.2)। इसीलिये योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा ( 2। 48) पदोंमें आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यकर्मोंको करनेकी आज्ञा दी गयी है। निष्कामभावसे किये गये कर्म मुक्त करनेवाले होते हैं (3। 19)। इसी अध्यायके बाईसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि प्रवृत्ति अर्थात् क्रिया करनेका भाव उत्पन्न होनेपर भी गुणातीत पुरुषका उसमें राग नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि गुणातीत पुरुषमें भी रजोगुणके प्रभावसे प्रवृत्ति तो होती है? पर वह रागपूर्वक नहीं होती। गुणातीत होनेमें सहायक होनेपर भी सत्त्वगुणको सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे बाँधनेवाला कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि आसक्ति ही बन्धनकारक है? सत्त्वगुण स्वयं नहीं। अतः भगवान् यहाँ रागको ही रजोगुणका मुख्य स्वरूप जाननेके लिये कह रहे हैं।महासर्गके आदिमें परमात्माका बहु स्यां प्रजायेय -- यह संकल्प होता है। यह संकल्प रजोगुणी है। इसको गीताने कर्म नामसे कहा है (8। 3)। जिस प्रकार दहीको बिलोनेसे मक्खन और छाछ अलगअलग हो जाते हैं? ऐसे ही सृष्टिरचनाके इस रजोगुणी संकल्पसे प्रकृतिमें क्षोभ पैदा होता है? जिससे सत्त्वगुणरूपी मक्खन और तमोगुणरूपी छाछ अलगअलग हो जाती है। सत्त्वगुणसे अन्तःकरण और ज्ञानेन्द्रियाँ? रजोगुणसे प्राण और कर्मेन्द्रियाँ तथा तमोगुणसे स्थूल पदार्थ? शरीर आदिका निर्माण होता है। तीनों गुणोंसे संसारके अन्य पदार्थोंकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार महासर्गके आदिमें भगवान्का सृष्टिरचनारूप कर्म भी सर्वथा रागरहित होता है (गीता 4। 13)।तृष्णासङ्गसमुद्भवम् -- प्राप्त वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ? परिस्थिति? घटना आदि बने रहें तथा वे और भी मिलते रहें -- ऐसी जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई की तरह तृष्णा पैदा हो जाती है। इस तृष्णासे फिर वस्तु आदिमें आसक्ति पैदा हो जाती है।व्याकरणके अनुसार इस तृष्णासङ्गसमुद्भवम् पदके दो अर्थ होते हैं -- (1) जिससे तृष्णा और आसक्ति पैदा होती है (टिप्पणी प0 718.1) अर्थात् तृष्णा और आसक्तिको पैदा करनेवाला और (2) जो तृष्णा और आसक्तिसे पैदा होता है (टिप्पणी प0 718.2) अर्थात् तृष्णा और आसक्तिसे पैदा होनेवाला। जैसे बीच और वृक्ष अन्योन्य कारण हैं? अर्थात् बीजसे वृक्ष पैदा होता है और वृक्षसे फिर बहुतसे बीज पैदा होते हैं? ऐसे ही रागस्वरूप रजोगुणसे तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है तथा तृष्णा और आसक्तिसे रजोगुण बहुत बढ़ जाता है। तात्पर्य है कि ये दोनों ही एकदूसरेको पुष्ट करनेवाले हैं। अतः उपर्युक्त दोनों ही अर्थ ठीक हैं।तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् -- रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे शरीरधारीको बाँधता है अर्थात् रजोगुणके बढ़नेपर ज्योंज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है? त्योंहीत्यों मनुष्यकी कर्म करनेकी प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करनेकी प्रवृत्ति बढ़नेसे मनुष्य नयेनये कर्म करना शुरू कर देता है। फिर वह रातदिन इस प्रवृत्तिमें फँसा रहता है अर्थात् मनुष्यकी मनोवृत्तियाँ रातदिन नयेनये कर्म आरम्भ करनेके चिन्तनमें लगी रहती हैं। ऐसी अवस्थामें उसको अपना कल्याण? उद्धार करनेका अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस तरह रजोगुण कर्मोंकी सुखासक्तिसे शरीरधारीको बाँध देता है अर्थात् जन्ममरणमें ले जाता है। अतः साधकको प्राप्त परिस्थितिके अनुसार निष्कामभावसे कर्तव्य कर्म तो कर देना चाहिये? पर संग्रह और सुखभोगके लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना चाहिये।देहिनम् पदका तात्पर्य है कि देहसे अपना सम्बन्ध माननेवाले देहीको ही यह रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे बाँधता है।सकामभावसे कर्मोंको करनेमें भी एक सुख होता है और कर्मोंका अमुक फल भोगेंगे इस फलासक्तिमें भी एक सुख होता है। इस कर्म और फलकी सुखासक्तिसे मनुष्य बँध जाता है।कर्मोंकी सुखासक्तिसे छूटनेके लिये साधक यह विचार करे कि ये पदार्थ? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदि कितने दिन हमारे साथ रहेंगे। कारण कि सब दृश्य प्रतिक्षण अदृश्यतामें जा रहा है जीवन प्रतिक्षण मृत्युमें जा रहा है सर्ग प्रतिक्षण प्रलयमें जा रहा है महासर्ग प्रतिक्षण महाप्रलयमें जा रहा है। आज दिनतक जो बाल्य? युवा आदि अवस्थाएँ चली गयीं? वे फिर नहीं मिल सकतीं। जो समय चला गया? वह फिर नहीं मिल सकता। बड़ेबड़े राजामहाराजाओं और धनियोंकी अन्तिम दशाको याद करनेसे तथा बड़ेबड़े राजमहलों और मकानोंके खण्डहरोंको देखनेसे साधकको यह विचार आना चाहिये कि उनको जो दशा हुई है? वही दशा इस शरीर? धनसम्पत्ति? मकान आदिकी भी होगी। परन्तु मैंने इनके प्रलोभनमें पड़कर अपनी शक्ति? बुद्धि? समयको बरबाद कर दिया है। यह तो बड़ी भारी हानि हो गयी ऐसे विचारोंसे साधकके अन्तःकरणमें सात्त्विक वृत्तियाँ आयेंगी और वह कर्मसङ्गसे ऊँचा उठ जायगा।अगर मैं रातदिन नयेनये कर्मोंके करनेमें ही लगा रहूँगा? तो मेरा मनुष्यजन्म निरर्थक चला जायगा और उन कर्मोंकी आसक्तिसे मेरेको न जाने किनकिन योनियोंमें जाना पड़ेगा और कितनी बार जन्मनामरना पड़ेगा इसलिये मुझे संग्रह और सुखभोगके लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना है? प्रत्युत प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अनासक्तभावसे कर्तव्यकर्म करना है ऐसे विचारोंसे भी साधक कर्मोंकी आसक्तिसे ऊँचा उठ जाता है। सम्बन्ध --   तमोगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.7।। हे कौन्तेय ! रजोगुण को रागस्वरूप जानो, जिससे तृष्णा और आसक्ति उत्पन्न होती है। वह देही आत्मा को कर्मों की आसक्ति से बांधता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.7।।रज इति। तृष्णासङ्गयोः समुद्भवं तयोः कारणम्।

