Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 29 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् | न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ||१३-२९||
Transliteration
samaṃ paśyanhi sarvatra samavasthitamīśvaram . na hinastyātmanātmānaṃ tato yāti parāṃ gatim ||13-29||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
13.29 Because he who sees the same Lord eally dwelling everywhere does not destroy the Self by the self; he goes to the highest goal.
।।13.29।। निश्चय ही, वह पुरुष सर्वत्र सम भाव से स्थित परमेश्वर को समान हुआ आत्मा (स्वयं) के द्वारा आत्मा (स्वयं) का नाश नहीं करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In professional settings, recognizing the inherent worth and interconnectedness of every team member and every task (seeing the 'Lord everywhere') fosters a collaborative spirit, reduces ego-driven conflicts, and prevents self-sabotage or undermining of collective efforts. It encourages acting from a place of universal principles rather than narrow self-interest, leading to a more harmonious and productive environment.
🧘 For Stress & Anxiety
Stress often arises from identifying with temporary external conditions or personal failures. By cultivating a vision of underlying unity and permanence (the 'Lord everywhere'), one can transcend these fleeting disturbances. Not 'destroying the Self by the self' means refraining from negative self-talk, excessive self-criticism, or attachment to outcomes, thereby protecting one's inner peace and mental equilibrium from self-inflicted distress.
❤️ In Relationships
To see the 'Lord everywhere' in relationships means recognizing the inherent worth and spiritual essence in every individual, transcending superficial differences, conflicts, or roles. This perspective cultivates empathy, reduces judgment, and prevents 'destroying the Self by the self' by avoiding resentment, ego clashes, or allowing external actions to diminish one's own inner peace and respect for shared humanity.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivating the vision of the universal Self dwelling in all beings prevents self-destruction, overcomes all forms of division, and directly guides one to ultimate liberation and peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
13.29 समम् eally? पश्यन् seeing? हि indeed? सर्वत्र everywhere? समवस्थितम् eally dwelling? ईश्वरम् the Lord? न not? हिनस्ति destroys? आत्मना by the self? आत्मानम् the Self? ततः then? याति goes? पराम् the highest? गतिम् the goal.Commentary This is the vision of a liberated sage. The Supreme Self abides in all forms. There is nothing apart from It.An ignorant man destroyes the Self by identifying himself with the body and the modifications of the mind and by not seeing the one Self in all beings. He has a blurred vision. His mind is very gross. He cannot think of the subtle Self. He is swayed by the force of ignorance. He mistakes the impure body for the pure Self. He has false knowledge. But the sage has knowledge of the Self or true knowledge and so he beholds the one Self in all beings. An ignorant man is the slayer of his Self. He destroys this body and takes another body and so on. But he who beholds the one Self in all beings does not destroy the Self by the self. Therefore he attains the Supreme Goal? i.e.? he attains release from the round of birth and death. Knowledge of the Self leads to liberation or salvation. Knowledge of the Absolute annihilates the ignorance in toto. If the ignorance is destroyed and false knowledge is also destroyed? all evils are simultaneously destroyed.Those who have realised that unity of the Self in all these diverse forms are never caught in the meshes of birth and death. They attain the state of Turiya (the fourth state beyond waking? dreaming and deep sleep) where form and sound do not exist.The self is everybodys friend and also his enemy as well. The idea first expressed in chapter VI? verses 5 and 6 is repeated here. (Cf.XVIII.20)
Shri Purohit Swami
13.29 Beholding the Lord in all things equally, his actions do not mar his spiritual life but lead him to the height of Bliss.
Dr. S. Sankaranarayan
13.29. Whosoever, perceiving the Lord as abiding in all alike, does not harm the Self by the Self-he attains, on that account, the Supreme Goal.
Swami Adidevananda
13.29 For, seeing the ruler (i.e., self) abiding alike in every place, he does not injure the self by the self (mind) and therefore reaches the highest goal.
