Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 27 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च | शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ||१४-२७||
Transliteration
brahmaṇo hi pratiṣṭhāhamamṛtasyāvyayasya ca . śāśvatasya ca dharmasya sukhasyaikāntikasya ca ||14-27||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
14.27 For I am the abode of Brahman, the immortal and the immutable, of everlasting Dharma and of absolute bliss.
।।14.27।। क्योंकि मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, this verse encourages finding a deeper, ethical foundation for your work. Instead of solely chasing external recognition or temporary success, align your professional efforts with 'everlasting Dharma' – integrity, truth, and purpose. Recognizing a divine abode within provides an immutable source of strength and ethical guidance, helping one navigate challenges with stability and inner peace, transforming work into a path of self-expression and contribution.
🧘 For Stress & Anxiety
For stress and mental health, this verse offers a profound anchor. By recognizing the 'I' (the true Self) as the abode of the immortal and immutable, one can find a stable core amidst life's turbulence. Stress often arises from attachment to fleeting circumstances; shifting focus to the eternal and absolute bliss within provides a deep wellspring of peace, resilience, and perspective, enabling one to transcend anxieties and cultivate unwavering mental well-being.
❤️ In Relationships
In relationships, this verse encourages seeing beyond the superficial and recognizing the 'Brahman' or divine essence in oneself and others. By grounding interactions in 'everlasting Dharma' (truth, integrity, compassion) and aiming for 'absolute bliss' that is unconditional, one can cultivate deeper, more meaningful, and resilient connections. This perspective fosters unconditional love, mutual respect, and a sense of unity that transcends ego-driven conflicts, making relationships a source of profound joy and spiritual growth.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Your true Self is the very abode of the divine, providing the ultimate foundation for immortal truth, unwavering righteousness, and absolute bliss.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
14.27 ब्रह्मणः of Brahman? हि indeed? प्रतिष्ठा the abode? अहम् I? अमृतस्य the immortal? अव्ययस्य the immutable? च and? शाश्वतस्य everlasting? च and? धर्मस्य of Dharma? सुखस्य of bliss? एकान्तिकस्य absolute? च and.Commentary The Self Which is immortal and immutable? Which is attainable by the eternal Dharma or the knowledge of the Self? Which is unending bliss? abides in Me? the Supreme Being.,I? the innermost Self? am the abode of the Supreme Self. The aspirant beholds? with the eye of intuition? that the innermost Self is the very Supreme Self? through Selfrealisation.The Lord bestows grace and mercy on His devotees through His Sakti? energy or power? or Maya. Sakti and the Lord are one. Just as heat is inseparable from fire? so also Maya or Sakti is inseparable from the Lord. Sakti cannot be distinct from the Lord in Whom She inheres.There is another interpretation. By Brahman here is meant the Brahman with attributes or alities? the conditioned Brahman. I? the Absolute Brahman? transcending the attributes or alities? the unconditioned Absolute? am the abode of the Saguna (conditioned) Brahman Who is immortal and imperishable. I am also the abode of the eternal Dharma of Jnananishtha (establishment in the highest wisdom) and the abode of the unending bliss born of that unswerving devotion.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fourteenth discourse entitledThe Yoga of the Division of the Three Gunas.,
Shri Purohit Swami
14.27 For I am the Home of the Spirit, the continual Source of immortality, of eternal Righteousness and of infinite Joy."
Dr. S. Sankaranarayan
14.27. 'I' is the place of support for the immortal and changeless Brahman and for [Its] eternal attribute, the unalloyed Happiness.
