Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 1 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अर्जुन उवाच | प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च | एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ||१३-१||
Transliteration
arjuna uvāca . prakṛtiṃ puruṣaṃ caiva kṣetraṃ kṣetrajñameva ca . etadveditumicchāmi jñānaṃ jñeyaṃ ca keśava ||13-1||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
13.1 Arjuna said I wish to learn about Nature (matter) and the Spirit (soul), the field and the knower of the field, knowledge and that which ought to be known, O Kesava.
।।13.1।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव ! मैं, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
To excel in your career, understand the difference between your transient professional roles and projects (Prakriti/Kshetra) and your core skills, values, and purpose (Purusha/Kshetrajna). This discriminative knowledge helps you make value-driven decisions, detach from temporary setbacks, and focus on what truly contributes to your growth and impact, rather than just superficial achievements.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate mental well-being by discerning between your external circumstances, bodily sensations, and fleeting thoughts (Prakriti/Kshetra) and your immutable inner awareness or spirit (Purusha/Kshetrajna). This distinction helps you create emotional distance from stressors, realizing that challenges are temporary occurrences in the 'field' but do not define your true, resilient self, leading to greater peace and stability.
❤️ In Relationships
Strengthen your relationships by understanding that individuals are more than their physical appearance, roles, or superficial personality traits (Prakriti). Recognize the underlying spirit or essence (Purusha) within each person, including yourself. This deeper understanding fosters empathy, reduces judgment based on external factors, and encourages connection based on mutual respect for the inherent worth of each 'knower of the field,' leading to more profound and less attachment-driven bonds.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The ultimate quest for wisdom begins with discerning the eternal Spirit from transient matter, leading to profound self-knowledge and liberation from illusion.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
13.1 प्रकृतिम् the Prakriti (matter)? पुरुषम् the Purusha (Spirit or Soul)? च and? एव even? क्षेत्रम् the field? क्षेत्रज्ञम् the knower of the field? एव even? च and? एतत् this? वेदितुम् to know? इच्छामि (I) wish? ज्ञानम् knowledge? ज्ञेयम् what ought to be known? च and? केशव O Kesava.Commentary In some of the books you will not find this verse. If you include this verse also? the number of verses of the Bhagavad Gita will come to 701. Some commentators look upon this verse as an interpolation.We have come to the beginning of the third section of the Gita. Essentially the same knowledge is taught in this section but there are more details.This discourse on Kshetra (matter) is commenced with a view to determine the essential nature of the possessor of the two Prakritis (Natures)? the lower and the higher? described in chapter VII? verses 4 and 5.In the previous discourse a description of the devotee who is dear to the Lord is given from verse 13 to the end. Now the estion arises What sort of knowledge of Truth should he possess The answer is given in this discourse.Nature is composed of the three alities. It transforms itself into the body? senses and the sensual objects to serve the two purposes of the individual soul? viz.? Bhoga (enjoyment) and Apavarga (liberation).The Gita is divided into three sections illustrative of the three words of the Mahavakya or Great Sentence of the Sama Veda -- TatTvamAsi (That thou art). In accordance with this view the first six chapters deal with the path of action or Karma Yoga and the nature of the thou (TvamPada). The next six chapters explain the path of devotion or Bhakti Yoga and the nature of That (TatPada). The last six chapters treat of the path of knowledge or Jnana Yoga and the nature of the middle term art (AsiPada) which establishes the identity of the individual and the Supreme Soul (Jiva Brahma Aikyam).Arjuna now wishes to know in detail the difference between Prakriti and Purusha (Matter and Spirit). He desires to have a discriminative knowledge of the difference between them.
Shri Purohit Swami
13.1 "Arjuna asked: My Lord! Who is God and what is Nature; what is Matter and what is the Self; what is that they call Wisdom, and what is it that is worth knowing? I wish to have this explained.