Swami Gambirananda
13.29 Since by seeing eally God who is present alike everywhere he does not injure the Self by the Self, therefore he attains the supreme Goal.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।13.29।। वेदान्त हमें जगत् से पलायन नहीं सिखाता? बल्कि वह इस दृश्यमान जगत् का पुनर्मूल्यांकन करने का उपदेश देता है। सामान्यत जगत् की ओर देखने की हमारी दृष्टि हमारे प्रिय विचारों एवं भावनाओं से रंजित होती है। स्पष्ट है कि उस स्थिति में हम जगत् को यथार्थ रूप में नहीं देखते। इस अज्ञान की दृष्टि का त्यागकर ज्ञान की दृष्टि से विश्व को देखने का अर्थ वर्तमान काल के सुस्त और उदास? दुखी कुरूप जगत् में ही पूर्णता और आनन्द? दिव्यता और पवित्रता का दर्शन करना है। दुर्व्यवस्थित प्रमाणों के द्वारा परमार्थ सत्य का विपरीत दर्शन ही यह जगत् है? जो द्रष्टा जीव को ही पीड़ित करता रहता है।उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव को प्राप्त आत्मा जब देखता है? तब उसे नानाविध सृष्टि दिखाई देती है। भ्रान्तिजनित यह जगत् कभी उसे खिसियाते और नृत्य करते हुए तो कभी चीखते और हुंकारते हुए प्रतीत होता है। इन सब दुखपूर्ण परिवर्तनों के मध्य ही पारमार्थिक सत्य स्वरूप को पहचानने से ही सभी विक्षेपों? अर्थहीन लक्ष्यों और परिश्रमों की समाप्ति हो सकती है? क्योंकि वह परमेश्वर ही सर्वत्र समान रूप से स्थित देखता है। ज्ञान के अपने इस अनुभव के कारण फिर ज्ञानी पुरुष को कोई दुख अथवा भय नहीं होता। मिथ्या प्रेत के अधिष्ठान स्तम्भ को पहचान लेने पर पूर्व का भय और दुख समाप्त हो जाता है।वह अपने द्वारा अपना नाश नहीं करता है पूर्व में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने स्पष्ट वर्णन किया है कि किस प्रकार हम अपने शत्रु या मित्र बन जाते हैं। जब हमारा निम्नस्तर का अहंकारकेन्द्रित व्यक्तित्व या मन हमारी उच्चतर ज्ञानवती बुद्धि के मार्गदर्शनानुसार कार्य करने के लिए उपलब्ध नहीं होता? तब वह मन हमारा शत्रु बन जाता है। यदि वाहन के ऊपर हमारा नियन्त्रण न रहे? तो वह वाहन हमारी सेवा करने के स्थान पर हमारे नाश का ही कारण बन जाता है। जिस पुरुष ने सर्वत्र रमण कर रहे परमात्मा का दर्शन कर लिया है? उसका मन कभी भी अपनी दुष्ट छाया से परमात्मा के वैभव को आच्छादित नहीं कर सकता।इससे वह परम गति को प्राप्त होता है आत्मअज्ञान तथा तज्जनित मिथ्याज्ञान के कारण हमारे शुद्ध आत्मस्वरूप पर आवरण पड़ा रहता है। इस अविद्या के कारण मनुष्य न केवल अपने स्वरूप को नहीं जानता? वरन् स्वरूप से सर्वथा भिन्न देहादि अनात्म उपाधियों को ही अपना स्वरूप मान लेता है। परिणामत उसका व्यवहार अनुचित और जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक विषयोपभोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। इस लक्ष्य को पाने के लिये वह ऐसे हीन कर्म करता है? जो स्वयं के लिये और समाज के लिये भी दुखकारक और हानिकारक होते हैं। वह किसी भी स्थान पर परमात्मा की महानता और कीर्ति का दर्शन नहीं कर सकता। परन्तु? जब वह विवेक वैराग्यादि साधनों से सम्पन्न होकर आत्मबोध प्राप्त करता है? तब अज्ञानसहित मिथ्याज्ञान की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है? और वह परम गति को प्राप्त होता है।