Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 42 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु | एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ||११-४२||
Transliteration
yaccāvahāsārthamasatkṛto.asi vihāraśayyāsanabhojaneṣu . eko.athavāpyacyuta tatsamakṣaṃ tatkṣāmaye tvāmahamaprameyam ||11-42||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.42 In whatever way I may have insulted Thee for the sake of fun, while at play, reposing, sitting or at meals, when alone (with Thee), O Krishna, or in company that I implore Thee, immeasurable one, to forgive.
।।11.42।। और, हे अच्युत! जो आप मेरे द्वारा हँसी के लिये बिहार, शय्या, आसन और भोजन के समय अकेले में अथवा अन्यों के समक्ष भी अपमानित किये गये हैं, उन सब के लिए अप्रमेय स्वरूप आप से मैं क्षमायाचना करता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Acknowledge and respect the true hierarchy and contributions of colleagues and superiors. Be humble enough to apologize for any casual disrespect or misjudgment, especially when realizing their deeper impact or responsibilities. Do not let familiarity breed contempt for roles or individuals.
🧘 For Stress & Anxiety
Holding onto unacknowledged mistakes or disrespect can be a source of guilt and mental burden. Sincerely seeking forgiveness, even internally or from a higher power, can alleviate stress, foster inner peace, and reduce ego-driven anxieties by cultivating humility.
❤️ In Relationships
Familiarity can sometimes lead to taking loved ones for granted or inadvertently disrespecting them. This verse encourages recognizing such instances and sincerely seeking forgiveness, acknowledging their true worth and the depth of their being, thereby strengthening bonds and repairing unintentional harm.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Realizing the true magnitude of another's being compels humility, an acknowledgment of past disrespect born of ignorance, and a sincere plea for forgiveness to restore harmony and honor.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.42 यत् whatever? च and? अवहासार्थम् for the sake of fun? असत्कृतः disrespected? असि (Thou) art? विहारशय्यासनभोजनेषु while at play? on bed? while sitting or at meals? एकः (when) one? अथवा or? अपि even? अच्युत O Krishna? तत् so? समक्षम् in company? तत् that? क्षामये implore to forgive? त्वाम् Thee? अहम् I? अप्रमेयम् immeasurable.Commentary Arjuna? beholding the Cosmic Form of Lord Krishna? seeks forgiveness for his past familiar conduct. He says? I have been stupid. I have treated Thee with familiarity? not knowing Thy greatness. I have taken Thee as my friend on account of misconception. I have behaved badly with Thee. Thou art the origin of this universe and yet I have joked with Thee. I have taken undue liberties with Thee. Kindly forgive me? O Lord.Tat All those offences.Achyuta He who is unchanging.In company In the presence of others.Aprameyam Immeasurable. He Who has unthinkable glory and splendour.
Shri Purohit Swami
11.42 Whatever insult I have offered to Thee in jest, in sport or in repose, in conversation or at the banquet, alone or in a multitude, I ask Thy forgiveness for them all, O Thou Who art without an equal!
Dr. S. Sankaranarayan
11.42. Whatever disrespect was shown by me to You, to make fun of You in the course of play, or while on the bed, or on the seat, or at meals, either alone, or in the presence of repectable persons - for that I beg pardon of You, the Unconceivable One, O Acyuta !
Swami Adidevananda
11.42 And whatever disrespect has been shown to You in jest, while playing, resting, while sitting or eating, while alone or in the sight of others, O Acyuta - I implore You for forgiveness, You who are incomprehensible.
