Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 4 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Universal Origin of Creation

Sanskrit Shloka (Original)

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः | तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ||१४-४||

Transliteration

sarvayoniṣu kaunteya mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ . tāsāṃ brahma mahadyonirahaṃ bījapradaḥ pitā ||14-4||

Word-by-Word Meaning

सर्वयोनिषुin all the wombs
कौन्तेयO son of Kunti (Arjuna)
मूर्तयःforms
सम्भवन्तिare produced
याःwhich
तासाम्their
ब्रह्मBrahma
महत्great
योनिःwomb
अहम्I
बीजप्रदःseedgiving

📖 Translation

English

14.4 Whatever forms are produced, O Arjuna, in any womb whatsoever, the great Brahma is their womb and I am the seed-giving father.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.4।। हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियाँ (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद्ब्रह्म और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In any professional endeavor, recognize that successful outcomes (forms) emerge from the synergy of foundational resources and environment (the 'womb') and intentional effort or vision (the 'seed'). Value the diverse contributions of every team member and project, understanding that all innovation and creation, regardless of its 'form,' originates from universal principles. Foster a workplace that supports both the 'seed' of new ideas and the 'womb' for their growth.

🧘 For Stress & Anxiety

Find profound peace and reduce stress by recognizing yourself as an integral part of a divinely orchestrated universe. This understanding mitigates feelings of isolation or insignificance, grounding you in the knowledge that your existence, like all forms, has a purposeful and unified origin. Accepting the diverse manifestations of life's challenges as part of this grand, universal process can lessen personal burden and anxiety.

❤️ In Relationships

Cultivate deeper empathy, respect, and understanding in all relationships by recognizing the shared divine essence and common origin present in every individual, regardless of their external 'form' or background. This perspective helps transcend superficial differences, fostering genuine connection and reducing judgment, as all beings are seen as unique expressions from the same universal 'womb' and 'seed-giving father'.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Every diverse form of life originates from the singular divine seed and the universal womb, affirming our profound interconnectedness and shared spiritual essence.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.4 सर्वयोनिषु in all the wombs? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? मूर्तयः forms? सम्भवन्ति are produced? याः which? तासाम् their? ब्रह्म Brahma? महत् great? योनिः womb? अहम् I? बीजप्रदः seedgiving? पिता father.Commentary I am the father The Primordial Nature is the mother. The whole manifested world is the child Nature has produced in its association with me. Therefore I am called the father of this world.Wombs Such as the gods? the manes? men? cattle? beasts? birds? etc.Forms Bodies consisting of parts? limbs? organs? etc.

Shri Purohit Swami

14.4 O illustrious son of Kunti! Through whatever wombs men are born, it is the Spirit Itself that conceives, and I am their Father.

Dr. S. Sankaranarayan

14.4. O son of Kunti ! Whatever manifestations spring up in all the wombs, of them the mighty Brahman is the womb and I am the father laying the seed.

