Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 47 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Grace

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् | तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ||११-४७||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . mayā prasannena tavārjunedaṃ rūpaṃ paraṃ darśitamātmayogāt . tejomayaṃ viśvamanantamādyaṃ yanme tvadanyena na dṛṣṭapūrvam ||11-47||

Word-by-Word Meaning

मयाby Me
प्रसन्नेनgracious
तवto thee
अर्जुनO Arjuna
इदम्this
रूपम्form
परम्supreme
दर्शितम्has been shown
आत्मयोगात्by My own Yogic power
तेजोमयम्full of splendour
विश्वम्universal
अनन्तम्endless
आद्यम्primeval
यत्which
मेof Me
त्वत्from thee
अन्येनby another
not

📖 Translation

English

11.47 The Blessed Lord said O Arjuna, this Cosmic Form has graciously been shown to thee by Me by My own Yogic power; full of splendour, primeval, and infinite, this Cosmic Form of Mine has never been seen before by anyone other than thyself.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।11.47।। हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैंने अपनी योगशक्ति (आत्मयोगात्) के प्रभाव से यह अपना परम तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दर्शाया है, जिसे तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

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Recognize and strive for unique contributions and moments of profound insight in your work. Understand that true breakthroughs often combine dedicated effort with unforeseen opportunities or 'grace', granting a vision previously unseen and positioning you for unparalleled achievement.

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When faced with overwhelming stress or existential doubt, seek a broader, transcendent perspective. Trusting in a universal order or divine grace can reframe individual struggles, providing a profound sense of peace and clarity that comes from understanding a greater, all-encompassing reality.

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When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Through divine grace and boundless power, ultimate truth can be uniquely revealed, offering a transformative vision and profound peace to the receptive seeker.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

11.47 मया by Me? प्रसन्नेन gracious? तव to thee? अर्जुन O Arjuna? इदम् this? रूपम् form? परम् supreme? दर्शितम् has been shown? आत्मयोगात् by My own Yogic power? तेजोमयम् full of splendour? विश्वम् universal? अनन्तम् endless? आद्यम् primeval? यत् which? मे of Me? त्वत् from thee? अन्येन by another? न not? दृष्टपूर्वम् seen before.Commentary Lord Krishna eulogises the Cosmic Form because Arjuna should be regarded to have achieved all his ends by seeing this Cosmic Form.It is also an inducement to all spiritual aspirants to strive to attain this sublime vision. What they should do is explained by the Lord in verse 53 to 55.

Shri Purohit Swami

11.47 Lord Shri Krishna replied: My beloved friend! It is only through My grace and power that thou hast been able to see this vision of splendour, the Universal, the Infinite, the Original. Never has it been seen by any but thee.

Dr. S. Sankaranarayan

11.47. The Bhagavat said Being gracious towards you, I have shown you, O Arjuna, this supreme form, as a result of [Your] concentration on the Self; this form of Mine full of splendour universal , unending and primal, has been never seen before by anybody other than your-self.

Swami Adidevananda

11.47 The Lord said By My grace, O Arjuna this Supreme Form, luminous, universal, infinite, primal, never seen before by anyone but you, has been revealed to you through My own free will.

Swami Gambirananda

11.47 The Blessed Lord said Out of grace, O Arjuna, this supreme, radiant, Cosmic, infinite, primeval form-which (form) of Mine has not been seen before by anyone other than you, has been shown to you by Me through the power of My own Yoga.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।11.47।। स्वयं भगवान् यहाँ स्वीकार करते हैं कि उनके विश्वरूप का दर्शन कर पाना कोई सभी भक्तों का विशेषाधिकार नहीं है। असीम कृपा के सागर भगवान् श्रीकृष्ण के विशेष अनुग्रह के रूप में अर्जुन इस विरले लाभ का आनन्द अनुभव कर सका है। वे यह भी विशेष रूप से कहते हैं कि? यह मेरा तेजोमय अनन्त विश्वरूप तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि गीता के रचियता महर्षि व्यास? यहाँ किसी नये दर्शन की स्थापना और व्याख्या कर रहे हैं? जिसकी सत्यता वे भगवान् से प्रमाणित कराना चाहते है। इस कथन का अभिप्राय केवल इतना ही है कि सार्वभौमिक एकता का यह बौद्धिक परिचय या अनुभव किसी व्यक्ति को उन परिस्थितियों में नहीं हुआ? जैसे कि अर्जुन को युद्धभूमि पर हुआ था। बिखरा हुआ मन? थका हुआ शरीर और मानसिक रूप से पूर्णतया विचलित यह थी अर्जुन की विषादपूर्ण दयनीय दशा। विविध नामरूपमय सृष्टि की अनेकता में एकता को देख समझ सकने के लिए बुद्धि की एकाग्रता की जो अनुकूल स्थिति आवश्यक होती है? उससे अर्जुन मीलों दूर था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने अलौकिक योगशक्ति के प्रभाव से उसे आवश्यक दिव्यचक्षु प्रदान करके? संयोग के एक शान्त क्षण में? उसे विश्वरूप का दर्शन करा दिया।भगवान् अपने अभिप्राय को अगले श्लोक में स्पष्ट करते हैं

