Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 7 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् | मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ||११-७||
Transliteration
ihaikasthaṃ jagatkṛtsnaṃ paśyādya sacarācaram . mama dehe guḍākeśa yaccānyad draṣṭumicchasi ||11-7||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.7 Now behold, O Arjuna, in this, My body, the whole universe centred in one including the moving and the unmoving and whatever else thou desirest to see.
।।11.7।। हे गुडाकेश ! आज (अब) इस मेरे शरीर में एक स्थान पर स्थित हुए चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को देखो तथा और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो, उसे भी देखो।।
How to Apply This Verse in Modern Life
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Cultivate a holistic perspective, understanding how individual tasks and departments contribute to a larger organizational or societal goal. Leaders can inspire by demonstrating the interconnectedness of various roles and projects, fostering a sense of shared purpose and unified vision within a complex system.
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❤️ In Relationships
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When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The entire universe, in all its diverse and intricate forms, is a unified manifestation within the Divine, offering profound insight and ultimate reassurance.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.7 इह in this? एकस्थम् centred in one? जगत् the universe? कृत्स्नम् whole? पश्य behold? अद्य now? सचराचरम् with the moving and the unmoving? मम My? देहे in body? गुडाकेश O Gudakesa? यत् whatever? च and? अन्यत् other? द्रष्टुम् to see? इच्छसि (thou) desirest.Commentary Anyat Other whatever else. Your success or defeat in the war? about which you,have entertained a doubt. (Cf.II.6)
Shri Purohit Swami
11.7 Here in Me living as one, O Arjuna, behold the whole universe, movable and immovable, and anything else that thou wouldst see!
Dr. S. Sankaranarayan
11.7. Now, behold the entire universe, including the moving and the unmoving, and whatsoever else you desire to see-all established in one here, in My body, O Gudakesa (Arjuna) !
Swami Adidevananda
11.7 Behold here, O Arjuna, the whole universe with its mobile and immobile things centred in My body and whatever else you desire to see.
Swami Gambirananda
11.7 See now, O gudakesa, O Gudakesa (Arjuna), the entire Universe together with the moving and the non-moving, concentrated at the same place here in My body, as also whatever else you would like to see.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.7।। प्रथम तो भगवान् उत्साही साधक के साहसी मन को इसके लिए प्रशिक्षित करते हैं कि उसमें जानने की उत्सुकता रूपी अक्षय धन का विकास हो। तत्पश्चात् उनका प्रयत्न है कि यह उत्सुकता तीव्र उत्कण्ठा या जिज्ञासा में परिवर्तित हो जाये। इसके लिए ही वे विश्वरूप में दर्शनीय रूपों का उल्लेख करते हैं। इस युक्ति से साधक का मन पूर्ण उत्कटता से एक ही स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। यही इस श्लोक का प्रयोजन है। ध्यानपूर्वक इस श्लोक पर विचार करने से ज्ञात होगा कि यहाँ व्यासजी ने भक्तिशास्त्र में वर्णित भक्ति की रूपरेखा दी है।