Swami Adidevananda
14.27 For I am the ground of Brahman, the immortal and immutable, of eternal Dharma and of perfect bliss.
Swami Gambirananda
14.27 For I am the Abode of Brahman-the indestructible and immutable, the eternal, the Dharma and absolute Bliss.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।14.27।। भक्तियोग तथा उसके परम लक्ष्य का वर्णन करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था? तत्पश्चात्? तुम मुझमें ही निवास करोगे। ईश्वर के प्रति अपने प्रेम से प्रेरणा पाकर भक्त अपने भिन्न व्यक्तित्व को विस्मृत करके अपने ध्येय परमात्मा के साथ लीन हो जाता है। पूर्व के श्लोक में भगवान् ने कहा था कि अव्यभिचारी भक्तियोग से उनकी सेवा करने वाला साधक अनात्म उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य से शनै शनै मुक्त हो जाता है। जिस मात्रा में अहंकार समाप्त होता है? उसी मात्रा में आत्मा की दिव्यता की अभिव्यक्ति होती है। जैसेजैसे निद्रा का आवेश बढ़ता जाता है वैसेवैसे मनुष्य जाग्रत अवस्था से दूर होता हुआ निद्रा की शान्त स्थिति में लीन हाेता जाता है। अनुभव के एक स्तर को त्यागने का अर्थ ही दूसरे अनुभव में प्रवेश करना है।मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ जो चैतन्य साधक के हृदय में आत्माभाव से स्थित है? वही सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अमृत? अव्यय? नित्य? आनन्दस्वरूप तत्त्व ब्रह्म है। आत्मा की पहिचान ही विश्वाधिष्ठान अनन्त ब्रह्म की अनुभूति है। घट उपाधि की दृष्टि से उससे अवच्छिन्न आकाश (घटाकाश) बाह्य सर्वव्यापी आकाश से भिन्न प्रतीत होता है? परन्तु उपाधि के अभाव में वह घटाकाश ही महाकाश बन जाता है। इसी प्रकार एक देह की उपाधि से चैतन्य तत्त्व को आत्मा कहते हैं? किन्तु वस्तुत वही अनन्त ब्रह्म है। यह ब्रह्म अमृत और अव्यय? नित्य और आनन्दस्वरूप है।श्री शंकाराचार्य अपने अत्यन्त युक्तियुक्त एवं विश्लेषणात्मक भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या में चार पर्यायों की ओर संकेत करते हैं। ये अर्थ परस्पर भिन्न नहीं? वरन् प्रत्येक अर्थ इस श्लोक के दार्शनिक पक्ष को अधिकाधिक उजागर करता है। वे कहते हैं प्रतिष्ठा का अर्थ है जिसमें वस्तु की स्थिति होती है? क्योंकि अमृत और अव्यय ब्रह्म की प्रतिष्ठा मैं हूँ? अत मैं प्रत्यगात्मा हूँ। यह प्रत्यागात्मा ही परमात्मा अर्थात् भूत मात्र की आत्मा है? ऐसा सम्यक् ज्ञान से निश्चित किया गया है।जिस शक्ति से ब्रह्म अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये प्रवृत्त होता है? वह शक्ति ब्रह्म ही है? जो मैं हूँ। यहाँ शक्ति शब्द से शक्तिमान ईश्वर लक्षित है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गुण ब्रह्म ही माया शक्ति के द्वारा ईश्वर के रूप में भक्तों पर अनुग्रह करता है।अथवा? ब्रह्म शब्द से सगुण? सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है? जिसकी प्रतिष्ठा निरुपाधिक ब्रह्म मैं ही हूँ। जैसा कि पहले कहा गया है? इन अर्थों में परस्पर भेद नहीं है। हमारी बुद्धि की सीमित क्षमता के द्वारा सोपाधिक ब्रह्म को ही समझा जा सकता है तथा वाणी के द्वारा प्रकृति से भिन्न रूप में उसका वर्णन किया जा सकता है।प्रकृति और सोपाधिक ब्रह्म की प्रतिष्ठा निरुपाधिक चैतन्य ब्रह्म है? जो इन दोनों को ही प्रकाशित करता है। अत वस्तुत निर्विकल्प? अमृत? अव्यय? अनिर्वचनीय आनन्दस्वरूप ब्रह्म मैं हूँ। अब यह स्पष्ट हो जाता है कि साधन सपन्न उत्तम अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है? और मैं ब्रह्म हूँ? इसलिये वह साधक ब्रह्म ही बन जाता है।अगले अध्याय में ब्रह्म के विषय में और अधिक विस्तृत निरूपण किया गया है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे।श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय।।
