Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 25 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना | अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ||१३-२५||
Transliteration
dhyānenātmani paśyanti kecidātmānamātmanā . anye sāṅkhyena yogena karmayogena cāpare ||13-25||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
13.25 Some by meditation behold the Self in the self by the self, others by the Yoga of knowledge, and still others by the Yoga of action.
।।13.25।। कोई पुरुष ध्यान के अभ्यास से आत्मा को आत्मा (हृदय) में आत्मा (शुद्ध बुद्धि) के द्वारा देखते हैं; अन्य लोग सांख्य योग के द्वारा तथा कोई साधक कर्मयोग से (आत्मा को देखते हैं )।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, apply 'Karma Yoga' by dedicating yourself fully to tasks without attachment to specific outcomes or recognition, cultivating a service-oriented mindset. Use 'Meditation' to achieve deep focus for complex problem-solving and clarity in decision-making. Employ 'Jnana Yoga' (self-inquiry) for objective analysis of challenges, understanding your role beyond personal ego and identifying with the broader purpose.
🧘 For Stress & Anxiety
Combat stress by practicing 'Meditation' to calm the mind, observe thoughts without identification, and create inner space for peace. Employ 'Jnana Yoga' to understand that stress often arises from identifying with impermanent external events, fostering detachment from outcomes. Embrace 'Karma Yoga' by focusing on purposeful action and duty, transforming anxiety about results into an opportunity for selfless contribution.
❤️ In Relationships
In relationships, practice 'Karma Yoga' by giving love, support, and effort selflessly, without expecting specific returns or outcomes. Utilize 'Meditation' to bring mindful presence and active listening, fostering deeper connection and empathy. Apply 'Jnana Yoga' by understanding the true nature of self and others, transcending superficial judgments and emotional reactivity to cultivate unconditional regard.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Regardless of temperament, diverse paths—meditation, knowledge, or selfless action—all serve to purify the mind, enabling one to realize their true Self and attain profound inner peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
13.25 ध्यानेन by meditation? आत्मनि in the self? पश्यन्ति behold? केचित् some? आत्मानम् the Self? आत्मना by the self? अन्ये others? सांख्येन योगेन by the Yoga of knowledge (by the Sankhya Yoga)? कर्मयोगेन by Karma Yoga? च and? अपरे others.Commentary There are severla paths to reach the knowledge of the Self according to the nature or temperament and capacity of the individual. The first path is the Yoga of meditation taught by Maharshi Patanjali. The Raja Yogins behold the Supreme Self in the self (Buddhi) by the self (purified mind). Meditation is a continous and unbroken flow of thought of the Self like the flow of oil from one vessel to another. Through concentration hearing and the other senses are withdrawn into the mind. The senses are not allowed to run towards their respective sensual objects. They are kept under proper check and control through the process of abstraction. Then the mind itself is made to abide in the Self through constant meditation on the Self. The mind is refined or purified by meditation. The mind that is rendered pure will naturally move towards the Self. It is not attracted by nor is it attached to the sensual objects.Sankhya Yoga is Jnana Yoga. The aspirant does Vichara (analysis? reflection) and separates himself from the three alities of Nature? the three bodies and the five sheaths and identifies himself with the witness (Self). He thinks and feels? I am distinct from the three alities. I am the silent witness. I am unattached. I am nondoer. I am nonenjoyer. I am immortal? eternal? selfexistent? selfluminous? indivisible? unborn and unchanging.The Karma Yogi surrenders his actions and their fruits to the Lord. He has Isvarapana Buddhi (intelligence that offers everything to God). This produces purity of mind which gives rise to knowledge of the Self. Karma Yoga brings about concentration of the mind through the purification of the mind. It leads to Yoga through the purification of the mind and so it is spoken of as Yoga itself.Those who practise Sankhya Yoga are the highest class of spiritual aspirants. Those who practise the Yoga of meditation are aspirants of the middling class. Those who practise Karma Yoga are the lowest class of spiritual aspirants. The aspirants of the middling and lowest class soon become aspirants of the highest class through rigorous Sadhana or spiritual practices. (Cf.V.5VI.46)
Shri Purohit Swami
13.25 Some realise the Supreme by meditating, by its aid, on the Self within, others by pure reason, others by right action.