Swami Ramsukhdas

।।11.47।। व्याख्या --'मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं दर्शितम्'--हे अर्जुन ! तू बार-बार यह कह रहा है कि आप प्रसन्न हो जाओ (11। 25? 31? 45), तो प्यारे भैया ! मैंने जो यह विराट्रूप तुझे दिखाया है, उसमें विकरालरूपको देखकर तू भयभीत हो गया है, पर यह विकरालरूप मैंने क्रोधमें आकर या तुझे भयभीत करनेके लिये नहीं दिखाया है। मैंने तो अपनी प्रसन्नतासे ही यह विराट्रूप तुझे दिखाया है। इसमें तेरी कोई योग्यता, पात्रता अथवा भक्ति कारण नहीं है। तुमने तो पहले केवल विभूति और योगको ही पूछा था। विभूति और योगका वर्णन करके मैंने अन्तमें कहा था कि तुझे जहाँ-कहीं जो कुछ विलक्षणता दीखे, वहाँ-वहाँ मेरी ही विभूति समझ। इस प्रकार तुम्हारे प्रश्नका उत्तर सम्यक् प्रकारसे मैंने दे ही दिया था। परन्तु वहाँ मैंने,(अथवा पदसे) अपनी ही तरफसे यह बात कही कि तुझे बहुत जाननेसे क्या मतलब? देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ संसार आता है, उस सम्पूर्ण संसारको मैं अपने किसी अंशमें धारण करके स्थित हूँ। दूसरा भाव यह है कि तुझे मेरी विभूति और योगशक्तिको जाननेकी क्या जरूरत है? क्योंकि सब विभूतियाँ मेरी योगशक्तिके आश्रित हैं और उस योगशक्तिका आश्रय मैं स्वयं तेरे सामने बैठा हूँ। यह बात तो मैंने विशेष कृपा करके ही कही थी। इस बातको लेकर ही तेरी विश्वरूप-दर्शनकी इच्छा हुई और मैंने दिव्यचक्षु देकर तुझे विश्वरूप दिखाया। यह तो मेरी कोरी प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता है। तात्पर्य है कि इस विश्वरूपको दिखानेमें मेरी कृपाके सिवाय दूसरा कोई हेतु नहीं है। तेरी देखनेकी इच्छा तो निमित्तमात्र है।'आत्मयोगात्'--इस विराट्रूपको दिखानेमें मैंने किसीकी सहायता नहीं ली, प्रत्युत केवल अपनी सामर्थ्यसे ही तेरेको यह रूप दिखाया है।परम्-- मेरा यह विराट्रूप अत्यन्त श्रेष्ठ है। 'तेजोमयम्' -- यह मेरा विश्वरूप अत्यन्त तेजोमय है। इसलिये दिव्यदृष्टि मिलनेपर भी तुमने इस रूपको दुर्निरीक्ष्य कहा है (11। 17)।'विश्वम्'-- इस रूपको तुमने स्वयं विश्वरूप, विश्वमूर्ते आदि नामोंसे सम्बोधित किया है। मेरा यह रूप सर्वव्यापी है।'अनन्तमाद्यम्'-- मेरे इस विश्वरूपका देश, काल आदिकी दृष्टिसे न तो आदि है और न अन्त ही है। यह सबका आदि है और स्वयं अनादि है। 'यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्'-- तेरे सिवाय मेरे विश्वरूपको पहले किसीने भी नहीं देखा -- यह बात भगवान्ने कैसे कही? क्योंकि रामावतारमें माता कौसल्याजीने और कृष्णावतारमें माता यशोदाजीने तथा कौरवसभामें भीष्म, द्रोण, सञ्जय, विदुर और ऋषि-मुनियोंने भगवान्का विराट्रूप देखा ही था ! इसका उत्तर यह है कि भगवान्ने अपने विराट्रूपके लिये 'एवंरूपः' (11। 48) पद देकर कहा है कि इस प्रकारके भयंकर विश्वरूपको, जिसके मुखोंमें बड़े-बड़े योद्धा, सेनापति आदि जा रहे हैं, पहले किसीने नहीं देखा है।दूसरी बात, अर्जुनके सामने युद्धका मौका होनेसे ऐसा भयंकर विश्वरूप दिखानेकी ही आवश्यकता थी और शूरवीर अर्जुन ही ऐसे रूपको देख सकते थे। परन्तु माता कौसल्या आदिके सामने ऐसा रूप दिखानेकी आवश्यकता भी नहीं थी और वे ऐसा रूप देख भी नहीं सकते थे अर्थात् उनमें ऐसा रूप देखनेकी सामर्थ्य भी नहीं थी। भगवान्ने यह तो कहा है कि इस विश्वरूपको पहले किसीने नहीं देखा, पर वर्तमानमें कोई नहीं देख रहा है -- ऐसा नहीं कहा है। कारण कि अर्जुनके साथ-साथ सञ्जय भी भगवान्के विश्वरूपको देख रहे हैं। अगर सञ्जय न देखते तो वे गीताके अन्तमें यह कैसे कह सकते थे कि भगवान्के अति अद्भुत विराट्रूपका बार-बार स्मरण करके मेरेको बड़ा भारी विस्मय हो रहा है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ (18। 77)। विशेष बात भगवान्के द्वारा '���ैंने अपनी प्रसन्नतासे, कृपासे ही तेरेको यह विश्वरूप दिखाया है -- ऐसा कहनेसे एक विलक्षण भाव निकलता है कि साधक अपनेपर भगवान्की जितनी कृपा मानता है, उससे कई गुना अधिक भगवान्की कृपा होती है। भगवान्की जितनी कृपा होती है, उसको माननेकी सामर्थ्य साधकमें नहीं है। कारण कि भगवान्की कृपा अपार-असीम है; और उसको माननेकी सामर्थ्य सीमित है।   साधक प्रायः अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिमें ही भगवान्की कृपा मान लेता है अर्थात् सत्सङ्ग मिलता है, साधन ठीक चलता है, वृत्तियाँ ठीक हैं, मन भगवान्में ठीक लग रहा है आदिमें वह भगवान्की कृपा मान लेता है। इस प्रकार केवल अनुकूलतामें ही कृपा मानना कृपाको सीमामें बाँधना है, जिससे असीम कृपाका अनुभव नहीं होता। उस कृपामें ही राजी होना कृपाका भोग है। साधकको चाहिये कि वह न तो कृपाको सीमामें बाँधे और न कृपाका भोग ही करे। साधन ठीक चलनेमें जो सुख होता है, उस सुखमें सुखी होना, राजी होना भी भोग है, जिससे बन्धन होता है --'सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ' (गीता 14। 6) सुख होना अथवा सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसके साथ सङ्ग करना, उससे सुखी होना, प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगनेसे गुणातीत होनेमें बाधा लगती है। अतः साधकको बड़ी सावधानीसे इस सुखसे असङ्ग होना चाहिये। जो साधक इस सुखसे असङ्ग नहीं होता अर्थात् इसमें प्रसन्नतापूर्वक सुख लेता रहता है, वह भी यदि अपनी साधनामें तत्परतापूर्वक लगा रहे, तो समय पाकर उसकी उस सुखसे स्वतः अरुचि हो जायगी। परन्तु जो उस सुखसे सावधानीपूर्वक असङ्ग रहता है, उसे शीघ्र ही वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है।  सम्बन्ध --विश्वरूपदर्शनके लिये भगवान्की कृपाके सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है-- इस बातका आगेके श्लोकमें विशेषतासे वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।11.47।। हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैंने अपनी योगशक्ति (आत्मयोगात्) के प्रभाव से यह अपना परम तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दर्शाया है, जिसे तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।11.47।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।11.47।।अर्जुनेन स्थाने हृषीकेशेत्यादिनोक्तस्य भगवतो वचनमवतारयति -- अर्जुनमिति। भगवत्प्रसादैकोपायलभ्यं तद्दर्शनमित्याशयेत्यानाह -- मयेति।