Dr. S. Sankaranarayan
13.1. No such translation is available for this sloka.
Swami Adidevananda
13.1 There is no such translation for this sloka.
Swami Gambirananda
13.1 Swami Gambhirananda has not translated this sloka. Many editions of the Bhagavadgita do not contain this sloka, including the commentary by Sankaracharya. If this sloka is included, the total number of slokas in the Bhagavadgita is 701.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।13.1।। गीता की अनेक पाण्डुलिपियों में यह श्लोक नहीं मिलता है? जबकि कुछ अन्य हस्तलिपियों में यह अर्जुन की जिज्ञासा के रूप में दिया हुआ है।प्रकृति और पुरुष भारतीय सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जी ने जड़ और चेतन तत्त्वों का निर्देश क्रमश प्रकृति और पुरुष इन दो शब्दों से किया है। इन दोनों के संयोग से ही उस सृष्टि का निर्माण हुआ है इन्हें अर्जुन जानना चाहता है।क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दो शब्दों का अर्थ इस अध्याय की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है।ज्ञान और ज्ञेय इस अध्याय में ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस शुद्धान्तकरण से हैं? जिसके द्वारा ही आत्मतत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। यह आत्मा ही ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु है।अर्जुन की इस जिज्ञासा के उत्तर को जानना सभी साधकों को लाभदायक होगा।
Swami Ramsukhdas
।।13.1।।व्याख्या--'इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते'-- मनष्य 'यह पशु है, यह पक्षी है, यह वृक्ष है' आदि-आदि भौतिक चीजोंको इदंतासे अर्थात् 'यह'-रूपसे कहता है। और इस शरीरको कभी 'मैं'-रूपसे तथा कभी 'मेरा'-रूपसे कहता है। परन्तु वास्तवमें अपना कहलानेवाला शरीर भी इदंतासे कहलानेवाला ही है। चाहे स्थूलशरीर हो, चाहे सूक्ष्मशरीर हो और चाहे कारणशरीर हो, पर वे हैं सभी इदंतासे कहलानेवाले ही। जो पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—इन पाँच तत्त्वोंसे बना हुआ है अर्थात् जो माता-पिताके रज-वीर्यसे पैदा होता है, उसको स्थूलशरीर कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'अन्नमयकोश' भी है; क्योंकि यह अन्नके विकारसे ही पैदा होता है और अन्नसे ही जीवित रहता है। अतः यह अन्नमय, अन्नस्वरूप ही है। इन्द्रियोंका विषय होनेसे यह शरीर 'इदम्' ('यह') कहा जाता है। । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि-इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुएको सूक्ष्मशरीर कहते हैं। इन सत्रह तत्त्वोंमेंसे प्राणोंकी प्रधानताको लेकर यह सूक्ष्मशरीर 'प्राणमयकोश', मनकी प्रधानताको लेकर यह 'मनोमयकोश' और बुद्धिकी प्रधानताको लेकर यह 'विज्ञानमयकोश' कहलाता है। ऐसा यह सूक्ष्मशरीर भी अन्तःकरणका विषय होनेसे 'इदम्' कहा जाता है। । अज्ञानको कारणशरीर कहते हैं। मनुष्यको बुद्धि तकका तो ज्ञान होता है, पर बुद्धिसे आगेका ज्ञान नहीं होता, इसलिये इसे अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरोंका कारण होनेसे कारणशरीर कहलाता है—'अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम्' (अध्यात्म० उत्तर० ५।