Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 1 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अर्जुन उवाच | एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते | ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ||१२-१||
Transliteration
arjuna uvāca . evaṃ satatayuktā ye bhaktāstvāṃ paryupāsate . ye cāpyakṣaramavyaktaṃ teṣāṃ ke yogavittamāḥ ||12-1||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
12.1 Arjuna said Those devotees who, ever steadfast, thus worship Thee and those also who worship the imperishable and the unmanifested which of them are better versed in Yoga?
।।12.1।। अर्जुन ने कहा -- जो भक्त, सतत युक्त होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In career, this verse highlights choosing between a focus on tangible, personal achievements or direct mentorship (akin to worshipping the manifest) versus pursuing abstract ideals, systemic impact, or intellectual mastery (worshipping the unmanifest). Both paths demand dedication, but one might resonate more with individual temperament, potentially offering a clearer, more accessible route to engagement and success.
🧘 For Stress & Anxiety
When facing stress, individuals might find solace either through connecting with a personal support system, community, or faith (akin to worshipping the manifest with devotion) or by seeking inner peace through abstract philosophical understanding, detachment, and acceptance of life's impermanence (worshipping the unmanifest). The verse implicitly questions which approach provides more effective mental health resilience or is 'easier' to maintain.
❤️ In Relationships
In relationships, this verse presents two approaches: cultivating deep, personal, emotional bonds with specific individuals, expressing love and service through defined roles (like Bhakti's Bhavas toward the manifest), or focusing on universal principles of compassion, kindness, and justice, relating to humanity at large or through shared abstract ideals. Both foster connection, but the personal approach can often feel more immediate and emotionally fulfilling for many.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Arjuna queries which path—devotion to a personal, manifest form of the Divine or contemplation of the impersonal, unmanifest Absolute—is considered more effective or 'better versed in Yoga'.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
12.1 एवम् thus? सततयुक्ताः ever steadfast? ये who? भक्ताः devotees? त्वाम् Thee? पर्युपासते worship? ये who? च and? अपि also? अक्षरम् the imperishable? अव्यक्तम् the unmanifested? तेषाम् of them? के who? योगवित्तमाः better versed in Yoga.Commentary The twelfth discourse goes to prove that Bhakti Yoga or the Yoga of devotion is much easier than Jnana Yoga or the Yoga of knowledge. In Bhakti Yoga the devotee establishes a near and dear relationship with the Lord. He cultivates slowly and one of the five Bhavas (attitudes) according to his temperament? taste and capacity. The five attitudes are the Santa Bhava (the attitutde of peaceful adoration) Dasya Bhava (the attitude of servant towards the master) Sakhya Bhava (the attitude of a friend) Vatsalya Bhava (the attitude of a parent to the child) and Madhurya Bhava (the attitutde of the lover towards the beloved). The devotee adopts these attitudes towards the Lord. The last (Madhurya Bhava) is the culmination of devotion. It is merging or absorption in the Lord.The devotee adores the Lord. He constantly remembers Him (Smarana). He sings His Name (Kirtana). He speaks of His glories. He repeats His Name. He chants His Mantra (Japa). He prays and prostrates himself. He hears His Lilas (divine plays). He does total? ungrudging and unconditional selfsurrender? obtains His grace? hols communion wih? and eventually gets absorbed in Him.The devotee begins by worshipping the idols or the symbols of God. Then he performs internal worship of the Form. Ultimately he is led to the supreme worship of the allpervading Brahman (Para Puja).Thus As declared in the last verse of the previous chapter.Avyaktam The unmanifested? i.e.? incomprehensible to the senses? transcending all limiting adjuncts. The unmanifested Brahman is beyond all limitations. That which is visible to the senses is called Vyakta or manifest.The hearts of the devotees are wholly fixed on Thee. They worship Thee with all their heart and soul.There are others who worship the unmanifested Brahman which is beyond time? space and causation? which is attributeless? which is eternal and indefinable? which is beyond the reach of speech and mind. These are the wise sages.Of these two? the devotees and the men of knowledge -- who are the better knowers of Yoga (Cf.XI.55)
Shri Purohit Swami
12.1 "Arjuna asked: My Lord! Which are the better devotees who worship Thee, those who try to know Thee as a Personal God, or those who worship Thee as Impersonal and Indestructible?
