Bhagavad Gita Chapter 11 Verse 31 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद | विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ||११-३१||
Transliteration
ākhyāhi me ko bhavānugrarūpo namo.astu te devavara prasīda . vijñātumicchāmi bhavantamādyaṃ na hi prajānāmi tava pravṛttim ||11-31||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
11.31 Tell me, who Thou art, so fierce of form. Salutations to Thee, O God Supreme: have mercy. I desire to know Thee, the original Being. I know not indeed Thy working.
।।11.31।। (कृपया) मेरे प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से) जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When facing an overwhelming project, an unpredictable market, or challenging leadership, humbly seek to understand the underlying dynamics and motives (the 'why' and 'how') rather than just reacting to the superficial difficulties. Acknowledge what you don't know and be open to learning or seeking expert guidance to navigate complexity.
🧘 For Stress & Anxiety
When overwhelmed by anxiety or fear (the 'fierce form' of stress), acknowledge its presence and seek to understand its root causes instead of being paralyzed. Practice humility by accepting that some things are beyond your control, and cultivating surrender to the larger flow of life can help alleviate the mental burden. Seek counsel or spiritual guidance when feeling lost.
❤️ In Relationships
When a relationship becomes difficult or a person's behavior seems confusing or 'fierce,' humbly seek to understand their perspective, motivations, and underlying circumstances. Instead of making assumptions or reacting emotionally, ask clarifying questions with an open heart to bridge the gap in understanding and foster empathy and compassion.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“When confronted with overwhelming and incomprehensible realities, humbly seek understanding and surrender to the unknown rather than succumbing to fear.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
11.31 आख्याहि tell? मे me? कः who (art)? भवान् Thou? उग्ररूपः fierce in form? नमः salutation? अस्तु be? ते to Thee? देववर O God Supreme? प्रसीद have mercy? विज्ञातुम् to know? इच्छामि (I) wish? भवन्तम् Thee? आद्यम् the original Being? न not? हि indeed? प्रजानामि (I) know? तव Thy? प्रवृत्तिम् doing.No Commentary.
Shri Purohit Swami
11.31 Tell me then who Thou art, that wearest this dreadful Form? I bow before Thee, O Mighty One! Have mercy, I pray, and let me see Thee as Thou wert at first. I do not know what Thou intendest.
Dr. S. Sankaranarayan
11.31. Please, tell me who You are with a terrible form; O the Best of gods ! Salutation to You, please be merciful. I am desirious of knowing You, the Primal One in detail; for I do not clearly comprehend Your behaviour.
Swami Adidevananda
11.31 Tell me who You are with this terrible form? Salutation to You, O Supreme God. Be gracious. I desire to know You, the Primal One. I do not know Your activity.
Swami Gambirananda
11.31 Tell me who You are, fierce in form. Salutation be to you, O supreme God; be gracious. I desire to fully know You who are the Prima One. For I do not understand Your actions!
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।11.31।। इस अवसर पर अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति की पवित्रता एवं दिव्यता को समझ पाता है। उससे अनुप्रमाणित हुआ सम्मान के साथ नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम करता है? जिन्हें अब तक वह केवल वृन्दावन के गोपाल के रूप में ही पहचानता था। यद्यपि वह बुद्धिमान था? परन्तु उसके समक्ष उपस्थित हुआ यह दृश्य उसके लिए बहुत अधिक विशाल था। उसे पूर्णरूप से देखना और उसका विश्लेषण करके उसे आत्मसात् करना अत्यन्त कठिन था। अब केवल वह यही कर सकता है कि अपने आप को भगवान् के चरणों में समर्पित करके उन्हीं से विनती करे कि? आप मुझे बताइये कि आप कौन हैंअपनी जिज्ञासा को और अधिक ठोस आकार देकर अर्जुन सूचित करता है कि वह अपने प्रश्न का उत्तर शीघ्र ही चाहता है? मैं आपको जानना चाहता हूँ। यह सुविदित तथ्य है कि अध्यात्मशास्त्र के ग्रन्थों में सत्य के ज्ञान के लिए प्रखर जिज्ञासा को अत्यन्त महत्व का स्थान दिया गया है? क्योंकि वही वास्तव में साधकों की प्रेरणा होती है। परन्तु यहाँ अर्जुन का मन अपनी तात्कालिक