९)। इस कारण शरीरको स्वभाव, आदत और प्रकृति भी कह देते हैं और इसीको ‘आनन्दमयकोश' भी कह देते हैं। जाग्रत्-अवस्थामें स्थूलशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म तथा | कारणशरीर भी साथमें रहता है। स्वप्न-अवस्थामें सूक्ष्मशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें कारणशरीर भी साथमें रहता है। सुषुप्ति-अवस्थामें स्थूलशरीरका ज्ञान नहीं | रहता, जो कि अन्नमयकोश है और सूक्ष्मशरीरका भी ज्ञाननहीं रहता, जो कि प्राणमय, मनोमय एवं विज्ञानमयकोश है अर्थात् बुद्धि अविद्या-(अज्ञान-) में लीन हो जाती है। अतः सुषुप्ति-अवस्था कारणशरीरकी होती है। जाग्रत् और स्वप्र अवस्थामें तो सुख-दुःखका अनुभव होता है, पर सुषुप्ति अवस्थामें दुःखका अनुभव नहीं होता और सुख रहता है। इसलिये कारणशरीरको ‘आनन्दमयकोश' कहते हैं। कारण शरीर भी स्वयंका विषय होनेसे, स्वयंके द्वारा जानने में आनेवाला होनेसे 'इदम्' कहा जाता है। उपर्युक्त तीनों शरीरोंको 'शरीर' कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है। * इनको कोश कहनेका तात्पर्य है कि जैसे चमड़ेसे बनी हुई थैलीमें तलवार रखनेसे उसकी म्यान संज्ञा हो जाती है, ऐसे ही जीवात्माके द्वारा इन तीनों शरीरोंको अपना माननेसे, अपनेको इनमें रहनेवाला माननेसे इन तीनों शरीरोंकी ‘कोश' संज्ञा हो जाती है। इस शरीरको क्षेत्र' कहनेका तात्पर्य है कि यह प्रतिक्षण नष्ट होता, प्रतिक्षण बदलता है। यह इतना जल्दी बदलता है कि इसको दुबारा कोई देख ही नहीं सकता अर्थात् दृष्टि पड़ते ही जिसको देखा, उसको फिर दुबारा नहीं देख सकते; क्योंकि वह तो बदल गया। शरीरको क्षेत्र कहनेका दूसरा भाव खेतसे है। जैसे खेतमें तरह-तरहके बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्य-शरीरमें अहंता-ममता करके जीव तरह-तरहके कर्म करता है। उन कर्मोके संस्कार अन्तःकरणमें पड़ते हैं। वे संस्कार जब फलके रूपमें प्रकट होते हैं, तब दूसरा (देवता, पशु-पक्षी, कीट-पतङ्ग आदिका) शरीर मिलता है। जिस प्रकार खेतमें जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है, उसी प्रकार इस शरीरमें जैसे कर्म किये जाते हैं, उनके अनुसार ही दूसरे शरीर, परिस्थिति आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीरमें किये गये कोंक अनुसार ही यह जीव बार-बार जन्म मरणरूप फल भोगता है। इसी दृष्टि से इसको क्षेत्र (खेत) कहा गया है। अपने वास्तविक स्वरूपसे अलग दीखनेवाला यह शरीर प्राकृत पदार्थोंसे, क्रियाओंसे, वर्ण-आश्रम आदिसे 'इदम्' (दृश्य) ही है। यह है तो 'इदम्' पर जीवने भूलसे इसको 'अहम्' मान लिया और फँस गया। स्वयं परमात्माका अंश एवं चेतन है, सबसे महान् है। परन्तु जब वह जड (दृश्य) पदार्थोंसे अपनी महत्ता मानने लगता है। (जैसे, 'मैं धनी हूँ', 'मैं विद्वान् हूँ' आदि), तब वास्तवमें वह अपनी महत्ता घटाता ही है। इतना ही नहीं, अपनी महान् बेइज्जती करता है; क्योंकि अगर धन, विद्या आदिसे वह अपनेको बड़ा मानता है, तो धन विद्या आदि ही बड़े हुए; उसका अपना महत्त्व तो कुछ रहा ही नहीं ! वास्तवमें देखा जाय तो महत्त्व स्वयंका ही है, नाशवान् और जड धनादि पदार्थोंका नहीं; क्योंकि जब स्वयं उन पदार्थोंको स्वीकार करता है, तभी वे महत्त्वशाली दीखते हैं। इसलिये भगवान 'इदं शरीरं क्षेत्रम्' पदोंसे शरीरादि पदार्थोंको अपनेसे भिन्न 'इदंता' से देखनेके लिये कह रहे हैं। _ 'एतद्यो