Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 36 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अर्जुन उवाच | स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च | रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ||११-३६||
Transliteration
arjuna uvāca . sthāne hṛṣīkeśa tava prakīrtyā jagatprahṛṣyatyanurajyate ca . rakṣāṃsi bhītāni diśo dravanti sarve namasyanti ca siddhasaṅghāḥ ||11-36||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.36 Arjuna said It is meet, O Krishna, that the world delights and rejoices in Thy praise; demons fly in fear to all arters and the hosts of the perfected ones bow to Thee.
।।11.36।। अर्जुन ने कहा -- यह योग्य ही है कि आपके कीर्तन से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है। भयभीत राक्षस लोग समस्त दिशाओं में भागते हैं और समस्त सिद्धगणों के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, embodying integrity, truth, and a positive, inspiring vision will naturally attract support and loyalty from colleagues and clients ('the world delights'). Conversely, unethical or fear-driven practices ('demons') will cause disarray and lead to the departure of valuable talent. Strive to be a leader or team member whose presence brings joy and reverence rather than dread.
🧘 For Stress & Anxiety
When faced with overwhelming stress or internal 'demons' of anxiety and self-doubt, focusing on a higher purpose, universal good, or spiritual principles can transform your mental state. Just as the world delights in divine praise, cultivating positive thoughts and actions can dispel inner turmoil, bringing a sense of order, peace, and inner strength, making your 'inner demons' flee.
❤️ In Relationships
In personal relationships, being a person of strong character, integrity, and genuine good intentions will foster trust, affection, and positive connections ('the world delights and rejoices'). Malicious or deceptive behaviors ('demons') inevitably lead to fear, mistrust, and the dissolution of bonds. Cultivate qualities that inspire respect and adoration, drawing others closer and creating harmonious interactions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The universe naturally responds to divine truth and integrity: inspiring joy in the righteous, scattering evil, and earning reverence from the wise.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.36 स्थाने it is meet? हृषीकेश O Krishna? तव Thy? प्रकीर्त्या by praise? जगत् the world? प्रहृष्यति is delighted? अनुरज्यते rejoices? च and? रक्षांसि the demons? भीतानि in fear? दिशः to all arters? द्रवन्ति fly? सर्वे all? नमस्यन्ति bow (to Thee)? च and? सिद्धसङ्घाः the hosts of the perfected ones.Commentary Praise description of the glory of the Lord. The Lord is the object worthy of adortion? love and delight? because He is the Self and friend of all beings.The Lord is the object of adoration? love and delight for the following reason also. He is the primal cause even of Brahma? the Creator of the universe.
Shri Purohit Swami
11.36 Arjuna said: My Lord! It is natural that the world revels and rejoices when it sings the praises of Thy glory; the demons fly in fear and the saints offer Thee their salutations.
Dr. S. Sankaranarayan
11.36. Arjuna said O Lord of sense-organs (Krsna) ! It is appropriate that the universe rejoices and feels exceedingly delighted by the high glory of yours; that in fear the demons fly on all directions; and that the hosts of the perfected ones bow down [to You].
Swami Adidevananda
11.36 Arjuna said Rightly it is, O Krsna, that Your praise should move the world to joy and love. The Raksasas flee in fear on all sides, and all the hosts of Siddhas bow down to You.
Swami Gambirananda
11.36 Arjuna said It is proper, O Hrsikesa, that the world becomes delighted and attracted by Your praise; that the Raksasas, stricken with fear, run in all directions; and that all the groups of the Siddhas bow down (toYou).