Sri Anandgiri

।।14.7।।रजस्तर्हि किंलक्षणं कथं वा पुरुषं निबध्नातीत्याशङ्क्याह -- रज इति। रज्यते संसृज्यतेऽनेन पुरुषो दृश्यैरिति रागोऽसावात्मास्येति रागात्मकं रजो जानीहीत्याह -- रञ्जनादिति। समुद्भवत्यस्मादिति समुद्भवस्तृष्णा चासङ्गश्च तृष्णासङ्गौ तयोः समुद्भवस्तमिति विग्रहं गृहीत्वा कार्यद्वारा रजो विवक्षुस्तृष्णासङ्गयोरर्थभेदमाह -- तृष्णेत्यादिना। रजसो लक्षणमुक्त्वा निबन्धृत्वप्रकारमाह -- तद्रज इति। कर्मसङ्गं विभजते -- दृष्टेति। अकर्तारमेव पुरुषं करोमीत्यभिमानेन प्रवर्तयतीत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।14.7।।रजसोऽप्याह -- रज इति। अनुरागात्मकंरञ्ज रागे इति धातोः स्पष्टमेव। कर्मसु,रञ्जनाद्बन्धकम्।

Sridhara Swami

।।14.7।।रजसो लक्षणं बन्धकत्वं चाह -- रजोरागेति। रजःसंज्ञकं गुणं रागात्मकमनुरञ्जनरूपं विद्धि। अतएव तृष्णासङ्गसमुद्भवम्। तृष्णा अप्राप्तेऽर्थेऽभिलाषः? सङ्गः प्राप्तेऽर्थे प्रीतिर्विशषेणासक्तिस्तयोस्तृष्णासङ्गयोः समुद्भवो यस्मात्तद्रजो देहिनं दृष्टादृष्टार्थेषु कर्मसु सङ्गेनासात्तया नितरां बध्नाति। तृष्णासङ्गाभ्यां हि कर्मस्वासक्तिर्भवति।

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