Swami Gambirananda
11.42 And that You have been discourteously treated out of fun-while walking, while on a bed, while on a seat, while eating, in privacy, or, O Acyuta, even in public, for that I beg pardon of You, the incomprehensible One.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.42।। जब कोई सामान्य व्यक्ति अकस्मात् ही परमात्मा के महात्म्य का परिचय पाता है? तब उसके मन में जिन भावनाओं का निश्चित रूप से उदय होता है? उन्हें इन दो सुन्दर श्लोकों के द्वारा नाटकीय यथार्थता के साथ सामने लाया गया है। अब तक अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण को एक बुद्धिमान् गोपाल से अधिक कुछ नहीं समझता था? जिसे उसने बड़ी उदारता से अपनी राजमैत्री का आश्रय लाभ दिया था। परन्तु? अब श्रीकृष्ण के अनन्तस्वरूप का वास्तविक परिचय पाकर अर्जुन में स्थित जीवभाव उनके समक्ष दृढ़ निष्ठा एवं सम्मान के साथ प्रणिपात करके उनसे दया और क्षमा की याचना करता है।इन दो श्लोकों में अत्यन्त घनिष्ठता का स्पर्श है। यहाँ बौद्धिक दार्शनिक चिन्तन का घनिष्ठ परिचय के भावुक पक्ष के साथ सुन्दर संयोग हुआ है। गीता का प्रयोजन ही यह है कि वेद प्रतिपादित सत्यों की सुमधुर ध्वनि का व्यावहारिक जगत् की सुखद लय के साथ मिलन कराया जाये। घनिष्ठ परिचय के इन भावुक स्पर्शों के द्वारा व्यासजी की कुशल लेखनी? वेदान्त के विचारोत्तेजक महान् सत्यों को? अचानक? अपने घर की बैठक में होने वाले वार्तालाप के परिचित वातावरण में ले आती है। एक घनिष्ठ मित्र के रूप में प्रमाद या प्रेमवश अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा को न जानते हुए उन्हें प्रिय नामों से सम्बोधित किया होगा? जिसके लिए उनसे अब्ा वह क्षमायाचना करता है।क्योंकि
Swami Ramsukhdas
।।11.42।। व्याख्या--[जब अर्जुन विराट् भगवान्के अत्युग्र रूपको देखकर भयभीत होते हैं, तब वे भगवान्के कृष्णरूपको भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं परन्तु जब उनको भगवान् श्रीकृष्णकी स्मृति आती है कि वे ये ही हैं, तब भगवान्के प्रभाव आदिको देखकर उनको सखाभावसे किये हुए पुराने व्यवहारकी याद आ जाती है और उसके लिये वे भगवान्से क्षमा माँगते हैं।] 'सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति'--जो बड़े आदमी होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उनको साक्षात् नामसे नहीं पुकारा जाता। उनके लिये तो 'आप', महाराज आदि शब्दोंका प्रयोग होता है। परन्तु मैंने आपको कभी 'हे कृष्ण' कह दिया, कभी 'हे यादव' कह दिया और कभी हे सखे कह दिया। इसका कारण क्या था? 'अजानता महिमानं तवेदम्' (टिप्पणी प0 603.1) इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमाको और स्वरूपको जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं--ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभावकी तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचा-समझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं। यद्यपि अर्जुन भगवान्के स्वरूपको, महिमाको, प्रभावको पहले भी जानते थे, तभी तो उन्होंने एक अक्षौहिणी सेनाको छोड़कर निःशस्त्र भगवान्को स्वीकार किया था; तथापि भगवान्के शरीरके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड यथावकाश स्थित हैं -- ऐसे प्रभावको, स्वरूपको, महिमाको अर्जुनने पहले नहीं जाना था। जब भगवान्ने कृपा करके विश्वरूप दिखाया, तब उसको देखकर ही अर्जुनकी दृष्टि भगवान्के प्रभावकी तरफ गयी और वे भगवान्को कुछ जानने लगे। उनका यह विचित्र भाव हो गया कि ''कहाँ तो मैं और कहाँ ये देवोंके देव! परन्तु मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक, बिना सोचेसमझे, जो मनमें आया, वह कह दिया--'मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।' बोलनेमें मैंने बिलकुल ही सावधानी नहीं बरती !' वास्तवमें भगवान्की महिमाको सर्वथा कोई जान ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान्की महिमा अनन्त है। अगर वह सर्वथा जाननेमें आ जायगी तो उसकी अनन्तता नहीं रहेगी, वह सीमित हो जायगी। जब भगवान्की सामर्थ्यसे उत्पन्न होनेवाली विभूतियोंका भी अन्त नहीं है, तब भगवान् और उनकी महिमाका अन्त आ ही कैसे सकता है? अर्थात् आ ही नहीं सकता। 'यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु'-- मैंने आपको बराबरीका साधारण मित्र समझकर हँसी-दिल्लगी करते समय, रास्तेमें चलते-फिरते समय, शय्यापर सोते-जागते समय, आसनपर उठते-बैठते समय, भोजन करते समय जो कुछ अपमानके शब्द कहे, आपका असत्कार किया अथवा हे अच्युत ! आप अकेले थे, उस समय या उन सखाओं, कुटुम्बीजनों सभ्य व्यक्तियों आदिके सामने मैंने आपका जो कुछ तिरस्कार किया है, वह सब मैं आपसे क्षमा करवाता हूँ -- '��कोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्'। अर्जुन और भगवान्की मित्रताका ऐसा वर्णन आता है कि जैसे दो मित्र आपसमें खेलते हैं, ऐसे ही अर्जुन भगवान्के साथ खेलते थे। कभी स्नान करते तो अर्जुन हाथोंसे भगवान्के ऊपर जल फेंकते और भगवान् अर्जुनके ऊपर। कभी अर्जुन भगवान्के पीछे दौड़ते तो कभी भगवान् अर्जुनके पीछे दौड़ते। कभी दोनों आपसमें हँसते-हँसाते। कभी दोनों परस्पर अपनी-अपनी विशेष कलाएँ दिखाते। कभी भगवान् सो जाते तो अर्जुन कहते -- 'तुम इतने फैलकर सो गये हो, क्या कोई दूसरा नहीं सोयेगा? तुम अकेले ही हो क्या? कभी भगवान् आसनपर बैठ जाते तो अर्जुन कहते -- 'आसनपर तुम अकेले ही बैठोगे क्या? और किसीको बैठने दोगे कि नहीं ?अकेले ही आधिपत्य जमा लिया! जरा एक तरफ तो खिसक जाओ।' इस प्रकार अर्जुन भगवान्के साथ बहुत ही घनिष्ठताका व्यवहार करते थे (टिप्पणी प0 603.2)। अब अर्जुन उन बातोंको याद करके कहते हैं कि हे भगवन् ! मैंने आपके न जाने कितने-कितने तिरस्कार किये हैं। मेरेको तो सब याद भी नहीं हैं। यद्यपि आपने मेरे तिरस्कारोंकी तरफ खयाल नहीं किया, तथापि मेरे द्वारा आपके बहुत-से तिरस्कार हुए हैं, इसलिये मैं अप्रमेयस्वरूप आपसे सब तिरस्कार क्षमा करवाता हूँ।' भगवान्को'अप्रमेय' कहनेका तात्पर्य है कि दिव्यदृष्टि होनेपर भी आप दिव्यदृष्टिके अन्तर्गत नहीं आते हैं।, सम्बन्ध--अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन भगवान्की महत्ता और प्रभावका वर्णन करके पुनः क्षमा करनेके लिये प्रार्थना करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.42।। और, हे अच्युत! जो आप मेरे द्वारा हँसी के लिये बिहार, शय्या, आसन और भोजन के समय अकेले में अथवा अन्यों के समक्ष भी अपमानित किये गये हैं, उन सब के लिए अप्रमेय स्वरूप आप से मैं क्षमायाचना करता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.42।।एकस्त्वमेव कारयिता? नान्योऽस्त्यथापि।
Sri Anandgiri
।।11.42।।यदयुक्तमुक्तं तत्क्षन्तव्यमित्येव न किंतु यत्परीहासार्थं क्रीडादिषु त्वयि तिरस्करणं कृतं तदपि सोढव्यमित्याह -- यच्चेति। विहरणं क्रीडा व्यायामो वा। शयनं तल्पादिकमासनमास्थायिका सिंहासनादेरुपलक्षणम्। एतेषु विषयभूतेष्विति यावत्। एकशब्दो रहसि स्थितमेकाकिनं कथयतीत्याह -- परोक्षः सन्निति। प्रत्यक्षं परोक्षं वा तदसत्करणं परिभवनं यथा स्यात्तथा यन्मया त्वमसत्कृतोऽसि तत्सर्वमिति योजनामङ्गीकृत्याह -- तच्छब्द इति। क्षमा कारयितव्येत्यत्रापरिमितत्वं हेतुमाह -- अप्रमेयमिति।
Sri Vallabhacharya
।।11.42।।किञ्च तामसकर्मसु मृगयाविहारादिषु स्थितं त्वां तमोगुणयुक्तं पूर्वं ज्ञात्वा मया यदसत्कृतोऽसि तदप्येकोऽहं त्वां साम्प्रतं क्षमां कारयामि।
Sridhara Swami
।।11.42।।किंच -- यच्चेति। हे अच्युत? यच्च परिहासार्थं क्रीडादिषु तिरस्कृतोऽसि। एकः केवलः। सखीन्विना रहसि स्थित इत्यर्थः। अथवा तत्समक्षं तेषां परिहसतां सखीनां समक्षं पुरतोऽपि तत्सर्वमपराधजातं त्वामप्रमेयचिन्त्यप्रभावं क्षामये क्षमां कारयामि।