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.36।। कविता के भावव्यंजय आकर्षण के द्वारा? एक बार पुन? हमें सम्पत्ति और वैभव से सम्पन्न सुखद राजप्रासाद से उठाकर युद्धभूमि के कोलाहल और आश्चर्यमय विराटरूप की ओर ले जाया जाता है। दृश्य यह है कि अर्जुन दोनों हाथ जोड़े हुए? भयकम्पित और विस्मय से अवरुद्ध कण्ठ से भगवान् की स्तुति कर रहा है। यह चित्र अर्जुन की मनस्थिति का स्पष्ट परिचायक है। ग्यारह श्लोकों के स्तुतिगान का यह खण्ड हिन्दू धर्म में उपलब्ध सर्वोत्तम प्रार्थनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। वस्तुत सामान्य लोगों को यह विदित है कि संकल्पना? सुन्दरता? लय और अर्थ की गम्भीरता की दृष्टि से इससे अधिक श्रेष्ठ किसी सार्वभौमिक प्रार्थना की कल्पना नहीं की जा सकती है।इस खण्ड में? हम देखते हैं कि अर्जुन की तत्त्वदर्शन की क्षमता शनैशनै इस विराट रूप के पीछे दिव्य अनन्त सत्य को पहचान रही है। जब कोई व्यक्ति दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख रहा होता है? तब सामान्यत उसे दर्पण की सतह का भान भी नहीं होता है? परन्तु यदि वह ध्यान उस सतह पर केन्द्रित करे तो उसके लिए वह प्रतिबिम्ब प्राय लुप्तसा ही हो जाता है। यहाँ भी? अर्जुन जब तक उस विश्वरूप के प्रत्येक रूप को ही देखने में व्यस्त रहा? तब तक इस विशाल रूप के सारतत्त्व अनन्त स्वरूप को वह नहीं पहचान सका। अब इस खण्ड से यह स्पष्ट होता है कि अर्जुन ने विराट रूप के वास्तविक सत्य और अर्थ को पहचानना प्रारम्भ कर दिया था।
Swami Ramsukhdas
।।11.36।। व्याख्या--[संसारमें यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति अत्यन्त भयभीत हो जाता है, उससे बोला नहीं जाता। अर्जुन भगवान्का अत्युग्र रूप देखकर अत्यन्त भयभीत हो गये थे। फिर उन्होंने इस (छत्तीसवें) श्लोकसे लेकर छियालीसवें श्लोकतक भगवान्की स्तुति कैसे की? इसका समाधान यह है कि यद्यपि अर्जुन भगवान्के अत्यन्त उग्र (भयानक) विश्वरूपको देखकर भयभीत हो रहे थे, तथापि वे भयभीत होनेके साथ-साथ हर्षित भी हो रहे थे, जैसा कि अर्जुनने आगे कहा है -- 'अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे' (11। 45)। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन इतने भयभीत नहीं हुए थे, जिससे कि वे भगवान्की स्तुति भी न कर सकें।] 'हृषीकेश'--इन्द्रियोंका नाम 'हृषीक' है, और उनके 'ईश' अर्थात् मालिक भगवान् हैं। यहाँ इस सम्बोधनका तात्पर्य है कि आप सबके हृदयमें विराजमान रहकर इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाले हैं। 'तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च'--संसारसे विमुख होकर आपको प्रसन्न करनेके लिये भक्तलोग आपके नामोंका, गुणोंका कीर्तन करते हैं, आपकी लीलाके पद गाते हैं, आपके चरित्रोंका कथन और श्रवण करते हैं, तो इससे सम्पूर्ण जगत् हर्षित होता है। तात्पर्य यह है कि संसारकी तरफ चलनेसे तो सबको जलन होती है,परस्पर रागद्वेष पैदा होते हैं, पर जो आपके सम्मुख होकर आपका भजनकीर्तन करते हैं, उनके द्वारा मात्र जीवोंको शान्ति मिलती है, मात्र जीव प्रसन्न हो जाते हैं उन जीवोंको पता लगे चाहे न लगे, पर ऐसा होता है।