वेत्ति' -जीवात्मा इस शरीरको जानता है अर्थात् यह शरीर मेरा है, इन्द्रियाँ मेरी हैं, मन मेरा है, बुद्धि मेरी है, प्राण मेरे हैं—ऐसा मानता है। यह जीवात्मा इस शरीरको कभी 'मैं' कह देता है और कभी 'यह' कह देता है अर्थात् 'मैं शरीर हूँ'- ऐसा भी मान लेता है और ‘यह शरीर मेरा है' — ऐसा भी मान लेता है। ___ इस श्लोकके पूर्वार्धमें शरीरको 'इदम्' पदसे कहा है और उत्तरार्धमें शरीरको 'एतत्' पदसे कहा है। यद्यपि ये दोनों ही पद नजदीकके वाचक हैं, तथापि 'इदम्' की अपेक्षा 'एतत्' पद अत���यन्त नजदीकका वाचक है। अतः यहाँ 'इदम्' पद अङ्गुलिनिर्दिष्ट शरीर-समुदायका द्योतन करता है और 'एतत्' पद इस शरीरमें जो 'मैं'-पन है, उस मैं-पनका द्योतन करता है। _ 'तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ, इति तद्विदः' -जैसे दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें सत्-असत्के तत्त्वको जानने वालोंको तत्त्वदर्शी कहा है, ऐसे ही यहाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके तत्त्वको जाननेवालोंको 'तद्विदः' कहा है। क्षेत्र क्या है और क्षेत्रज्ञ क्या है-इसका जिनको बोध हो चुका है, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष इस जीवात्माको क्षेत्रज्ञ' नामसे कहते हैं। तात्पर्य है कि क्षेत्रकी तरफ दृष्टि रहनेसे, क्षेत्रके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही इस जीवात्माको वे ज्ञानी महापुरुष क्षेत्रज्ञ' कहते हैं। अगर यह जीवात्मा क्षेत्रके साथ सम्बन्ध न रखे, तो फिर इसकी क्षेत्रज्ञ' संज्ञा नहीं रहेगी, यह परमात्मस्वरूप हो जायगा (गीता १३ । ३१) । मार्मिक बात यह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है, वहाँसे खोलनेपर ही (बन्धनसे) छुटकारा हो सकता है। अतः मनष्यशरीरसे ही बन्धन होता है और मनुष्यशरीरके द्वारा ही बन्धनसे मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्यका अपने शरीरके साथ किसी प्रकारका भी अहंता-ममतारूप सम्बन्ध न रहे, तो वह मात्र संसारसे मुक्त ही है। अतः भगवान् शरीरके साथ माने हुए अहंता-ममतारूप सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये शरीरको क्षेत्र' बताकर उसको इदंता-(पृथक्ता-) से देखने के लिये कह रहे हैं, जो कि वास्तवमें पृथक् है ही। शरीरको इदंतासे देखना केवल अपना कल्याण चाहने- वाले साधकोंके लिये ही नहीं, प्रत्युत मनुष्यमात्रके लिये परम आवश्यक है। कारण कि अपना उद्धार करनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है। यही कारण है कि गीताका उपदेश आरम्भ करते ही भगवान्ने सबसे पहले शरीर और शरीरीकी पृथक्ताका वर्णन किया है। 'इदम्' का अर्थ है—'यह' अर्थात् अपनेसे अलग दीखनेवाला। सबसे पहले देखनेमें आता है—पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाशसे बना यह स्थूलशरीर । यह दृश्य है और परिवर्तनशील है। इसको देखनेवाले हैं—नेत्र । जैसे दृश्यमें रंग, आकृति, अवस्था, उपयोग आदि सभी बदलते रहते हैं, पर उनको देखनेवाले नेत्र एक ही रहते हैं, ऐसे ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धरूप विषय भी बदलते रहते हैं, पर उनको जाननेवाले कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका एक ही रहते हैं। जैसे नेत्रोंसे ठीक दीखना, कम दीखना और बिलकुल न दीखना-ये नेत्रमें होनेवाले परिवर्तन मनके द्वारा