Swami Ramsukhdas
।।14.27।। व्याख्या -- ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् -- मैं ब्रह्मकी प्रतिष्ठा? आश्रय हूँ -- ऐसा कहनेका तात्पर्य ब्रह्मसे अपनी अभिन्नता बतानेमें है। जैसे जलती हुई अग्नि साकार है और काष्ठ आदिमें रहनेवाली अग्नि निराकार है -- ये अग्निके दो रूप हैं? पर तत्त्वतः अग्नि एक ही है। ऐसे ही भगवान् साकाररूपसे हैं और ब्रह्म निराकररूपसे है -- ये दो रूप साधकोंकी उपासनाकी दृष्टिसे हैं? पर तत्त्वतः भगवान् और ब्रह्म एक ही हैं? दो नहीं। जैसे भोजनमें एक सुगन्ध होती है और एक स्वाद होता है नासिकाकी दृष्टिसे सुगन्ध होती है और रसनाकी दृष्टिसे स्वाद होता है? पर भोजन तो एक ��ी है। ऐसे ही ज्ञानकी दृष्टिसे ब्रह्म है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान् हैं? पर तत्त्वतः भगवान् और ब्रह्म एक ही हैं।भगवान् कृष्ण अलग हैं और ब्रह्म अलग है -- यह भेद नहीं है किन्तु भगवान् कृष्ण ही ब्रह्म हैं और ब्रह्म ही भगवान् कृष्ण है। गीतामें भगवान्ने अपने लिये ब्रह्म शब्दका भी प्रयोग किया है -- ब्रह्मण्याधाय कर्माणि (5। 10) और अपनेको अव्यक्तमूर्ति भी कहा है -- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना (9। 4)। तात्पर्य है कि साकार और निराकार एक ही हैं? दो नहीं।अमृतस्याव्ययस्य च -- अविनाशी अमृतका अधिष्ठान मैं ही हूँ और मेरा ही अधिष्ठान अविनाशी अमृत है। तात्पर्य है कि अविनाशी अमृत और मैं -- ये दो तत्त्व नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं। इसी अविनाशी अमृतकी प्राप्तिको भगवान्ने अमृतमश्नुते (13। 12 14। 20) पदसे कहा है।शाश्वतस्य च धर्मस्य -- सनातन धर्मका आधार मैं हूँ और मेरा आधार सनातन धर्म है। तात्पर्य है कि सनातन धर्म और मैं -- ये दो नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं। सनातन धर्म मेरा ही स्वरूप है (टिप्पणी प0 738)। गीतामें अर्जुनने भगवान्को शाश्वतधर्मका गोप्ता (रक्षक) बताया है (11। 18)। भगवान् भी अवतार लेकर सनातन धर्मकी रक्षा किया करते हैं (4। 8)।सुखस्यैकान्तिकस्य च -- ऐकान्तिक सुखका आधार मैं हूँ और मेरा आधार ऐकान्तिक सुख है अर्थात् मेरा ही स्वरूप ऐकान्तिक सुख है। भगवान्ने इसी ऐकान्तिक सुखको अक्षय सुख (5। 21)? आत्यन्तिक सुख (6। 21) और अत्यन्त सुख (6। 28) नामसे कहा है।इस श्लोकमें ब्रह्मणः? अमृतस्य आदि पदोंमें राहोः शिरः की तरह अभिन्नतामें षष्ठी विभक्तिका प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि राहुका सिर -- ऐसा जो प्रयोग होता है? उसमें राहु अलग है और सिर अलग है -- ऐसी बात नहीं है? प्रत्युत राहुका नाम ही सिर है और सिरका नाम ही राहु है। ऐसे ही यहाँ ब्रह्म? अविनाशी अमृत आदि ही भगवान् कृष्ण हैं और भगवान् कृष्ण ही ब्रह्म? अविनाशी अमृत आदि हैं।ब्रह्म कहो? चाहे कृष्ण कहो? और कृष्ण कहो? चाहे ब्रह्म कहो अविनाशी अमृत कहो? चाहे कृष्ण कहो? और कृष्ण कहो चाहे अविनाशी अमृत कहो शाश्वत धर्म कहो? चाहे कृष्ण कहो और कृष्ण कहो चाहे शाश्वत धर्म कहो ऐकान्तिक सुख कहो चाहे कृष्ण कहो और कृष्ण कहो चाहे ऐकान्तिक सुख कहो एक ही बात है। इसमें कोई आधारआधेय भाव नहीं है? एक ही तत्त्व है। इसलिये भगवान्की उपासना करनेसे ब्रह्मकी प्राप्ति होती है -- यह बात ठीक ही है।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें गुणत्रयविभागयोग नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।14।।,