जैसे भगवान् अवतार लेते हैं तो सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम, जड-चेतन जगत् हर्षित हो जाता है अर्थात् वृक्ष, लता आदि स्थावर; देवता, मनुष्य, ऋषि, मुनि, किन्नर, गन्धर्व, पशु, पक्षी आदि जङ्गम; नदी, सरोवर आदि जड--सब-के-सब प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे ही भगवान्के नाम, लीला, गुण आदिके कीर्तनका सभीपर असर पड़ता है और सभी हर्षित होते हैं।भगवान्के नामों और गुणोंका कीर्तन करनेसे जब मनुष्य हर्षित हो जाते हैं अर्थात् उनका मन भगवान्में तल्लीन हो जाता है, तब (भगवान्की तरफ वृत्ति होनेसे) उनका भगवान्में अनुराग, प्रेम हो जाता है। 'रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति'--जितने राक्षस हैं; भूत, प्रेत, पिशाच हैं, वे सब-के-सब आपके नामों और गुणोंका कीर्तन करनेसे, आपके चरित्रोंका पठन-कथन करनेसे भयभीत होकर भाग जाते हैं (टिप्पणी प0 599)।राक्षस, भूत, प्रेत आदिके भयभीत होकर भाग जानेमें भगवान्के नाम, गुण आदि कारण नहीं हैं, प्रत्युत उनके अपने खुदके पाप ही कारण हैं। अपने पापोंके कारण ही वे पवित्रोंमें महान् पवित्र और मङ्गलोंमें महान् मङ्गलस्वरूप भगवान्के गुणगानको सह नहीं सकते और जहाँ गुणगान होता है, वहाँ वे टिक नहीं सकते। अगर उनमेंसे कोई टिक जाता है तो उसका ���ुधार हो जाता है, उसकी वह दुष्ट योनि छूट जाती है और उसका कल्याण हो जाता है। 'सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः'--सिद्धोंके. सन्तमहात्माओंके और भगवान्की तरफ चलनेवाले साधकोंके जितने समुदाय हैं, वे सब-के-सब आपके नामों और गुणोंके कीर्तनको तथा आपकी लीलाओंको सुनकर आपको नमस्कार करते हैं।यह ध्यान रहे कि यह सब-का-सब दृश्य भगवान्के नित्य, दिव्य, अलौकिक विराट्रूपमें ही है। उसीमें एक-एकसे विचित्र लीलाएँ हो रही हैं। 'स्थाने'--यह सब यथोचित ही है और ऐसा ही होना चाहिये तथा ऐसा ही हो रहा है। कारण कि आपकी तरफ चलनेसे शान्ति, आनन्द, प्रसन्नता होती है, विघ्नोंका नाश होता है, और आपसे विमुख होनेपर दुःख-ही-दुःख, अशान्ति-ही-अशान्ति होती है। तात्पर्य है कि आपका अंश जीव आपके सम्मुख होनेसे सुख पाता है, उसमें शान्ति, क्षमा, नम्रता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं और आपके विमुख होनेसे दुःख पाता है -- यह सब उचित ही है।