जाने जाते हैं, ऐसे ही कान, त्वचा, जिह्वा और नासिकामें होनेवाले परिवर्तन भी मनके द्वारा जाने जाते हैं। अतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, त्वचा, नेत्र जिह्वा और नासिका) भी दृश्य हैं। कभी क्षुब्ध और कभी शान्त, कभी स्थिर और कभी चञ्चल-ये मनमें होनेवाले परिवर्तन बुद्धिके द्वारा जाने जाते हैं । अतः मन भी दृश्य है । कभी ठीक समझना, कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना-ये बुद्धिमें होनेवाले परिवर्तन स्वयं-(जीवात्मा-) के द्वारा जाने जाते हैं। अतः बुद्धि भी दृश्य है। बुद्धि आदिके द्रष्टा स्वयं-(जीवात्मा-) में कभी परिवर्तन हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं । वह सदा एकरस रहता है; अतः वह कभी किसीका दृश्य नहीं हो सकता*। । इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयको तो जान सकती हैं, पर विषय अपनेसे पर (सूक्ष्म, श्रेष्ठ और प्रकाशक) इन्द्रियोंको नहीं जान सकते । इसी तरह इन्द्रियाँ और विषय मनको नहीं जान सकते; मन, इन्द्रियाँ और विषय बुद्धिको नहीं जान सकते; तथा बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और विषय स्वयंको नहीं जान सकते । न जाननेमें मुख्य कारण यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तो सापेक्ष द्रष्टा हैं अर्थात् एक-दूसरेकी सहायतासे केवल अपनेसे स्थूल रूपको देखनेवाले हैं; किन्तु स्वयं (जीवात्मा) शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिसे अत्यन्त सूक्ष्म और श्रेष्ठ होनेके कारण निरपेक्ष द्रष्टा है अर्थात् दूसरे किसीकी सहायताके बिना खुद ही देखनेवाला है। उपर्युक्त विवेचनमें यद्यपि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिको भी द्रष्टा कहा गया है, तथापि वहाँ भी यह समझ लेना चाहिये कि स्वयं-(जीवात्मा-) के साथ रहनेपर ही इनके द्वारा देखा जाना सम्भव होता है। कारण कि मन, बुद्धि आदि जड प्रकृतिका कार्य होनेसे स्वतन्त्र द्रष्टा नहीं हो सकते। अतः स्वयं ही वास्तविक द्रष्टा है। दृश्य पदार्थ (शरीर), देखनेकी शक्ति (नेत्र, मन, बुद्धि) और देखनेवाला (जीवात्मा) इन तीनोंमें गुणोंकी भिन्नता होनेपर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखनेका आकर्षण, देखनेकी सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि स्वयं (जीवात्मा) तो चेतन है, फिर वह जड बुद्धि आदिको (जिससे उसकी तात्त्विक एकता नहीं है।) कैसे देखता है? इसका समाधान यह है कि स्वयं जडसे तादात्म्य करके जडके सहित अपनेको 'मैं' मान लेता है। यह 'मैं' न तो जड है और न चेतन ही है। जडमें विशेषता देखकर यह जडके साथ एक होकर कहता है कि 'मैं धनवान् हूँ; मैं विद्वान् हूँ' आदि; और चेतनमें विशेषता देखकर यह चेतनके साथ एक होकर कहता है कि 'मैं आत्मा हूँ: मैं ब्रह्म हूँ' आदि । यही प्रकृतिस्थ पुरुष है, जो प्रकृतिजन्य गणोंके सङ्गसे ऊँच-नीच योनियोंमें बार-बार जन्म लेता रहता है (गीता १३ । २१) । तात्पर्य यह निकला कि प्रकृतिस्थ पुरुषमें जड और चेतन-दोनों अंश विद्यमान हैं। चेतनकी रुचि परमात्माकी तरफ जानेकी है; किन्तु भूलसे उसने जडके साथ तादात्म्य कर लिया। तादात्म्यमें जो जड-अंश है, उसका आकर्षण (प्रवृत्ति) जडताकी तरफ होनेसे वही सजातीयताके कारण जड बुद्धि आदिका द्रष्टा बनता है । यह नियम है कि देखना केवल सजातीयतामें ही सम्भव