Dr. S. Sankaranarayan
12.1. Arjuna said Those devotees who, being constantly attached [to You], worship You thus; and also those who [worship] the motionless Unmanifest-of these who who are the best knowers of Yoga ?
Swami Adidevananda
12.1 Arjuna said Those devotees, who, ever integrated, thus meditate on You, and those again, who meditate on the Imperishable and the Unmanifest - which or these have greater knowledge of Yoga?
Swami Gambirananda
12.1 Arjuna said Those devotees who, being thus ever dedicated, meditate on You, and those again (who meditate) on the Immutable, the Unmanifested-of them, who are the best experiencers of yoga [(Here) yoga means samadhi, spiritual absorption.] ?
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।12.1।। यद्यपि भगवद्गीता के दार्शनिक प्रवचन संवाद की शैली में लिखे गये हैं? तथापि उनमें विचारों के क्रमिक विकास की कभी भी उपेक्षा नहीं की गई है। उसमें न केवल एक अध्याय के अन्तर्गत विचारों में संगति है? वरन् एक अध्याय से अन्य अघ्यायों के मध्य भी यही संगति देखने को मिलती है। पूर्व अध्याय की समाप्ति भगवान् के इस आश्वासन के साथ हुई थी कि कोई भी साधक भक्त अनन्यभक्ति के द्वारा ईश्वर के विराट् वैभव का स्वयं में साक्षात् अनुभव कर सकता है। इस चुनौती भरे वाक्य ने क्षत्रिय राजपुत्र अर्जुन की महत्त्वाकांक्षा को जगा दिया। जगत् के एक व्यावहारिक पुरुष के रूप में वह जानना चाहता है कि वह परमात्मा के कौन से रूप की उपासना करे।यहाँ प्रश्न बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक रखा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि जगत् में दो प्रकार के साधक होते हैं? जो वस्तुत एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए साधनारत होते हैं। कोई साधक परमात्मा के सगुण? साकार व्यक्त रूप की आराधनाउपासना करते हैं? जबकि अन्य साधक निर्गुण? निराकार अव्यक्त का ध्यान करते हैं। दोनों ही निष्ठावान् हैं और अपनेअपने मार्ग पर प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। परन्तु? प्रश्न यह है कि इन दोनों में कौन उत्तम योगवित् या योगनिष्ठ है।दर्शनशास्त्र में इन्द्रियगोचर वस्तु को व्यक्त कहते हैं तथा जो वस्तु प्रमाण गोचर नहीं होती? उसे अव्यक्त कहा जाता है। विद्यार्थी दशा में अर्जुन को यह बताया गया था कि परमात्मा अव्यक्त और सर्वव्यापी है। परन्तु? पूर्व अध्याय में ही उसने ईश्वरी विराट रूप का साक्षात् दर्शन किया था। वह उसका व्यक्तिगत अनुभव था। स्वाभाविक ही है कि आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शन का इच्छुक अर्जुन एक उचित प्रश्न पूछता है कि सगुण और निर्गुण के इन दो उपासकों में कौन साधक श्रेष्ठ है सगुण और निर्गुण