इहैकस्थम् का अर्थ है यहाँ इसी एक स्थान पर। इन शब्दों के द्वारा श्रीकृष्ण सम्पूर्ण चराचर (जड़ चेतन) जगत को अपने शरीर में दर्शाते हैं। श्रीकृष्ण स्वयं ही इह शब्द को स्पष्ट करते हुए कहते हैं? मेरे शरीर में। सम्पूर्ण चराचर सहित भौतिक जगत् को दबाकर श्रीकृष्ण की देहाकृति में स्थित हुआ दिखलाना था। जैसा कि हम इस अध्याय की प्रस्तावना में देख चुके हैं कि अर्जुन के मन से देश की कल्पना को सर्वथा मुक्त नहीं किया गया था? किन्तु केवल भगवान् श्रीकृष्ण के परिच्छिन्न देह के तुल्य समष्टि आकाश की कल्पना को उसके मन में शेष रखा था। इस मन के द्वारा जब अर्जुन बाहर देखता है? तो उसे भगवान् के शरीर में ही सम्पूर्ण विश्व अपने व्ाविध विस्तार को यथावत् रखते हुए लघु रूप में दिखाई देता है।यद्यपि चराचर शब्द का अर्थ इतना व्यापक है कि उसके उल्लेख से सम्पूर्ण विश्व का निर्देश हो जाता है? किन्तु फिर भी अर्जुन का उत्साह बढ़ाने के लिए वे कहते हैं? और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो? उसे भी देखो। मानव के विशिष्ट स्वभाव के अनुसार अर्जुन का मन अपनी तात्कालिक समस्याओं से चिन्तातुर था? अत स्वाभाविक ही है कि उसकी उत्सुकता भविष्य की घटनाओं को जानने की थी। प्रारम्भ मे उसका प्रयत्न समस्या के समाधान को देखने के लिए अधिक था और अनेकता में व्याप्त एकत्व का साक्षात्कार करने के लिए कम।विभूतियोग के अध्याय में एक परमात्मा को सब में दिखाया गया था? और यहाँ सब को एक परमात्मा में दिखाया जानेवाला है
Swami Ramsukhdas
।।11.7।। व्याख्या--गुडाकेश'--निद्रापर अधिकार प्राप्त करनेसे अर्जुनको 'गुडाकेश' कहते हैं। यहाँ यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तू निरालस्य होकर सावधानीसे मेरे विश्व-रूपको देख। 'इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्, मम देहे'--दसवें अध्यायके अन्तमें भगवान्ने कहा था कि मैं सम्पूर्ण जगत्को एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हूँ। इसीपर अर्जुनके मनमें विश्वरूप देखनेकी इच्छा हुई। अतः भगवान् कहते हैं कि हाथमें घोड़ोंकी लगाम और चाबुक लेकर तेरे सामने बैठे हुए मेरे इस शरीरके एक देश-(अंश-) में चर-अचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख। एक देशमें देखनेका अर्थ है कि तू जहाँ दृष्टि डालेगा, वहीं तेरेको अनन्त ब्रह्माण्ड दीखेंगे। तू मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस, भूत, पशु, पक्षी आदि चलनेफिरनेवाले जङ्गम और वृक्ष, लता घास, पौधा आदि स्थावर तथा पृथ्वी, पहाड़, रेत आदि जडसहित सम्पूर्ण जगत्को 'अद्य'-- अभी, इसी क्षण देख ले, इसमें देरीका काम नहीं है। 'यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि'--भगवान्के शरीरमें सब बातें वर्तमान थीं अर्थात् जो बातें भूतकालमें बीत गयी हैं और जो भविष्यमें बीतनेवाली हैं, वे सब बातें भगवान्के शरीरमें वर्तमान थीं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि तू और भी जो कुछ देखना चाहता है? वह भी देख ले। अर्जुन और क्या देखना चाहते थे अर्जुनके मनमें सन्देह था कि युद्धमें जीत हमारी होगी या कौरवोंकी? (गीता 2। 