Dr. S. Sankaranarayan
13.25. [However] by means of meditation, certain persons (Yogis) perceive the Self as the Self in the self (the heart etc.); others by the knowledge-Yoga; and others by the action-Yoga.
Swami Adidevananda
13.25 Some perceive the self within the self (body) by meditation by the self (mind), others by Sankhya Yoga, and still others by Karma Yoga.
Swami Gambirananda
13.25 Through meditation some realize the Self in (their) intellect with the help of the internal organ; others through Sankhya-yoga, and others through Karma-yoga.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।13.25।। सर्वोपाधिविनिर्मुक्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही आध्यात्मिक साधना का अन्तिम लक्ष्य है? जिसके सम्पादन के लिए अनेक उपाय? विकल्प यहाँ बताये गये हैं। मानव का व्यक्तित्व सुगठन उसी स्थिति से प्रारम्भ होना चाहिए जहाँ वर्तमान काल में मनुष्य स्वयं को पाता है। क्रमबद्ध पाठों के बिना कोई भी शिक्षा सफल नहीं हो सकती।अत्यन्त अशुद्ध एवं चंचल मन के व्यक्ति के आत्मविकास के लिए भी अनुकूल साधन का होना आवश्यक है। पूर्णत्व के सिद्धांत को केवल बौद्धिक स्तर पर समझने से ही आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान के अनुरूप ही व्यक्ति का जीवन होने पर वास्तविक विकास संभव होता। इसलिए? अपने वैचारिकजीवन को नियन्त्रित करने तथा पुनर्शिक्षा के द्वारा उसे सही दिशा प्रदान करने में साधक को विवेक तथा उत्साह से पूर्ण सक्रिय साधना का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति को आत्मोन्नति के इस मार्ग में कठिनाई का अनुभव होता है।विभिन्न प्रकार एवं स्तर के मनुष्यों के विकास के लिए? प्राचीनकाल के महान् ऋषियों नेविभिन्न साधन मार्गों को खोज निकाला? जिन सबका साध्य एक ही है। प्रत्येक मार्ग के अनुयायी के लिए वही मार्ग सबसे उपयुक्त है। किसी एक मार्ग को अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है। एक औषधालय में अनेक औषधियाँ रखी होती हैं प्रत्येक औषधि किसी रोग विशेष के लिए होती है और उस रोग से पीड़ित रोगी के लिए स्वास्थ्यलाभ होने तक वही औषधि सर्वोत्तम होती है।विभिन्न साधकों में प्रतीयमान भेद उनके मानसिक सन्तुलन और बौद्धिक क्षमता के भेद के कारण होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे अन्तकरण की अशुद्धि कहते हैं। वे सब साधन? जिनके द्वारा चित्तशुद्धि प्राप्त होती है? बहिरंग साधन या गौण साधन कहलाते हैं। चित्त के शुद्ध होने पर आत्मसाक्षात्कार का अन्तरंग या साक्षात् साधन ध्यान है।कोई पुरुष ध्यान के द्वारा आत्मा को देखते हैं ध्यान के विषय में शंकराचार्य जी लिखते हैं कि शब्दादि विषयों से श्रोत्रादि इन्द्रियों को मन में उपरत करके मन को चैतन्यस्वरूप आत्मा में एकाग्र करके चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। इस चिन्तन में ध्येयविषयक वृत्तिप्रवाह तैलधारा के समान अखण्ड और अविरल बना रहता है। स्वाभाविक है कि यह मार्ग उन उत्तम साधकों के लिए हैं? जिनका हृदय और विवेक समान रूप से विकसित होता है।आत्मा को देखने का अर्थ नेत्रों से रूपवर्ण देखना नहीं है? अन्यथा यह तो वेदान्त के सिद्धांत का ही खंडन हो जायेगा। आत्मा तो द्रष्टा है? दृश्य नहीं। अत? आत्मदर्शन से तात्पर्य स्वस्वरूपानुभूति से है। वह अनुभव करतलामलक के दर्शन के समान स्पष्ट और सन्देह रहित होने के कारण यह कहने की प्रथा पड़ गयी कि वे आत्मा को देखते हैं।आत्मा के द्वारा आत्मा को देखते हैं शंकराचार्य जी इस भाग के भाष्य में कहते हैं ध्यान के द्वारा आत्मा में अर्थात् ध्यान से सुसंस्कृत हुए अन्तकरण के द्वारा देखते हैं। शुद्धांतकरण में ही आत्मा का स्पष्ट अनुभव होता है।किसी को इस बात पर आश्चर्य़ हो सकता है कि यहाँ बुद्धि और अन्तकरण (मन) के लिए भी आत्मा शब्द का ही प्रयोग क्यों किया गया है इसका कारण यह है कि जब साधक को अपने पारमार्थिक सत्यस्वरूप का अनुभव होता है? तब उस सत्य की दृष्टि से मन? बुद्धि आदि का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रह जाता है। सब आत्मस्वरूप ही बन जाते हैं। सभी तरंगें? फेन आदि समुद्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। स्वप्नद्रष्टा? स्वप्न जगत् और स्वप्न के अनुभव ये सब वस्तुत जाग्रत्पुरुष का मन ही है। इसी दृष्टि से हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थों में हमारे व्यक्तित्व के बाह्यतम पक्ष शरीरादि को भी आत्मा शब्द से निर्देशित किया गया है।उपर्युक्त ध्यानयोग का मार्ग विवेक और वैराग्य से सुसम्पन्न उत्तम अधिकारियों के ही उपयुक्त है। अत मध्यम प्रकार के साधकों के लिए उपायान्तर बताते हैं।सांख्य योग विवेक के होते हुए भी वैराग्य की कमी होने के कारण जिन साधकों का मन ध्यान में स्थिर नहीं हो पाता और उनका तादात्म्य मन में उठने वाली वृत्तियों के साथ हो जाता है? उनको सांख्य योग का अभ्यास करने को कहा गया है। क्रमबद्ध युक्तियुक्त विचार का वह मार्ग जिसके द्वारा? हम किसी निश्चित सिद्धांत पर पहुँचते हैं? जो कभी प्रमाणान्तर या युक्ति से अन्यथा सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् अकाट्य रहता है? सांख्य योग कहलाता है।इस साधना के अभ्यास में साधक को इस ज्ञान को दृढ़ बनाये रखना चाहिए कि मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ सत्व? रज और तमोगुण के कार्यरूप हैं तथा दृश्य हैं मैं इनका साक्षी इन से भिन्न और नित्य हूँ। इस प्रकार? मन का ध्यान वृत्तियों से हटकर साक्षी में स्थिर हो जाने पर अन्य वृत्तियाँ स्वत लीन हो जायेंगी और निर्विकल्प आत्मा का बोधमात्र रह जायेगा।