सभी जीवों के गुण और कर्मों में भेद दिखाई देने के कारण यह मानना होगा कि आत्माएं अनेक हैं? एक नहीं। इस मत का खण्डन करते हुये भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।13.29।। व्याख्या -- समं पश्यन्हि ৷৷. हिनस्त्यात्मनात्मानम् -- जो मनुष्य स्थावरजङ्गम? जडचेतन प्राणियोंमें? ऊँचनीच योनियोंमें? तीनों लोकोंमें समान रीतिसे परिपूर्ण परमात्माको देखता है अर्थात् उस परमात्माके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव करता है? वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता।जो शरीरके साथ तादात्म्य करके शरीरके बढ़नेसे अपना बढ़ना और शरीरके घटनेसे अपना घटना? शरीरके बीमार होनेसे अपना बीमार होना और शरीरके नीरोग होनेसे अपना नीरोग होना? शरीरके जन्मनेसे अपना जन्मना और शरीरके मरनेसे अपना मरना मानता है तथा शरीरके विकारोंको अपने विकार मानता है? वह अपनेआपसे अपनी हत्या करता है अर्थात् अपनेको जन्ममरणके चक्करमें ले जाता है। परन्तु जिसकी दृष्टि शरीरकी तरफसे हटकर केवल सर्वव्यापक? सबके शासक परमत्माकी तरफ हो जाती है? वह फिर अपनी हत्या नहीं करता अर्थात् जन्ममरणके चक्करमें नहीं जाता? अपनेमें संसार और शरीरके विकारोंका अनुभव नहीं करता।वास्तवमें अपनेआपकी (स्वरूपकी) हत्या अर्थात् अभाव कभी कोई कर ही नहीं सकता और अपना अभाव कभी हो भी नहीं सकता तथा अपना अभाव करना कोई चाहता भी नहीं। वास्तवमें नाशवान् शरीरके साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है? अपना पतन करना है? अपनेआपको जन्ममरणमें ले जाना है।ततो याति परां गतिम् -- शरीरके साथ तादात्म्य करके जो ऊँचनीच योनियोंमें भटकता था? बारबार जन्मतामरता था? वह जब परमात्माके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव कर लेता है? तब वह परमगतिको अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है।मर्मिक बातपरमात्मतत्त्व सब देशमें है? सब कालमें है? सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है? सम्पूर्ण वस्तुओंमें है? सम्पूर्ण घटनाओंमें है? सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें है? सम्पूर्ण क्रियाओंमें है। वह सबमें एक रूपसे? समान रीतिसे ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा जहाँ चाहो? वहीं प्राप्त कर लो। वास्तवमें इस संसारका जो हैपना दीखता है? वह संसारका नहीं है। संसार तो एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। इसमें,केवल परिवर्तनहीपरिवर्तन है। यह केवल परिवर्तनका ही पुञ्ज है। जैसे पंखा तेजीसे घूमता है तो एक चक्र दीखता है? पर वास्तवमें वहाँ चक्र नहीं है? प्रत्युत पंखेकी ताड़ी ही चक्ररूपसे दीखती है। ऐसे ही यह संसार नहीं होते हुए भी हैरूपसे दीखता है। वास्तवमें एक परमात्मतत्त्व ही हैरूपसे विद्यमान है।