6) इसलिये भगवान् कहते हैं कि वह भी तू मेरे इस शरीरके एक अंशमें देख ले। विशेष बात जैसे दसवें अध्यायमें भगवान्से 'जो मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जानता है, उसका मेरेमें दृढ़ भक्तियोग हो जाता है' इस बातको सुनकर ही अर्जुनने भगवान्की स्तुति-प्रार्थना करके विभूतियाँ पूछी थीं, ऐसे ही भगवान्से 'मेरे एक अंशमें सारा संसार स्थित है' इस बातको सुनकर अर्जुनने विश्वरूप दिखानेके लिये प्रार्थना की है। अगर भगवान् अथवा कहकर अपनी ही तरफसे 'मेरे किसी एक अंशमें सम्पूर्ण जगत् स्थित है' यह बात न कहते, तो अर्जुन विश्वरूप देखनेकी इच्छा ही नहीं करते। जब इच्छा ही नहीं करते? तो फिर विश्वरूप दिखानेके लिये प्रार्थना कैसे करते? और जब प्रार्थना ही नहीं करते, तो फिर भगवान् अपना विश्वरूप कैसे दिखाते इससे सिद्ध होता है कि भगवान् कृपापूर्वक अपनी ओरसे ही अर्जुनको अपना विश्वरूप दिखाना चाहते हैं। ऐसी बात गीताके आरम्भमें भी आयी है। जब अर्जुनने भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा, तब भगवान्ने रथको पितामह भीष्म और द्रोणाचार्यके सामने खड़ा किया और अर्जुनसे कहा-- इन कुरुवंशियोंको देखो--'कुरून् पश्य' (1। 25)। इसका यही आशय मालूम देता है कि भगवान् कृपापूर्वक गीता प्रकट करना चाहते हैं। कारण कि यदि भगवान् ऐसा न कहते तो अर्जुनको शोक नहीं होता और गीताका उपदेश आरम्भ नहीं होता। तात्पर्य है कि भगवान्ने अपनी तरफसे कृपा करके ही गीताको प्रकट किया है। सम्बन्ध--भगवान्ने तीन श्लोकोंमें चार बार 'पश्य' पदसे अपना रूप देखनेके लिये आज्ञा दी। इसके अनुसार ही अर्जुन आँखें फाड़-फाड़कर देखते हैं और देखना चाहते भी हैं; परन्तु अर्जुनको कुछ भी नहीं दीखता। इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनको न दीखनेका कारण बताते हुए उनको दिव���यचक्षु देकर विश्वरूप देखनेकी आज्ञा देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.7।। हे गुडाकेश ! आज (अब) इस मेरे शरीर में एक स्थान पर स्थित हुए चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को देखो तथा और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो, उसे भी देखो।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.7।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।11.7।।न केवलमादित्यवस्वाद्येव मद्रूपं त्वया द्रष्टुं शक्यं किंतु समस्तं जगदपि मद्देहस्थं द्रष्टुमर्हसीत्याह -- नेत्यादिना। सप्तमीद्वयं मिथः संबध्यते। समासान्तर्गतापि सप्तमी तत्रैवान्विता। यदीच्छसि तर्हीहैव पश्येति संबन्धः।
Sri Vallabhacharya
।।11.7।।किञ्चेहास्मिन्नक्षरस्वरूपे कृत्स्नं जगदेकस्थं पश्येत्यनेनविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इति समर्थितम्। मम स्वरूपभूतेऽक्षरे देहे जगत्कृत्स्नमित्युक्त्वा प्रत्यक्षजगद्दर्शनेनालीकत्वं च निरस्तम्। नहि तदो(दु) पदेष्टुर्भ्रमः कदाचिद्वक्तुं शक्यते? आनर्थक्यप्रसङ्गात् अतएव व्यास आह -- नाभाव उपलब्धेःवैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवत् [ब्र.सू.2।2।28?29] इति।मम देहे इति स्वदेहभूतस्य भूतस्य प्रपञ्चाश्रयत्वमुक्तं यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि तत्सर्वं पश्य।
Sridhara Swami
।।11.7।। किंच -- इहेति। तत्र तत्र परिभ्रमता वर्षकोटिभिरपि द्रष्टुमशक्यं कृत्स्नमपि चराचरसहितं जगदिहास्मिन्मम देहेऽवयवरूपेणैकत्रैव स्थितमद्याधुनैव पश्य। यच्चान्यज्जगदाश्रयभूतं कारणस्वरूपम्। जगतश्चावस्थाविशेषादिकम्। जयपराजयादिकं च यदप्यन्यद्द्रष्टुमिच्छसि तत्सर्वं पश्य।