होता है |अर्थात् दृश्य, दर्शन और द्रष्टाके एक ही जातिके होनेसे देखता होता है अन्यथा नहीं। इस नियमसे यह पता लगता है कि स्वयं (जीवात्मा) जबतक बद्धि आदि द्रष्टा रहता है,तबतक उसमें बुद्धिकी जातिकी जड वस्तु है अर्थात जड प्रकृतिके साथ उसका माना हुआ सम्बन्ध है। यह माना हु्आ सम्बन्ध ही सब अनर्थोंका मूल है। इसी माने हुए सम्बन्धके कारण वह सम्पूर्ण जड प्रकृति अर्थात् बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, विषय, शरीर और पदार्थोंका द्रष्टा बनता है। सम्बन्ध--उस क्षेत्रज्ञका स्वरुप क्या है-इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।13.1।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव ! मैं, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।13.1।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।13.1।।प्रथममध्यमयोः षट्कयोस्त्वंतत्पदार्थावुक्तौ? अन्तिमस्तु षट्को वाक्यार्थनिष्ठः सम्यग्धीप्रधानोऽधुनारभ्यते। तत्र क्षेत्राध्यायमन्तिमषट्काद्यमवतितारयिषुव्यवहितं वृत्तं कीर्तयति -- सप्तम इति। प्रकृतिद्वयस्य स्वातन्त्र्यं वारयति -- ईश्वरस्येति। भूमिरित्यादिनोक्ता सत्त्वादिरूपा प्रकृतिरपरेत्यत्र हेतुमाह -- संसारेति। इतस्त्वन्यामित्यादिनोक्तां प्रकृतिमनुक्रामति -- परा चेति। परत्वे हेतुं सूचयति -- ईश्वरात्मिकेति। किमर्थमीश्वरस्य प्रकृतिद्वयमित्याशङ्क्य कारणत्वार्थमित्याह -- याभ्यामिति। वृत्तमनूद्य वर्तिष्यमाणाध्यायारम्भप्रकारमाह -- तत्रेति। व्यवहितेन संबन्धमुक्त्वाऽव्यवहितेन तं विवक्षुरव्यवहितमनुवदति -- अतीतेति। निष्ठोक्तेति संबन्धः। निष्ठामेव व्याचष्टे -- यथेति। वर्तन्ते धर्मजातमनुतिष्ठन्ति तथा पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वमुक्तमिति योजना। अव्यवहितमेवानूद्य तेनोत्तरस्य संबन्धं संगिरते -- केनेति। तत्त्वज्ञानोक्तेरुक्तार्थेन समुच्चयार्थश्चकारः। जीवानां सुखदुःखादिभेदभाजां प्रतिक्षेत्रं भिन्नानां नाक्षरेणैक्यमित्याशङ्क्य संसारस्यात्मधर्मत्वं निराकृत्य संघातनिष्ठत्वं वक्तुं संघातोत्पत्तिप्रकारमाह -- प्रकृतिश्चेति। भोगश्चापवर्गश्चार्थौ तयोरेव कर्तव्यतयेति यावत्। नन्वनन्तरश्लोके शरीरनिर्देशात्तस्योत्पत्तिर्वक्तव्या किमिति संघातस्योच्यते तत्राह -- सोऽयमिति। उक्तेऽर्थे भगवद्वचनमवतारयति -- तदेतदिति। तत्र द्रष्टृत्वेन संघातदृश्यादन्यमात्मानं निर्दिशति -- इदमिति। उक्तं प्रत्यक्षदृश्यविशिष्टं किंचिदिति शेषः। शरीरस्यात्मनोऽन्यत्वं क्षेत्रनामनिरुक्त्या ब्रूते -- क्षतेति। क्षयो नाशः क्षरणमपक्षयः। यथा क्षेत्रे बीजमुप्तं फलति तद्वदित्याह -- क्षेत्रवद्वेति। क्षेत्रपदादुपरिस्थितमितिपदं क्षेत्रशब्दविषयमन्यथा वैयर्थ्यादित्याह -- इतिशब्द इति। क्षेत्रमित्येवमनेन क्षेत्रशब्देनेत्यर्थः। दृश्यं देहमुक्त्वा ततोऽतिरिक्तं द्रष्टारमाह -- एतदिति। स्वाभाविकं मनुष्योऽहमिति ज्ञानमौपदेशिकं देहो नात्मा दृश्यत्वादित्यादिविभागशः स्वतोऽतिरिक्तत्वेनेत्यर्थः। क्षेत्रमित्यत्रेतिशब्दवदत्रापीतिशब्दस्य क्षेत्रज्ञशब्दविषयत्वमाह -- इतिशब्द इति। क्षेत्रज्ञ इत्येवं क्षेत्रज्ञशब्देन तं प्राहुरिति संबन्धः। प्रवक्तृ़न्प्रश्नपूर्वकमाह -- क इत्यादिना।
Sri Vallabhacharya
।।13.1।।Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
Sridhara Swami
।।13.1।।No commentary.