विचार करें? अभी जितने शरीर आदि दीखते हैं? ये सौ वर्ष पहले थे क्या और सौ वर्ष बाद रहेंगे क्या ये पहले भी नहीं थे और अन्तमें भी नहीं रहेंगे अतः ये बीचमें भी नहीं हैं। परन्तु परमात्मा सृष्टिके पैदा होनेसे पहले भी था? सृष्टिके लीन होनेके बाद भी रहेगा? अतः परमात्मा सृष्टिके समय भी ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। जो पहले भी नहीं था? बादमें भी नहीं रहेगा? वह अभी भी नहीं है और जो पहले भी था? बादमें भी रहेगा? वह अभी भी है। अतः संसारका जो हैपन दीखता है? यह गलती है। परमात्मतत्त्व ही हैरूपसे दीखता है उस परमात्मतत्त्वकी सत्यतासे ही यह असत् संसार मोह(मूर्खता) के कारण सत्यकी तरह दीखता है -- जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।।(मानस 1। 117। 4)यदि मोह नहीं होगा? तो यह संसार नहीं दीखेगा? प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही दीखेगा -- वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)। कारण कि परमात्मा ही था? परमात्मा ही रहेगा? बीचमें दूसरा कहाँसे आयेगा सोनेके जितने गहने हैं? उनमें पहले सोना ही था फिर सोना ही रहेगा अतः बीचमें सोनेके सिवाय दूसरा कहाँसे आयेगा गहना तो केवल (रूप? आकृति? उपयोग आदिको लेकर) कहनेके लिये है? तत्त्वतः तो सोना ही है। ऐसे ही संसार केवल कहनेके लिये है? तत्त्वतः तो परमात्मा ही है। उस परमात्माका अनुभव करनेमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है।है(परमात्मा) का अनुभव न करके नहीं(संसार) में उलझ जाना मनुष्यता नहीं है? प्रत्युत पशुता है। इस पशुताका त्याग करना है -- पशुबुद्धिमिमां जहि (श्रीमद्भा0 12। 5। 2)। इसलिये भगवान् कहते हैं कि जो नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें नष्ट न होनेवाले परमात्माको देखता है? उसका देखना सही है। परन्तु जो नष्ट होनेवालेको देखता है और नष्ट न होनेवालेको नहीं देखता? वह आत्मघाती है -- योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा।।(महाभारत? उद्योग0 42। 37) जो अन्य प्रकारका (अविनाशी) होते हुए भी आत्माको अन्य प्रकारका (विनाशी) मानता है? उस आत्मघाती चोरने कौनसा पाप नहीं किया ,जो नाशवान् संसारको न देखकर सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण परमात्मतत्त्वको देखता है? वह आत्मघाती नहीं होता अर्थात् वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता? इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। परन्तु जो सब जगह परिपूर्ण परमात्मतत्त्वको न देखकर संसारशरीरको देखता है? वह आत्मघाती परमगतिको न प्राप्त होकर बारबार जन्मतामरता रहता है? दुःख पाता रहता है। इसलिये मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे? अपना पतन न करे (गीता 6। 5)।जैसे दर्पणमें मुख नहीं होनेपर भी मुख दीखता है और स्वप्नमें हाथी नहीं होनेपर भी हाथी दीखता है? ऐसे ही संसार नहीं होनेपर भी संसार दीखता है। अगर संसारकी तरफ दृष्टि न रहे तो संसार हैरूपसे नहीं दीखेगा। परमात्मा ही हैरूपसे दीख रहा है -- इस बातको साधक दृढ़तासे मान ले? फिर चाहे वह,अभी न दीखे? पर बादमें दीखने लग जायगा। जैसे अभी साधक वृन्दावनमें बैठा है? तो उसे वृन्दावनको याद नहीं करना पड़ता। सोते समय? भोजन करते समय? हरेक कार्य करते समय वह वृन्दावनको याद नहीं करता परन्तु मैं वृन्दावनमें हूँ -- इस बातमें उसको सन्देह नहीं होता। वह बिना याद किये याद रहता है। ऐसे ही अभी भले ही परमात्मा न दीखे? पर साधक ऐसा दृढ़तासे मान ले कि हैरूपसे तो केवल परमात्मा ही है? संसार नहीं है? तो बादमें उसको ऐसा अनुभव होने लग जायगा। कारण कि मिथ्या वस्तु कबतक टिकी रहेगी और सत्य वस्तु कबतक छिपी रहेगी सम्बन्ध -- इसी अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रक्षेत्रज्ञके संयोगकी बात बतायी। इस संयोगसे छूटनेके दो उपाय हैं -- परमात्माके साथ अपने स्वतःसिद्ध सम्बन्धको पहचानना और प्रकृति(शरीर) से अपने माने हुए सम्बन्धको तोड़ना। सत्ताईसवेंअट्ठाईसवें श्लोकोंमें परमात्माके साथ सम्बन्धको पहचाननेकी बात बता दी। अब आगेके दो श्लोकोंमें प्रकृतिसे सम्बन्ध तोड़नेकी बात बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।13.29।। निश्चय ही, वह पुरुष सर्वत्र सम भाव से स्थित परमेश्वर को समान हुआ आत्मा (स्वयं) के द्वारा आत्मा (स्वयं) का नाश नहीं करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।13.29।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।13.29।।श्लोकान्तरं शङ्कोत्तरत्वेनावतारयितुमनुवदति -- सर्वेति। प्रतिदेहं धर्माधर्मादिमत्त्वेनात्मनो भेदभानान्न सम्यग्दर्शनमिति शङ्कते -- तदिति। स्वगुणैः सुखदुःखादिभिः स्वकर्मभिश्च धर्माधर्माख्यैर्वैलक्षण्यात्प्रतिदेहं भेदे तद्विशिष्टेष्वात्मसु कथं साम्येन दर्शनमित्येतदाशङ्क्य परिहरतीत्याह -- एतदिति। प्रकृतिशब्दस्य स्वभाववाचित्वं व्यावर्तयति -- प्रकृतिरिति। मायाशब्दस्य संवित्पर्यायत्वं प्रत्याह -- त्रिगुणेति। उक्ता परस्य शक्तिर्मायेत्यत्र श्रुतिसंमतिमाह -- मायां त्विति। अन्येन केनचित्क्रियमाणानि न भवन्ति कर्माणीत्येवकारार्थमाह -- नान्येनेति। किं तदन्यन्निषेध्यमित्युक्ते सांख्याभिप्रेता प्रधानाख्या प्रकृतिरित्याह -- महदादीति। सर्वप्रकारत्वं काम्यत्वनिषिद्धत्वादिना प्रकारबाहुल्यमात्मानमुक्तविशेषणं यः पश्यतीति पूर्वेण संबन्धः। स पश्यतीत्ययुक्तं पुनरुक्तेरित्याशङ्क्याह -- स परमार्थेति। आत्मनां प्रतिदेहं भिन्नत्वे तेषु समदर्शनमयुक्तमित्युक्तस्य कः समाधिरित्याशङ्क्याह -- निर्गुणस्येति।
Sri Vallabhacharya
।।13.29।।समं पश्यन् आत्मना आत्मानं न हिनस्ति नान्यथा प्रतिपद्यते? किन्तु याथातथ्येनावैति हीति युक्तंयोऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा [म.भा.1।74।27] इति श्रुतिप्रामाण्यात्। अपितु संरक्षति संसारमत्येति अतिमृत्युमेति [यजुस्सं.31।18श्वे.उ.3।8।6।15] इति,श्रुतिप्रतिपादितार्थः? ततो ज्ञातृतया सर्वत्र समानाकारदर्शनात् परां गतिं सच्चिदानन्दकां भगवद्धामरूपामक्षरात्मिकां याति।
Sridhara Swami
।।13.29।।कुत इत्यत आह -- सममिति। सर्वत्र भूतमात्रे समं सम्यगप्रच्युतस्वरूपेणावस्थितं परमात्मानं पश्यन् हि यस्मादात्मना स्वेनैवात्मानं न हिनस्ति अविद्यया सच्चिदानन्दरूपमात्मानं तिरस्कृत्य न विनाशयति। ततश्च परां गतिं मोक्षमाप्नोति। यस्त्वेवं न पश्यति स हि देहात्मदर्शी देहेन सहात्मानं हिनस्ति। तथाच श्रुतिः -- असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्त्येके चात्महनो जनाः इति।