Swami Tejomayananda
।।14.27।। क्योंकि मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।14.27।।ब्रह्मण इति। ब्रह्मणो मायायाः।
Sri Anandgiri
।।14.27।।विद्वान् ब्रह्मैवेत्यत्र हेतुं पृच्छति -- कुत इति। तत्रोत्तरमाह -- उच्यत इति। ब्रह्मशब्दस्यासति बाधके मुख्यार्थग्रहणमभिप्रेत्याह -- परमात्मन इति। तं प्रति प्रत्यगात्मनो यत्प्रतिष्ठात्वं तदुपपादयति -- प्रतितिष्ठतीति। यद्ब्रह्म प्रत्यगात्मनि प्रतितिष्ठति तत्किंविशेषणमित्यपेक्षायामुक्तम् -- अमृतस्येत्यादि। तत्रामृतशब्देनाव्ययशब्दस्य पुनरुक्तिं परिहरति -- अविकारिण इति। नित्यत्वमपक्षयराहित्यं तेन पूर्वाभ्यामपौनरुक्त्यम्। प्रसिद्धार्थस्य धर्मशब्दस्य ब्रह्मण्यनुपपत्तिमाशङ्क्याह -- ज्ञानेति। अर्थेन्द्रियसंबन्धोत्थं सुखं व्यावर्तयितुमैकान्तिकस्येत्युक्तम्। अक्षरार्थमुक्त्वा वाक्यार्थमाह -- अमृतादीति। प्रतिष्ठा यस्मादिति पूर्वेण संबन्धः। तस्मात्प्रत्यगात्मा परमात्मतया निश्चीयते सम्यग्ज्ञानेनेति योजना। अस्य श्लोकस्य पूर्वश्लोकेनैकवाक्यतामाह -- तदेतदिति। विवक्षितं वाक्यार्थं प्रपञ्चयति -- ययेति। सा शक्तिर्ब्रह्मैवेति कथं सामानाधिकरण्यं तत्राह -- शक्तीति। व्याख्यानान्तरमाह -- अथवेति। विशेषणानि पूर्ववदपौनरुक्त्यानि नेतव्यानि। तदनेनाध्यायेन क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगस्य संसारकारणत्वं पञ्चप्रश्ननिरूपणद्वारेण च सम्यग्ज्ञानस्य सकलसंसारनिवर्तकत्वमित्येतदुपपादयता मुमुक्षोर्यत्नसाध्यं गुणैरचाल्यत्वादि मुक्तस्यायत्नसिद्धं लक्षणमिति निर्धारितम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौचतुर्दशोऽध्यायः।।14।।
Sri Vallabhacharya
।।14.27।।ब्रह्मभूयाय [14।26] इत्यादौ तत्र तत्र च निर्दिष्टानां ब्रह्मामृतधर्मसुखानां सर्वेषामभिन्न आश्रयोऽहमेवेत्याशयेन स्वस्य परत्वमाह -- ब्रह्मणो हीति। अक्षरस्य द्युभ्वाद्यायतनस्य ब्रह्मणोऽहं प्रतिष्ठा मूलस्थानं? तद्येन प्रतिष्ठितं वा सोऽहं ऐश्वर्यधामत्वात्तस्येत्यर्थः। अमृतस्य मोक्षस्य ब्रह्मानन्दस्याव्ययस्य च प्रतिष्ठाऽहं? तथा शाश्वतस्य सनातनस्य भगवद्धर्मस्य मोक्षार्थस्य तथैकान्तिकस्य भजनानन्दस्यागणितस्वरूपस्य क्षराक्षरातीतमत्स्वरूपात्मकस्याहमभिन्न आश्रयः? प्रतिष्ठा? तत्तत्पदैरहमेव तत्तदधिकारिणां तत्तद्भावनाविषयो वाच्यप्राप्य इत्यर्थः। एवं साङ्ख्यविवृतं स्वतात्पर्यवृत्त्येति ज्ञेयम्।
Sridhara Swami
।।14.27।।तत्र हेतुमाह -- ब्रह्मणो हीति। हि यस्माद्ब्रह्मणोऽहं प्रतिष्ठा प्रतिमा? घनीभूतं ब्रह्मैवाहम्। यथा घनीभूतः प्रकाश एव सूर्यमण्डर्ल तद्वदेवेत्यर्थः। तथाव्ययस्य नित्यस्यामृतस्य मोक्षस्य च नित्यमुक्तत्वात्। तथा तत्साधनस्य शाश्वतस्य च धर्मस्य? शुद्धसत्त्वात्मकत्वात्। तथा ऐकान्तिकस्याखण्डितस्य सुखस्य च प्रतिष्ठाऽहं? परमानन्दैकरूपत्वात्। अतो मत्सेविनो मद्भावस्यावश्यंभावित्वाद्युक्तमेवोक्तं ब्रह्मभूयाय कल्पत इति।