Swami Adidevananda

14.4 Whatever forms are produced in any womb, O Arjuna, the Prakrti is their great womb and I am the sowing father.

Swami Gambirananda

14.4 O son of Kunti, whatever forms are born from all the wombs, of them the great-sustainer is the womb; I am the father who deposits the seed.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.4।। सृष्टि की ओर एक दृष्टिक्षेप करने से ही यह ज्ञान होता है कि यहाँ प्राणियों की निरन्तर उत्पत्ति हो रही है। मृत प्राणियों का स्थान असंख्य नवजात जीव लेते रहते हैं। मनुष्य? पशु? मृग? वनस्पति इन सभी योनियों में यही प्रक्रिया निरन्तर चल रही है। ये सभी प्राणी जड़ और चेतन के संयोग से ही बने हैं। इनमें विषमता या भेद जड़ उपाधियों के कारण है? जबकि सभी में चेतन तत्त्व एक ही है। यह जड़ प्रकृति ही महद्ब्रह्म शब्द से इंगित की गई है।भगवान् श्रीकृष्ण अपने सच्चिदानन्दस्वरूप के साथ तादात्म्य करके कहते हैं? इस प्रकृति रूप योनि में बीज की स्थापना करने वाला पिता मैं हूँ। उनका यह कथन लाक्षणिक है। जैसा कि पूर्व श्लोक की व्याख्या में हम देख चुके है? प्रकृति में परमात्मा का चैतन्यरूप में व्यक्त होना ही उनके द्वारा बीज स्थापित करना है? जिसके फलस्वरूप वह जड़ प्रकृति चेतन होकर कार्यक्षम होती है जैसे वाष्पशक्ति से युक्त होने पर ही इन्जिन में गति आती है? अन्यथा वह एक आकार विशेष में लोहमात्र होता है यही स्थिति चैतन्य के बिना शरीर? मन और बुद्धि उपाधियों की भी होती है। एक अविवाहित पुरुष में प्रजनन की क्षमता होने मात्र से ही वह किसी का पिता नहीं कहलाया जा सकता। इसके लिये विवाहोपरान्त उसे गर्भ में अपना बीज स्थापित करना होता है। इसी प्रकार? प्रकृति के बिना केवल पुरुष स्वयं को व्यक्त नहीं कर सकता। इसी सिद्धान्त को भगवान् यहाँ सारांश में बताते हैं कि वे सम्पूर्ण विश्व के सनातन पिता हैं? जो विश्व मञ्च पर जीवननाटक के मंचन की व्यवस्था करते हैं।यद्यपि अन्य धर्म के अनुयायियों के द्वारा हमें यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया जाता है कि ईश्वर का जगत्पितृत्व केवल ईसाई धर्म ने ही सर्वप्रथम पहचाना और मान्य किया? तथापि वस्तुस्थिति इस धारणा का खण्डन ही करती है? क्योंकि ईसा मसीह से हजारों वर्ष पूर्व गीता का उपदेश अर्जुन को दिया गया था। अधिकसेअधिक हम इतना ही कह सकते हैं कि इस विचार को ईसा मसीह ने अपने से पूर्व विद्यमान धर्मों से ही लिया होगा। हिन्दुओं ने ईश्वर के जगत्पितृत्व पर अधिक बल नहीं दिया। यद्यपि यह कल्पना काव्यात्मक है? तथापि सैद्धान्तिक दृष्टि से अधिक युक्तिसंगत नहीं कही जा सकती। परन्तु? सामान्य जनता को यह कल्पना सरलता से बोधगम्य होने के कारण पश्चात् के धर्म संस्थापकों ने इसे पूर्वकालीन धर्मों से उदारतापूर्वक स्वीकार कर लिया।इस अध्याय के मुख्य विषय का प्रारम्भ करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रकृति के वे गुण कौन से हैं और वे किस प्रकार आत्मा को अनात्मा के साथ बांध देते हैं