कर्मयोग जिन पुरुषों के अन्तकरण में वासनाओं की प्रचुरता होती है? वे अध्ययनरूप सांख्ययोग का पालन नहीं कर सकते हैं और उनके लिए ध्यानयोग का प्रश्न ही नहीं उठता है। ऐसे साधकों के लिए प्रथम वासना क्षय के उपाय के रूप में कर्मयोग का उपदेश दिया जाता है जिसका गीता के तीसरे अध्याय में विशद् वर्णन किया गया है। अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करने से पूर्वसंचित वासनाओं का क्षय हो जाता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं। इस प्रकार? चित्त के शुद्ध होने पर आत्मज्ञान की जिज्ञासा जागृत होने पर वह व्यक्ति शास्त्राध्ययन के (सांख्य योग) योग्य बन जाता है। तत्पश्चात् विवेक और वैराग्य के दृढ़ होने पर ध्यान योग के द्वारा अध्यात्म साधना के सर्वोच्च शिखर ब्रह्मात्मैक्यबोध को प्राप्त हो जाता है।संक्षेप में? सत्त्वगुणप्रधान व्यक्ति के लिए ध्य���नयोग उपयुक्त है। रजोगुण का आधिक्य और सत्त्वगुण की न्यूनता से युक्त पुरुष के लिए सांख्य योग है और सर्वथा रजोगुण प्रधान पुरुष के लिए कर्मयोग का साधन है।तब फिर? तमोगुण प्रधान अर्थात् जिसमें विचारशक्ति का अभाव हो? ऐसे व्यक्ति के लिए कौन सा उपाय है भगवान् बताते हैं कि
Swami Ramsukhdas
।।13.25।। व्याख्या -- ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना -- पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवेंअट्ठाईसवें श्लोकोंमें छठे अध्यायके दसवेंसे अट्ठाईसवें श्लोकतक और आठवें अध्यायके आठवेंसे चौदहवें श्लोकतक जो सगुणसाकार? निर्गुणनिराकार आदिके ध्यानका वर्णन हुआ है? उस ध्यानमें जिसकी जैसी रुचि? श्रद्धाविश्वास और योग्यता है? उसके अनुसार ध्यान करके कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।जो सम्बन्धविच्छेद प्रकृति और पुरुषको अलगअलग जाननेसे होता है? वह सम्बन्धविच्छेद ध्यानसे भी होता है। ध्यान न तो चित्तकी मूढ़ वृत्तिमें होता है और न क्षिप्त वृत्तिमें होता है। ध्यान विक्षिप्त वृत्तिमें आरम्भ होता है। चित्त जब स्वरूपमें एकाग्र हो जाता है? तब समाधि हो जाती है। एकाग्र होनेपर चित्त निरुद्ध हो जाता है। इस तरह जिस अवस्थामें चित्त निरुद्ध हो जाता है। उस अवस्थामें चित्त संसार? शरीर? वृत्ति? चिन्तन आदिसे भी उपरत हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपनेआपसे अपनेआपमें अपना अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है (गीता 6। 19 20)।अन्ये सांख्येन योगेन -- दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक चौथे अध्यायके तैंतीसवेंसे उन्तालीसवें श्लोकतक पाँचवें अध्यायके आठवें? नवें तथा तेरहवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक और बारहवें अध्यायके चौथेपाँचवें आदि श्लोकोंमें कहे हुए सांख्ययोगके द्वारा कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।सांख्ययोग नाम है विवेकका। उस विवेकके द्वारा सत्असत्का निर्णय हो जाता है कि सत् नित्य है? सर्वव्यापक है? स्थिर स्वभाववाला है? अचल है? अव्यक्त है? अचिन्त्य है और असत् चल है? अनित्य है? विकारी है? परिवर्तनशील है। ऐसे विवेकविचारसे सांख्ययोगी प्रकृति और उसके कार्यसे बिलकुल अलग हो जाता है और अपनेआपसे अपनेआपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है।