Sri Vallabhacharya

।।11.47।।श्रीभगवानुवाच -- मयेति त्रिभिः। मया सर्वमूलरूपेण स्वयं भगवतांऽशिना कृष्णेन स्वोपनिषत्प्रतिपाद्यस्वरूपेण द्विभुजेन लावण्यजलधिना महामनोरमेन गुणातीतेन सर्ववेदान्तवेद्यचरणेन परतत्त्वेन स्वाश्रितवात्सल्यकरुणावरुणालयेनाचिन्त्यैश्वरयोगेन प्रसन्नेन स्वात्मयोगबलात् परमुत्तमेततदक्षरं विश्वरूपं दर्शितम्। अनेन सदानन्दरूपे श्रीकृष्णे तस्मिन् द्विभुज एवेदं सामर्थ्यं यत्स्वरूपान्तरदर्शनमिति मूलरूपतयाऽवतारित्वादिति ज्ञापितम्। इत्थमेवोक्तभियुक्तैः -- नान्यावतारे सामर्थ्यं यत्कृष्णतनुदर्शनम्। श्रीकृष्ण एव सामर्थ्यं यद्रूपान्तरदर्शनम् इति।

Sridhara Swami

।।11.47।।एवं प्रार्थितः सन् तमाश्वासयन् श्रीभगवानुवाच -- मयेति त्रिभिः। हे अर्चुन? किमिति बिमेषि। यतो मया प्रसन्नेन कृपया तवेदं परमुत्तमं रूपं दर्शितम्। आत्मनो मम योगाद्योगमायासामर्थ्यात्। परत्वमेवाह। तेजोमयं विश्वं विश्वात्मकनन्तमाद्यं च यन्मम रूपं त्वदन्येन त्वादृशाद्भक्तादन्येन न पूर्वं दृष्टं तत्।

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