Swami Ramsukhdas

।।14.4।। व्याख्या --   सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः -- जरायुज (जेरके साथ पैदा होनेवाले मनुष्य? पशु आदि)? अण्डज (अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले पक्षी? सर्प आदि)? स्वेदज (पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जूँ? लीख आदि) और उद्भिज्ज (पृथ्वीको फोड़कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष? लता आदि) -- सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्तिके ये चार खानि अर्थात् स्थान हैं। इन चारोंमेंसे एकएक स्थानसे लाखों योनियाँ पैदा होती हैं। उन लाखों योनियोंमेंसे एकएक योनिमें भी जो प्राणी पैदा होते हैं? उन सबकी आकृति अलगअलग होती है। एक योनिमें? एक जातिमें पैदा होनेवाले प्राणियोंकी आकृतिमें भी स्थूल या सूक्ष्म भेद रहता है अर्थात् एक समान आकृति किसीकी भी नहीं मिलती। जैसे? एक मनुष्ययोनिमें अरबों वर्षोंसे अरबों शरीर पैदा होते चले आये हैं? पर आजतक किसी भी मनुष्यकी आकृति परस्पर नहीं मिलती। इस विषयमें किसी कविने कहा है -- पाग भाग वाणी प्रकृति? आकृति वचन विवेक। अक्षर मिलत न एकसे? देखे देश अनेक।।अर्थात् पगड़ी? भाग्य? वाणी (कण्ठ)? स्वभाव? आकृति? शब्द? विचारशक्ति और लिखनेके अक्षर -- ये सभी दो मनुष्योंके भी एक समान नहीं मिलते। इस तरह चौरासी लाख योनियोंमें जितने शरीर अनादिकालसे पैदा होते चले आ रहे हैं? उन सबकी आकृति अलगअलग है। चौरासी लाख योनियोंके सिवाय देवता? पितर?,गन्धर्व? भूत? प्रेत आदिको भी यहाँ सर्वयोनिषु पदके अन्तर्गत ले लेना चाहिये।तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता -- उपर्युक्त चार खानि अर्थात् चौरासी लाख योनियाँ तो शरीरोंके पैदा होनेके स्थान हैं और उन सब योनियोंका उत्पत्तिस्थान (माताके स्थानमें) महद्ब्रह्म अर्थात् मूल प्रकृति है। उस मूल प्रकृतिमें जीवरूप बीजका स्थापन करनेवाला पिता मैं हूँ।भिन्नभिन्न वर्ण और आकृतिवाले नाना प्रकारके शरीरोंमें भगवान् अपने चेतनअंशरूप बीजको स्थापित करते हैं -- इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणीमें स्थित परमात्माका अंश शरीरोंकी भिन्नतासे ही भिन्नभिन्न प्रतीत होता है। वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक ही परमात्मा विद्यमान हैं (गीता 13। 2)। इस बातको एक दृष्टान्तसे समझाया जाता है। यद्यपि दृष्टान्त सर्वांशमें नहीं घटता? तथापि वह बुद्धिको दार्ष्टान्तके नजदीक ले जानेमें सहायक होता है। कपड़ा और पृथ्वी -- दोनोंमें एक ही तत्त्वकी प्रधानता है। कपड़ेको अगर जलमें डाला जाय तो वह जलके निचले भागमें जाकर बैठ जाता है। कपड़ा ताना (लम्बा धागा) और बाना(आ़ड़ा धागा) से बुना जाता है। प्रत्येक ताने और बानेके बीचमें एक सूक्ष्म छिद्र रहता है। कपड़ेंमें ऐसे अनेक छिद्र होते हैं। जलमें पड़े रहनेसे कपड़के सम्पूर्ण तन्तुओंमें और अलगअलग छिद्रोंमें जल भर जाता है। कपड़ेको जलसे बाहर निकालनेपर भी उसके तन्तुओंमें और असंख्य छिद्रोंमें एक ही जल समानरीतिसे परिपूर्ण रहता है। इस दृष्टान्तमें कपड़ा प्रकृति है? अलगअलग असंख्य छिद्र शरीर हैं और कपड़े तथा उसके छिद्रोंमें परिपूर्ण जल परमात्मतत्त्व है। तात्पर्य है कि स्थूल दृष्टिसे तो प्रत्येक शरीरमें परमात्मतत्त्व अलगअलग दिखायी देता है? पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो सम्पूर्ण शरीरोंमें? सम्पूर्ण संसारमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। सम्बन्ध --   परमात्मा और उनकी शक्ति प्रकृतिके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले जीव प्रकृतिजन्य गुणोंसे कैसे बँधते हैं -- इस विषयका विवेचन आगेके श्लोकसे आरम्भ करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.4।। हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियाँ (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद्ब्रह्म और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.4।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।14.4।।ननु कथमुक्तकारणानुरोधेन हिरण्यगर्भोद्भवमभ्युपेत्य भूतानामुत्पत्तिरुच्यते देवादिजातिविशेषेषु देहविशेषाणां कारणान्तरस्य संभवात्तत्राह -- सर्वयोनिष्विति। तत्र तत्र हेत्वन्तरप्रतिभासे कुतोऽस्य हेतुत्वमित्याशङ्क्य तद्रूपेणास्यैवावस्थानादित्याह -- सर्वावस्थमिति।

Sri Vallabhacharya

।।14.4।।एवं कार्यावस्थोऽयं चिदचित्प्रकृतिसर्गो मयैव कृत इति सर्वयोनिष्विति। नेदमपूर्वतरमिवोच्यते किन्तु सर्वत्रैवमेव लोके दृश्यत इत्याह एकः पिताऽन्यत्क्षेत्रमिति। तत्र तासां भूतमूर्तीनां महद्ब्रह्म योनिः? अहं बीजप्रदः पितेति वस्तुतोऽवसेयम्। अत एव विष्णुपुराणादौ लक्ष्मीनारायणौ गौरीशङ्करौ सर्वत्र स्त्रीपुम्भावापन्नस्वरूपौ निरूपितौ।

Sridhara Swami

।।14.4।। न केवलं सृष्ट्युपक्रम एव मदधिष्ठिताभ्यां प्रकृतिपुरुषाभ्यामयं भूतोत्पत्तिप्रकारः अपितु सर्वदैवेत्याह -- सर्वयोनिष्विति। सर्वासु योनिषु मनुष्याद्यासु या मूर्तयः स्थावरजङ्गमात्मिका उत्पद्यन्ते तासां मूर्तीनां महद्ब्रह्म प्रकृतिः योनिर्मातृस्थानीया। अहं च बीजप्रदः गर्भाधानादिकर्ता पिता।

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