कर्मयोगेन चापरे -- दूसरे अध्यायके सैंतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक तीसरे अध्यायके सातवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक चौथे अध्यायके सोलहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतक पाँचवें अध्यायके छठेसातवें आदि श्लोकोंमें कहे हुए कर्मयोगके द्वारा कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।जो सम्बन्धविच्छेद प्रकृति और पुरुषको अलगअलग जाननेसे होता है? वह सम्बन्धविच्छेद कर्मयोगसे भी होता है। कर्मयोगी जो कुछ भी करे? वह केवल संसारके हितके लिये ही करे। यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत आदि जो कुछ भी करे? वह सब मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करे? अपने लिये नहीं। ऐसा करनेसे स्वयंका उन क्रियाओंसे? पदार्थ? शरीर आदिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।मनुष्यने स्वाभाविक ही अपनेमें देहको स्वीकार किया है? माना है। इस मान्यताको दूर करनेके लिये अपनेमें,परमात्माको देखना अर्थात् देहकी जगह अपनेमें परमात्माको मानना बहुत आवश्यक है।अपनेमें परमात्माको देखना करणनिरपेक्ष होता है। करणसापेक्ष ज्ञान प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है। इसलिये साधक किसी करणके द्वारा परमात्मामें स्थित नहीं होता? प्रत्युत स्वयं ही स्थित होता है स्वयंकी परमात्मामें स्थिति किसी करणके द्वारा हो ही नहीं सकती।
Swami Tejomayananda
।।13.25।। कोई पुरुष ध्यान के अभ्यास से आत्मा को आत्मा (हृदय) में आत्मा (शुद्ध बुद्धि) के द्वारा देखते हैं; अन्य लोग सांख्य योग के द्वारा तथा कोई साधक कर्मयोग से (आत्मा को देखते हैं )।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।13.25 -- 13.26।।साङ्ख्येन वेदोक्तभगवत्स्वरूपज्ञानेन। कर्मिणामपि श्रुत्वा ज्ञात्वा ध्यात्वा दृष्टिः। श्रावकाणां च ज्ञात्वा ध्यात्वा। साङ्ख्यानां च ध्यात्वा। तथा च गौपवनश्रुतिः -- कर्म कृतवा च तच्छ्रुत्वा ज्ञात्वा ध्यात्वाऽनुपश्यति। श्रावकोऽपि तथा ज्ञात्वा ध्यात्वा ज्ञान्यपि पश्यति। अन्यथा तस्य दृष्टिर्हि कथञ्चिन्नोपजायते इति। अन्य इत्यशक्तानामप्युपायदर्शनार्थम्।
Sri Anandgiri
।।13.25।।अधमतमानधिकारिणो मोक्षमार्गे प्रवृत्तिं प्रतिलम्भयति -- अन्ये त्विति। आचार्याधीनां श्रुतिमेवाभिनयति -- इदमिति। उपासनमेव विवृणोति -- श्रद्दधाना इति। परोपदेशात्प्रवृत्तानामपि प्रवृत्तेः,साफल्यमाह -- तेऽपीति। तेषां मुख्याधिकारित्वं व्यावर्तयति -- श्रुतीति। तेऽपीत्यपिना सूचितमर्थमाह -- किमिति।
Sri Vallabhacharya
।।13.25।।एवम्भूतदर्शनसाधनविकल्पानाह -- द्वाभ्यां ध्यानेनेति। आत्मनि स्वस्मिन् आत्मना स्वेन? अन्ये साङ्ख्येन योगेनाष्टाङ्गेन? कर्मयोगेन चापरे निष्कामेन पश्यन्त्यात्मानम्।
Sridhara Swami
।।13.25।।एवंभूतविविक्तात्मज्ञाने साधनविकल्पानाह -- ध्यानेनेति द्वाभ्याम्। ध्यानेन आत्माकारप्रत्ययावृत्त्या। आत्मनि देहे आत्मना मनसा एवमात्मानं केचित्पश्यन्ति। अन्ये तु सांख्येन प्रकृतिपुरुषवैलक्षण्यालोचनेन? योगेनाष्टाङ्गेन? अपरे च कर्मयोगेन पश्यन्तीति सर्वत्रानुषङ्गः। एतेषां च ध्यानादीनां यथायोगं क्रमसमुच्चये सत्यपि तत्तन्निष्ठाभेदाभिप्रायेण विकल्पोक्तिः।