में श्रेष्ठता का प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। क्या मूर्तिपूजा के द्वारा ईश्वर का ध्यान और साक्षात्कार किया जा सकता है क्या कोई भी प्रतीक परमात्मा का सूचक हो सकता है क्या एक तरंग समुद्र का प्रतीक या प्रतिनिधि बन सकती है प्रथम? भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासना का वर्णन करते हुए कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।12.1।। व्याख्या--'एवं सततयुक्ता ये भक्ताः'--ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने 'यः' और 'सः' पद जिस साधकके लिये प्रयुक्त किये हैं, उसी साधकके लिये अर्थात् सगुण-साकार भगवान्की उपासना करनेवाले सब साधकोंके लिये यहाँ 'ये भक्ताः' पद आये हैं। यहाँ 'एवम्' पदसे ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकका निर्देश किया गया है। 'मैं भगवान्का ही हूँ' -- इस प्रकार भगवान्का होकर रहना ही सततयुक्त होना है। भगवान्में पूर्ण श्रद्धा रखनेवाले साधक भक्तोंका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होता है। अतः प्रत्येक (पारमार्थिक -- भगवत्सम्बन्धी जप-ध्यानादि अथवा व्यावहारिक -- शारीरिक और आजीविका-सम्बन्धी) क्रियामें उनका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर भगवान्से बना रहता है। 'सततयुक्ताः' पद ऐसे ही साधक भक्तोंका वाचक है। साधकसे यह एक बहुत बड़ी भूल होती है कि वह पारमार्थिक क्रियाओंको करते समय तो अपना सम्बन्ध भगवान्से मानता है,पर व्यावहारिक क्रियाओंको करते समय वह अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है। इस भूलका कारण है --समय-समयपर साधकके उद्देश्यमें होनेवाली भिन्नता। जबतक बुद्धिमें धन-प्राप्ति, मान-प्राप्ति, कुटुम्ब-पालन आदि भिन्न-भिन्न उद्देश्य बने रहते हैं, तबतक साधकका सम्बन्ध निरन्तर भगवान्के साथ नहीं रहता। अगर वह अपने जीवनके एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्तिको ठीक-ठीक पहचान ले, तो उसकी प्रत्येक क्रिया भगवत्प्राप्तिका साधन हो जायगी। भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य हो जानेपर भगवान्का जप-स्मरण-ध्यानादि करते समय तो उसका सम्बन्ध भगवान्से है ही; किन्तु व्यावहारिक क्रियाओंको करते समय भी उसको नित्य-निरन्तर भगवान्में लगा हुआ ही समझना चाहिये। अगर क्रियाके आरम्भ और अन्तमें साधकको भगवत्स्मृति है, तो क्रिया करते समय भी उसकी निरन्तर सम्बन्धात्मक भगवत्स्मृति रहती है -- ऐसा मानना चाहिये। जैसे, बहीखातेमें जोड़ लगाते समय व्यापारीकी वृत्ति इतनी तल्लीन होती है कि 'मैं कौन हूँ और जोड़ क्यों लगा रहा हूँ' -- इसका भी ज्ञान नहीं रहता। केवल जोड़के अङ्कोंकी ओर ही उसका ध्यान रहता है। जोड़ शुरू करनेसे पहले उसके मनमें यह धारणा रहती है कि मैं अमकु व्यापारी हूँ तथा अमुक कार्यके लिये जोड़ लगा रहा हूँ और जोड़ लगाना समाप्त करते ही पुनः उसमें उसी भावकी स्फुरणा हो जाती है कि 'मैं अमुक व्यापारी हूँ और अमुक कार्य कर रहा था।' अतः जिस समयमें वह तल्लीनतापूर्वक जो़ड़ लगा रहा है, उस समय भी 'मैं अमुक व्यापारी हूँ और अमुक कार्य कर रहा हूँ' -- इस भावकी विस्मृति दीखते हुए भी वस्तुतः 'विस्मृति' नहीं मानी जाती। इसी प्रकार यदि कर्तव्य-कर्मके आरम्भ और अन्तमें साधकका यह भाव है कि 'मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान्के लिये ही कर्तव्यकर्म कर रहा हूँ', तथा इस भावमें उसे थोड़ी भी शङ्का नहीं है, तो जब वह अपने कर्तव्य-कर्ममें तल्लीनतापूर्वक लग जाता है, उस समय उसमें भगवान्की विस्मृति दीखते हुए भी वस्तुतः विस्मृति नहीं मानी जाती। 'त्वाम् पर्युपासते'-- यहाँ 'त्वाम्' पदसे उन सभी सगुण-साकार स्वरूपोंको ग्रहण कर लेना चाहिये, जिनको भगवान् भक्तोंके इच्छानुसार समय-समयपर धारण किया करते हैं और जो स्वरूप भगवान्ने भिन्न-भिन्न अवतारोंमें धारण किये हैं तथा भगवान्का जो स्वरूप दिव्यधाममें विराजमान है -- जिसको भक्त लोग अपनी मान्यताके अनुसार अनेक रूपों और नामोंसे कहते हैं। 'पर्युपासते' -- पदका अर्थ है -- 'परितः उपासते' अर्थात् अच्छी तरह उपासना करते हैं। जैसे पतिव्रता स्त्री कभी पतिकी सेवामें अपने शरीरको अर्पण करके, कभी पतिकी अनुपस्थितिमें पतिका चिन्तन करके, कभी पतिके सम्बन्धसे सास-ससुर आदिकी सेवा करके और कभी पतिके लिये रसोई बनाना आदि घरके कार्य करके सदासर्वदा पतिकी ही उपासना करती है, ऐसे ही साधक भक्त भी कभी भगवान्में तल्लीन होकर, कभी भगवान्का जप-स्मरणचिन्तन करके, कभी सांसारिक प्राणियोंको भगवान्का ही मानकर उनकी सेवा करके और कभी भगवान्की आज्ञाके अनुसार सांसारिक कर्मोंको करके सदा-सर्वदा भगवान्की उपासनामें ही लगा रहता है। ऐसी उपासना ही अच्छी तरह की गयी उपासना है। ऐसे उपासकके हृदयमें उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थों और क्रियाओंका किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व नहीं होता। 'ये चाप्यक्षरमव्यक्तम्'-- यहाँ 'ये' पद निर्गुण-निराकारकी उपासना करनेवाले साधकोंका वाचक है। अर्जुनने श्लोकके पूर्वार्द्धमें जिस श्रेणीके सगुण-साकारके उपासकोंके लिये 'ये' पदका प्रयोग किया है, उसी श्रेणीके निर्गुण-निराकारके उपासकोंके लिये यहाँ 'ये' पदका प्रयोग किया गया है। 'अक्षरम्' पद अविनाशी सच्चिदानन्दघन परब्रह्मका वाचक है (इसकी व्याख्या इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें की जायगी)।जो किसी इन्द्रियका विषय नहीं है, उसे 'अव्यक्त' कहते हैं। यहाँ 'अव्यक्तम्' पदके साथ 'अक्षरम्' विशेषण दिया गया है। अतः यह पद निर्गुणनिराकार ब्रह्मका वाचक है (इसकी व्याख्या इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें की जायगी)। 