समस्या या चुनौती के कारण व्याकुल था? इसलिये ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह? वास्तव में? इस दृश्य के वास्तविक दिव्य सत्य को जानना चाहता है। उसकी यह जिज्ञासा अपनी भावनाओं से अतिरंजित है और उसके साथ ही उसमें युद्ध परिणाम को जानने की व्याकुलता भी है। यह बात्ा उसके इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि? मैं आपके प्रयोजन को नहीं जान पा रहा हूँ। उसकी जिज्ञासा का अभिप्राय यह है कि? इस भयंकर रूप को धारण करके अर्जुन को कौरवों का विनाश दिखाने में भगवान् का क्या उद्देश्य है जब वह किसी घटना के घटने की तीव्रता से कामना कर रहा है और उसके समक्ष ऐसे लक्षण उपस्थित होते हैं? जो युद्ध में उसकी निश्चित विजय की भविष्यवाणी कर रहे हैं?तो वह दूसरों से उसकी पुष्टि चाहता है। यहाँ अर्जुन उसी घटना को देख रहा है? जिसे वह घटित होते देखना चाहता है अत वह स्वयं भगवान् के मुख से ही उसकी पुष्टि चाहता है। इसलिये उसका यह प्रश्न है।सत्य की ही एक अभिव्यक्ति है विनाश। भगवान् उसी रूप में अपना परिचय कराते हुए घोषणा करते हैं कि
Swami Ramsukhdas
।।11.31।। व्याख्या--'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद'--आप देवरूपसे भी दीख रहे हैं और उग्ररूपसे भी दीख रहे हैं; तो वास्तवमें ऐसे रूपोंको धारण करनेवाले आप कौन हैं? अत्यन्त उग्र विराट्रूपको देखकर भयके कारण अर्जुन नमस्कारके सिवाय और करते भी क्या? जब अर्जुन भगवान्के ऐसे विराट्रूपको समझनेमें सर्वथा असमर्थ हो गये, तब अन्तमें कहते हैं कि हे देवताओंमें श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है।भगवान् अपनी जीभसे सबको अपने मुखोंमें लेकर बारबार चाट रहे हैं, ऐसे भयंकर बर्तावको देखकर अर्जुन प्रार्थना करते हैं कि आप प्रसन्न हो जाइये।'विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्'--भगवान्का पहला अवतार विराट्-(संसार-) रूपमें ही हुआ था। इसलिये अर्जुन कहते हैं कि आदिनारायण ! आपको मैं स्पष्टरूपसे नहीं जानता हूँ। मैं आपकी इस प्रवृत्तिको भी नहीं जानता हूँ कि आप यहाँ क्यों प्रकट हुए हैं? और आपके मुखोंमें हमारे पक्षके तथा विपक्षके बहुत-से योद्धा प्रविष्ट होते जा रहे हैं, अतः वास्तवमें आप क्या करना चाहते हैं? तात्पर्य यह हुआ कि आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं-- इस बातको मैं जानना चाहता हूँ और इसको आप ही स्पष्टरूपसे बताइये। एक प्रश्न होता है कि भगवान्का पहले अवतार विराट्-(संसारके) रूपमें हुआ और अभी अर्जुन भगवान्के किसी एक देशमें विराट्रूप देख रहे हैं --ये दोनों विराट्रूप एक ही हैं या अलग-अलग? इसका उत्तर यह है कि वास्तविक बात तो भगवान् ही जानें, पर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुनने जो विराट्रूप देखा था, उसीके अन्तर्गत यह संसाररूपी विराट्रूप भी था। जैसे कहा जाता है कि भगवान् सर्वव्यापी हैं, तो इसका तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि भगवान् केवल सम्पूर्ण संसारमें ही व्याप्त हैं, प्रत्युत भगवान् संसारसे बाहर भी व्याप्त हैं। संसार तो भगवान्के किसी अंशमें है तथा ऐसी अनन्त सृष्टियाँ भगवान्के किसी अंशमें हैं। ऐसे ही अर्जुन जिस विराट्रूपको देख रहे हैं, उसमें यह संसार भी है और इसके सिवाय और भी बहुत कुछ है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें अर्जुनने प्रार्थनापूर्वक जो प्रश्न किया था, उसका यथार्थ उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Tejomayananda
।।11.31।। (कृपया) मेरे प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से) जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।11.31।।धर्मान्तरज्ञानार्थमेव को भवानिति पृच्छति -- आख्याहीति। यथा कश्चित्कञ्चिन्नामादिकं जानन्नपि जातिज्ञानार्थं पृच्छति कस्त्वमिति। यदि त्वमेव न जानाति तर्हिविष्णो [11।30] इत्येव सम्बोधनं न स्यात्त्वमक्षरं [11।18] इत्यादि च।
Sri Anandgiri
।।11.31।।भगवद्रूपस्यार्जुनेन दृष्टपूर्वत्वात्तस्य तस्मिन्न जिज्ञासेत्याशङ्क्याह -- यत इति। उपदेशं शुश्रूषमाणेनोपदेशकर्तुः प्रह्वीभवनं कर्तव्यमिति सूचयति -- नमोस्त्विति। क्रौर्यत्यागमर्थयते -- प्रसादमिति। त्वमेव मां जानीषे किमर्थमित्थमिदानीमर्थयसे मदीयां चेष्टां दृष्ट्वा तथैव प्रतिपद्यस्वेत्याशङ्क्याह -- न हीति।
Sri Vallabhacharya
।।11.31।।अतस्त्वमाख्याहि। को भवानुग्ररूपो दृश्यसे हे देववर प्रसीदेति स्वस्य भीतत्वं सूचयति। एवं च त्वामाद्यं पुरुषं भयङ्कराकारेण वर्तमानं सर्वविलक्षणं विज्ञातुमिच्छामि यतस्तव प्रवृत्तिं च न जानामि ततो ब्रूहि।
Sridhara Swami
।।11.31।।यत एवं तस्मात् -- आख्याहीति। भवानुग्ररूपः क इत्याख्याहि कथय। तुभ्यं नमोऽस्तु। हे देववर? प्रसीद प्रसन्नो भव। भवन्तमाद्यं पुरुषं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं चेष्टां किमर्थमेवं प्रवृत्तोऽसीति न जानामि। एवंभूतस्य तव प्रवृत्तिं वार्तामपि न जानामीति वा।