यह जीवात्मा परमात्मा और संसारके बीचका है। यह स्वरूपसे तो साक्षात् परमात्माका अंश है और प्रकृतिके अंशको इसने पकड़ा है। अब यह ज्यों-ज्यों प्रकृतिकी तरफ झुकता है, त्यों-ही-त्यों इसमें संग्रह और भोगोंकी इच्छा बढ़ती है। संग्रह और भोगोंकी प्राप्तिके लिये यह ज्योंज्यों उद्योग करता है, त्यों-ही-त्यों इसमें अभाव, अशान्ति, दुःख, जलन, सन्ताप आदि बढ़ते चले जाते हैं। परन्तु संसारसे विमुख होकर यह जीवात्मा ज्यों-ज्यों भगवान्के सम्मुख होता है, त्यों-ही-त्यों यह आनन्दित होता है और इसका दुःख मिटता चला जाता है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें स्थाने पदसे जो औचित्य बताया है, उसकी आगेके चार श्लोकोंमें पुष्टि करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.36।। अर्जुन ने कहा -- यह योग्य ही है कि आपके कीर्तन से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है। भयभीत राक्षस लोग समस्त दिशाओं में भागते हैं और समस्त सिद्धगणों के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.36।।यदेतद्वक्ष्यमाणं तत्स्थाने युक्तमेवेत्यर्थः। अग्नीषोमाद्यन्तर्यामितया जगद्धर्षणादेर्हृषीकेशः? केशत्वं त्वंशूनां तन्नियतत्वादेः? प्रमाणं तुशशिसूर्यनेत्रं [11।19] इत्यत्रोक्तम्? हृषीकाणामिन्द्रियाणामीशत्वाच्च हृषीकेशः? तेषां विशेषतः ईशत्वं च यः प्राणे तिष्ठन् [बृ.उ.3।7।16] इत्यादौ प्रसिद्धम्।न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे इत्यादिप्रयोगाच्च। इतरोऽर्थो मोक्षधर्मे सिद्धःसूर्याचन्द्रमसौ शश्वत्केशैर्मे अंशुसंज्ञितैः। बोधयन् स्थापयंश्चैव जगदुत्पद्यते पृथक्। बोधनात्स्थापनाच्चैव जगतो हर्षसम्भवात्। अग्नीषोमकृतैरेभिः कर्मभिः पाण्डुनन्दन। हृषीकेशो महेशानो वरदो लोकभावनः इति च।
Sri Anandgiri
।।11.36।।किं तदर्जुनो भगवन्तं प्रति सगद्गदं वचनमुक्तवानिति तदाह -- अर्जुन इति। विषयविशेषणत्वमेव व्यनक्ति -- युक्त इति। भगवतो हर्षादिविषयत्वं युक्तमित्यत्र हेतुमाह -- यत इति। तव प्रकीर्त्या हर्षवदनुरागं च गच्छति जगदित्याह -- तथेति। तच्चेत्यनुरागगमनम्। रक्षःसु जगदेकदेशभूतेषु प्रतिपक्षेषु कुतो जगतो भवति हर्षानुरागावित्याशङ्क्याह -- किञ्चेति। इतश्च जगतो भगवति हर्षादि युक्तमित्याह -- सर्व इति।
Sri Vallabhacharya
।।11.36।।स्थाने इत्येकादशभिः प्रार्थयन्नाह फाल्गुनः। षड्भिर्गुणैस्त्रिभिर्युक्तं भगवन्तं गुणातिगम्।।स्थाने इत्यत्र प्रकीर्त्या युतं प्रार्थयति।स्थाने इत्यव्ययम्। युक्तमित्यर्थः। जगत्सर्वमनुरज्यते प्रहृष्यति च तव प्रकीर्त्या। अहं त्वधुना बिभेमीति द्योतयति। अयं श्लोको रक्षोघ्नमन्त्रशास्त्रे प्रसिद्धः।
Sridhara Swami
।।11.36।। स्थान इत्येकादशभिरर्जुनस्योक्तिः। स्थान इत्यव्ययं युक्तमित्यस्मिन्नर्थे। हे हृषीकेश? यत एवं त्वमद्भुतप्रभावो भक्तवत्सलश्च अतस्तव प्रकीर्त्या माहात्म्यसंकीर्तनेन न केवलमहमेव प्रहृष्यामि किंतु जगत्सर्वं प्रहृष्यति प्रकर्षेण हर्षं प्राप्नोति एतत्तु स्थाने युक्तमित्यर्थः। तथा जगदनुरज्यतेऽनुरागं चोपैति इति यत्? तथा रक्षांसि भीतानि सन्ति? दिशःप्रति द्रवन्ति पलायन्त इति यत्? सर्वे योगतपोमन्त्रादिसिद्धानां सङ्घा नमस्यन्ति प्रणमन्तीति यत्? एतच्च स्थाने युक्तमेव। न चित्रमित्यर्थः।