'अपि' पदसे ऐसा भाव प्रतीत होता है कि यहाँ साकार उपासकोंकी तुलना उन्हीं निराकार उपासकोंसे की गयी है, जो केवल निराकार ब्रह्मको श्रेष्ठ मानकर उसकी उपासना करते हैं। 'तेषां के योगवित्तमाः' -- यहाँ 'तेषाम्' पद सगुण और निर्गुण दोनों प्रकारके उपासकोंके लिये आया है। इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'तेषाम्' पद निर्गुण उपासकोंके लिये आया है, जबकि सातवें श्लोकमें 'तेषाम्' पद सगुण उपासकोंके लिये आया है। इन पदोंसे अर्जुनका अभिप्राय यह है कि इन दो प्रकारके उपासकोंमें कौन-से उपासक श्रेष्ठ हैं।'साकार और निराकारके उपासकोंमें श्रेष्ठ कौन है -- अर्जुनके इस प्रश्नका भगवान्ने जो उत्तर दिया है? उसपर गहरा विचार करनेसे अर्जुनके प्रश्नकी महत्ताका पता चलता है; जैसे --, इस अध्यायके दूसरे श्लोकसे चौदहवें अध्यायके बीसवें श्लोकतक भगवान् अविराम बोलते ही चले गये हैं। तिहत्तर श्लोकोंका इतना लम्बा प्रकरण गीतामें एकमात्र यही है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि भगवान् इस प्रकरणमें कोई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात समझाना चाहते हैं। साधकोंको साकार और निराकार स्वरूपमें एकताका बोध हो, उनके हृदयमें इन दोनों स्वरूपोंको प्राप्त करानेवाले साधनोंका साङ्गोपाङ्ग रहस्य प्रकट हो, सिद्ध भक्तों (गीता 12। 13 -- 19) और ज्ञानियों (गीता 14। 22 -- 25) के आदर्श लक्षणोंसे वे परिचित हों और संसारसे सम्बन्धविच्छेदकी विशेष महत्ता उनकी समझमें आ जाय -- इन्हीं उद्देश्योंको सिद्ध करनेमें भगवान्की विशेष रुचि मालूम देती है। तात्पर्य है कि भगवान्के हृदयमें जीवोंके लिये जो परमकल्याणकारी, अत्यन्त गोपनीय और उत्तमोत्तम भाव थे? उनको प्रकट करवानेका श्रेय अर्जुनके इस भगवत्प्रेरित प्रश्नको ही है। सम्बन्ध--अर्जुनके सगुण और निर्गुण उपासकोंकी श्रेष्ठता-विषयक प्रश्नके उत्तरमें भगवान् निर्णय देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।12.1।। अर्जुन ने कहा -- जो भक्त, सतत युक्त होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।12.1।।उपासनाप्रियाय नमः। । अव्यक्तोपासनाद्भगवदुपासनस्योत्तमत्वं प्रदर्श्य तदुपायं प्रदर्शयत्यस्मिन्नध्याये तदुपासनमपि मोक्षसाधनं प्रतीयते श्रियं वसाना अमृतत्वमायन्भवन्ति सत्या समिथा मितद्रौ [ऋक्सं.7।4।4।4] इति। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते [कठो.3।15] इति च। अव्यक्तं च महतः परम्। महतः परमव्यक्तम् [कठो.3।11] इत्युक्तपरामर्शोपपत्तेः।उपास्य तां श्रियमव्यक्तसंज्ञां भक्त्या मर्त्यो मुच्यते सर्वबन्धैः इति सामवेदे आग्निवेश्यशाखायाम्। महच्च माहात्म्यं तस्या वेदेषूच्यते -- चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते। तस्यां सुपर्णा वृषणा निषेदतुर्यत्र देवा दधिरे भागधेयम्। [ऋक्सं.8।6।16।3] चतुःशिखण्डा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते इति च।अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः इत्यारभ्य अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्। मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं श्रृणोत्युक्तम्। अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि। यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्। अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।।अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वान्तस्समुद्रे। परो दिवा पर एना पृथिव्यै तावती महिना सम्बभूव [ऋक्सं.8।7व.11?12] इत्यादि च। त्वया जुष्ट ऋषिर्भवति देवि त्वया ब्रह्म गतश्रीरुत त्वया [म.ना.13।2] इति च। इति शङ्का कस्यचिद्भवति? अतो जानन्नपि सूक्ष्मयुक्तिज्ञानार्थं पृच्छति -- एवमिति। एवंशब्देन दृष्टश्रुतरूपंमत्कर्मकृत् [11।55] इत्यादिप्रकारश्च परामृश्यते।अव्यक्तं प्रकृतिः।महतः परमव्यक्तं [कठो.3।12] इति प्रयोगात्।यत्तत् त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत् [3।26।10] इति च भागवते। अक्षरं च तत्। अक्षरात्परतः परः [मु.उ.2।1।2] इति श्रुतेः। परं तु ब्रह्म न हि भगवतोऽन्यत्।आनन्दमानन्दमयेऽवसाने सर्वात्मके ब्रह्मणि वासुदेवे [ ] इति भागवते। रूपं चेदृशं साधितं पुरस्तात्। उपासनं च तथैव कार्यम्। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् [ऋक्सं.8।4।17।1श्वे.उ.3।14] इत्यारभ्य तमेवं विद्वानमृत इह भवति [नृ.पू.ता.1।6] नान्यः पन्था अयनाय विद्यते [श्वे.उ.3।8] इति साम्यासा।आदित्यवर्णत्वादिश्च न वृथोपचारत्वेनाङ्गीकार्यः। तथा च सामवेदे सौकरायणश्रुतिः -- स्थाणुर्ह वै प्राजापत्यः स प्रजापतिं पितरमेत्योवाच। मुमुक्षुभिः साधुभिः पूतपापैः किमु ह वै तारकं तारवाच्यम्। ध्यानं च तस्याप्तरुचेः कथं स्याद्ध्येयश्च कः पुरुषोऽलोमपादः इति। तं होवाचैष वै विष्णुस्तारकोऽलोमपादो ध्यानं च तस्याप्तरुचेर्वदामि। सोऽनन्तशीर्षो बहुवर्णः सुवर्णो ध्येयः स वै लोहितादित्यवर्णः। श्यामोऽथ वा हृदये सोऽष्टबाहुरनन्तवीर्योऽनन्तबलः पुराणः इति। अरूपत���वा देस्तु गतिरुक्ता। पुरुषभेदश्च प्रश्नादौ प्रतीयते। त्वां पर्युपासतेये चाप्यक्षरमव्यक्तं इत्यादौ।
Sri Anandgiri
।।12.1।।अशोच्यानित्यादिषु विभूत्यध्यायावसानेष्वध्यायेषु निरुपाधिकस्य ब्रह्मणो ज्ञेयत्वेनानुसंधानमुक्तमिति वृत्तं कीर्तयति -- द्वितीयेति। अतिक्रान्तेषु तत्तदध्यायेषु सोपाधिकस्यापि ब्रह्मणो ध्येयत्वेन प्रतिपादनं कृतमित्याह -- सर्वेति। सर्वस्यापि प्रपञ्चस्य योगो घटना जन्मस्थितिभङ्गप्रवेशनियमनाख्या तत्रैश्वर्यं सामर्थ्यं तेन सर्वत्र ज्ञेये प्रतिबन्धविधुरया ज्ञानशक्त्या विशिष्टस्य सत्त्वाद्युपहितस्य भगवतो ध्यानं तत्र तत्र प्रसङ्गमापाद्य मन्दमध्यमयोरनुग्रहार्थमुक्तमित्यर्थः। एकादशे वृत्तमनुवदति -- विश्वरूपेति। अध्यायान्ते भगवदुपदेशमनुवदति -- तच्चेति। (अतीतानन्तरश्लोकेनोक्तमर्थं परामृशति -- मत्कर्मकृदिति।) यथाधिकारं तारतम्योपेतानि साधनानि नियन्तुमध्यायान्तरमवतारयन्नादौ प्रश्नमुत्थापयति -- अत इति। सोपाधिकध्यानस्य निरुपाधिकज्ञानस्य चोक्तत्वादित्यर्थः। एवं शब्दार्थमुक्त्वा तमनूद्य सततयुक्ता इति भागं विभजते -- एवमिति। ये भक्ता इत्यनूद्य व्याचष्टे -- अनन्येति। मन्दमध्यमाधिकारिणः सगुणशरणानुक्त्वा निर्गुणनिष्ठानुत्तमाधिकारिणो निर्दिशति -- ये चेति। यथा विशेषितमनिर्देश्यं सर्वत्रगमचिन्त्यं कूटस्थमित्यादिवक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टमित्यर्थः। न क्षरत्यश्नुते वेत्यक्षरम्। अव्यक्तमित्येतद्व्याचष्टे -- निरस्तेति। करणागोचरत्वं व्यतिरेकद्वारा स्फोरयति -- यद्धीति। यथा विशेषितमित्युक्तं स्पष्टयति -- शिष्टैश्चेति। पूर्वार्धगतक्रियापदस्यानुषङ्गं सूचयति -- तदिति। सर्वे तावदेते योगं समाधिं विन्दन्तीति योगविदः। के पुनरतिशयेनैषां मध्ये योगविदो योगिन इति पृच्छति -- केऽतिशयेनेति।
Sri Vallabhacharya
।।12.1।।प्रमेयरूपा तद्भक्तिः प्रमेयः पुरुषोत्तमः। अतः प्रमेयमार्गे तु हरिः सेव्यो न चापरः।।1।।अथ पूर्वत्रयदक्षरं वेदविदो वदन्ति [8।11] इत्यादिना विश्वरूपादेरप्यक्षरत्वेन निरूपणश्रवणादक्षरस्य च भगवद्धामपदत्वोक्तौ भेदमिवालक्ष्य तदुभयोपासकविशेषजिज्ञासया भगवन्तमर्जुन उवाच -- एवमिति।मत्कर्मकृत् [11।55] इत्यादिनोक्तप्रकारेण सततं युक्ता योगिनोऽर्पितात्मानो वा भक्ता ये त्वां पुरुषोत्तमं सौम्यरूपं भक्तानुग्रहविग्रहं सर्वविभूतिमूलं निरवधिकातिशयसौन्दर्यसौशील्यसर्वज्ञत्वसत्यसङ्कल्पत्वाद्यनन्तगुणनिधिं सदानन्दमात्रकरपादमुखोदगङ्गं परिपूर्णं स्वेच्छयाऽधिदैविकश्रीभूलीला��िशक्तिभिः सह भुवि प्रादुर्भूतं स्वमायया मानुषाकारं पर्युपासते परिरत्र वर्जनेअपपरी वर्जने [अष्टा.1।4।88] इत्यनुशासनात्। अन्योपासनं परिवर्ज्य त्वत्समीप आसते आसक्ता ये भक्ताः। ये चापि समनन्तरोक्तरूपमक्षरमव्यक्तं पर्युपासते। तेषामुभयेषां मध्ये तव मताः के युक्ततमाः इति प्रश्नः।
Sridhara Swami
।।12.1।।निर्गुणोपासनस्यैवं सगुणोपासनस्य च। श्रेयः कतरदित्येवं निर्णेतुं द्वादशोद्यमः।।1।।पूर्वाध्यायान्तेमत्कर्मकृन्मत्परमः इत्येवं भक्तिनिष्ठस्य श्रेष्ठत्वमुक्तम्।कौन्तेय प्रतिजानीहि इत्यादिना तत्र तस्यैव श्रेष्ठत्वं वर्णितम्? तथातेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इत्यादिनासर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि इत्यादिना च ज्ञाननिष्ठस्य श्रेष्ठत्वमुक्तम्। एवमुभयोः श्रैष्ठ्येऽपि विशेषजिज्ञासया भगवन्तं प्रत्यर्जुन उवाच -- एवमिति। एवं सर्वकर्मार्पणादिना सततं युक्तास्त्वनिष्ठाः सन्तो ये भक्तास्त्वां विश्वरूपं सर्वज्ञं सर्वशक्तिं पर्युपासते ध्यायन्ति? ये चाप्यक्षरं ब्रह्माव्यक्तं निर्विशेषमुपासते तेषामुभयेषां मध्ये अतिशयेन के योगविदः। श्रेष्ठा इत्यर्थः।